संघी विचारक बार-बार एकात्म मानववाद का बखान करते हैं और भारत के बहुजन समाजों को एक प्रतिगामी इतिहास से जोड़ने की साजिश करते हैं। व्यावहारिक तौर पर यह ब्राम्हणवादी मूल्यों को बढ़ावा देता है और इसके चलते मंदिर (मस्जिदों को ढहाया जाना), पवित्र गाय (लिंचिंग), लव जिहाद और धर्मपरिवर्तन एजेंडे के मुख्य मुद्दे बन गए हैं। इस विचारधारा की मान्यता यह है कि भारत को पहले मुस्लिम राजाओं और फिर अंग्रेजों ने गुलाम बनाया। यह विचारधारा हिंदू समाज की बहुत सी खराबियों के लिए, खासतौर से मुस्लिम राजाओं के अत्याचारों को दोषी मानती है। तथ्य यह है कि हिंदू धर्म की बहुत सी कमियां जाति, वर्ण और लिंग आधारित ऊंच-नीच की वजह से हैं जिनका जिक्र हिंदुओं द्वारा पवित्र मानी जाने वाले कई प्राचीन ग्रंथों में मिलता है।
आज खुलेआम धर्म का इस्तेमाल राजनैतिक एजेन्डे को आगे बढ़ाने के लिए किया जा रहा है। बौद्ध मंदिर का संचालन ब्राम्हणवादी तौर-तरीकों से हो रहा है और सूफी दरगाहों का ब्राम्हणीकरण किया जा रहा है। बौद्ध भिक्षु अपने पवित्र स्थान का संचालन उनकी अपनी आस्थाओं और मानकों के अनुसार करना चाहते हैं और उसके ब्राम्हणीकरण का विरोध कर रहे हैं।
प्रशांत किशोर की उपस्थिति ने बिहार की राजनीति को काफी हद तक गरमा दिया है हालांकि उनको लेकर ढेरों सवाल भी खड़े हो रहे हैं। खासतौर से प्रशांत किशोर को भाजपा की बी टीम के रूप में देखा जा रहा है। बरसों से बिहार की सत्ता पर चले आ रहे पिछड़ों के कब्जे पर सेंध लगाने के लिए भी प्रशांत किशोर को एक माकूल व्यक्ति माना जा रहा है। लेकिन बातें इतनी आसान नहीं हैं। यह तो भविष्य बताएगा कि प्रशांत किशोर क्या रंग दिखाते हैं लेकिन उनकी राजनीति में शामिल घटकों का बेबाक विश्लेषण कर रहे हैं मनीष शर्मा।
प्रधानमंत्री मोदी अपने जंगलराज को ढंकने की रणनीति के तहत ही,शायद बस्तर नरसंहार को बिहार में एजेंडा बना रहे है और बिहार में 2014 बाद से माओवाद को लगभग ख़त्म कर देने का श्रेय लेने की कोशिश अपने संबोधन में कर रहे हैं। हालांकि इस नए नैरेटिव के बावजूद यह देखना बाकी है कि पुराना जंगलराज का नैरेटिव अभी की नई परिस्थितियों में भी कितना कारगर हो पाएगा।
सीमाओं पर जिन जवानों ने अपना खून बहाया, वह व्यर्थ गया। इसलिए कि देश को सिंदूर की जरूरत है और सिंदूर की जगह वे अपना खून बहा गए। अब खून की कोई कीमत रही नहीं, क्योंकि हमारा देश तो आए दिन खून-खराबा देख रहा है। यह खून दंगों को तो भड़का सकता है, लेकिन राष्ट्रवादी जोश को नहीं। अब देशभक्ति इस पैमाने से नापी जाएगी कि किसकी रगों में कितने प्रतिशत सिंदूर बह रहा है
केंद्र में भाजपा के सत्ता में आने के बाद सबसे ज्यादा पीड़ित मुसलमान ही हुए हैं। उन्हें सड़कों पर नमाज पढ़ने के लिए पीटा जा रहा है, गोमांस खाने के लिए निशाना बनाया जा रहा है, हिंदू त्योहारों में उनका बहिष्कार किया जा रहा है या फिर कोरोना जिहाद या थूक जिहाद के बहाने उनका बहिष्कार किया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के विपरीत निर्देशों के बावजूद राज्य सरकारें मुस्लिम संपत्तियों पर बुलडोजर चला रही हैं।
