हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार संजीव को इस वर्ष का साहित्य अकादमी सम्मान दिया गया है। संजीव ऐसे कथाकार हैं, जिनका हिन्दी कथा-साहित्य में विपुल योगदान है और वे हिन्दी के सबसे अधिक पढ़े जाने वाले कथाकारों में से एक हैं। समकालीन भारत की शायद ही कोई बड़ी समस्या हो जिस पर संजीव ने काम न किया हो। कुछ वर्ष पहले उन्होंने महाराष्ट्र के किसान आत्महत्याओं पर ‘फांस’ नाम से एक उपन्यास लिखा। छत्रपति शाहूजी महाराज के जीवन पर उनका उपन्यास ‘प्रत्यंचा’ भी बहुत चर्चित हुआ था। भिखारी ठाकुर के जीवन पर उनका उपन्यास ‘सूत्रधार’ पहले ही बहुत चर्चा बटोर चुका है और जीवनीपरक उपन्यासों में मील का पत्थर माना जाता है। इन सारी उपलब्धियों को देखते हुए संजीव पहले से ही साहित्य अकादमी सम्मान के हकदार थे, लेकिन उन्हें नहीं दिया गया।
6 जुलाई, 1947 को सुल्तानपुर (उत्तर प्रदेश) जिले के बाँगरकलाँ गाँव में जन्मे संजीव पश्चिम बंगाल के कुलटी के स्टील प्लांट की रासायनिक प्रयोगशाला में कार्य करने लगे। यह पूरा क्षेत्र उनकी रचनाओं में अपने प्राकृतिक वैभव, शोषण, जनता की गरीबी और जीवन संघर्ष के साथ पूरी शिद्दत से चित्रित हुआ है। वह मानव जीवन के गहरे द्वंद्व के चितेरे हैं और उनकी पहली कहानी ‘अपराध’ इसका अप्रतिम उदाहरण है। यह कहानी सातवें दशक के एक युवा शोधार्थी के गहरे ऊहापोह को लेकर बुनी गई है। नक्सलबाड़ी जनविद्रोह के दमन को जायज़ ठहरानेवाले परिवार की आकांक्षाओं के अनुरूप उसे उच्च शिक्षा प्राप्त कर ऊँची नौकरी में जाना है, लेकिन जब वह असंख्य युवाओं की सुनियोजित हत्याओं और सरकारी दमन को देखता है, तब उसे लगता है कि वह भी इसी अपराध का हिस्सा है। अंततः वह अपनी थीसिस को टुकड़े-टुकड़े करके नदी में फेंक देता है।
सारिका में प्रकाशित इस कहानी से संजीव को एक बड़ी पहचान मिली और फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनकी अनेक कहानियाँ हिन्दी साहित्य की धरोहर हैं। आरोहण, मानपत्र, तीस साल का सफरनामा सहित संजीव ने दो सौ से अधिक कहानियाँ और एक दर्जन उपन्यास लिखे। संजीव अपने शोधपरक लेखन के लिए जाने जाते हैं।
उनकी प्रमुख प्रकाशित कृतियों में तीस साल का सफरनामा, आप यहाँ हैं, भूमिका और अन्य कहानियाँ, दुनिया की सबसे हसीन औरत, प्रेतमुक्ति, प्रेरणास्रोत और अन्य कहानियाँ, ब्लैक होल, खोज, दस कहानियाँ, गति का पहला सिद्धांत, गुफा का आदमी, आरोहण (कहानी संग्रह); किशनगढ़ के अहेरी, सर्कस, सावधान! नीचे आग है, धार, पाँव तले की दूब, जंगल जहाँ शुरू होता है, सूत्रधार, आकाश चम्पा, अहेर, फाँस, प्रत्यंचा और मुझे पहचानो (उपन्यास), रानी की सराय (किशोर उपन्यास), डायन और अन्य कहानियाँ (बाल-साहित्य) आदि हैं।
उन्हें कथाक्रम सम्मान, अन्तरराष्ट्रीय इंदु शर्मा सम्मान, भिखारी ठाकुर सम्मान, पहल सम्मान, सुधा-स्मृति सम्मान, श्रीलाल शुक्ल स्मृति साहित्य सम्मान मिल चुके हैं। संजीव कई वर्ष हंस के कार्यकारी संपादक भी रहे।
