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मिर्जापुर का पीतल उद्योग, व्यापारियों की उम्मीद के कटोरे और राख़ होती मजदूर जीवन की आग

कभी बरसता था पैसा पर अब बदहाल हो रहा है पीतल का कारोबार   मिर्जापुर। दिन के लगभग 11 बजे हैं और हम मिर्जापुर कसरहट्टी में है। पतली गलियों में पुरानी तरह के मकान बने हुये हैं। मोटी दीवारें और हवा के लिए बड़े-बड़े दरवाजे और लकड़ी के फ्रेम में लोहे की सलाख लगाकर बनाई गई […]

कभी बरसता था पैसा पर अब बदहाल हो रहा है पीतल का कारोबार  

मिर्जापुर। दिन के लगभग 11 बजे हैं और हम मिर्जापुर कसरहट्टी में है। पतली गलियों में पुरानी तरह के मकान बने हुये हैं। मोटी दीवारें और हवा के लिए बड़े-बड़े दरवाजे और लकड़ी के फ्रेम में लोहे की सलाख लगाकर बनाई गई खिड़कियाँ इसकी प्राचीनता का किस्सा सुना रही हैं। गली के ज़्यादातर घरों में पीतल के बर्तन बनाए जा रहे हैं। हर तरफ धातुओं को पीट-पीट कर तराशा जा रहा है। पीटने के साथ आकार ले चुके बर्तनों को चमकाने के लिए उनकी घिसाई का काम भी चल रहा है। पूरी गली इस खट-पट, ठोंक-पीट के शोर से भरी हुई है। ठेले पर बर्तन लादने, ले जाने और उतारने का काम भी चल रहा है। यह पीतल मंडी मिर्जापुर की पहचान है। जब देश में नई तकनीक के उद्योग का विकास कम हुआ था तब यह जिला अपने कुटीर उद्योग के लिए विख्यात था। स्मृतियों के किस्से में इसका वैभव बहुत ही व्यापक है। वर्तमान में यह उद्योग चल जरूर रहा है पर अब अपना ऐतिहासिक वैभव खो चुका है। अब इसके चारों ओर दर्द की तमाम गिरहें हैं। मजदूर जीवन की त्रासदी का आलम यह है कि वह इस कारोबार का हिस्सा होकर भी परिधि के बाहर खड़ा दिखता है और केंद्र में खड़े बड़े व्यवसाई भी उम्मीद के अनुरूप लाभ की स्थिति तक नहीं पहुँच पा रहे हैं। पूरा का पूरा व्यावसायिक ताना-बाना बेहद बिखरा हुआ है। मिर्जापुर का यह उद्योग कहने को तो गरीबों का गोल्ड तराश रहा है पर अफसोस की इसके निर्माता से लेकर मजदूर तक सब की जिंदगी में गर्म आग और बुझी हुई राख़ के सिवा अब कुछ भी नहीं है। व्यवसायी अपने हित  लाभ के लिए सरकार से उम्मीद लिए बैठे हैं पर अपने पीतल के बर्तनों में चमक लाने वाले मजदूरों के जीवन में चमक लाने की उनकी कोई सोच नहीं दिखती है।

