Friday, July 5, 2024
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घोसी उपचुनाव में बिना चुनाव लड़े दांव पर लग गए हैं ‘पियरका चाचा’

मऊ। जिले की घोसी विधानसभा सीट के उपचुनाव ने उत्तर प्रदेश की राजनीति का तापमान बढ़ा दिया है। घोसी विधानसभा सीट पर समाजवादी के टिकट से जीते दारा सिंह चौहान के इस्तीफे से रिक्त हुई इस सीट से जहां पार्टी बदलकर वापस दारा सिंह चौहान भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। वहीं, सपा […]

मऊ। जिले की घोसी विधानसभा सीट के उपचुनाव ने उत्तर प्रदेश की राजनीति का तापमान बढ़ा दिया है। घोसी विधानसभा सीट पर समाजवादी के टिकट से जीते दारा सिंह चौहान के इस्तीफे से रिक्त हुई इस सीट से जहां पार्टी बदलकर वापस दारा सिंह चौहान भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। वहीं, सपा ने सुधाकर सिंह को सियासी मैदान में उतारकर चुनाव को रोमांचक बना दिया है। यह चुनाव अब सिर्फ दारा सिंह और सुधाकर के बीच का नहीं रह गया है, बल्कि अब यह चुनाव भाजपा और समाजवादी पार्टी की नाक का सवाल बनता जा रहा है।

दारा सिंह भाजपा से निकल कर सपा में शामिल हुये थे, सपा के टिकट पर ही विधानसभा का चुनाव जीते थे। दरअसल, दारा सिंह इस उम्मीद के साथ सपा में शामिल हुये थे कि सपा की सरकार बनेगी और वह सत्ता में रहेंगे, मंत्री बनेंगे पर ऐसा हुआ नहीं। विधानसभा में भाजपा ने पूर्ण बहुमत की सरकार बना ली। दारा सिंह जिस उम्मीद के साथ सपा में शामिल हुये थे वह चूर हो गई थी। वह जिस पार्टी को छोड़कर सपा में आए थे, उस पार्टी ने वापस सरकार बना ली थी।

उस समय तो दारा सिंह मायूस होकर रह गए थे, पर अब जब लोकसभा का चुनाव समीप आ रहा है, तब एक बार फिर से सियासत के अखाड़े में उथल-पुथल मच गई है। भाजपा लगातार अखिलेश यादव के पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक (पीडीए) को तोड़ने की फिराक में लगी हुई है। जिसके तहत सबसे पहले ओम प्रकाश राजभर भाजपानीत गठबंधन एनडीए में शामिल हुये थे। इसके बाद ओम प्रकाश राजभर, जो लगातार भाजपा के खिलाफ बोलते रहते थे, अचानक उनके निशाने पर अखिलेश यादव आ गए। ओम प्रकाश राजभर सियासत के बड़े नेता नहीं हैं, पर अपनी जाति के बड़े नेता हैं। इसी ताकत को वह झंडे की तरह उठाए हुये हर जगह आवाजाही करते रहते हैं। वैसे वह पिछड़ी जाति और दलित समाज के हक-इंसाफ का नगाड़ा बजाने से नहीं चूकते, पर आज तक वह साफ-तौर पर यह बताने की स्थिति में नहीं दिखते हैं कि उनकी पॉलिटिक्स क्या है?

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घोसी के उपचुनाव में ओम प्रकाश राजभर की भूमिका अब महत्वपूर्ण हो गई है। समाजावादी पार्टी के सुधाकर सिंह ने यह बयान देकर कि ‘ओम प्रकाश राजभर भले ही एनडीए में शामिल हो चुके हैं, पर वह मेरा प्रचार करेंगे और वह चाहते हैं कि यह चुनाव दारा सिंह नहीं, बल्कि मैं जीतूँ।’ आगामी पांच सितंबर को होने जा रहे इस उपचुनाव में सुधाकर सिंह ने सुभासपा के ओम प्रकाश राजभर का नाम लेकर उनको अप्रत्याशित रूप से इस चुनाव के जुए में हांक दिया है। ओम प्रकाश पर सुधाकर सिंह के बयान से भाजपा में खलबली मच गई। भाजपा ने अपने दिगज्जों के साथ सहयोगी पार्टियों को भी इस चुनावी अभियान पर लगा दिया। इस अभियान में अब सबसे रोचक भूमिका ओम प्रकाश राजभर की बन चुकी है। वह घोसी की सड़कों पर घूमकर दारा सिंह के लिए वोट मांग रहे हैं।

ओम प्रकाश राजभर पहली बार अपने लोगों और अपने समाज के साथ पिछले विधानसभा की तरह कनेक्ट नहीं कर पा रहे हैं। बार-बार वैचारिक धरातल बदलने से ओम प्रकाश ने अपना धरातल खो दिया है। पिछले विधानसभा में समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर उन्होंने पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समाज को एक करने के लिए जमकर मेहनत की थी। जिसका फायदा उनको और समाजवादी पार्टी को भी मिला था। पर अब अपने निजी लाभ-हानि के मुद्दे पर वह उस भाजपा के साथ खड़े दिख रहें हैं, जिस पर मनुवादी पार्टी होने का ठप्पा लगता रहा है। फिलहाल, घोसी उपचुनाव के चक्कर में उनकी प्रतिष्ठा दांव पर लग गई है। वैसे भी भाजपा का उपचुनाव जीतने का ट्रैक रिकार्ड अच्छा नहीं रहा है। अगर भाजपा यह चुनाव हार जाती है, तो उसके ऊपर कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ेगा। लेकिन ओम प्रकाश राजभर की सेहत के लिए यह चुनाव अच्छा नहीं साबित होगा। उनकी प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। राजनीति के सामान्य गलियारे में वह ट्रोल किए जाने वाले सबसे बड़े नेता बन चुके हैं। उनके ऊपर लगातार मीम्स बन रहे हैं, उन्हें पियरका चाचा कहकर चिढ़ाया जा रहा है। ओम प्रकाश राजभर भाजपा के साथ जाकर मंत्री बन सकते हैं, सत्ता के करीब रह सकते हैं, पर अब वह अपनी ब्रांड की विश्वसनीयता खो चुके हैं।

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सामाजिक न्याय की जिस लड़ाई में ओम प्रकाश राजभर अगली कतार के नेता हो सकते थे, अब उसी सामाजिक न्याय के संघर्ष को कमतर बनाने में भाजपा उनका उपयोग करेगी।

दो दिन पहले उन्होंने समाजवादी नेता और पार्टी के महासचिव शिवपाल सिंह यादव को लेकर जिस तरह से टिप्पणी की थी, उससे यह साफ दिखता है कि एनडीए में वह किसी विचारधारा या फिर अपने समाज की आवाज बनने के बजाय भाजपा के हित मात्र के लिए काम करते और पिछड़ी जाति के नेताओं का काउंटर करते नजर आएंगे।

घोसी का उपचुनाव यदि भाजपा हारती है, तो लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को संजीवनी मिल सकती है और विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A.  का आत्मविश्वास भी मजबूत हो सकता है। घोसी का उपचुनाव सपा-भाजपा के लिए जितने महत्व का है, उतना ही इस चुनाव का महत्व कांग्रेस के लिए भी है, बावजूद इसके कांग्रेस के नेताओं में अभी इस चुनाव को लेकर कोई सक्रियता नहीं दिख रही है। वहीं, एनडीए गठबंधन के वह दल जो इस चुनाव पर प्रभाव डाल सकते हैं, वह अभी से मैदान में दिखने लगे हैं।

 

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