तीस जनवरी, 1933 के दिन हिटलर ने जर्मनी के चांसलर पद की शपथ ली थी। (30 जनवरी के दिन ही गाँधीजी की गोली मारकर हत्या कर दी गई, सन था 1948। दोनों ही घटनाओं में सिर्फ़ पंद्रह साल का अंतराल था।) जब हिटलर ने चुनाव लड़ा तो उसे जर्मनी के 37% प्रतिशत मतदाताओं का वोट मिला था। 26 मई, 2014 के दिन नरेंद्र मोदी ने पहली बार भारत के प्रधानमंत्री के पद की शपथ ली और भारतीय जनता पार्टी को 31% प्रतिशत लोगों ने वोट दिया था। यानी हिटलर से छह प्रतिशत कम। 2019 के चुनाव में 37% मतलब हिटलर से 1% प्रतिशत ज्यादा। लेकिन आगे आने वाले दिनों में हिटलर को चुनाव में मिलने वाले वोट का प्रतिशत 99% तक पहुँचा। (लेकिन इसमें कितनी सच्चाई है, यह संशयास्पद है।) लेकिन हिटलर ने 30 अप्रैल 1945 को अपनी कनपटी पर पिस्तौल से खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली। और उसके बाद संघ ने अपने सपनों के भारत को हूबहू हिटलर और मुसोलिनी के फासीवाद के पर केंद्रित रखा। उनका मुख्य लक्ष्य हिटलर के फासिस्ट विचारधारा को लागू करने और उसे लागू करने की आड़ में आने वाली हर चीज को हटाने का संकल्प लिया। जैसा कि हिटलर ने अपने विरोधियों की संपत्तियों पर कब्जा करने और उन्हें सलाखों के पीछे डालने का काम किया था। संघ भी हिटलर के नक्शे कदमों पर चलते हुए,यही काम कर रहा है।
हिटलर ने यहूदी कौम के खिलाफ नफरत फैलाकर अपनी फासिस्ट विचारधारा का प्रचार-प्रसार किया और जर्मनी की संसद जिसे ड्यूमा बोलते हैं के ऊपर षड्यन्त्र कर कब्जा किया था।
आरएसएस की स्थापना ही अल्पसंख्यक समुदाय, उसमें भी विशेषकर मुस्लिम समुदाय को लेकर समाज में नफरत फैलाने के लिए हुई। इसमें पहला कदम बाबरी मस्जिद को तोड़ना हुआ था। अगली कड़ी में गोधरा कांड कराते हुए गुजरात में सांप्रयदायिक दंगे कराए गए। आरएसएस ने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को हिन्दू समाज का हृदय सम्राट बनाने के लिये इस्तेमाल किया है और 56 इंची छाती का जुमला इसी दंगे की उपज है। अन्यथा नरेंद्र मोदी और मेरी बनियान सिर्फ 44 इंच साइज की है। यह सब विशेष रूप से नरेंद्र मोदी को भारत के सबसे बड़े पद पर बैठाने के लिए हुआ है। यह सभी सेक्युलर तथा गाँधी-विनोबा, जयप्रकाश, लोहिया, आंबेडकर को मानने वाले लोगों की भी पराजय है। संघ के काम में सबसे बड़ी बाधा महात्मा गाँधी और उनकी विचारधारा है।
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दूसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद डॉ. बीएस मुंजे 15 मार्च से 24 मार्च तक इटली में थे। उन्हीं दिनों में 19 मार्च की दोपहर में तीन बजे बीएस मुंजे ने पलाज़ो वेनेज़िया (Palazzo Venezia) जो रोम में बेनिटो मुसोलिनी के मुख्यालय का नाम था में डॉ बीएस मुंजे ने मुसोलिनी से मुलाकात की (इस बात का जिक्र डॉ मुंजे ने अपनी डायरी में 19 मार्च 1931 में किया है)। यह डायरी दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू म्यूजियम में रखी हुई है (हालांकि इस पर मुझे संशय है)। क्योंकि मुसोलिनी और मुंजे की बातचीत का निचोड़ यह था कि ‘इटली की जनता लड़ाई-झगड़े की बजाय आराम से जीने की आदी है। यह आदत मुझे बदलनी है और मुझे इटली की जनता को युद्धखोर बनाना है। मुझे इस आदत को बदलना है।‘ लगभग यही बात डॉ. मुंजे को भी भारत के संदर्भ में लगी। ‘भारतीयों को भी शांति से रहना पसंद है लेकिन संघ(आरएसएस) अपनी स्थापना के बाद लगातार बदलने की कोशिश कर रहा है। सांप्रदायिक रंग देकर उनमें वैमनस्य और नफरत की भावना भरने में लगा हुआ है। फासिस्ट सोच वाले सभी लोग इसी सोच के होते हैं।