उन्हें साहित्य अकादमी सम्मान दिये जाने से देश भर में फैले उनके प्रशंसकों में खुशी की लहर दौड़ गई और फेसबुक पर उन्हें ढेरों लोगों ने बधाइयाँ और शुभकामनाएँ दी हैं। लगभग सभी लोगों का मानना है कि उन्हें यह सम्मान बहुत पहले ही मिल जाना चाहिए था। उनके विपुल रचना संसार को देखते हुये साहित्य अकादमी सम्मान एक तरह की भूल सुधार है, क्योंकि संजीव पिछड़ी जाति के पहले हिन्दी कथाकार हैं जिन्हें साहित्य अकादमी मिला है। दर्जनों कद्दावर लेखकों की उपेक्षा की गई और साहित्य अकादमी सम्मान केवल ब्राह्मण-बनिया-कायस्थ-राजपूत जातियों से आने वाले साहित्यकारों को मिलता रहा है। बेशक इनमें दर्जनों ऐसे भी रहे हैं जो संजीव के मुक़ाबले कहीं नहीं ठहरते। इसको लेकर कथाकार-इतिहासकर सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने कई वर्ष पहले तीखे सवाल उठाए थे।
अब जबकि संजीव को यह सम्मान घोषित किया जा चुका है, तब कई ऐसे सवाल भी खड़े हो रहे हैं, जो न केवल उनके पिछड़ी जाति का होने के कारण जवाबमन्द हैं, बल्कि इसलिए भी कि उनके साहित्यिक सरोकार भारत की व्यापक संघर्षशील और श्रमजीवी जनता के साथ रहे हैं। जिस दौर में उन्हें यह सम्मान दिया गया, वह फासिस्ट सत्ता का दौर है जो न केवल किसानों, मजदूरों का बेरहमी से दमन कर रही है, बल्कि पिछड़ी जातियों की भागीदारी को लगातार कमजोर करके उनके हिस्से पर EWS कोटे से ब्राह्मणों को खुलेआम कब्ज़ा दे रही है।
जिन आदर्शों को संजीव ने अपने सरोकार का केंद्र बनाया, उन पर भाजपा सरकार ने पूरी क्रूरता से हमला बोला है, उनकी वकालत करने वालों को भीमा-कोरेगाँव में जेलों में ठूँसा गया है। बावजूद इसके भाजपा के शासन काल में संजीव को साहित्य अकादमी सम्मान दिया जाना आश्चर्य पैदा करता है।
हिन्दी साहित्य समाज में जहां संजीव को यह सम्मान दिए जाने का एक ओर स्वागत हो रहा है, वहीं राजनीतिक नजरिए से भी इसका विश्लेषण किया जा रहा है।
कहानीकार और विचारक प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि, ‘साहित्य अकादमी का सम्मान संजीव को दिया गया है यह अकादमी का अच्छा चयन है और मैं संजीवजी को बधाई देता हूँ। हिन्दी भाषी समाज में जब भी पुरस्कारों की घोषणा होती है, तब एक फिजूल की बहस शुरू हो जाती है। मैं इसे ठीक नहीं समझता हूँ। वह कहते हैं कि जब रमेशचंद्र शाह, दयानंद सिन्हा और बद्रीनारायण को दिया गया था तब भी बहस शुरू हो गई थी, तब कहा गया कि संघ की ओर झुकाव के कारण मिला है। इसके साथ वह यह भी कहते हैं कि सम्मान महत्वपूर्ण है लेकिन सब कुछ नहीं है। यह सम्मान 1955 से दिया जा रहा है और बहुत से महत्वपूर्ण लेखकों को नहीं मिला चाहे वह सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हों, मैथिलीशरण गुप्त हों राजेन्द्र यादव हो ज्ञानरंजन हों या अन्य बहुत से महत्वपूर्ण लेखक हैं, जिन्हें नहीं दिया गया पर यह सम्मान मिलने न मिलने से उनके लेखन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अब जब एक उपयुक्त व्यक्ति को यह सम्मान दिया जा रहा है तो इस पर किसी तरह की बहस नहीं की जानी चाहिए, बल्कि इसका स्वागत होना चाहिए। संजीव को अगर आज से 20 साल पहले भी यह सम्मान मिलता तो यह गलत नहीं था। उनके लेखन पर सवाल उठाया जा सकता है, मुझे उनकी बहुत-सी चीजें नापसंद हैं, बावजूद इसके वह समर्थ लेखक हैं। इसके पहले उनसे बहुत कमतर लेखकों को यह सम्मान मिला है। उन्हें सम्मान देकर साहित्य अकादमी ने अपनी छवि साफ करने की कोशिश की है।
