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ग्राउंड रिपोर्ट

नट समुदाय : पाँच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था के दावे के बीच पूरा समुदाय आदतन अपराधी के तौर पर उत्पीड़न झेलने को अभिशप्त

जैसे ही नट समुदाय की बात होती है, वैसे ही सभी के जेहन में या जुबान पर उनके चोर होने व उनसे सतर्क रहने का भाव या बात सामने आती है। यह बात आज नहीं बल्कि 150 वर्ष पहले लागू की गई थी, जब ब्रिटिश सरकार ने 1871 से 1952 के बीच, वीजेएनटी जनजातियों पर 'जन्मजात अपराधी' माना, लेकिन स्वतंत्रता के बाद, विभिन्न जनजातियों में पुनर्वर्गीकरण होने के बाद, उनके सामाजिक बहिष्कार व बुनियादी सुविधाओं से वंचित होने के साथ 'आदतन अपराधी' के कलंक का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि उसके बाद भारतीय संविधान में 1952 में संशोधन कर इसे 'आदतन अपराधी' माना गया। पुलिस-प्रशासन कैसे इसे उपयोग में लाते हुए नट बस्तियों में रहने वाले लोगों को प्रताड़ित करते हैं, पढ़िये प्रेम नट की ग्राउंड रिपोर्ट 

पहली घटना  – नवंबर के तीसरे हफ्ते में सुरैरी थाना जौनपुर की हरियरपुर नट बस्ती(अड़ियार नट बस्ती) में किसी राजभर जाति के व्यक्ति की भैंस चोरी हो जाने के बाद बस्ती के तीन लोगों को पुलिस उठाकर ले गई। थाने में 40 घंटे बंद रखा और मारपीट कर ‘झूठा सच’ उगलवाने के लिए शारीरिक प्रताड़ना दी। जब कोई बात सामने नहीं आई तो पुलिस वालों ने उन्हें छोडने के लिए 45 हजार रुपए वसूल किए।

उन्हीं तीन लोगों में से बब्बू नट ने बताया कि 2 लोगों को पुलिस ने 40 घंटे बाद 45 हजार रुपए लेने के बाद छोड़ दिया लेकिन मुझे लेकर कतवारुपुर नट बस्ती में अन्य नटों से पूछ्ताछ के लिए लेकर गई, उस बस्ती में पूछताछ के दौरान वहाँ की महिलाओं ने ऐसा घेरा बनाया कि मैं वहाँ से भागकर तीन दिन पहले बेलवा नट बस्ती में रहने वाली अपनी बहन के घर पहुंचा हूँ।

यह कोई पहली घटना नहीं है बल्कि आए दिन चोरी की रिपोर्ट दर्ज होने के बाद पुलिस नट बस्ती में धावा बोलती है।

यही स्थिति फूलपुर थानांतर्गत के आसपास लगे गांवों की है कि कहीं भी चोरी हो जाने पर फूलपुर वाराणसी की पुलिस बेलवाँ नट बस्ती पहुंच जाती है और पूछताछ के नाम किसी को भी उठाकर ले जाती है।

8 से 10 घंटे थाने में बैठाकर रखती है, मानसिक रूप से और कभी कभी शारीरिक प्रताड़ना देने के बाद पाँच से दस हज़ार रुपए लेकर छोड़ देती है। विगत  चार से पाँच महीनों में ऐसी अनेक घटनाएं हो चुकी है।

दूसरी घटना  – बेलवा नट बस्ती के पप्पू नट जिन्हें नट बस्ती से लगे गाँव में हुई चोरी के बाद पुलिस उठाकर थाना ले गई। उससे पूछताछ की और दिनभर थाने में बिठाकर रखा। मार-पीट कर प्रताड़ित किया और रात में उन्हें 5 हजार रुपए देने  के बाद छोड़ा।

इसी तरह दूसरे गाँव में चोरी की तलाशी पूरी बेलवा नट बस्ती के घरों की ली गई। इसी तरह इस नट बस्ती के सूरज नट जो इनके रिश्तेदार है, उनके साथ भी ऐसा ही किया गया। जबकि वे दूसरी नट बस्ती से यहाँ अपने रिश्तेदार के यहा आए हुए थे।

भैंस चोरी करने के आरोप में बब्बू नट के साथ दो और लोगों को पुलिस ने पकड़ा

तीसरी घटना –5 वर्ष पहले बेलवाँ गाँव के पंडितों की बड़ी परेब बस्ती है, जहां एक पंडित के यहाँ एक बड़ी चोरी हुई। थाने में इस बात की रिपोर्ट होने के बाद 12-15 पुलिस बिना किसी सर्च वारंट के बेलवाँ नट बस्ती पहुँचकर सभी घरों की तलाशी ली, सामान अस्त-व्यस्त कर फेंका। मना करने पर महिलाओं को गालियां देते हुए धमकाया। उस समय मैं वहाँ नहीं था, मेरे घर पर ताला लगा हुआ था, उन पुलिस वालों ने मेरी अनुपस्थिति में ताला तोड़कर घर में घुसकर तलाशी ली। बस्ती में कुछ मिला नहीं। बाद में पंडित के घर में हुई चोरी की खाली पेटियाँ गाँव के पोखरे के पास मिली।