गांधीजी ने हिटलर की इस फासिस्ट प्रवृत्ति के खिलाफ एक खुला पत्र लिखा। इसी फासिस्टवाद के खिलाफ गांधी जी अपना पूरा जीवन दांव पर लगा दिया। और आरएसएस के लिए महात्मा गांधी सबसे बड़ी बाधा थी। इसलिए संघ ही उनका हत्यारा बना। और अब सत्ता में आने के बाद उनके वैचारिक अवशेष एक-एक करके खत्म करने की मुहिम शुरू की। नरेंद्र मोदी ने इसकी शुरुआत अहमदाबाद से की। लेकिन अब देश के सभी गांधी संस्थानों पर उनकी नज़र है। वाराणासी के सर्व सेवा संघ से गाँधीवादियों को बेदखल कर कब्जा इसका ताज़ा उदाहरण है।
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30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के बाद, उनकी बची-खुची विरासत जैसे विद्यापीठ- अहमदाबाद, साबरमती- सेवाग्राम, राजघाट- दिल्ली, और सर्व सेवा संघ- वाराणसी के साथ-साथ देश भर में फैले विभिन्न आश्रम व संस्थानों को बीजेपी ने सत्ता में आने के बाद एक-एक कर सभी को कब्जे में लेने की कोशिश शुरू कर दी। इसका ताजा उदाहरण वाराणसी के सर्व सेवा संघ है। इस परिसर में मई महीने से ही सबसे पहले इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला और संस्कृति केंद्र, जिसे जयप्रकाश नारायण ने स्थापित किया था को गांधी विद्या संस्थान को सौंपने की शुरुआत की। भले ही यह कार्यवाही वाराणसी के आयुक्त के निर्णय पर की गई। लेकिन हमारे कुछ मित्र इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला संस्कृति केंद्र के अध्यक्ष रामबहादुर राय से मिलने गए। पर उन्होंने साफ-साफ कहा कि ‘यह सब बहुत ऊपर से आए आदेश से किया जा रही है और इसमें मैं कुछ कर नहीं सकता।‘ ऊपर मतलब कौन हो सकता है? मैं आज खुलकर आरोप लगा रहा हूँ। देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी के सिवाय कोई दूसरा हो ही नहीं सकता।
नरेंद्र मोदी गुजरात के होने बावजूद जान-बूझकर वाराणसी से लोकसभा चुनाव लड़े। भारी बहुमत से एक बार नहीं, दो-दो बार चुनकर आए। यही वाराणसी समाजवादियों का गढ़ रहा है। और बीएचयू में तो बहुत लंबे समय तक समाजवादी युवाओं का दबदबा रहा है। लोकबंधु राजनारायण की जन्मभूमि और कर्मभूमि वाराणसी भी रही है। हालांकि हजारों वर्ष पुरानी वाराणसी समाजवादियों के लिए कुछ समय ही सही कुछ हद तक कामयाब भूमि रही है। इसके क्या कारण हो सकते हैं, अकादमिक रूप से इसे खोजने की जरूरत है।
गुजरात से यहाँ आकर स्वयं को गंगापुत्र कहते हुए (हालांकि उनकी बायलॉजीकल माँ हीराबेन हैं) कहा कि माँ गंगा ने मुझे बुलाया है। यह बोलकर लोगों को प्रभावित कर वाराणसी लोकसभा से चुनाव लड़ा। वाराणसी को अपनी राजनीति का पक्का गढ़ बनाने के लिए विकास और नए स्वरूप में लाने के लिये यहाँ की विरासत को ध्वस्त कर कॉरीडोर बनवाया, राजघाट पर नमो घाट का निर्माण कराया। राजघाट पर नमो घाट के निर्माण के बाद वाराणसी के राजघाट स्थित तेरह एकड़ में विस्ततारित सर्व सेवा संघ परिसर पर काकदृष्टि पड़ना स्वाभाविक था; नरेंद्र मोदी को यह अच्छी तरह मालूम है कि ‘ गांधी जी के तथाकथित अनुयायी द्वारा 1973-77 में आखिरी लड़ाई जयप्रकाश नारायण आंदोलन था। उसके बाद न जयप्रकाश रहे न ही उनके अनुयायियों में वह दमखम रहा। उल्टा जो विरासत पीछे रह गई, उसे सम्हालने वाला कोई नहीं रहा। बल्कि जैसा कि संपत्ति को लेकर होता है, वही हुआ। पहले जय प्रकाश नहीं रहे, उसके कछ समय बाद ही विनोबा भावे की मृत्यु हो गई। यदि पिछले चालीस सालों का मूल्यांकन करें तो विनोबा भावे की भाषा में भांग पीकर पहले ठाकुर दास बंग फिर आचार्य राम मूर्ति के दौर में गाँधीवादी संस्थाओं में संपति को लेकर आपसी झगड़े हुए। लेकिन उनके मानने वालों ने गांधी-विनोबा-जयप्रकाश के सपनों को लेकर कितना काम किया? यह जानने की जरूरत है।
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सर्व सेवा संघ को लेकर हुई कार्यवाही से आज कुछ लोगों को अत्यधिक खुशी है। मई माह से इस मुहिम की शुरुआत में एकाध बार दोनों गुट के लोग इकट्ठे हुए। लेकिन उसके बाद मैंने देखा कि सोशल मीडिया इस मुहिम को चलाने वालों को दुश्मनों की जरूरत नहीं है। यही वजह है कि इससे सबसे ज्यादा नुकसान गांधी-विनोबा-जयप्रकाश द्वारा स्थापित संस्थाओं और विचारों को पहुंचा है। इस आपसी लड़ाई से एक-एक कर सारी संस्थाएं आसानी से संघ जैसी फासीवाद सोच वालों के कब्जे में चली जाएंगी। हमारे दोनों-तीनों तरफ के मित्रों ने भी संघ की परोक्ष-अपरोक्ष तरीके से मदद की। वर्तमान समय में संघ के खिलाफ मिलजुलकर लड़ने की जगह एक-दूसरे की गलतियाँ गिनाने में लगे हुए हैं।