कभी राज्य का मुख्य व्यवासायिक केंद्र रहा मिर्ज़ापुर इलाहाबाद से 90 कि.मी तथा वाराणसी से 50 कि.मी की दूरी पर स्थित है। 2011 की जनगणना के अनुसार इस जिले की आवादी 233,691 थी। यह जिला अपने पीतल कारोबार के साथ अपने कालीन और दरी उद्योग के लिए भी जाना जाता है। मिर्ज़ापुर शहर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा 1735 में स्थापित किया गया था। किन्तु सभ्यता की बुनियाद 5000 ईसा पूर्व से ही मानी जाती है। पीतल की चमक और अपने कालीन तथा दरी निर्माण से पहले भी मिर्जापुर अपने लाह(लाख) और कपास कारोबार के लिए जाना जाता रहा है। बाद के समय में मिर्जापुर ने अपने कारोबार का दायरा बड़ा करते हुये, धातु, बुनाई, पत्थर और लकड़ी के कारोबार में भी हाथ आजमाना शुरू किया और लगभग चारों तरह के धंधे में अपूर्व ऊंचाई भी हासिल की। फिलहाल हम जब यहाँ के पीतल कारोबार और उससे जुड़े मजदूरों और व्यवसायियों का हाल जानने के लिए मिर्जापुर की इस गली में पँहुचे तब लोगों से लंबी बात करते हुये यह एहसास हुआ कि यहाँ के पीतल कारोबार में जब सोने के कारोबार की तरह पैसा बरस रहा था तब व्यवसायियों ने लाभ का बड़ा हिस्सा अपनी तिजोरी में जमा किया और इस कारोबार में चमक भरने वाले मजदूरों के हिस्से में बस आग, राख़ और बासी रोटी ही आती रही। पहले के समय में जब स्टैनलेस स्टील के बर्तन कम प्रचलन में थे और शादी-व्याह जैसे उत्सवी कार्यक्रमों में पीतल के बर्तनों की मांग बड़े स्तरों पर हो रही थी तब व्यवसायी वर्ग ने मजदूरों के आर्थिक स्तर को समृद्ध करने का कोई प्रयास नहीं किया। जिसकी वजह से मजदूरों ने इस व्यवसाय में श्रम तो खपाया पर इसके विकास और परिष्कार में कोई बड़ा प्रयोग करने की इच्छाशक्ति नहीं दिखाई और व्यवसायी लोग बस पारंपरिक बर्तन ही बनाते रहे। यह बर्तन वजन में इतने भारी थे कि इन्हें रोज़मर्रा के जीवन में शामिल कर पाना कठिन काम था।

जिसकी वजह से यह बर्तन धीरे-धीरे घरों में एशेट के रूप में संभाल कर रखे जाने लगे और रोज़मर्रा के जीवन में प्रयोग होने वाले बर्तनो से वह कटते चले गए। जिसकी वजह से नई पीढ़ी के लिए यह बेफजूल के समान में तब्दील हो गए। अब इस व्यवसाय की स्थिति यह है कि पीतल की सुनहरी आभा स्याह होती जा रही है।

मजदूरों  के हित से बेपरवाह कारोबारी अपने लिए सरकार से लगाए हैं आस

इस गली के बड़े व्यवसायी कामदनाथ से जब हम उनके पीतल व्यवसाय के अतीत और वर्तमान के बारे में पूछते हैं तो वह बताते हैं कि कई पीढ़ी से इस कारोबार में उनका परिवार रहा है। जब उनके पिता यह कारोबार करते थे तब की स्थिति को वह अपने व्यवसाय का स्वर्णिमकाल मानते हुये उसे 100 प्रतिशत व्यवसाय बताते हैं और उनका कहना है कि जब वह इस व्यवसाय में आए तब यह व्यवसाय 80प्रतिशत ही बचा था और अब जब उनके बच्चे इस कारोबार को संभाल रहे हैं तब लगभग 40प्रतिशत कारोबार ही बचा है। इसी के साथ वह सरकार की नई टैक्स प्रणाली जीएसटी को भी इस व्यवसाय में होने वाले नुकसान की एक वजह मानते हैं। वह बताते हैं कि कच्चे माल पर जीएसटी 18प्रतिशत की दर से लागू होती है और जब हम इसे उत्पाद के रूप में बाजार में लाते हैं तब 12प्रतिशत की दर से जीएसटी लागू होती है। इस वजह से उत्पाद की बाजार कीमत काफी बढ़ जाती है और जिस तरह से मंहगाई बढ़ी है उससे आम आदमी की क्रयशक्ति कमजोर हुई है ऐसे में वह एक ऐसे उत्पाद को खरीदने से बंचता है, जिसका उसके रोज़मर्रा के जीवन में बहुत उपयोग नहीं होता है।

