Sunday, February 2, 2025
Sunday, February 2, 2025




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमसामाजिक न्यायक्या प्रचंड प्रतिभा के धनी रचनाकार चुनारी लाल मौर्य जातिवाद के शिकार...

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

क्या प्रचंड प्रतिभा के धनी रचनाकार चुनारी लाल मौर्य जातिवाद के शिकार हुए

बीसवीं सदी के एक महत्वपूर्ण लेकिन धूल-धूसरित कवि चुनारी लाल कई उपनामों से लिखते थे। हालांकि उनका एक काव्य-संग्रह प्रकाशित हुआ और ढेरों पांडुलिपियाँ अभी भी अप्रकाशित हैं। उनकी कविताओं और गद्य में व्यंग्य की गहरी मार है। न केवल कवि बल्कि एक पत्रकार और आंदोलनकारी के रूप में चुनारी लाल ने बड़ी भूमिका निभाई। वे अक्खड़मिजाज और स्वाभिमानी व्यक्ति थे। मात्र पचास साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गए इस कवि की उपेक्षा जातिवादी कारणों से भी हुई। ओमप्रकाश अमित एक आकलन ।

 

क्या आप चुनारी लाल को जानते हैं? शायद न जानते हों लेकिन मैं बता दूँ कि चुनारी लाल का जन्म चुनार में हुआ था और वे अपनी तरह के अनूठे  साहित्यकार थे। उनकी रचनाओं से गुजरते हुये लगता है कि उनके भीतर अपने समय की सामाजिक विकृतियों और मानवीय प्रवृत्तियों को लेकर गहरा असंतोष था। अब तक उनकी एक ही किताब छप सकी है और दर्जनों रचनाएँ अभी तक अप्रकाशित हैं।

इससे भी ज्यादा अफ़सोसनाक पहलू यह है कि जब चुनारी लाल के बड़े बेटे राजेंद्र प्रसाद ने परचून की दुकान खोली तो अपने पिता की पांडुलिपियों को फाड़ कर पुड़िया बांधते थे। इससे पहले उन्होंने कई किलो पांडुलिपियाँ कबाड़ी को बेच दी थी। चुनारी लाल के मझले पुत्र कुशवाहा दीप मौर्य उर्फ पप्पू जी ने बताया कि जब मुझे इन बातों का पता चला तो तुरंत अपने भाई के यहाँ से बची-खुची पांडुलिपियाँ ले आया।

बेची गई पांडुलिपियों के लिए जब वह उस कबाड़ी के पास गए तो उसने बताया कि वह सब बीएचयू के एक अध्यापक लक्ष्मीकान्त श्रीवास्तव खरीद ले गए। पप्पू जी ने कई बार कोशिश की कि उन्हें वे पांडुलिपियाँ मिल जाएँ लेकिन नहीं मिल सकीं।

अपने पैतृक मकान के पास चुनारी लाल के मझले पुत्र कुशवाहा दीप मौर्य उर्फ पप्पू जी

उल्लेखनीय है कि पप्पू जी अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए बंगलोर की एक कंपनी में नौकरी करते हैं और वर्ष में कुछ दिनों के लिए चुनार आ पाते हैं। इसलिए अपने पिता की पांडुलिपियों को पाने में वह सफल नहीं हो पाये। लक्ष्मीकान्त श्रीवास्तव अब दिवंगत हो चुके हैं लिहाजा चुनारी लाल की रचनाओं का वापस मिल पाना लगभग नामुमकिन है।

फिलहाल चुनारी लाल के एक मात्र प्रकाशित काव्य संग्रह ‘बिगुल’ के अलावा अपने बड़े भाई के चंगुल से पप्पू जी द्वारा बचाई गई पांडुलिपियाँ ही शेष हैं। पप्पू जी इन्हें प्रकाशित करने के लिए जी-जान से प्रयास कर रहे हैं। वे हर साल 24 दिसंबर को अपने पिता की याद में कार्यक्रम कराते हैं। पिछले साल 24 दिसंबर को भी यह कार्यक्रम सम्पन्न हुआ जिसमें चुनार के अनेक गण्यमान लोग शामिल हुये।

कौन थे चुनारी लाल?