सोनभद्र के साहित्यकार रामनाथ शिवेंद्र, संजीव को यह सम्मान देने की घोषणा पर कहते हैं कि ‘पहले तो संजीव जी को बधाई कि उन्हें
हिंदी साहित्य अकादमी का मानद सम्मान मिला, जबकि इसे बहुत पहले ही मिल जाना चाहिए था उनके दूसरे उपन्यास भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। संजीव जी जितने अच्छे कथाकार हैं उतने ही अच्छे व्यक्ति भी हैं, अगर अच्छे व्यक्ति न होते तो 82 में छपे मेरे उपन्यास ‘सहपुरवा’ को पढ़कर उन्होंने यह न पूछा होता ‘शिवेंद्र भाई ‘सहपुरवा’ का नायक प्रशांत कहां हैं? 95 के बाद उसका कहीं पता नहीं चल रहा, आप खामोश क्यों हो गए हैं, ये खामोशी तोड़िए। संजीव जैसा आग्रही तथा राजेंद्र जैसा ललकारू व्यक्ति अगर हों तो कोई भी रचनाकार यूं ही जमीन में धंसा नहीं रह सकता।
वरिष्ठ आलोचक वीरेंद्र यादव कहते हैं कि संजीवजी को साहित्य अकादमी पुरस्कार देकर अकादमी ने दिनों दिन अपनी गिरती हुई साख को बचाने की एक कोशिश की है। यद्यपि इस वर्ष पुरस्कार के लिए विचारार्थ अधिकांश पुस्तकों की सूची देखकर ऐसा लगता है कि संजीव को पुरस्कार मिलना महज एक संयोग है, क्योंकि एक-दो अपवादों को छोड़कर इस सूची की अधिकांश पुस्तकों का चयन गुणवत्ता के आधार पर न करके इतर कारणों से किया गया, लगता है। संजीव को पुरस्कार उनकी पूर्व प्रकाशित अपेक्षाकृत बेहतर कृतियों को न देकर जिस औपन्यासिक कृति पर दिया गया है, वह उनकी रचनात्मकता का श्रेष्ठतम नहीं है। यद्यपि इसके पूर्व भी रचनाकारों के श्रेष्ठतम की अनदेखी कर उनकी कम महत्व की कृतियों को पुरस्कृत किया जाता रहा है।
यशपाल को ‘झूठा सच’ के लिए पुरस्कृत न करके उनके उपन्यास ‘मेरी तेरी उसकी बात’ के लिए तब पुरस्कृत किया गया। जब वे मृत्युशैय्या पर थे। कितने लोगों को जैनेंद्र के उपन्यास ‘मुक्तिबोध’, हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध संग्रह ‘आलोक पर्व’ या विष्णु प्रभाकर के उपन्यास ‘अर्धनारीश्वर्’ का स्मरण है, जिनकी श्रेष्ठ रचनाओं की अनदेखी करके अपेक्षाकृत इन कमतर पुस्तकों को सम्मानित किया गया? काशीनाथ सिंह को जब ‘रेहन पर रग्घू’ उपन्यास के लिए पुरस्कृत किया गया तो उन्हें मलाल था कि उनकी बेहतर कृति ‘काशी का अस्सी’ की अनदेखी की गई। क्या बिगड़ गया ‘मैला आँचल’, ‘आधा गांव’, ‘सारा आकाश’, ‘धरती धन न अपना’, ‘महाभोज’, ‘नौकर की कमीज’, आखिरी कलाम’, ‘चाक’, ‘ झीनी झीनी बीनी चदरिया’, ‘डूब’, ‘काला पहाड़’, ‘हमारा शहर उस बरस’ आदि उपन्यासों का यदि उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं दिया गया?