अपने पुत्र अंकित के साथ कामदनाथ

कामदनाथ के बेटे अंकित इस व्यवसाय के कमजोर होने में सरकार की बड़ी भूमिका मानते हैं वह कहते हैं कि यह कुटीर और सूक्ष्म उद्योग है पर सरकार जिस तरह से अन्य कुटीर उद्योग को सब्सिडी देती है वैसी यहाँ कोई सब्सिडी लागू नहीं हैं। सरकार किसी भी रूप में इस उद्योग को बढ़ाने के लिए कोई सहायता नहीं कर रही है बल्कि कभी प्रदूषण विभाग की तरफ से जांच के नाम पर परेशान किया जाता है तो कभी किसी अन्य वजह से परेशान किया जाता है। वह सरकार से इस बात की भी मांग कर रहे हैं उन्हें कम ब्याजदर पर ऋण दिया जाय और शहर से बाहर कोई एक जगह उपलब्ध कराई जाये जहां हम संगठित रूप से इस व्यवसाय को संचालित करने की स्थिति में खड़े हो सकें। वह जीएसटी के स्लैब में 6प्रतिशत के अंतराल को भी इस व्यवसाय के लिए अनुचित मानते हैं। अंकित बताते हैं कि पीतल व्यवसाय बढ़ती इकॉनमी के साथ आगे नहीं बढ़ पा रहा है, दिनों-दिन इसकी डिमांड कम होती जा रही है। अब अगर सरकार इस व्यवसाय को सपोर्ट नहीं करेगी तो इसे बचा पाना कठिन होगा। वह चाहते हैं कि सरकार पीतल के बर्तनों के प्रयोग के लिए लोगों को इस रूप में प्रेरित करे कि पीतल के बर्तन में खाना बनाने और सर्व करने से स्वास्थ्य को खतरा नहीं है जबकि, जस्ता और स्टील के बर्तन शरीर के लिए हार्मफुल हैं।

फिलहाल जब हम उनसे यह पूछते हैं कि आप लोग अपने लिए तो सरकार से बहुत कुछ मांग रहे हैं पर आपके काम में लगे मजदूरों के लिए भी आपके पास कोई फ्यूचर प्लान है तब वह कहते हैं कि यह पूरा काम एक असंगठित सेक्टर के रूप में चल रहा है और हम मजदूरों को दैनिक आधार पर उनकी मजदूरी का भुगतान कर देते हैं। उनसे बातचीत में यह बात साफ तौर पर सामने आती है कि कुटीर उद्योग के नाम पर चल रहे इस पूरे कारोबार में मजदूरों के लिए न्यूनतम मानकों का भी पालन नहीं किया जा रहा है। श्रम विभाग भी शायद इन गलियों में कभी यह देखने आता है कि 900 से 1000 तापमान की भट्ठियों की आग के सामने पीतल की तरह ही खुद को भी गलाते-जलाते मजदूरों को क्या उनका वाजिब हक मिल पा रहा है। यहाँ की पूरी बाजार में ज़्यादातर व्यवसायी पंजीकृत हैं पर Shops & Establishment Act, 1962 की न्यूनतम शर्तें भी यहाँ पूरी नहीं की जा रही हैं। व्यसाय की बदतरी पर सरकार से तमाम उम्मीद की आस लिए बैठे व्यवसायी इस व्यवसाय की रीढ़ की तरह लगे मजदूरों को उनका हक देने की कोई भी इच्छा शक्ति नहीं रखते हैं। इस पूरे व्यवासाय में लाभार्थी सिर्फ व्यवसायी परिवार के सदस्य ही दिखते हैं मजदूर पूरी तरह से शोषित हैं। उन्हें आवश्यकतानुरूप काम पर बुला लिया जाता है और एक तरह से बेगार जैसी मजदूरी देकर पल्ला छाड़ लिया जाता है। अंकित की बात के मद्देनजर जब हम पूरे बाजार में इस बात की सत्यता जाँचने निकलते हैं तब यह साफ दिखता है कि यहाँ का बड़ा व्यवसायी वर्ग अपने हित के लिए जितनी सजगता से संघर्ष कर रहा है उतनी ही चालाकी से वह मजदूरों के हक के खिलाफ भी खड़ा है। यहाँ काम  करने वाले मजदूर भी अपने हक के लिए ना तो जागरूक हैं ना ही संगठित हैं। ऐसे में वह शोषित मूल्य पर रोज-दर-रोज दिहाड़ी मजदूर की तरह खुद को दांव पर लगाकर काम करते हैं।