चुनार नाम सुनकर लगता है कि लोगों ने उनको इसी वजन पर चुनारी लाल कहना शुरू कर दिया होगा लेकिन वास्तव में चुनारी लाल ने यह नाम स्वयं अपनाया था। उनकी जीवन यात्रा अत्यंत विविधतापूर्ण है जिसमें उनकी रचनात्मक बेचैनी लगातार दिखती है। एक कवि के रूप में उन्होंने न केवल प्रचुर संख्या में कवितायें रची बल्कि अलग-अलग उपनामों से भी लिखते रहे।

चुनार के एक बुजुर्ग साहित्यकार डॉ सत्यवान बताते हैं कि ‘उनके कई उपनाम रहे हैं। उन्होंने अलग-अलग समय में अनेक उपनामों से साहित्य सृजन किया। उदय, चुनारी लाल, कड़क मिर्जापुरी, अगिया बैताल, संगतराश तुर्रावी, गगन बिहारी और मणिलाल के नाम से उन्होंने लिखा। हालांकि अब अपने शहर में चुनारी लाल के नाम से ही सर्वज्ञात हैं।’

चुनारी लाल का वास्तविक नाम चित्रकूट लाल था जिसे बिगाड़कर चिरकुट लाल कहा जाने लगा। उनका जन्म मिर्ज़ापुर जिले के चुनार कस्बे में 21 जून 1923 ईस्वी में हुआ था।  उनके पिता का नाम गोविंद कुशवाहा और माता का नाम कुंती देवी था।

कहा जाता है कि गोविंद कुशवाहा को कई संतानें हुई थीं, किंतु कोई भी जीवित न बचता था इसलिए पड़ोसियों और रिश्तेदारों की सलाह पर उन्होंने एक टोटका आजमाया। इसके अनुसार बच्चे को फटे-चिथड़े कपड़ों में रखा जाने लगा तथा नाम बिगाड़ कर चिरकुट लाल और चिरकुटवा बुलाया जाने लगा। इस प्रकार चुनारी लाल और उनकी दो बहनों का जीवन बच गया।

गोविंद कुशवाहा एक प्रसिद्ध संगतराश थे जिनकी कारीगरी बहुत प्रभावशाली थी। कुशवाहा दीप मौर्य बताते हैं इनके दादा गोविंद कुशवाहा को सन 1924 25 में उम्दा कारीगरी के लिए अंग्रेजों के द्वारा ‘श्रेष्ठ संगतराश’ का प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया गया था जिसकी प्रति आज भी सुरक्षित है।

चुनारी लाल की प्राथमिक शिक्षा चुनार में हुई और बाद में उन्होंने क्वींस कॉलेज वाराणसी से इंटरमीडिएट तक पढ़ाई पूरी की। लेकिन अपनी अक्खड़ता और स्पष्टवादी सोच  के चलते उनकी किसी से नहीं बनी जिससे वह हर जगह से कटते चले गए।

आजीविका के लिए संघर्ष और काव्यात्मक उद्देश्यों की खोज

चुनारी लाल का पारिवारिक व्यवसाय पत्थर पर नक्काशी का था लेकिन उन्होंने इसमें कोई दिलचस्पी नहीं ली। वह सेना में भर्ती हो गए। परंतु कुछ ही समय बाद उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी। बाद में उन्होंने रिहंद प्राइमरी पाठशाला पिपरी, तुर्रा (तत्कालीन मीरजापुर और अब सोनभद्र) में अध्यापन का कार्य किया था। लेकिन अपने अक्खड़ मिजाज़ के कारण किसी बात को लेकर किसी से उनकी भिड़ंत तो हो गई, जिससे इन्होंने अध्यापन कार्य से भी त्यागपत्र दे दिया ।

