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प्रधानमंत्री मोदी के सौजन्य से मनुस्मृति काल में प्रवेश कर गया है हिन्दुत्ववादी संघ

मनु स्मृति दहन दिवस देश में समतामूलक समाज निर्माण की दिशा में सबसे ज्यादा क्रन्तिकारी आंदोलन के रूप में जाना जाता है। सान 1927 में आज ही के दिन यानी 25 दिसंबर को बाबा साहब भीम राव अंबेडकर ने अपने वैचारिक समर्थकों के साथ मनुस्मृति को आग के हवाले कर दिया था। तब से अंबेडकर […]

मनु स्मृति दहन दिवस देश में समतामूलक समाज निर्माण की दिशा में सबसे ज्यादा क्रन्तिकारी आंदोलन के रूप में जाना जाता है। सान 1927 में आज ही के दिन यानी 25 दिसंबर को बाबा साहब भीम राव अंबेडकर ने अपने वैचारिक समर्थकों के साथ मनुस्मृति को आग के हवाले कर दिया था। तब से अंबेडकर के अनुयायी इस दिन को मनुस्मृति दहन दिवस के रूप में मनाते हैं। मनुस्मृति दहन दिवस पर एचएल दुसाध की विस्तृत रिपोर्ट

आज मनुस्मृति दहन दिवस है। सोशल मीडिया में आ रही खबरों के मुताबिक़ देश के कई हिस्सों में आज आंबेडकर के अनुयायी हिन्दुओं के प्राचीनतम संविधान मनुस्मृति का दहन करेंगे, असंख्य जगह संगोष्ठियाँ आयोजित करेंगे। आज के दिन आंबेडकरवादियों में यह क्रेज वर्ष दर वर्ष बढ़ता ही जा रहा है। ऐसे में 1927 के उस खास दिन की गतिविधियों को जानना काफी रोचक रहेगा, जब 25 दिसंबर को बाबासाहब ने अपने हजारों अनुयायियों के साथ मनुस्मृति-दहन जैसा ऐतिहासिक काम अंजाम दिया था। इसका बड़ा जीवंत वर्णन बाबासाहेब के जीवनीकार धनंजय कीर और खुद डॉ. आंबेडकर ने किया है। ‘दिसंबर 1927 का सर्द मौसम। क्षमा के अवतार क्राइस्ट के जन्मदिन के उपलक्ष में आनंदोत्सव के झिलमिलाते परिधानों से सज उठी थी धरती। विश्व धर्म के उत्सव का था वह विशेष दिन। मानवता की जय ध्वनि का बज रहा था मंगल घंटा, लाखों गिरजाघरों में। उसी बड़े दिन को अपने अनुयायियों के साथ अम्बा नामक जहाज़ से 12.30 डॉ. आंबेडकर दसगांव पहुंचे थे। दसगांव से महाद मात्र 5 मील दूरी पर था। 3250 सत्याग्रही पांच-पांच की कतारों में रास्ते से महाद सत्याग्रह की जय, बाबासाहब आंबेडकर की जय...जैसी गगनभेदी घोषणाएँ करते और समर गीत गाते हुए महाद के लिए निकले थे। जुलूस के आगे पुलिस थी। दोपहर 2.30 वह जुलूस परिषद के स्थान पर पहुंचा। आंबेडकर जिलाधिकारी से मिले। वहां से वे परिषद के मंडप की ओर गए। मंडप के स्तंभों पर सुवचन, संतवचन, कहावतें और उद्घोष वचन के फलक झलक रहे थे। पूरे मंडप में एक ही फोटो था, वह था गाँधी का।

सायंकाल 4.30 बजे परिषद का कामकाज शुरू हुआ। शुभसंदेश पढ़ा गया। तालियों की गड़गड़ाहट, घोषणाओं और जयघोष की गर्जनाओं के बीच आंबेडकर अपने अध्यक्षीय भाषण देने के लिए खड़े हुए। आठ से दस हज़ार श्रोताओं में से बहुत से लोगों की पीठ नंगी थी। उनके दाढ़ी के केश बढे हुए थे। गरीब लेकिन होशियार दिखाई देने वाली महिलाओं का समूह बड़ी उत्सुकता और अभिमान से आंबेडकर की ओर देख रहा था। सबके चेहरे उत्साह और आशा से खिल उठे थे। नेता के हाथ उठते ही मंडप में शांति छा गयी!