आग में तपकर भी ज़िंदगी में चमक नहीं ला पा रहे हैं पीतल गलाने वाले मजदूर 

यहाँ हमें इस व्यवसाय के कमतर होते जाने का एक महत्वपूर्ण सिरा मिलता है जिससे समझ में आता है कि यहा के व्यवसायी अपने हित के लिए चिंतित हैं और व्यवसायिक लाभ कम होने से परेशान भी हैं पर अपने व्यवसाय में लगे मजदूरों के लिए उनके पास कोई प्लान नहीं है। यहाँ तक कि इन मजदूरों के साथ किसी तरह का तरह का अनुबंध भी नहीं किया जाता है कि। जिसकी वजह से इस काम में लगे मजदूर अपने भविष्य को लेकर लगातार अनिश्चितता की स्थिति में बने रहते हैं।

आग में पिघलता हुआ पीतल

हम एक कारखाने में पीतल निर्माण की प्रक्रिया देखने के लिए जब जाते हैं तब हमारी मुलाक़ात आग की भट्ठी में पीतल पिघलाते मजदूरों से होती है। बुद्धिराम जो मिर्जापुर के ही रहने वाले हैं वह बताते हैं कि हम लगभग 32 साल से काम कर रहे हैं, इस काम से बस किसी तरह रोजी-रोटी चल रही है। वह कहते हैं कि पढ़ लिख के जब कोई काम नहीं मिला तब मजबूरी में इस काम में आना पड़ा। यह काम भी लगातार नहीं रहता है जिसकी वजह से घर चलाना भी मुश्किल हो जाता है। वह चाहते हैं कि उनकी आने वाली पीढ़ियाँ इस काम से दूर रहे हैं। उनके साथ काम करने वाले घनश्याम भी इस व्यवसाय की गिरावट से परेशान हैं वह कहते हैं कि हम लोग तीन-तीन, चार-चार घंटे धधकती भट्ठी के सामने खड़े होकर पीतल को पिघलाते हैं, पर इस मंहगाई के समय में इस काम से इतना भी कमा पाते कि बच्चों को कायदे से पढा-लिखा सकें। वह हमें उस भट्ठी के सामने ले जाते हैं आग इतनी तेज है कि मैं चाह कर भी बहुत करीब नही जा पाता, चेहरे पर जलन होने लगती है।

बुद्धिराम

उस भट्ठी में मिट्टी का एक बर्तन डाला गया है जिसमें पीतल को पिघलाया जाता है। वह इस तरह से सुर्ख लाल हो चुका है कि उसे सीधे आँख से देखना मुश्किल होता है। कई मजदूर मिलकर उसे निकालते हैं। उनके पास सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं है। यह सोचने में भी मन सिहर जाता है कि कभी यदि इनकी पकड़ ढीली पड़ जाये तो कितना भयावह अंजाम हो सकता है। जिस ताप पर पीतल पिघल कर पानी बन जाता है उस ताप पर मनुष्य देह का क्या हश्र होगा यह कल्पना मात्र से मन सिहर जाता है। यह काम करने वाले इसमें इतना रच-बस गए हैं कि उन्हें सिर्फ इस काम से मिलने वाली मजदूरी दिखती है, वह इससे अलग कुछ नहीं सोचना चाहते हैं। घनश्याम अपनी लय में काम करते हुये हमें कहते हैं कि पेट की आग इससे ज्यादा तेज होती है, उस आग से बचने के लिए इस आग को झेल लेते हैं।