बनारस अपने साहित्यिक मित्रों के साथ चुनारी लाल (दाएँ से दूसरे)

इस बीच वह कवितायें करने लगे थे और अन्याय के पक्ष में खड़े होना अपना फर्ज़ समझते थे। उन्हीं दिनों रेनूकूट में मज़दूरों का आंदोलन चल रहा था और चुनारी लाल उसमें कूद पड़े। मजदूरों को संगठित करने के लिए काम करते हुये वह समाजवादी विचारों के संपर्क में आए और उनकी कविताओं में सर्वहारा चेतना का विस्तार होने लगा। उनके नेतृत्व से मजदूरों के अधिकारों की आवाज बुलंद हुई और वह रेनूकूट के एक लोकप्रिय व्यक्तित्व बन गए।

यहीं पर रहते हुये उन्होंने ‘स्वतंत्रता संग्राम सेनानी’ नाम के साप्ताहिक पत्रिका का भी संपादन एवं प्रकाशन का कार्य किया ।  हालाँकि  इसके दूसरे ही अंक के समय उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में उनसे माफीनामा लिखकर देने के लिए दबाव बनाए जाने लगा, किंतु उन्होंने कहा मेरी गलती ही क्या है कि मैं माफी माँगू? अगर मैंने सही काम किया है तो माफी क्योंकर माँगू? जबकि उनके साथ के कुछ लोग माफीनामा देकर छूट गए थे, किंतु अन्याय के आगे झुकना और माफी माँगना चुनारी लाल गंवारा नहीं था।

कुच्छ साल बाद वे चुनार लौट आए और ‘शबरी’ नामक पत्रिका का संपादन करने लगे। उल्लेखनीय है कि एक समय उन्होंने चुनार से हस्तलिखित समाचार पत्र का प्रकाशन और वितरण का कार्य भी बड़े चाव से किया था।

चुनारी लाल जुनूनी व्यक्ति थे और जिंदगी को जोखिम की शर्त पर जीते थे। अध्यापन, आंदोलन और पत्रकारिता में काफी समय लगाने का परिणाम आर्थिक तंगी के रूप में सामने आया। हालाँकि उनके पिता का संगतराशी का जमा-जमाया काम था लेकिन चुनारी उसमें बहुत दिलचस्पी नहीं रखते थे। लिहाजा वह बनारस चले गए।

बनारस में उन्होंने जाली का कारोबार शुरू किया और उनका कारोबार चल निकला। लेकिन बनारस में उनकी दिमागी भूख भी बढ़ती रही है। उन्हें लगने लगा कि महज़ कारोबार में सिमटकर वह अपने सामाजिक दायित्व का निर्वाह नहीं कर सकते लिहाजा फिर से पत्रकारिता के लिए उनका मन मचलने लगा।

जल्दी ही जन सामान्य को देश-दुनिया में घटित घटनाओं से परिचित कराने के उद्देश्य से उन्होंने लक्सा के नई बस्ती इलाके में स्थित एक बोर्ड लगा करके उस समय प्रकाशित हो रहे समाचार पत्रों की दो प्रतियाँ डिस्प्ले करते थे, जिससे लोगों को पढ़ने में सुविधा होती थी। गौरतलब है कि वहां आज भी समाचार पत्रों की प्रतियाँ नियमित रूप से चस्पा की जाती हैं।

चुनारी लाल उर्फ चिरकुट लाल द्वारा स्थापित वह बोर्ड जहां अभी भी पाठकों के लिए अखबार चिपकाए जाते हैं।

एक बेचैन पत्रकार और कवि के रूप में चुनारी लाल लगातार कोई न कोई भूमिका निभा रहे थे। यह सन 1962 का दौर था। भारत-चीन युद्ध शुरू होने पर उन्होंने एक लंबी कविता लिखी, जिसका पाठ बनारस, मिर्जापुर और आसपास के विभिन्न स्थानों पर आयोजित कवि गोष्ठियों में करने लगे।। जल्दी ही वीर रस कवि के रूप में उनकी पुख्ता पहचान बन गई। उनकी कविताओं को लोग बहुत पसंद किया करते थे। उनकी लंबी कविता का नाम ‘बिगुल’ था और वह उनके एकमात्र प्रकाशित संकलन में शामिल है।

