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देवेंद्र आर्य
शब्द-योग
आजकल हम शब्दों की तह तक नहीं जाते। जो जैसा दिखता है वैसा मान लेते हैं । मगर कभी शब्दों को टटोलिए , उनके...
एक हैं शायर वसीम एक हैं घरेलू वसीम !
पहला हिस्सासामाजिक परिप्रेक्ष्य में एक जनवादी नारा है जिसमें संसाधनों की वाज़िब हिस्सेदारी की बात उठाई गई है। यह सच्चाई पूँजीवादी व्यवस्था को...
काँख ढँकने के फेरे में पड़े तो इंकलाब ज़िंदाबाद कैसे कहोगे पार्टनर !
दरअसल विरोध जब चिढ़ौनी बन जाए या बना दिया जाए तो विकल्प की तलाश भटक रही आत्मा बन जाती है। सत्ता की क्षमता का...