पीतल पिघलाते घनश्याम और अन्य कामगार

यह वाक्य वह बड़ी सहजता से बोल देते हैं पर हमारे लिए यह एक बड़ा प्रश्नवाचक बन जाता है कि क्या हमारी सभ्यता में आज भी भूख ही सबसे बड़ा सवाल है और 75साल की आजादी के बाद भी हमारे समाज का एक हिस्सा सुबह शाम की रोटी के लिए आग की भट्ठी पर खुद को पका रहा है। जिस आग से चार मीटर की दूरी पर भी हमारे लिए खड़ा होना मुश्किल हो रहा है उस आग से चार अंगुल की दूरी पर कोई कैसे लगातार कई घंटों तक खड़े होकर काम कर सकता है। यहीं पर सहज तौर पर वह लोग याद आते हैं जो आरक्षण का विरोध कराते हये कहते हैं कि योग्यता को प्राथमिकता देते हुये आरक्षण को खत्म किया जाना चाहिए। आरक्षण खत्म करने से पहले क्या इन लोगों के जीवन-स्तर में बदलाव का उनके पास कोई प्लान है। यदि नहीं है इस वंचित समाज की एकमात्र वैशाखी छीनने की सोच से बाहर आ जाना चाहिए। आरक्षण की बात आते ही यह जानने का मन भी करता है कि इस तरह की मजदूरी करने वाले किस जाती समूह से ताल्लुक रखते हैं। बुद्धिराम बताते हैं कि मल्लाह, बिन्द, पासी, यादव जाति के लोग ही ज़्यादातर यहाँ मजदूरी करते हैं। अभी भी गरीबी और वंचना की शिकार जातियों में पिछड़ी जाती, अनुसूचित जाती और अनुसूचित जनजाति के ही लोग हैं और उन्हें सामाजिक बराबरी पर लाने के लिए उनके जातीय भागीदारी के अनुपात में हिस्सेदारी देनी ही होगी। यही वजह है कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में जाति गत जनगणना की बात प्रमुखता से उठाई जा रही है। जिन राज्यों की राजनीति में पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समाज के नेता मुख्यधारा में हैं वहाँ यह मांग ज्यादा तेज है और बिहार राज्य में सत्ता में होने की वजह से जातीय जनगणना के आंकड़े भी सार्वजनिक किए जा चुके हैं।

हम पीतल पिघलाए जाने वाली भट्ठी की आग से तपे-तपाये बाहर निकलते हैं और अपने स्थानीय संवाददाता संतोष देव गिरि और कैमरामैन शेखर के साथ एक दूसरे कारखाने में जाते हैं जहां मनोज रोलिंग मशीन के सहारे एक थार (पीतल का एक पारंपरिक बर्तन) की घिसाई का काम कर रहे हैं। मनोज तेजी से घूमती हुई रोलिंग मशीन पर एक छेनी जैसा हथियार लगाए हुये हैं और पीतल की ऊपरी पर्त को छील रहे हैं। धीरे-धीरे थार की चमक बढ़ती जा रही है। थोड़ी देर में वह थार इस तरह से चमक उठती है जैसे एक छोटा सा सूर्य रच दिया गया हो और मनोज अपने रचे सूर्य की आभा में खो जाते हैं।

पीतल तो चमक जाता है पर जिंदगी की स्याही कम ही नहीं होती 

मनोज कुमार

सब ठीक लगता है तो वह उसे रोलिंग मशीन से उतार लेते हैं। थार आगे से चमकाई जा चुकी है पर पीछे के हिस्से में अभी भी कालिमा बरकरार है। इस कालिमा को भी शायद वह हमारे जाने के बाद हटा दें पर जब हम उनसे बात करते हैं कि तब पता चलता है एक कालिमा उनके जीवन में भी है जो जाने ही कितनी पीढ़ियों से उनके हिस्से में है और खुद को बहुत घिसने के बाद भी वह इस स्याह रंग को अपने जीवन से दूर नहीं कर पाये हैं। मनोज कहते हैं कि पहले से अब काम भी बहुत कम हो गया है। अब तो लगातार यह काम भी नहीं रहता है तब घर चलाने के लिए दूसरे काम करने पड़ते हैं। कभी सब्जी का ठेला लगा लेते हैं तो कभी दिहाड़ी मजदूरी के दूसरे काम कर लेते हैं।