चुनारी लाल का विविधतापूर्ण जीवन और अतिशय सक्रियता उनके लिए अभिशाप साबित हुआ। उनका मन रचनात्मक था जबकि जीवन और परिवार की आवश्यकताएँ ठोस और निर्मम थीं। दोनों के बीच संतुलन साधना बहुत कठिन था फिर भी उन्होंने अपनी पचास वर्ष की आयु तक अनथक कार्य किया।  24 दिसंबर, 1973 को उनकी मृत्यु हो गई।

उपेक्षा में बीत गया जीवन

चुनारी लाल के तीन पुत्र राजेंद्र प्रसाद, कुशवाहा दीप मौर्य और दिलीप कुमार हैं। उनकी दो बेटियाँ शांति और सुशीला हैं। नाती-पोतों से भरा-पूरा परिवार हैं। उनकी मृत्यु के 52 साल बीत गए हैं लेकिन उनके साहित्य का अभी तक कोई मूल्यांकन नहीं हुआ। चुनार में भी वे केवल किंवदंतियों में रह गए हैं। लेकिन उनके मझले पुत्र कुशवाहा दीप मौर्य उनकी विरासत को सँजोने में जी-जान से लगे हैं।

वे उनकी जो कुछ भी बच -खुंची सामग्री को सहेज कर रखे हुए हैं। वे अपने पिता के बहाने चुनार के साहित्यिक जीवन में एक नयी जान फूंकने की कोशिश कर रहे हैं और मौजी जियरा असोसियेशन के बैनर तले हर साल चुनारी लाल की पुण्यतिथि और पांडेय बेचन शर्मा उग्र की जयंती का कार्यक्रम आयोजित करते हैं।

हालांकि स्वयं पप्पू जी के जीविकोपार्जन का संघर्ष अभी कम नहीं हुआ है लेकिन उनका उत्साह और समर्पण अद्भुत है। उनका सपना है कि चुनारी लाल की रचनाओं का प्रकाशन हो, जिससे साहित्यप्रेमियों को उनकी रचनाओं को देखने-पढ़ने अवसर मिल सके।

बकरिया कुंड दुर्गाखोह के पास चुनारी लाल

पप्पू जी बताते हैं कि उनसे कई साहित्यकार चुनारी लाल की रचनाओं को लिखकर ले गए । कुछ लोग तो पांडुलिपियों को ही प्रकाशन के लिए ले गए किंतु आज तक किसी ने कोई कार्य नहीं किया। पप्पू जी ने अपनी कमाई से अपने बच्चों की परवरिश करते हुए एक छोटी सी पुस्तिका ‘बिगुल’ का प्रकाशन करवाया है।

एक कवि के रूप में चुनारी लाल स्वतंत्र भारत के शुरुआती दौर में सक्रिय थे। उनकी दृष्टि इतनी तीव्र थी कि उन्होंने उस दौर में चाटुकारिता और मूल्यहीनता के बढ़ते प्रभाव को महसूस कर लिया था। इसीलिए उनके लेखन में व्यंग्य की तीखी धार दिखाई देती है। उनकी एक पंक्ति ‘धन्य-धन्य वे लोग जो मक्खन खाते नहीं लगाते हैं’ बहुत से लोगों की ज़बान पर चढ़ गई।

अपनी लंबी कविता बिगुल की संक्षिप्त भूमिका में वह लिखते हैं – भारत आज खड्गहस्त है। खड्ग धरण करने के लिए फौलादी भुजाओं की जरूरत है। नमकीन और लोचदार नरम कलाइयों में तो सोने की सुंदर चूड़ियाँ ही संभल सकती हैं। तलवार, ढाल और संगीन तो बलिष्ठ भुजाओं की शोभा हैं। किन्तु यह फौलादी भुजा पूंजी प्रसाद करोड़ीमल आयरन एंड कंपनी तैयार करने में असमर्थ है। कहना न होगा कि ऐसे माल के प्रोडक्शन का भार किसी क्रांतदर्शी तपस्वी को ही वहन करना है।

