Sunday, October 26, 2025
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राजनीति

आई लव मोहम्मद : साम्प्रदायिक हिंसा का नया बहाना

इन दिनों हम ‘आई लव मोहम्मद‘ के सीधे-सादे नारे को लेकर हिंसा भड़काने के नजारे देख रहे हैं। इसकी शुरुआत कानपुर से हुई जब मिलादुन्नबी के दिन पैगम्बर मोहम्मद के जन्म दिवस के अवसर पर निकाले गए जुलूस में शामिल ‘आई लव मोहम्मद‘ बैनर पर कुछ लोगों द्वारा इस आधार पर आपत्ति की गई कि इस धार्मिक उत्सव में यह नई परंपरा जोड़ी जा रही है।

भारतीय संविधान और सामाजिक न्याय : एक सिंहावलोकन

भारतीय समाज में अनेक असमानताएं व्याप्त हैं। कुछ ऐसी ताकतें हैं जो भारतीय संविधान का ही अंत कर देना चाहती हैं। वह इसलिए क्योंकि संविधान समानता की स्थापना के संघर्ष में एक महत्वपूर्ण औज़ार है। इस समय जो लोग सामाजिक न्याय की अवधारणा के खिलाफ हैं वे खुलकर भारत के संविधान में बदलाव की मांग कर रहे हैं। लेकिन जरूरी है कि संविधान के सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने वाले उसके प्रावधानों सहित, रक्षा की जाये और उसे मज़बूत बनाये जाये।

उत्तर प्रदेश : जाति की राजनीति के बहाने विपक्ष को कमजोर करने की रणनीति

उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट ने निर्देश दिया कि पुलिस रिकॉर्ड, एफआईआर और गिरफ्तारियों में जातिगत उल्लेख नहीं होगा। सार्वजनिक स्थानों से जातिसूचक स्टिकर हटाए जाएँगे और जाति-आधारित रैलियों पर रोक लगाई जाएगी। सतही तौर पर यह कदम जातिगत भेदभाव खत्म करने की दिशा में क्रांतिकारी प्रतीत होता है, लेकिन जब इसे राजनीतिक संदर्भ में देखा जाता है, तो इसके पीछे कई गहरे प्रश्न खड़े हो जाते हैं।

बिहार के पहले दलित मुख्यमंत्री ही नहीं सामाजिक न्याय के सूत्रधार भी थे भोला पासवान शास्त्री

आमतौर पर भोला पासवान शास्त्री का जिक्र आते ही एक व्यक्तिगत ईमानदार और आदर्शवादी राजनेता का चेहरा उभरता है जिसने तीन बार बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने के बावजूद अपने लिए कुछ नहीं किया। अत्यंत संयम और किफायत के साथ अपना पूरा जीवन गुजार दिया। लेकिन केवल इतना ही काफी नहीं है बल्कि भोला पासवान शास्त्री ने सामाजिक न्याय की दिशा में बेमिसाल काम किया है जिसकी ओर प्रायः ध्यान नहीं दिया गया है। अपने कार्यकाल में मुंगेरी लाल आयोग का गठन करके उन्होंने भविष्य में मण्डल आयोग की जरूरत का सूत्रपात कर दिया था। हरवाहे-चरवाहे के रूप में जीवन शुरू करनेवाले भोला पासवान शास्त्री के रोचक और प्रेरक जीवन पर एच एल दुसाध का लेख।

देश का सांप्रदायिककरण करने में आरएसएस के बाद ढोंगी बाबाओं की कतार सबसे आगे 

बाबा पंडा-पुरोहितों के परंपरागत वर्ग से ताल्लुक नहीं रखते। वे लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने की स्वयं की नई-नई तरकीबें ईजाद करते हैं। कुछ परंपरागत ज्ञान और कुछ अपनी कल्पनाओं को मिश्रित कर वे ऐसे विचार प्रस्तुत करते हैं जो उनकी पहचान का केन्द्रीय बिंदु होता है। अपने हुनर पर उनका भरोसा वाकई काबिले तारीफ होता है और वे प्रायः बहुत अच्छे वक्ता होते हैं। 

छत्तीसगढ़ को नफरत की नर्सरी बना रही है भाजपा

अंग्रेजों के समय से आज तक इस देश में ईसाई शैक्षणिक संस्थाएं सेवा और उत्कृष्टता के केंद्र हैं। ईसाई समुदाय, विशेष रूप से ननों और पादरियों ने स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सेवा क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान दिया है। यही कारण है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा सहित संघी गिरोह के कई बड़े नेता, जो आज हिंदुत्व के पुजारी बने हुए हैं, इन्हीं शिक्षा संस्थाओं से पढ़कर निकले हैं और उनका हिंदुत्व की कोई नसबंदी नहीं हुई है। इसलिए ईसाई संस्थाओं पर धर्मांतरण का थोक के भाव में आरोप लगाने का एक ही उद्देश्य है कि उनकी धार्मिक स्वतंत्रता को प्रतिबंधित किया जाए और समाज में सांप्रदायिक विभाजन किया जाए।