इसी तरह के हालात पीतल व्यवसाय में लगे हुये अन्य तमाम मजदूरों के हैं। हम एक दूसरे कारखाने में जाते हैं जहां काम करने वाले मजदूर ज़्यादातर 20 से 35 साल के बीच के युवा हैं वह अपने इस काम को लेकर अब किसी तरह की उदासी नहीं दिखाते हैं मुझे लगता है कि शायद उनकी जिम्मेदारियाँ कम हैं इसलिए वह ऐसा कर रहे हैं पर जब हम नरेंद्र से बात करने लगते हैं तब एक भयभीत कर देने वाला सच सामने आता है। नरेंद्र इंटर पास हैं वह कहते हैं कि इस कारखाने में आने से पहले ही यह सोचना छोड़ दिये कि इससे अच्छा भी हमारे हिस्से में कुछ हो सकता है। जब और कुछ नहीं हो सका तब इसे कना शुरू किया अब चाहे खुशी से करूँ या उदासी से पर जब जानता हूँ कि मेरे पास और कोई रास्ता नहीं है तब यही अच्छा लगता है कि इसे ही खुशी-खुशी करूँ। नरेंद्र की आँखों की चमक अचानक से धुंधला जाती है और वह अंदर चले जाते हैं।

अज़ाब सी जिंदगी में चुहल करते नरेंद्र और उनके साथी

उनके साथी वापस से हंसी ठिठोली करने लगते हैं। इस अज़ाब भरी ज़िंदगी के बीच समझ में नहीं आता है कि इनके साथ हंसा जाय या चुपचाप पाँव पीछे मोड़ लिया जाय। पीतल की सुनहरी चमक के पार्श्व में इतना स्याह अंधेरा होगा मुझे इसकी उम्मीद नहीं थी।

हम आगे बढ़ते हैं, स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता शैलेन्द्र अग्रहरी हमें इस व्यवसाय के कुछ बड़े व्यापारियों से मिलवाने ले जाते हैं। हमारी मुलाक़ात व्यापारी समाज के नेता और पीतल व्यवसायी कृष्ण कुमार वर्मा से होती है। दुर्गा देवी मिर्जापुर के रहने वाले कृष्ण कुमार वर्मा का मानना है कि अब पूरा पीतल व्यवसाय ही संकट में है जिसकी वजह से व्यवासायी और मजदूर वर्ग दोनों भविष्य पर खतरा मंडरा रहा है। यदि सरकार ने समय रहते इस व्यवसाय के विकास के लिए उचित नीतियाँ नहीं बनाई तो आने वाले समय में मिर्जापुर का पीतल व्यवसाय इतिहास की कथा मात्र बनकर रहा जाएगा। उनका कहना है कि हमने सरकार से डिमांड की है हमें इंडस्ट्री के लिए लैंड दिया जाय, सबसिडी दर पर कच्चा माल उपलब्ध कराया जाय ताकि उत्पाद की लागत कम की जा सके और सस्ते दाम पर बाजार में बेंचा जा सके। इससे सरकार का रेवन्यू भी बढ़ेगा और हमारे लिए बाजार भी बढ़ जाएगा। इसे कुटीर उद्योग से निकालकर इंडस्ट्री के रूप में स्थापित किए बिना इसका विकास संभव नहीं है।

