भारत के लोकतंत्र की आत्मा मताधिकार है। यह वह अधिकार है, जो एक साधारण नागरिक को सत्ता की चाबी थमा देता है, जो राजा और रंक को एक ही कतार में खड़ा करता है। यही अधिकार संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर के लिए लोकतंत्र की पहचान था। लेकिन जब यही अधिकार शंका के घेरे में आ जाए और जब देश की संवैधानिक संस्थाएँ ही उस पर अघोषित हमला करने लगें, तब चिंता सिर्फ संवैधानिक प्रक्रिया की नहीं, लोकतंत्र के अस्तित्व की हो जाती है।
हाल ही में बिहार के संदर्भ में चुनाव आयोग द्वारा लिया गया ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ (Special Intensive Revision – SIR) का निर्णय इसी चिंता को जन्म देता है। इस निर्णय ने एक सवाल को जन्म दिया है – क्या यह मताधिकार के अधिकार को सीमित करने की चतुर चाल है, और क्या इसका निशाना समाज की सबसे कमजोर, सबसे वंचित पंक्तियाँ हैं?
बिहार चुनावों से पहले चुनाव आयोग ने 24 जून 2025 को जो आदेश पारित किया, उसमें कहा गया कि 25 जुलाई तक पूरे राज्य में मतदाता सूची का विशेष पुनरीक्षण किया जाएगा, जिसमें डुप्लीकेट, मृत या गैर-नागरिकों के नाम हटाए जाएंगे। इस प्रक्रिया को मात्र 31 दिनों में संपन्न करना है, जो कि सामान्य सूची पुनरीक्षण की तुलना में असाधारण रूप से त्वरित है। यह निर्णय अपने आप में चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता और पारदर्शिता को संदिग्ध बनाता है, लेकिन इससे भी अधिक गंभीर वह प्रभाव है जो यह निर्णय समाज के उन वर्गों पर डाल सकता है जो पहले से ही सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से वंचित हैं।
इस आदेश के बाद जैसे ही यह स्पष्ट हुआ कि आधार कार्ड और राशन कार्ड को पहचान के रूप में अस्वीकार किया जा सकता है, बिहार के मजदूर वर्ग, दलित, मुसलमान, भूमिहीन किसान और प्रवासी समुदायों में बेचैनी फैल गई। बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जिनके पास पते, प्रमाणपत्र या अपेक्षित दस्तावेज़ नहीं हैं, पर वे वर्षों से मतदाता रहे हैं। चुनाव आयोग का यह कदम उनके लिए एक नया संकट बनकर आया है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) ने इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है, यह कहते हुए कि यह संवैधानिक अधिकारों का हनन है। अनुच्छेद 14 (समानता), 19 (स्वतंत्रता), 21 (जीवन का अधिकार), 325 और 326 (चुनाव में समान सहभागिता) का उल्लंघन करते हुए यह प्रक्रिया लोकतंत्र की आत्मा पर कुठाराघात करती है।
इस बीच विपक्ष ने भी इस मुद्दे को ज़ोर-शोर से उठाया है। राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के नेता तेजस्वी यादव ने कहा कि ‘दो गुजराती तय करेंगे कि बिहार में कौन वोट डालेगा और कौन नहीं?’ कांग्रेस ने इसे ‘वोटबंदी’ करार दिया और इसे लोकतंत्र की हत्या का प्रयास बताया। इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इंक्लूसिव अलायंस (INDIA) के नेताओं ने इसे एक सुनियोजित साजिश करार दिया, जो बिहार में कमजोर वोटबैंक को निष्क्रिय करना चाहता है। सवाल यह उठता है कि जब देश के अन्य राज्यों में ऐसा कोई विशेष पुनरीक्षण नहीं हो रहा, तो सिर्फ बिहार को ही क्यों चुना गया? क्या यह चुनाव से ठीक पहले मतदाता सूची से चुनिंदा समुदायों के नाम हटाकर सत्ता के समीकरणों को प्रभावित करने का प्रयास नहीं है?