संजीव को ‘सूत्रधार’, ‘जहाँ एक जंगल शुरु होता है’, ‘फांस’, ‘प्रत्यंचा’ सरीखे उपन्यासों के लिए पहले ही पुरस्कृत किया जाना चाहिए था। बहरहाल देर से ही सही भूल सुधार के रुप में संजीव की रचनात्मकता का यह सम्मान उचित है। संजीव जी को हार्दिक बधाई।
वरिष्ठ साहित्यकार असगर वजाहत कहते हैं कि, ‘मैं संजीव को बधाई देता हूँ, यह साहित्य के प्रति उनके समर्पित जीवन का सम्मान है। हाशिये के लोगों के जीवन संघर्ष को उन्होंने बहुत ही ताकतवर तरीके से साहित्य में लाकर उनकी जीवन त्रासदी को विमर्श का हिस्सा बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इनकी रचनाएँ हमारे समय का यथार्थ उद्घाटित करती हैं।
असगर वजाहत कहते हैं कि, ‘यह सम्मान उन्हें मिला है, इसकी मुझे बहुत खुशी हुई है और मेरी तरफ से उन्हें बहुत-बहुत बधाइयाँ। वह कहते हैं कि सम्मान व्यक्ति को नहीं बल्कि, उसके लेखन को मिलता है। यदि उनके विचारों का सम्मान किया जा रहा है, तो उनका स्वागत किया जाना चाहिए।’
बया के संपादक गौरीनाथ कहते हैं कि मैं यह मानता ही नहीं कि किसी सरकारी पुरस्कार से कुछ तय होने वाला है। पुरस्कार के पीछे जिस तरह का दंद-फंद है। उसमें सम्मान इसलिए नहीं दिया जाता कि कोई अच्छा लिखता है, बल्कि इसके लिए अन्य तमाम समीकरण जवाब देह होते हैं, जिससे तय होता
है कि किसे सम्मान दिया जाना है। वह कहते हैं कि हिन्दी में तो कम से इतना ख्याल रखा जाता है कि किसी ऐसे लेखक को ही सम्मान दिया जाता है जो लिख रहा है चूंकि मई मैथिली में भी लिखता हूँ तो वहाँ कई बार ऐसे लेखकों को भी सम्मान मिलते देखता हूँ, जिनका नाम ही तभी सुनाई देता है जब उन्हें सम्मान मिलता है। इसका कई सालों तक विरोध भी हुआ पर कोई अंतर नहीं आया। यहाँ भी कई बार सत्ता से करीबी लोगों को पुरस्कार मिलता रहा है तो इस तरह के सम्मान को मैं बहुत महत्वपूर्ण नहीं मानता। इस सम्मान को कोई मानदंड नहीं माना जा सकता। इस सम्मान को लेकर एक अच्छी बात जरूर हुई है कि ज़्यादातर इस तरह के सम्मान सवर्ण समुदाय को मिलते रहे हैं, इस बार इससे अलग हुआ है। इस समय जातीय राजनीति हर जगह चल रही है, सत्ता अपने तरीके से अपनी चीजों को संचालित करती है। इसके लिए संजीव दोषी नहीं हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता और कहानीकार सीमा आजाद कहती हैं कि संजीव को किस कारण पुरस्कार मिला, देर से मिला, उचित कृति पर मिला नहीं मिला, इनसे अलग मेरे सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या वे इस सरकार का यह पुरस्कार लेते हैं या अरुंधति रॉय की तरह लेने से इंकार करते हैं? जबकि यह भी सामने है कि कई साहित्यकारों ने इसी सरकार में इस पुरस्कार को वापस भी किया है। संजीव मेरे भी प्रिय लेखक हैं, लेकिन मेरे लिए उनका कद इससे ही तय होगा।
फिलहाल संजीव को यह सम्मान साहित्य और राजनीति के अंतर्सम्बन्धों को नए सिरे से देखने की जरूरत बता रहा है। जिस पर सवाल भी है और स्वागत भी।