एनसीईआरटी : पाठ्यक्रम को साम्प्रदायिक रंग और नफरत को बढ़ावा देने के लिए इतिहास का इस्तेमाल

 राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) वह संस्था है जो स्कूली पाठ्यपुस्तकों की सामग्री के संबंध में अंतिम निर्णय लेती है। पिछले कुछ दशकों से विद्यार्थियों को तार्किक व निष्पक्ष ढंग से हमारे अतीत के बारे में ज्ञान देने की बजाए इसकी किताबें साम्प्रदायिक नजरिया पेश करने का जरिया बन गई हैं। चूंकि इतिहास युवा दिमागों की समझ को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इसलिए पाठ्यक्रम को साम्प्रदायिक रंग देने से विभिन्न तरीकों से पहले ही बेगाने बना दिए गए समुदाय (मुसलमानों) के प्रति मौजूदा नफरत और बढ़ेगी।

जन सुरक्षा अधिनियम के मुद्दे पर महाराष्ट्र में विपक्ष की नीयत साफ क्यों नहीं है?

अब वर्तमान महाराष्ट्र सरकार ने जन सुरक्षा अधिनियम  के नाम से विधानसभा और विधान परिषद दोनों सदनों में विधेयक पारित कर दिया है। विधानसभा के एकमात्र कम्युनिस्ट सदस्य को छोड़कर सभी दलों के विधायकों ने इस विधेयक को दोनों सदनों में पारित करने के लिए अपनी सहमति दे दी है। लेकिन उद्धव ठाकरे राज्यपाल से इस पर हस्ताक्षर न करने का अनुरोध करने वाले हैं। तब सवाल उठता है कि उद्धव ठाकरे, शरद पवार और मंच पर लगातार संविधान की प्रतियाँ लहरा रहे कांग्रेस विधायकों ने दोनों सदनों में इस विधेयक को पारित करने के लिए वोट क्यों दिया? और अब राज्यपाल से इस पर हस्ताक्षर न करने के लिए कहना कैसी राजनीति है?

बिहार : विशेष गहन पुनरीक्षण के नाम पर चुनिंदा समुदायों के नाम मिटाये जा रहे हैं

बिहार चुनावों से पहले चुनाव आयोग ने 24 जून 2025 को जो आदेश पारित किया, उसमें कहा गया कि 25 जुलाई तक पूरे राज्य में मतदाता सूची का विशेष पुनरीक्षण (SIR) किया जाएगा, जिसमें डुप्लीकेट, मृत या गैर-नागरिकों के नाम हटाए जाएंगे। इस प्रक्रिया को मात्र 31 दिनों में संपन्न करना है, जो कि सामान्य सूची पुनरीक्षण की तुलना में असाधारण रूप से त्वरित है। यह निर्णय अपने आप में चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता और पारदर्शिता को संदिग्ध बनाता है

आखिर हिन्दू राष्ट्रवादियों के आँख की किरकिरी क्यों बना हुआ है संविधान में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद

आरएसएस/भाजपा की कार्यशैली काफी जटिल है। वो एक-साथ कई विरोधभासी बातें कर सकते हैं और करते हैं। वे छोटे-छोटे कदम उठाकर संविधान के साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं और साथ ही संविधान के मूल्यों और नीतियों का उल्लंघन भी कर रहे हैं। पिछले एक दशक से हम यही देख रहे हैं। होसबोले का बयान एक सोची-समझी रणनीति के तहत दिया गया है।

इमरजेंसी में आरएसएस ने क्या किया

इस साल (2025) में जून में देश ने आपातकाल (इमरजेंसी) लागू किए जाने की 50वीं वर्षगांठ मनाई। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1975 में 25 जून को देश में आपातकाल लागू किया था। इस दौर के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है -  किस तरह लोकतांत्रिक अधिकार छीन लिए गए, हजारों लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया और मीडिया का मुंह बंद कर दिया गया। इस काल को कई दलित नेता काफी अलग नजर से देखते हैं और याद करते हैं कि उसके पिछले दशक में इंदिरा गांधी ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रीविपर्स की समाप्ति जैसे कई बड़े मौलिक फैसले लिए गए थे। इनके बारे में और इनका विश्लेषण करते हुए भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है।
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