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ईवीएम : भारत का चुनाव आयोग संदेह पैदा कर अपनी विश्वसनीयता खो रहा है

वर्तमान केंद्र सरकार ने शनिवार, 21 दिसंबर को, जबकि हरियाणा विधानसभा चुनाव की याचिका की सुनवाई हरियाणा और पंजाब उच्च न्यायालय, चंडीगढ़ में चल रही है। उसे देखते हुए चुनाव आचार संहिता के नियमों को आनन-फानन में बदलने की कार्रवाई को देखने के बाद, जिससे आम लोग चुनाव के ई-दस्तावेजों को सीधे नहीं देख पाएंगे, इलेक्ट्रॉनिक चुनाव प्रक्रिया के बारे में मेरा संदेह और भी बढ़ गया है

18 दिसंबर को नागपुर में महाराष्ट्र विधानसभा के शीतकालीन सत्र के दौरान EVM के खिलाफ एक डेमो कार्यक्रम का मैं अध्यक्ष था। एक दिन पहले ग्वालियर के ITM विश्वविद्यालय के संस्थापक और मध्य प्रदेश के पूर्व मंत्री व हमारे मित्र  रमाशंकरजी ने सोशल मीडिया पर मुझे चेतावनी देते हुए लिखा कि आप ऐसे अभियान का हिस्सा मत बनिए। मैंने भी यह सोचा कि जब भारतीय चुनावों में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेने वाले अनुभवी मित्र बता रहे हैं कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार में बैलेट पेपर के दौरान कैसे धांधली होती थी और मैंने भी अपने अध्यक्षीय भाषण में रमाशंकरजी की चेतावनी के कारण चुनाव आयोग की नियुक्ति की प्रक्रिया में किए गए बदलाव और बेतहाशा पैसे खर्च करने की बात और जयप्रकाश नारायण द्वारा सुझाए गए चुनाव सुधारों पर जोर देने की कोशिश भी की!

लेकिन वर्तमान केंद्र सरकार ने शनिवार, 21 दिसंबर को, जबकि हरियाणा विधानसभा चुनाव की याचिका की सुनवाई हरियाणा और पंजाब उच्च न्यायालय, चंडीगढ़ में चल रही है। उसे देखते हुए चुनाव आचार संहिता के नियमों को आनन-फानन में बदलने की कार्रवाई को देखने के बाद, जिससे आम लोग चुनाव के ई-दस्तावेजों को सीधे नहीं देख पाएंगे, इलेक्ट्रॉनिक चुनाव प्रक्रिया के बारे में मेरा संदेह और भी बढ़ गया है क्योंकि जब हरियाणा विधानसभा चुनाव के लिए दायर याचिकाओं की सुनवाई हरियाणा-पंजाब हाईकोर्ट, चंडीगढ़ में चल रही है और कोर्ट ने उन याचिकाओं की पैरवी कर रहे वकील महमूद प्राचा को विधानसभा चुनाव से जुड़े दस्तावेज देने का निर्देश दिया है।

वकील प्राचा ने चुनाव से जुड़ी वीडियोग्राफी, सीसीटीवी फुटेज और फॉर्म 17-सी की मांग की थी। उसके बाद ही केंद्र सरकार ने ई-दस्तावेजों को लेकर चुनाव आचार संहिता नियमों में बदलाव किया है। इसके तहत सीसीटीवी कैमरा और वेबकास्टिंग फुटेज और उम्मीदवारों की वीडियो रिकॉर्डिंग जैसे इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेजों को सार्वजनिक निरीक्षण के दायरे से बाहर रखा गया है। इसकी अधिसूचना शुक्रवार, 20 दिसंबर को जारी की गई। सरकारी सूत्रों ने बताया कि इसका दुरुपयोग रोकने के लिए ऐसा किया गया है जब लोकतंत्र की परिभाषा जनता द्वारा जनता के लिए लोकतंत्र है तो फिर यह लुका-छिपी का खेल क्यों?