घटना चार  – अभी डेढ़ महीने पहले पटेल जाति के कुछ लड़कों ने नट समुदाय के इमरान और मुस्कान से मारपीट की, जिसकी रिपोर्ट भी नहीं लिखी जा रही थी। लेकिन बहुत फोन करने और लिखा-पढ़ी के बाद  पुलिस ने नटों की एफआइआर एससी/एसटी एक्ट के तहत दर्ज की। लेकिन अभी तक कोई कार्रवाई  नहीं की गई।  राजस्व विभाग और तलसीलदार जाति प्रमाणपत्र जारी नहीं कर रहे हैं।

इस संबंध में जब तहसीलदार विकास पाण्डेय से मुलाक़ात की, तब उन्होने कहा कि, ‘तुम लोग(नट) हिन्दू बन जाते हो, चाहे जब मुसलमान बन जाते हो। मैं पूरी बस्ती की जांच कराकर सबको जेल भेज देंगे।’ मौत के बाद शव दफनाने को लेकर तहसीलदार पांडे जी का आरोप है कि शव मुसलमान दफनाते हैं इस वजह से आप लोग मुस्लिम हुए।

उन्हें नटों का इतिहास समझाना पड़ा कि यह प्रथा हमारे पूर्वजों के समय से चली आ रही है। हम घूमन्तू समाज के लोग जब अपने कबीले के साथ पूरा डेरा लेकर एक जगह से दूसरी जगह जाते थे, तब मरने के बाद शव को वहीं दफनाकर आगे बढ़ जाते थे, तब से यह प्रथा चली आ रही है। लेकिन इसके बाद भी जाति प्रमाणपत्र जारी नहीं किया गया। यह कहते हुए कि नट मुस्लिम होते हैं। जबकि नट अनुसूचित जनजाति में है।

क्योंकि यदि नट अनुसूचित जाति के अंतर्गत नहीं आते तब क्या इस समुदाय के लोगों का अनुसूचित जाति का प्रमाणपत्र बनता। क्योंकि पीड़ित पक्ष की माँ इमरान का जाति प्रमाणपत्र अनुसूचित जाति का नहीं बनता। क्योंकि तहसीलदार सभी सारे कागजात देखकर ही जाति प्रमाणपत्र बनाते हैं।

एससी/एसटी एक्ट का सेक्शन के अंतर्गत दर्ज एफआइआर (इमरान और मुस्कान की माँ बानो नट द्वारा)

तब अब क्यों दिक्कत है? अब दिक्कत है क्योंकि जी रिपोर्ट  एससी/एसटी एक्ट का सेक्शन के अंतर्गत हुई है।  बाद में पता लगा कि पुलिस और प्रशासन एससी/एसटी एक्ट प्रमाणपत्र के अभाव एससी/एसटी एक्ट का सेक्शन हटा देगा, केस कमजोर हो जाएगा।

जबकि केस करने वाली पीड़ित पक्ष की माँ बानो का जाति प्रमाणपत्र अनुसूचित जनजाति का है लेकिन उनके दोनों बच्चे इमरान और मुस्कान के जाति प्रमाणपत्र बनाने से मना कर रहे हैं। पुलिस जाति प्रमाणपत्र मांग रही है। अनुसूचित जनजाति प्रमाणपत्र नहीं देने पर एफआइआर में दर्ज एससी/एसटी एक्ट का सेक्शन अपने आप खत्म हो जाएँगे। क्योंकि मुकदमा दर्ज होने के 60 के बाद चार्जशीट फाइल करनी होती है, जाति प्रमाणपत्र प्रस्तुत नहीं करपाएंगे तो अपने आप एससी/एसटी एक्ट का सेक्शन जो लगा है अपने आप खत्म हो जाएगा।

इस तरह की यातना लगातार होती रहती हैं, तरीके अलग-अलग हो सकते हैं। संविधान ने जो अधिकार नट समुदाय को दिये कि घुमंतू, दलित, नट समुदाय कोई मारता पीटता है तो एससी/एसटी एक्ट का सेक्शन लगाया जाएगा।

इन सब घटनाओं को देखते हुए फिल्म जय भीम में आदिवासियों को प्रताड़ित किये जाने दृश्य का दृश्य आँखों के सामने से गुजरा, तब उसको देखते हुए मुझे मेरे गाँव बेलवा नट बस्ती की याद आ गई। जिसमें चोरी की घटना बाद पुलिस बिना किसी तहकीकात के उन्हें थाना उठाकर ले जाती है और वहाँ शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना देती है।