अपने देश के युवाओं को संबोधित उनकी कवितायें उनके भीतर की संवेदना को बहुत गहराई से उकेरती हैं। वे कवि सम्मेलनों के लोकप्रिय कवि थे और बनारस-मिर्ज़ापुर समेत अनेक जिलों के कवि सम्मेलनों में उनकी उपस्थिति लगभग अनिवार्य थी। भारत-चीन युद्ध के दौरान वे गाँव-गाँव घूमकर कवितायें पढ़ते और लोगों में देश-प्रेम का जज़्बा भरते।

अपनी एक कविता ‘पिता के शब्द’ में वह लिखते हैं – यह कलम नहीं है टाँकी है/यह कागज़ नहीं पहाड़ी है,/ यह नहीं लिपिक लेखक कवि, पर/ लिखता इतिहास कहानी है।

यह संगतराश है शैल शिल्प का/ गणित मान इसका आधार/ अमर धर्म का अमर दूत यह/ नित रचता नूतन संसार।

इन हाथों में कड़ा हथौड़ा है/ इन अंगों में नई जवानी है।/ नस-नस में नई उमंगें हैं/आँखों में नई कहानी है।

गौरतलब है कि उपरोक्त कविता में उन्होंने संगतराश की भूमिका को एक कवि की गरिमा और कवि के दायित्व को एक कठिन टास्क दिया है। इसके बावजूद उनके बारे में लगभग कुछ भी नहीं लिखा गया और वे पूर्णतया उपेक्षित रह गए।

क्या चुनारी लाल जातिवाद के शिकार हुये

अगर चुनारी लाल के जीवन के विवरणों की छानबीन की जाय तो मालूम होता है कि वे प्रचंड प्रतिभा के धनी थे और अपने दौर के सभी बड़े और महत्वपूर्ण लेखकों-कवियों से उनका सीधा संबंध था लेकिन उनके रचनात्मक योगदान पर किसी ने कलम चलाने की ज़हमत नहीं उठाई। यह भी गौरतलब है कि जिन लोगों ने उनके ऊपर दो-चार शब्द लिखने का प्रयास किया वे सभी पिछड़ी जातियों के लोग हैं।

किसी ब्राह्मण या ठाकुर ने उनके ऊपर कुछ नहीं लिखा। अगर किसी ने दो-एक शब्द कहा भी है तो ऐसे गोया चिमटे से केंचुआ उठा रहा हो। ऐसा क्यों हुआ कि अपने दौर में अत्यंत लोकप्रिय, जुझारू और सर्वज्ञात कवि बिलकुल भुला दिया गया? क्या इसके पीछे जातिवादी दुराग्रह काम कर रहा था? इसमें कोई दो राय नहीं कि चुनारी लाल अपने दौर के एक महत्वपूर्ण रचनाकार थे इसके बावजूद उनके साथ हुये व्यवहार को देखना बहुत जरूरी है।

इस संदर्भ में मिर्ज़ापुर के प्रख्यात कवि आनंद परमानंद की एक टिप्पणी पर गौर किए जाने की जरूरत है जिसमें वह अड़तालीस-उनचास साल पुरानी एक घटना का ज़िक्र करते हुये लिखते हैं कि ‘एक बात संस्मरणात्मक है कि आज से लगभग अड़तालीस-उनचास वर्ष पहले भगवान राम सेवाश्रम पड़ाव वाराणसी में गुरु पूर्णिमा के अवसर पर कवि सम्मेलन हो रहा था। डॉ शम्भुनाथ सिंह सिंह अध्यक्षता कर रहे थे और सागर सिंह एडवोकेट संचालन कर रहे थे। बड़ी भीड़ थी जनता की। मंच के सामने जो भीड़ खड़ी थी उसी में बड़े भाई चुनारी लाल जी भी खड़े थे।