मुश्किल से मिला ओडीओपी का टैग 

कृष्ण कुमार वर्मा

वह बताते हैं कि हजारों मजदूर इस सेक्टर में काम कर रहे हैं पर इस व्यवसाय का पूरा ढांचा इतना पारंपरिक है कि सबकुछ बहुत ही बिखरा हुआ सा ही रह जाता है। वह कहते हैं कि इतना बड़ा इंपलाईमेंट सेक्टर होने के बाद भी सरकार इसके लिए जरूरी कदम नहीं उठा रही है यह बहुत ही सोचनीय है। सरकार की उदासीनता के चलते मिर्जापुर का पीतल कारोबार मरणासन्न अवस्था में पहुँच चुका है। वह बताते हैं कि ओडीओपी योजना में मिर्जापुर के कालीन व्यवसाय को तो शामिल किया गया था पर पीतल व्यवसाय को नहीं शामिल किया जिसके लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी तब सरकार ने यहाँ के पीतल व्यवसाय को भी इसमें शामिल किया। यहाँ यह भी जान लेना जरूरी है कि वर्तमान केंद्रीय उद्योग मंत्री अनुप्रिया पटेल इसी संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती हैं।  मिर्जापुर जो कभी अपनी अमीरी के किस्से कहता था अब अपनी व्यावसायिक पहचान खोते हुये पूरी तरह से एक धार्मिक नगरी बनने की ओर अग्रसर है। जहां धर्म के ठेकेदार बने पांडे अपनी गुंडई और रंगाबाजी का जलवा बिखेरने में लगे हुये हैं। फिलहाल मिर्जापुर का एतिहासिक पीतल व्यवसाय अभी संकट में है और पीतल को पिघलाकर नए साँचे में ढाल देने वाले मजदूर अनिश्चितता के ऐसे मुहाने पर खड़े हैं जहां से वह ना तो पूरी तरह से इस व्यवसाय का हिस्सा बन पा रहे हैं ना ही इससे बाहर निकल पाने की कोई राह तलाश पा रहे हैं।

इस सब के साथ एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी आता है कि आखिर मिर्जापुर के पीतल व्यवसाय की उपयोगिता क्या है? यहाँ बनाए जाने वाले सामान आज की दिनचर्या में कहीं फिट ही नहीं बैठते हैं। आधुनिक जीवन शैली के अनुरूप यहाँ के बर्तनों में कोई बदलाव नहीं हुआ जिसकी वजह से मिर्जापुर के पीतल के सामान ना तो ड्राविंग रूम में अपनी जगह बना पाक रहे हैं ना ही किचेन का हिस्सा बन पा रहे हैं। यह बर्तन सिर्फ एशेट के रूप में ही घरों के किसी कोने में रख दिये जाते हैं। अगर डार्विन थ्योरी के सहारे इसे देखने की कोशिश करें तो साफ दिखता है कि अनुपयोगी चीजें धीरे-धीरे खत्म हो जाति हैं। यह बात उन्होंने भले ही जीवन के परिप्रेक्ष्य में कही हों पर यह वस्तुगत चीजों पर भी प्रभावी दिखती है। पीतल के पीछे की कालिमा यहाँ के मजदूरों के जीवन का हिस्सा बन चुकी है और आगे की चमक के सहारे व्यवसायी वर्ग आज भी मुनाफा कमा रहा है और दुखी है कि उसका मुनाफा अब पहले जैसा नहीं रह गया है। जिसके लिए वह सरकार से दरियादिली दिखाने की अपेक्षा जरूर रखता है पर मजदूर वर्ग के लिए उसके अंदर कोई दरियादिली नहीं दिखती है वह बिना किसी मानक का अनुपालन किए सिर्फ दैनिक मजदूरी देकर अपनी उदारता का सबूत देता दिखता है। इस मजदूरी के बाहर एक गिलास पानी देकर भी वह खुद को महान घोषित कर लेता है। जबकि इस कारोबार में सर्वाधिक शोषण इसी मजदूर वर्ग का है जो 900 से ज्यादा तापमान की आग के किनारे खड़ा होकर मिर्जापुर के गौरव गान के लिए पीतल पिघला रहा है और उसे चमका कर मालिक वर्ग के जीवन में सुनहरी आभा ला रहा है।

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