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चुनाव आयोग क्या कहता है
चुनाव आयोग ने सफाई दी है कि यह प्रक्रिया पारदर्शिता के लिए है और इससे फर्जी नाम हटाए जाएंगे। आयोग ने यह भी कहा कि जिनके पास दस्तावेज़ नहीं हैं, वे सिर्फ फॉर्म भरकर भी आवेदन कर सकते हैं। लेकिन यह सफाई जमीनी हकीकत से मेल नहीं खाती। ग्रामीण क्षेत्रों में फॉर्म भरना, आवेदन करना, और फिर अधिकारियों से संपर्क करना एक जटिल प्रक्रिया है, खासकर उन लोगों के लिए जो शिक्षा से वंचित हैं, जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं और जिन्हें सरकारी दफ्तरों की कार्यप्रणाली से भय लगता है। इसके अलावा, इतनी कम समय सीमा में लाखों लोगों की पुनः जांच करना और उनका निष्पक्ष पंजीकरण सुनिश्चित करना व्यावहारिक रूप से असंभव प्रतीत होता है। ऐसे में यह शंका और गहराती है कि क्या यह प्रक्रिया वस्तुतः उन वर्गों को वोट देने से रोकने के लिए है, जो सत्ता पक्ष के लिए ‘अनुपयोगी’ या ‘खतरनाक’ वोटर समझे जाते हैं।
यह पहला अवसर नहीं है जब सत्ता पक्ष पर मताधिकार सीमित करने के आरोप लगे हैं। असम में NRC प्रक्रिया के दौरान भी लाखों लोगों के नाम वोटर सूची से हटा दिए गए थे। उनमें बड़ी संख्या दलितों, बंगाली मुसलमानों और आदिवासियों की थी। वही रणनीति क्या अब बिहार में दोहराई जा रही है? क्या सत्ता पक्ष यह मान चुका है कि गरीब, दलित, मुसलमान और प्रवासी उसके मतदाता नहीं हैं, इसलिए उन्हें चुनाव में भाग लेने से ही रोका जाए?
इस पूरे घटनाक्रम को देखकर यह भी प्रश्न उठता है कि क्या भारतीय लोकतंत्र अब केवल दिखावे का माध्यम बनता जा रहा है? जब चुनाव आयोग जैसे स्वतंत्र निकायों पर जनता का भरोसा डगमगाने लगे, जब न्यायपालिका में भी चुप्पी और देरी हो, तब लोकतंत्र का ढांचा तो खड़ा रहता है, पर उसकी आत्मा मर जाती है। और यह आत्मा है – मत देने का समान अधिकार। इस पूरे प्रकरण से यह स्पष्ट हो गया है कि भारत में मताधिकार का अधिकार केवल एक संवैधानिक अनुच्छेद नहीं रहा, बल्कि यह अब राजनीतिक हथियार बनता जा रहा है। सत्ता पक्ष उसे अपनी सुविधा अनुसार सीमित या विस्तृत करने का प्रयास कर रहा है। लेकिन यह भूलना खतरनाक होगा कि जिस दिन आम जनता के पास से मताधिकार का विश्वास उठ जाएगा, उस दिन लोकतंत्र की नींव हिल जाएगी। यह मताधिकार ही था जिसने बाबासाहब अंबेडकर को संविधान निर्माता बनाया, जो एक चायवाले को प्रधानमंत्री बना सकता है, और एक खेत मजदूर को विधायक।
इसलिए, यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि, ‘क्या भाजपा सरकार समाज की निचली पंक्ति में खड़े लोगों से उनका मताधिकार छीन लेना चाहती है?’ केवल एक राजनीतिक प्रश्न नहीं है, यह हमारी लोकतांत्रिक चेतना का परीक्षण है। हमें इसका उत्तर केवल चुनाव आयोग या सुप्रीम कोर्ट से नहीं, बल्कि अपने सक्रिय नागरिक बोध और सामूहिक चेतना से देना होगा। क्योंकि यदि हम आज नहीं बोले, तो कल हमारे बोलने का अधिकार भी हमसे छीन लिया जाएगा।