‘मैंने मंच से देखा और उन्हें मंच पर लाने हेतु उनके पास पहुँच गया। उन्होंने कहा डॉ शंभुनाथ सिंह अध्यक्षता कर रहे हैं, उनसे कहिए कि एनाउंस करवा दें मेरे नाम का तब मैं चलूँगा। मैं मंच पर आया और डॉ शंभुनाथ जी के कान में कहा चुनारी लाल जी खड़े हैं। एनाउंस करवा दें ताकि वे आ सकें। शंभुनाथ जी ने कहा ‘एनाउंस की क्या जरूरत है। मैं कह रहा हूँ। जाइए उन्हें मंच पर लाइये। कह देना मैं बुला रहा हूँ।

‘चुनारी लाल जी ने कहा ‘अगर वे मेरे नाम का एनाउंसमेंट नहीं करवा सकते तो मैं मंच पर कदापि नहीं जा सकता। यह कहते हुये चुनारी लाल जी बाहर चले गए, कवि सम्मेलन में नहीं आए। इतना ताव था उनमें।’

ध्यान देने की बात है कि यह टिप्पणी 2021 में प्रकाशित चुनारी लाल के कविता संग्रह में शामिल है और इस हिसाब से इस बात को तिरपन चौवन साल पुरानी होना चाहिए। संभवतः यह चुनारी लाल के जीवन के आखिरी वर्षों की बात है। तब वे एक सुपरिचित कवि थे लेकिन अक्खड़मिजाज और स्वाभिमानी थे। इससे यह भी पता चलता है कि वे अपनी शर्तों पर जीने और लिखने-कहनेवाले रचनाकार थे।

इसके बावजूद डॉ शंभुनाथ सिंह ने मंच से उनके नाम का एनाउंसमेंट नहीं कराया। क्या यह कोई सामान्य बात थी? बेशक नहीं। वे चुनारी लाल के स्वाभिमानी व्यक्तित्व की आंच को नहीं बर्दाश्त कर पा रहे थे। ज़ाहिर है अगर वहाँ अध्यक्ष और संचालक मौजूद थे तो सभी कवियों को नाम लेकर ही बुलाया जाता रहा होगा। यही नियम है।

एक और बात गौरतलब है कि अवधूत भगवान राम ठाकुर माने जाते हैं और इस नाते उनके स्वजातीय कवियों-लेखकों की श्रद्धा उनमें बहुत रहती है जिसका उन्हें फायदा भी मिलता है। वहाँ होनेवाले कार्यक्रमों में उन्हीं का जलवा होता है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे स्वयं डॉ शंभुनाथ सिंह और सागर सिंह भी ठाकुर होने के नाते वहाँ विद्यमान थे। वह उनका बपौती-क्षेत्र था और वहाँ एक कोइरी रचनाकार को सम्मान देना उनके बस की बात नहीं थी। संभव है ऐसा उनके साथ लगातार किया जाता रहा हो।

यह भी गौरतलब है कि अगर कोई पिछड़ी जाति का रचनाकार सवर्णों के जांघिये का चीलर बनने को तैयार हो जाता है तो वे यदा-कदा उसे कृतार्थ करते रहते हैं लेकिन किसी सच्चे और स्वभामानी रचनाकार से उनको घुटन होती है। चुनारी लाल की अक्खड़मिजाज़ी और स्वाभिमान ही नहीं उनकी जाति के चलते उन्हें पर्याप्त रूप से उपेक्षित किया गया।

इसके बावजूद चुनारी लाल की रचनाएँ उनकी प्रतिभा का सबूत हैं। उनमें अपने दौर की संवेदना है। साथ ही चाटुकारिता और मूल्यहीनता के खिलाफ एक आग है। संभवतः जल्दी ही वे साहित्यप्रेमियों के सामने आएंगी!

 

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here