नई दिल्ली (भाषा/ एपी)। सुनील कुमार जुलाई में उस समय असहाय हो गए जब भारत के हिमालयी क्षेत्र में हो रही मूसलधार मानसूनी बारिश में उनका घर और 14 अन्य मकान बह गए। पर्वतीय राज्य हिमाचल प्रदेश के भिउली गांव में कचरा इकट्ठा करने का काम करने वाले कुमार ने कहा, ‘एक झटके में मेरे जीवन की मेहनत बह गई। दोबारा से शुरू करना असंभव लगता है, खासतौर पर जब मेरे तीन बच्चे मुझ पर आश्रित हैं।’
भारत में इस साल मानसूनी बारिश विनाशकारी थी और स्थानीय सरकारों ने बारिश की घटनाओं में लगभग 428 लोगों की मौत होने और 1.42 अरब डॉलर से अधिक की संपत्ति तबाह होने की बात कही है। भारत उन कई विकासशील देशों में शामिल था, जो खराब मौसम या जलवायु परिवर्तन से प्रभावित थे। यह जलवायु परिवर्तन व्यापक रूप से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन से या जीवाश्म ईंधन के दहन के कारण होता है।
उष्णकटिबंधीय तूफान डेनियल के कारण आई बाढ़ ने सितंबर महीने में लीबिया में भारी तबाई मचाई, वहीं चक्रवाती तूफान फ्रेडी ने इस साल की शुरुआत में कई अफ्रीकी देशों को नुकसान पहुंचाया। पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि ये तीनों आपदाएं दिखाती हैं कि विकासशील देश वैश्विक तापमान वृद्धि के प्रभावों से अक्सर कितनी बुरी तरह प्रभावित होते हैं जबकि ऐतिहासिक रूप से विकसित देशों की तुलना में जलवायु को नुकसान पहुंचाने वाली गैसों का कम उत्सर्जन करके जलवायु परिवर्तन में उनकी बहुत कम भूमिका है।
विकासशील देश लंबे समय से इस समस्या का समाधान निकालने की कोशिश कर रहे हैं और अंतत: उन्होंने पिछले साल संयुक्त राष्ट्र की वार्षिक जलवायु वार्ता में एक समझौते को अंतिम रूप दिया जिसे सीओपी 27 के नाम से जाना जाता है। यह समझौता नुकसान और बर्बादी कोष बनाने के लिए किया जा रहा है। लेकिन कई मुद्दे अनसुलझे रह गए, और इसमें कौन योगदान देगा, यह कितना बड़ा होगा, इसका प्रशासनिक कामकाज कौन देखेगा, इन चीजों पर बातचीत करने के लिए तब से दर्जनों बैठकें आयोजित की गई हैं।
एक मसौदा समझौते को इस साल होने वाली जलवायु वार्ता से कुछ सप्ताह पहले इस महीने की शुरुआत में अंतिम रूप दिया गया। इस साल की सीओपी28 वार्ता दुबई में 30 नवंबर से शुरू होगी। समझौते को जलवायु वार्ता में अंतिम मंजूरी दी जानी है और विकसित और विकासशील देशों के असंतोष की स्थिति में इस पर मुहर लगना मुश्किल हो सकता है या अतिरिक्त बातचीत करनी पड़ सकती है।
‘क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क इंटरनेशनल’ में वैश्विक राजनीतिक रणनीति के प्रमुख और नयी दिल्ली से कामकाज करने वाले हरजीत सिंह ने कहा, ‘हमारे लिए यह न्याय का मामला है। विकासशील देशों में गरीब तबके विकसित देशों और निगमों द्वारा पैदा संकट के कारण अपने खेत, घर और कमाई गंवा रहे हैं।’
Richest 1% account for more carbon emissions than poorest 66% – new report from @Oxfam https://t.co/Z9dYIPOBX0
— Climate Action Network International (CAN) (@CANIntl) November 20, 2023
संयुक्त राष्ट्र की एक हालिया रिपोर्ट में अनुमान व्यक्त किया गया है कि विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तनों से निपटने के लिए सालाना 387 अरब डॉलर की जरूरत होगी। भले ही क्षति एवं तबाही कोष पर काम हो रहा हो, लेकिन लोगों को संदेह है कि इससे इतनी राशि जुटाई जा सकेगी। कोपेनहेगन में 2009 में हुई जलवायु वार्ता में पहली बार प्रस्तावित ‘हरित जलवायु कोष’ के लिए 2014 में धन जमा होना शुरू हुआ, लेकिन यह 100 अरब डॉलर वार्षिक के लक्ष्य के करीब नहीं पहुंचा है। नयी दिल्ली से संचालित जलवायु विमर्श संस्थान ‘इंटरनेशनल फोरम फॉर एनवॉयरमेंट, सस्टेनेबिलिटी और टेक्नोलॉजी’ के प्रमुख चंद्रभूषण ने कहा कि वह देशों से कुछ अरब डॉलर से अधिक योगदान की उम्मीद नहीं करते। उन्होंने कहा, ‘विकासशील देशों को कोविड-19 की तरह इन घटनाक्रमों से स्वतंत्र तरीके से निपटने के लिए तैयार रहना चाहिए। वे हमेशा दूसरों पर निर्भर नहीं रह सकते।’
मसौदा समझौते में विश्व बैंक से आह्वान किया गया है कि अगले चार साल के लिए अस्थायी रूप से कोष में मदद करे। मसौदे में 2024 में इसकी शुरुआत की योजना समेत कोष के लिए बुनियादी लक्ष्यों का उल्लेख है। समझौते में विकासशील देशों से इस कोष में योगदान देने को कहा गया है और यह भी कहा गया है कि अन्य देश और निजी पक्ष भी इसमें योगदान दे सकते हैं। विकासशील देश विश्व बैंक को केवल अनिच्छा से स्वीकार करते हुए, कोष के लिए एक नई और स्वतंत्र इकाई चाहते हैं। वे संगठन को, जिसके अध्यक्ष को आम तौर पर अमेरिका द्वारा नियुक्त किया जाता है, एक वैश्विक वित्तीय प्रणाली के हिस्से के रूप में देखते हैं जो अक्सर उन पर भारी ऋण का बोझ डालता है जिससे जलवायु परिवर्तन की लागतों का सामना करना अधिक कठिन हो जाता है। वे लंबे समय से तर्क दे रहे हैं कि धन के एक बड़े, बेहतर समन्वित संचय की आवश्यकता है जो ऋण संकट को गहरा किए बिना उपलब्ध हो।
नयी दिल्ली स्थित संस्थान ‘द एनर्जी रिसोर्सेस इंस्टीट्यूट’ में कार्यरत पूर्व जलवायु वार्ताकार आर आर रश्मि ने कहा, ‘यह व्यवस्था वास्तविक स्वतंत्रता के साथ नया कोष उपलब्ध नहीं करा पाएगी और संवेदनशील समुदायों की सीधी पहुंच में अवरोध बनेगी।’ अमेरिकी विदेश विभाग ने इस बात पर निराशा जताई है कि मसौदा समझौते में योगदान को स्वैच्छिक के रूप में चिह्नित नहीं किया है जबकि वार्ताकारों के बीच इसे लेकर व्यापक आम-सहमति थी।
(यह लेख द एसोसिएटिड प्रेस, द स्टेनली सेंटर फॉर पीस एंड सिक्योरिटी और प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के बीच साझेदारी में भारतीय जलवायु पत्रकारिता कार्यक्रम के तहत जारी शृंखला का हिस्सा है।)