इमरान और मुस्कान की माँ का अनुसूचित जनजाति प्रमाणपत्र

ये तो कुछ घटनाओं का ज़िक्र है लेकिन बिना किसी वजह से पुलिस वाले कब धमक जाए नहीं बता सकते। आए दी अलग-अलग नट बस्तियों में पुलिस वाले इस तरह का उत्पात मचाते रहते हैं।

जाति के आधार पर पूछताछ कर करते हैं प्रताड़ित

पप्पू नट बतलाते  हैं कि पुलिस वालों को मालूम होने के बाद भी जाति पूछते हैं। अपराधी हैं या नहीं खुद ही तय कर लेते हैं और अपमानित करते हुए कहते हैं कि ‘नट सा..चोर होते हैं। तुम सब ऐसे ही होते हो। तुम लोगों का भरोसा नहीं।’

असल में किसी की रिपोर्ट दर्ज होने के बाद अपने काम में असफल होने के कारण नट समुदाय के लोगों को पकड़कर यह साबित करना चाहते हैं कि पुलिस की कार्रवाई चल रही है।

पप्पू आगे बताते हैं कि कितना अपमानजनक होता है कि पूरी बस्ती की तलाशी ली जाती है, बस्ती में महिलाएं, युवा लड़कियां, बच्चे, बूढ़े सभी होते हैं। पूरी बस्ती के लोगों को गालियाँ देते हुए बात करते हैं। मना करने पर मारपीट पर उतर आते हैं।’

समाज की ऐसी जातियां जिन्हें आज तक मुख्यधारा में शामिल नहीं किया गया, जो आज से 35-40 वर्ष पहले तक कबीले के साथ समूह में चलते हुए किसी शहर या गाँव के बाहर खुली जगह में टेंट गाड़कर महीनों रहते थे। जो विमुक्त जनजातियां (dinotifide and nomadic tribes DNT) के अंतर्गत आते हैं।

भारत सरकार द्वारा जारी अनुसूचित जनजाति की सूची, जिसमें 56 नंबर पर नट समुदाय शामिल है

अँग्रेजी राज में 1971 में से 1952 तक आपराधिक जनजाति अधिनियम के तहत इन्हें जन्मजात अपराधियों की श्रेणी में रखा गया, निरस्त होने के बाद 1952 में इस समुदाय को  ‘जन्मजात अपराधी’ के जगह ‘आदतन अपराधी’ की श्रेणी में शामिल किया गया। नट समुदाय पर लगा ‘अपराधी’ होने का ठप्पा बस बदल दिया गया है। विमुक्त रूप में सूचीबद्ध इन समुदायों में से कुछ खानाबदोश भी थे।

सवाल यह उठता है कि कोई भी समुदाय कैसे जन्मजात अपराधी या आदतन अपराधी कैसे हो सकता है? मतलब पैदा लिया बच्चा, जिसने अभी जीना भी नहीं सीखा, उसे भी आदतन अपराधी का ठप्पा लगा दिया जाता है। इसी विडंबना के साथ DNT समुदाय के लोग जीने के लिए अभिशप्त हैं।

193 वीजेएनटी (विमुक्त जनजाति जनजाति) एक खानाबदोश अर्द्ध-खानाबदोश जनजातियां हैं। जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने 1871 से 31 अगस्त 1952 तक जन्मजात अपराधी मानकर सेलुलर जेलों में पुलिस निगरानी में रखा था। इन्हें आजादी के बाद सिर्फ कहने के लिए एससी ओबीसी एनटी डीएनटी जनजाति में डाल दिया गया है। लेकिन इन स्वतंत्रता सेनानी जनजातियों की गिनती आज भी आदतन अपराधियों में होती है। आज भी ये जनजातियाँ अपनी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। शिक्षा सत्ता, धन और सम्मान से कोसों दूर है।

समाज के सबसे नीचे के पायदान में आने वाले अशिक्षित, रोजगारविहीन और भूमिहीन नट समुदाय को चोर और अपराधी श्रेणी में शामिल किया जाना विडम्बना है। एक समय था घुमंतू समाज के लोग बारिश के दिनों को छोड़कर बाकि के महीनों में अलग-अलग शहरों में रहते खानाबदोशी जिंदगी बसर करते थे, लेकिन कुछ 2-3 पुश्तों से स्थायी निवास बनाकर रोजी-मजदूरी कर जीवनयापन करते हैं।