भारतीय समाज की निचली पंक्ति में खड़े लोग ‘कोई एकसमान समूह नहीं हैं, बल्कि यह अनेक सामाजिक, आर्थिक, जातीय और धार्मिक समूहों का सम्मिलन है, जिन्हें ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक कारणों से हाशिए पर रखा गया है।
चुनाव आयोग की SIR का प्रभाव
सबसे बड़ी चिंता इस बात को लेकर है कि इस प्रक्रिया का बोझ भारतीय समाज की निचली पंक्ति में खड़े लोगों पर सबसे अधिक पड़ने वाला है, जो पहले से ही आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक और राजनीतिक दृष्टि से हाशिए पर हैं। चुनाव आयोग द्वारा अपनाई गई शर्तें – जैसे पहचान के लिए दस्तावेज़ों की अनिवार्यता, सीमित समयसीमा, और अस्पष्ट प्रक्रिया – इन वर्गों के लिए वोटर सूची से बाहर कर दिए जाने का कारण बन सकती हैं।
सबसे पहले आते हैं दलित और अनुसूचित जातियाँ जिनका ऐतिहासिक रूप से सामाजिक बहिष्कार और दमन हुआ है। गाँवों में आज भी ये समुदाय सफाईकर्मी, खेतिहर मजदूर, निर्माण श्रमिक आदि के रूप में काम करते हैं। ये लोग अक्सर भूमि-विहीन होते हैं, जिससे उनके पास कोई स्थायी पता नहीं होता। सरकारी योजनाओं और प्रशासनिक प्रक्रिया से दूरी उन्हें मतदान जैसे संवैधानिक अधिकार से वंचित कर सकती है।
1. इसके बाद हैं अनुसूचित जनजातियाँ (आदिवासी समुदाय) जो जंगलों, पहाड़ी इलाकों या सीमावर्ती क्षेत्रों में रहते हैं। शिक्षा, सड़क, और प्रशासन से कटे हुए ये समुदाय अक्सर सरकारी रिकॉर्ड में ही नहीं होते। कई बार उनके नाम न तो आधार में होते हैं, न मतदाता सूची में। उनके नाम अब SIR जैसी प्रक्रिया के तहत ‘डुप्लीकेट’ या ‘अज्ञात’ मानकर हटाए जा सकते हैं।
2. ओबीसी वर्गों के भीतर भी बड़ी संख्या में ऐसे समुदाय हैं जो सामाजिक और आर्थिक रूप से बेहद पिछड़े हैं। जैसे– नाई, धोबी, बढ़ई, तेली, ग्वाला, कुम्हार आदि। इनमें से बहुत से लोग शहरों में जाकर दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं। इस प्रवास के कारण उनके दस्तावेज़ टूटे-बिखरे होते हैं। अगर आयोग ने आधार और राशन कार्ड जैसे सामान्य दस्तावेज़ों को मान्यता नहीं दी, तो ये लाखों लोग सूची से बाहर हो सकते हैं।
3. मुस्लिम समाज में भी अरजाल और अजलाफ वर्ग – जैसे जुलाहा, मोची, हलालखोर, कसाई – सबसे अधिक सामाजिक-आर्थिक पिछड़े हैं। ये अक्सर छोटे-छोटे कामों से गुज़ारा करते हैं, झुग्गियों में रहते हैं और उनके पास न तो पक्का निवास प्रमाण होता है, न बैंक खाता, न कोई सरकारी पहचान का पूरा दस्तावेज़। साथ ही देश के राजनीतिक विमर्श में मुसलमानों को विदेशी, घुसपैठिया या संदिग्ध नागरिक मानने की मानसिकता भी काम करती है, जो उन्हें वोटर सूची से बाहर करने की नाजायज़ प्रक्रिया का वैचारिक आधार बन जाती है।