क्योंकि इसी आदमी ने प्रधानमंत्री बनने से पहले अहमदाबाद के गांधी विद्यापीठ और साबरमती आश्रम को कथित रूप से अमेरिका के मार्टिन लूथर किंग मेमोरियल किंग की तर्ज पर बनाने की पेशकश की। साबरमती आश्रम के कार्यकारी और साराभाई उद्योग समूह के प्रमुख कार्तिकेय साराभाई और नरेंद्र मोदी पुराने मित्र हैं। 127 एकड़ के साबरमती परिसर में नरेंद्र मोदी की कल्पना को साकार करने की शुरुआत वास्तव में भारत में गांधी जी की बची-खुची विरासत को खत्म करने की शुरुआत थी।
ऐसे कार्तिकेय और भी हैं
नरेंद्र मोदी मात्र सत्रह साल की उम्र में आरएसएस में शामिल हो संघ के स्वयंसेवक बने। ऐसा संगठन, जिसने गांधी के हत्यारे गोडसे को बनाया। मालेगांव-समझौता एक्स्प्रेस विस्फोट करने वाली प्रज्ञा सिंह जैसी आंतकी महिला को ट्रेनिंग दी। क्या उस संगठन के नरेंद्र मोदी और राम बहादुर राय महात्मा गांधी की विरासत बचाने के लिए काम करेंगे?
संघ की शाखा में 10-15 वर्ष के बच्चों को गीतों और बौद्धिक प्रशिक्षण के माध्यम से गांधी जी के खिलाफ नकारात्मक बातें सिखाई-पढ़ाई जाती हैं। नाथूराम गोडसे, प्रज्ञा सिंह, नरेंद्र मोदी, राम बहादुर राय, अमित शाह, बाबू बजरंगी, विनय कटियार, राज कोंडावार, हिमांशु पानसे, प्रमोद मुतालिक के अलावा यदि नाम गिनाने पर आ जाऊँ, तो पूरे लेख में संघी लोग कौन है? से भर जाएगा। जिन्होंने आजादी के आंदोलन के खिलाफ तथा आजादी के बाद भारत में हुए सांप्रदायिक दंगों में ही भाग लिया। और अब सत्ता में आने के बाद कौन-कौन सी संस्थाएं कब्जे में करना है का कच्चा चिठ्ठा खोलूं एक किताबनुमा दस्तावेज तैयार हो जाएगा।
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पहाड़ी क्षेत्रों के ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य के मूलभूत सुविधाओं की कमी
नालंदा से अमर्त्य सेन को हटाने से लेकर शांति निकेतन के पुश्तैनी घर बाहर निकालने की साजिश, महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर ने 1863 में यानी आज से डेढ़ सौ साल पहले शुरू किए गए पौष मेला, जो बंगाल की मिली-जुली सांस्कृतिक उत्सव था, को बंद कर दिया गया। साथ सिलेबस बदलने की कवायद, फिर जेएनयू हो या जामिया मिलिया, एनसीआरटी, आईआईटी, एमबीए और सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में संघी मानसिकता वाले वीसी और अन्य पदाधिकारियों को नियुक्ति की जा रही है। जब हम लोगों ने इन बातों का संज्ञान नहीं लिया तो यह सब होना ही है। वाराणसी सिर्फ एक घटना नहीं है। मणिपुर में क्या हो रहा है? यह पूरी दुनिया देख रही है। जहां की राज्यपाल आदिवासी हैं, जिस देश की राष्ट्रपति आदिवासी हैं, लेकिन यह आदिवासियों के बीच हो रहे दंगों को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया। क्योंकि मणिपुर के पहाड़ खनिज के बड़े भंडार होने के कारण उसे प्राइवेट मास्टर्स को सौंपना है। अन्यथा वहाँ के मुख्यमंत्री पर अब तक कोई कार्यवाही हो चुकी होती। उन्हें विश्वास में लेकर ही यह सब हो रहा है। छतीसगढ़, झारखंड,ओडिशा, महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जहां घने जंगल हैं, वहाँ नक्सलियों का डर पैदा कर आदिवासियों और गैर-आदिवासियों के बीच नफरत फैलाकर उन्हें अपनी मूल जगह से हटाने के षड्यन्त्र जारी हैं।
यहां दर्दो-गम में सभी पल रहे हैं]
यहां सभी सभी को छल रहे हैं।
हरेक चेहरे पर वहम का असर है,
हरेक जिंदगी में बहुत ही कसर है।
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