आंबेडकर ने अपना भाषण शांति और गंभीरता से आरंभ किया। उन्होंने कहा, ‘महाद का तालाब सार्वजनिक है। महाद के स्पृश्य इतने समझदार हैं कि न सिर्फ वे खुद इसका पानी लेते हैं बल्कि किसी भी धर्म के व्यक्ति को इस इसका पानी भरने के लिए इजाज़त देते हैं। इसके अनुसार मुसलमान और विधर्मी लोग इस तालाब का पानी लेते हैं। मानव योनि से भी निम्न मानी गई पशु-पक्षियों की योनि के जीव-जंतु भी उस तालाब पर पानी पीते हैं तो वे शिकायत नहीं करते। किन्तु महाद के स्पृश्य लोग अस्पृश्यों को चावदार तालाब का पानी नहीं पीने देते, इसका कारण यह नहीं कि अस्पृश्यों के स्पर्श से वह गन्दा हो जायेगा या भाप बनकर उड़ जायेगा; बल्कि इसलिए अस्पृश्यों को पानी नहीं पीने देते कि शास्त्र ने जो असमान जातियां निर्धारित की हैं, उन्हें अपने तालाब का पानी पीने देकर उन जातियों को अपने समान स्वीकार करने की उनकी इच्छा नहीं है। ऐसी कोई बात नहीं है कि चवदार तालाब का पानी पीने से हम अमर हो जायेंगे। आज तक चवदार का पानी नहीं पिया था, तो भी तुम-हम मरे नहीं हैं। यह साबित करने के लिए ही हमें उस तालाब पर जाना है कि अन्य लोगों की भांति हम भी मनुष्य हैं।

हमारी यह सभा अभूतपूर्व है। यह सभा समता की नींव डालने के लिए बुलाई गई है। आज की अपनी सभा और फ़्रांस के वर्साय की 5 मई, 1759 में आयोजित फ्रेंच लोगों की क्रान्तिकारी राष्ट्रीय सभा में भारी समानता है। फ्रेंच लोगों की वह सभा फ्रेंच समाज का संगठन करने के लिए बुलाई गई थी। हमारी यह सभा हिंदू समाज का संगठन करने के लिए बुलाई गई है। फ्रेंच राष्ट्रीय महासभा ने जो जाहिरनामा निकाला, उसने केवल फ़्रांस में ही क्रांति नहीं की, बल्कि सारे विश्व में की। राजनीति का अंतिम उद्देश्य यही है कि ये जन्मसिद्ध मानवीय अधिकार कायम रहे कि सभी लोग जन्मतः समान स्तर के हैं और मरने तक समान स्तर के रहते हैं। हिंदू लोग हमें अस्पृश्य मानते और नीच समझते हैं इसलिए सरकार अपनी नौकरी में हमें प्रवेश नहीं दे सकती। साथ अस्पृश्यता की वजह से अपने हाथ की बनी हुई चीजें कोई नहीं लेगा, इसलिए खुलेआम हम धंधा नहीं कर पाते। इसलिए यदि हिंदू समाज को शक्तिशाली बनाना है तो चातुर्वर्ण्य और असमानता का उच्चाटन कर हिंदू समाज की रचना एक वर्ण और समता, इन दो तत्वों की नींव पर करनी चाहिए। अस्पृश्यता के निवारण का मार्ग हिंदू समाज को मजबूत करने से अलग नहीं है। इसलिए मैं कहता हूँ अब हमारा कार्य जितना स्वहित का है, उतना ही राष्ट्रहित का। इसमें कोई संदेह नहीं।’