 DNT समुदाय अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर

DNT समुदाय अन्य समाज और पुलिस के झूठे आरोपों के साथ लगातार कई वर्षों से दोहरी मार  झेल रहा है। अब इस समाज को किसी पर भरोसा नहीं रह गया है, ये जहाँ पर टोलों, कबीलों  में रहते हैं, वहाँ आस-पास रहने वाला समाज इन्हें हेय दृष्टि से  देखता हुआ, नजर रखता है। किसी भी बात को लेकर जब इन पर अत्याचार होता है,  तब इसकी रिपोर्ट या एफआइआर तो दूर पुलिस-प्रशासन सुनने तक को तैयार नहीं होते।  इस तरह की घटनाएं उस समुदाय के टोलों के अंदर ही दम तोड़ देती है। यदि कभी कोई आवाज बाहर निकल भी जाती है तो उस आवाज को हुकमरानों द्वारा इस तरह से दबाया जाता है कि वह फिर कभी अपनी आवाज उठा न पाएं। इन पर तरह-तरह के इल्जाम लगाये जाते हैं। यह जन्मजात अपराधी हैं, ये आदतन अपराधी हैं, इनसे बचकर रहिए। चोरी और लूटपाट इनका पेशा है।

हिन्दुत्ववादी माहौल  में अब इन्हें धर्म के नाम पर बाँटने की साजिश हो रही है। इन्हें कभी हिन्दू और कभी मुस्लिम धर्मों में बांटने का नया तरीका अपनाया जा रहा है। जहाँ पर थोड़ी सी आस बची है वह भी दम तोड़ रही है।

इनका कहना है कि न्याय मांगने कहाँ जाएं, बहुत लम्बे समय का दर्द है जो 1871 से लगातार पीछा करते चला आ रहा है। आज भी बहुत तकलीफ दे रहा है। हमें बांटो मत, हम नट पहले भी थे और आज भी हम नट ही हैं। घूमते फिरते जहाँ दम टूट गया वहीं मिट्टी खोदा और मिट्टी मे समा गए। सदियों से ऐसा ही चला आ रहा है। दीवाली या ईद जैसे त्योहारों पर पेट की आग बुझाने के लिए भीख मांगने जाते हैं, हमें नहीं फर्क पड़ता कि हिन्दूओं का त्यौहार या मुसलमानों का। हमें जहाँ से भीख के रूप में त्योहारी मिल जाए, हमारे परिवार का त्यौहार मन जाता है।

 समाज की मुख्यधारा में आना चाहते हैं

वर्ष 2008 में आई रैनके आयोग की रिपोर्ट में यह बात सामने आई कि भारत में 1500 घुमंतू और 198 विमुक्त जनजातियाँ बताई गईं। जो लगातार सामाजिक बहिष्कार, बुनियादी सुविधाओं के अभाव के साथ मूल मानवधिकारों से वंचित हो जीवन जीने को मजबूर हैं। इन्हें आदतन अपराधी के कलंक का सामना करना पड़ता है। इस समुदाय के पास बुनियादी सुविधाओं का पर्याप्त अभाव है। तब इन लोगों को स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सुविधाएं कैसे मिल सकती है।

इन सब बातों को देखते हुए रेनके आयोग की रिपोर्ट में दी गई सिफ़ारिशों को जल्द लागू किया जाये।

हम विमुक्त और घुमंतू जनजाति पिछले कई सालों से दोहरी मार झेल रहा है। अब इस समाज का किसी पर से भी भरोसा उठ गया है। ये जहां भी समूह में रहते हैं, आस-पास रहने वाला समाज इन्हें तिरस्कार की नजर से देखता है और जब भी किसी कारण से इन पर अत्याचार होता है, तो कुछ चीजें समूहों के भीतर ही मर जाती हैं। अगर किसी तरह कोई आवाज निकलती भी है, तो उस आवाज को शासकों द्वारा इस तरह दबा दिया जाता है कि ये फिर कभी अपनी आवाज नहीं उठा पाते। तरह-तरह के आरोप जैसे ये जन्मजात अपराधी हैं, ये आदतन अपराधी हैं, ये ऐसे ही हैं, चोरी करना इनका पेशा है, लूटपाट करना इनका पेशा है। न्याय उम्मीद रहती है लेकिन वह भी नहीं मिलती। इनका कहना है कि इन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक अधिकार मिले ताकि नई पीढ़ी इन नरक से बाहर आ सके।

आज पुलिस का ख़ौफ़ इतना बढ़ गया है कि नट बस्ती लोग अन्य गांवों में मवेशी खरीदने से डर रहे हैं। दूसरे गांव जाने से डर रहे हैं। डर की वजह से और अपने बाल-बच्चों के पालन-पोषण के लिए मुंबई की ओर पलायन कर रहे हैं।

प्रेम नट
प्रेम नट
लेखक नट समुदाय संघर्ष समिति बेलवाँ, वाराणसी के संयोजक हैं।

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