ग्वालियर के सांसद भरत सिंह कुशवाह की शिकायत है कि ग्वालियर का सांसद होते हुए भी उन्हें एक सांसद की तरह काम नहीं करने दिया जा रहा है, सांसद के रूप में सम्मान की तो बात ही अलग है। वे केंद्र की जिन तमाम योजनाओं के लिए भागदौड़ करते हैं, उनके स्वीकृत होते ही उन सब योजनाओं को लाने का श्रेय युवराज लूट लेते हैं और प्रशासन भी उनकी मदद करता है।
हाल ही में आरएसएस मुख्यालय नागपुर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जाना राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय हो गया गया। आमतौर पर कयास लगाया जा रहा है कि इस वर्ष 75 वर्ष पूरे करने जा रहे मोदी की यह फेयरवेल यात्रा है। दस वर्ष के अपने दो कार्यकालों में मोदी ने नागपुर का रुख नहीं किया लेकिन तीसरे कार्यकाल में जब उनका अपराजेय होने का भ्रम टूट गया है तब संघ के शरण में उनका जाना यह संकेत कर रहा है कि शायद संघ की मदद से वह अपना कार्यकाल पूरा करना चाहते हैं जिससे वे नेहरू के कार्यकाल के करीब जा सकें। आरएसएस और भाजपा के बीच कोई विवाद या असहमति नहीं है। ज्यादा से ज्यादा यह हो सकता है कि दोनों के बीच हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए अपनाई जाने वाली रणनीति के मामले में कुछ मतभेद हों। पढ़िये डॉ राम पुनियानी की यह टिप्पणी ।
आज ही मैंने एक वीडियो देखा, जिसमें एक यात्री यू पी के रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर शायद चादर ओढ़कर रात में अपनी ट्रेन का इंतजार कर रहा है और वहीं वर्दी में एक पुलिसकर्मी अपने जूते से उसके पैर को रगड़कर जगा रहा है। क्या यह अमानवीयता शरीर पर वर्दी पहनने के बाद आती है? या फिर पुलिस की ट्रेनिंग भी इसी तरह दी जाती है? क्या आरएसएस की गतिविधियों के प्रति उदार हो चुकी पुलिस भी नफ़रत की भावना से भर चुकी है?
प्रधानमन्त्री बनने के लगभग 12 साल बाद नागपुर के संघ कार्यालय में मोदी पहुंचना, ताक़त का प्रदर्शन तो नहीं है? जबकि भाजपा ने स्वयं को सक्षम घोषित कर दिया था, फिर ऐसा क्या हुआ कि पहले नड्डा और अब मोदी खुद नागपुर पहुंच गए।
औरंगजेब का दानवीकरण राजनैतिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है और हिंसा और गौमांस, लव जिहाद जैसे मुद्दों के जरिए मुसलमानों के एक वर्ग को आतंकित और एक दायरे में सिमटने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। औरंगजेब को आज के असहाय मुस्लिम समुदाय से जोड़ना कैसे न्यायोचित है। मुस्लिम राजाओं के जुल्मों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने से हिन्दू राष्ट्र के लक्ष्य को आगे बढ़ाने में दो तरह से मदद मिलती है। एक ओर इसके जरिए धार्मिक अल्पसंख्यकों पर निशाना साधा जाता है और दूसरी ओर, अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि इससे हिन्दू राष्ट्रवाद के आधार, ब्राम्हणवादी व्यवस्था, द्वारा समाज के कमजोर तबकों पर ढहाये गए अत्याचारों पर पर्दा पड़ता है।