बाद में परिषद में अलग-अलग कई प्रस्ताव पास किये गए। जिनमें एक प्रस्ताव मनुस्मृति  दहन का था। यह प्रस्ताव पास होने के बाद क्रिसमस की रात नौ बजे शूद्रातिशूद्रों और महिलाओं का अपमान करने वाली, उनकी प्रगति में अवरोध डालने वाली, उनका आत्मबल नष्ट करने वाली तथा उन्हें शक्ति के तमाम स्रोतों- आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक, धार्मिक, सांस्कृतिक- से वंचित व बहिष्कृत करने वाली मनुस्मृति को जला दिया गया। धार्मिक ग्रन्थ पर हुआ यह भयंकर हमला भले ही अभिनव भारत में हुआ पहला हमला न हो; फिर भी यह कहना चाहिए कि वह अपूर्व था। 1926 में मद्रास प्रान्त में ब्राह्मणेतर पक्ष ने मनुस्मृति जला दी थी। परन्तु अस्पृश्य भी उसे जला दें, यह उस युग की दृष्टि से बड़ा वैशिष्ट्य ही कहना चाहिए। मनुस्मृति के दहन से भारत के तथाकथित पंडित, आचार्य और शंकराचार्यों को सदमा पहुंचा। कुछ लोग डर गए और कुछ खामोश हो गए। इस घटना का वर्णन करते हुए डॉ. बाबासाहब आंबेडकर: जीवन चरित्र के लेखक धनंजय कीर ने यह भी लिखा है- ‘मार्टिन लूथर के समय के बाद इतना बड़ा मूर्तिभंजक हमला अहंकारी परम्परावादियों पर किसी ने नहीं किया था। इसलिए भारत के इतिहास में 25 दिसंबर, 1927 का दिन एक अत्यंत संस्मरणीय दिन कहा जायेगा। उस दिन आंबेडकर ने पुरानी स्मृति जलाकर हिंदुओं की सामाजिक पुनर्रचना के लिए उपयुक्त नई स्मृति की मांग की। इस तरह महाद हिंदू मार्टिन लूथर का विटेनबर्ग सिद्ध हुआ।’

यह भारत के इतिहास का विचित्र संयोग कहा जायेगा कि जिस शख्स ने 1927 के 25 दिसंबर को हिन्दुओं का सदियों पुराना संविधान मनुस्मृति को जला कर भस्म कर दिया था, वही शख्स लगभग बीस वर्ष बाद न सिर्फ स्वाधीन भारत का पहला विधि-मंत्री बना बल्कि नए भारत ने उसी के हाथों में कलम थमादी थी। यह काला कानून मनुस्मृति का शून्य स्थान भरने के लिए था। बहरहाल, नए भारत ने जिस आधुनिक मनु को नयी स्मृति रचने का जिम्मा सौंपा था उसका निर्वहन उन्होंने नायकोचित अंदाज में किया। महामुनि मनु ने अपनी सदियों पुरानी स्मृति के जरिये भारतवर्ष को जिस न्याय, स्वाधनीता, समानता और भ्रातृत्व से शून्य रखा था, आधुनिक मनु आंबेडकर ने संविधान के जरिये उसे भरने का प्रयास किया। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 14, 15(4), 16(4), 17, 24, 25(2), 29 (1), 38(1), 38(2), 39, 46, 164(1), 244, 257(1), 320(4), 330, 332, 334, 335, 338, 340, 341, 342, 350, 371 इत्यादि के प्रावधानों के जरिये मनुस्मृति सृष्ट विषमताओं को दूर कर एक समतामूलक आदर्श समाज निर्माण का सबल प्रयास किया। किन्तु मनुस्मृति के सुविधाभोगी वर्ग के शासकों ने संविधान निर्माता के प्रयासों को व्यर्थ ही कर दिया। लेकिन ढेरों कमियों और सवालों के बावजूद आजाद भारत का शासक वर्ग आजादी के वादों के दबाव में संविधान के प्रति कुछ-कुछ सम्मान प्रदर्शित करते हुए मनुस्मृति सृष्ट विषमताओं को दूर करने में जुटा रहा। किन्तु 7 अगस्त, 1990 को जब मंडल की रिपोर्ट के जरिये आरक्षण का विस्तार हुआ, मनुवादी शासकों की मनुस्मृति द्वारा शोषित निष्पेषित किये गए शुद्रातिशुद्रों के प्रति करुणा, शत्रुता में बदल गयी और वे मनुस्मृति की जगह लेने वाले भारत के संविधान को व्यर्थ करने में जूनून की हद तक जुट गए।

 