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जब आप लोगों से मतदान में भाग लेने का अनुरोध करते हैं और यदि किसी मतदाता को उस व्यक्ति के बारे में संदेह है जिसे उसने वास्तव में अपना वोट दिया है, तो उसके मन में उसके वोट के बारे में उत्पन्न संदेहों के समाधान के प्रावधान को हटाना उस मतदाता को धोखा देने जैसा है। यदि दो लोगों के बीच किसी भी तरह के व्यवहार में कोई संदेह उत्पन्न होता है, तो उसका समाधान किया जाना चाहिए या नहीं? यह परिवर्तन सनातन रीति के विपरीत किया गया है, जिसे कभी स्वीकार नहीं किया जा सकता। यदि सरकार अपनी सुविधा के अनुसार ऐसे परिवर्तन करती है, तो यह प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन है। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि जब इस प्रक्रिया पर न्यायालय में सुनवाई चल रही है, तो उसे रोकने का प्रयास करना न्यायालय की अवमानना ​​नहीं है?

अखबारों में छपे बदलाव के बारे में लिखा है कि चुनाव आयोग ने इस तरह के बदलाव की सिफारिश की थी। आयोग की सिफारिशों पर केंद्रीय कानून मंत्रालय ने चुनाव संचालन नियम 1961 के नियम 93 में संशोधन कर सार्वजनिक निरीक्षण के लिए रखे जाने वाले कागजात के प्रकार को प्रतिबंधित कर दिया है। नियम 93 के अनुसार चुनाव से जुड़े सभी कागजात सार्वजनिक निरीक्षण के लिए रखे जाएंगे। संशोधन में कागजात के बाद ‘इन नियमों में निर्दिष्ट अनुसार’ शब्द जोड़े गए हैं। कानून मंत्रालय और आयोग ने कहा कि संशोधन के पीछे एक अदालती मामला है।

आयोग के सूत्रों ने कहा कि – चुनाव संचालन नियम में नामांकन फॉर्म, एजेंटों की नियुक्ति, परिणाम और चुनाव खाता विवरण जैसे दस्तावेजों का उल्लेख है, लेकिन आचार संहिता के दौरान सीसीटीवी कैमरा फुटेज, वेबकास्टिंग फुटेज और उम्मीदवारों की वीडियो रिकॉर्डिंग जैसे इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेज इसके दायरे में नहीं आते हैं। आयोग ने कहा – मतदान केंद्रों के सीसीटीवी फुटेज के दुरुपयोग से मतदान की गोपनीयता प्रभावित हो सकती है। इसका इस्तेमाल फर्जी चर्चाओं को गढ़ने के लिए किया जा सकता है। वहीं एडीआर के जगदीश छोकर ने कहा कि ‘इस अधिसूचना का साफ मतलब यह है कि सरकार और आयोग कुछ ऐसा कर रहे हैं जो वे प्रकाश में नहीं आने देना चाहते। यह राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला नहीं है। अगर जनता दस्तावेज नहीं देखेगी तो कौन देखेगा? लालकृष्ण आडवाणी ने सबसे पहले ईवीएम पर आपत्ति जताई थी जब वे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। उनके साथ ही भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता नरसिम्हा राव ने तो भाजपा की ओर से ‘ईवीएम में गड़बड़ी कैसे?’ शीर्षक से एक पुस्तिका भी लिखी है। आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू और भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने भी ईवीएम के खिलाफ कोर्ट में मामला दायर किया है। जबकि इतने विरोध के बावजूद भारत सरकार ने हरियाणा हाईकोर्ट के फैसले के बाद तुरंत ईवीएम से जुड़ी जानकारी रोकने का कानून पारित कर दिया, तो आम मतदाताओं के मन में शंका पैदा हो रही है कि जिस पार्टी ने खुद ईवीएम के खिलाफ आंदोलन किया था, अगर आज सत्ता में आने के बाद वह इस तरह से ईवीएम के बारे में जानकारी छिपाने की कोशिश करेगी तो मामला और भी संदिग्ध हो रहा है। इसलिए जानकारी छिपाने की बजाय लोगों के मन में जो भी शंकाएं पैदा हुई हैं, उनका समाधान किया जाना चाहिए

डॉ. सुरेश खैरनार
डॉ. सुरेश खैरनार
लेखक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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