भारत को नए सिरे से मनुस्मृति की राह पर ठेलने के लिए सबसे पहले प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने 24 जुलाई, 1991 को अंगीकार किया नवउदारवादी अर्थनीति, जिसे आगे बढाने में उनके बाद अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ. मनमोहन सिंह ने भी कोई कमी नहीं की। किन्तु, इस मामले में किसी ने सबको बौना बनाया तो वह रहे वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी! जिस नवउदारवादी नीति की शुरुआत नरसिंह राव ने किया एवं जिसे भयानक हथियार के रूप इस्तेमाल किया प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने जूनून के साथ वर्ग-संघर्ष का इकतरफा खेल खेलते हुए निजीकरण, विनिवेशीकरण और लैटरल इंट्री के जरिये सारा कुछ जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के देने का अभियान चलाया, उसके फलस्वरूप सुविधाभोगी वर्ग का मनुस्मृति के स्वर्णिम काल की भांति शक्ति के तमाम स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक इत्यादि- पर 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा हो गया है। आज की तारीख में दुनिया के किसी भी देश में भारत के परम्परागत विशेषाधिकारयुक्त व सुविधाभोगी वर्ग का जैसा शक्ति के स्रोतों पर दबदबा नहीं है। मनुस्मृति के सुविधाभोगी वर्ग के दबदबे ने दलित, आदिवासी, पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित बहुसंख्य लोगों के समक्ष जैसे विकट हालात पैदा कर दिए हैं, ऐसे से ही हालातों में भारत सहित दुनिया के कई देशों में स्वाधीनता संग्राम संगठित हुए!

 

बहरहाल, आज हिन्दुत्ववादी संघ प्रशिक्षित प्रधानमंत्री मोदी के सौजन्य से भारत प्रायः मनुस्मृति काल में प्रवेश कर गया है और मनुस्मृति का सर्वोत्तम विकल्प आंबेडकर का संविधान अंतिम साँसें लेता प्रतीत हो रहा है। ऐसे जब मंडल उत्तरकाल मनुवादी शासकों की साजिश से मनुस्मृति का वंचित तबका, गुलामों की स्थिति में पहुँच गया है: मनुस्मृति दहन से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। ऐसी स्थिति में आज मनुस्मृति दहन-दिवस पर बहुजनों मुक्ति का संकल्प लेने से भीं कोई विकल्प नहीं है! अगर बहुजन इस लड़ाई में नहीं उतरे तो मनुस्मृति के खिलाफ बहुजन नायकों ने जो संग्राम चलाया, जिसका सर्वोत्तम प्रतिबिम्बन डॉ. आंबेडकर के संविधान के रूप में हुआ, वह पूरी तरह व्यर्थ हो जायेगा। चूँकि मनुस्मृति के द्वारा शुद्रतिशुद्रों और महिलाओं को शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत कर गुलाम बनाया गया था, इसलिए आज यदि मनुवादियों के मंसूबों पर पानी फेरना है तो हमें आजादी की लड़ाई का संकल्प लेना ही पड़ेगा। यह लड़ाई शक्ति के स्रोतों के विविध सामाजिक समूहों के मध्य वाजिब बंटवारे के जोर से ही अंजाम तक पहुचाई जा सकती है, इसके लिए अवसरों और संसाधनों के बंटवारे की रिवर्स प्रणाली लागू करने की लड़ाई लड़नी पड़ेगी। इस लड़ाई में मनुस्मृति के सुविधाभोगी वर्ग को आखिर में हिस्सा, जबकि वंचित वर्गों को प्राथमिकता देने की लड़ाई लड़नी पड़ेगी। इस हिसाब से अवसरों के बंटवारे में क्रमशः एससी, एसटी, ओबीसी, धार्मिक अल्पसंख्यकों को प्राथमिकता देते हुए शेष में मनुस्मृति के सुविधाभोगी वर्गों को देने की लड़ाई लड़नी पड़ेगी। चूँकि मनुवादियों के नीतियों के फलस्वरूप सर्वाधिक वंचित भारत की आधी आबादी हुई है, जिसे आर्थिक रूप से पुरुषों के बराबर आने में 257 साल लगने के कयास लगाये जा रहे हैं, इसलिए इस आजादी की लड़ाई में सभी सामाजिक समूहों की आधी आबादी को पहले 50% हिस्सा दिलाना होगा। यदि हम ऐसा संकल्प नहीं लेते हैं तो भारत को मनुस्मृति के पंख में फंसे हुए देखते रहने के लिए अभिशप्त होंगे!

 

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