4. दिहाड़ी मजदूर और प्रवासी श्रमिक, जो हर साल लाखों की संख्या में बिहार से मुंबई, गुजरात, पंजाब और दिल्ली जैसे राज्यों में पलायन करते हैं, सबसे अधिक असुरक्षित हैं। ये लोग अक्सर अपने गाँव लौटते ही नहीं, या वर्ष में केवल कुछ हफ्तों के लिए आते हैं। ऐसे में जब SIR जैसी प्रक्रिया अचानक थोड़े समय के लिए चलाई जाती है, तो उनके नाम सूची से बाहर कर देना आसान हो जाएगा।
5.महिलाओं, खासकर दलित, विधवा या एकल महिलाओं, की स्थिति और भी अस्थिर होती है। पुरुष संरक्षक के अभाव में सरकारी दस्तावेज़ पाना उनके लिए बहुत कठिन होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक महिलाएँ आज भी अपने पति के नाम या परिवार के मुखिया के पहचान पत्र पर आश्रित हैं। जब आयोग अलग से पहचान की मांग करता है, तो यह महिलाएँ स्वतः ही बाहर हो जाती हैं।
- झुग्गी-बस्ती में रहने वाले शहरी गरीब, जैसे रिक्शावाले, घरेलू नौकर, निर्माण श्रमिक, झाड़ू लगाने वाले – इनके पास अक्सर कोई स्थायी पता नहीं होता। इनका नाम सूची से या तो पहले से ही नहीं होता, या फिर पहचान के अभाव में हटाया जा सकता है।
- ट्रांसजेंडर समुदाय, दिव्यांग, और घुमंतू जातियाँ (जैसे बंजारा, नट, गाडिया लोहार) जैसे लोग तो पहले ही अदृश्य नागरिकों की तरह जीवन व्यतीत करते हैं। उनके नाम या तो किसी दस्तावेज़ में नहीं होते या बार-बार बदलते हैं। SIR जैसी तकनीकी प्रक्रिया उनके लिए तो लगभग नागरिकता मिटा देने जैसा आदेश है।
निष्कर्षत: इन सभी समूहों की स्थिति यह स्पष्ट करती है कि चुनाव आयोग की कोई भी कड़ी और अनुदार प्रक्रिया, जिसमें दस्तावेज़ों की माँग या संक्षिप्त समय-सीमा हो, सबसे पहले इन्हीं वंचित तबकों को प्रभावित करती है। जब तक राज्य स्वयं आगे बढ़कर इन समूहों के मताधिकार की रक्षा नहीं करेगा – और सक्रिय समावेश नहीं अपनाएगा – तब तक लोकतंत्र केवल ‘अधिकारियों के लिए अधिकार’ बनकर रह जाएगा, जनता के लिए नहीं। इन वर्गों में से अधिकांश लोगों के पास न तो स्थायी निवास प्रमाण होता है, न शिक्षा या जानकारी, और न ही सरकारी तंत्र से जूझने की ताकत। यह वर्ग वोट देता है, लेकिन उसके पास न तो चुनाव आयोग में पहुँच है, न ही न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व। जब ये वर्ग मतदाता सूची से बाहर कर दिए जाते हैं, तो उनका कोई प्रतिनिधि नहीं बचता, और उनका मत धीरे-धीरे राजनीतिक भूत में बदल जाता है – मौजूद, लेकिन अनुपस्थित।
इसलिए, यह प्रश्न कि क्या भाजपा सरकार समाज की निचली पंक्ति में खड़े लोगों से उनका मताधिकार छीन लेना चाहती है? केवल एक राजनीतिक जिज्ञासा नहीं है। यह हमारे लोकतंत्र की गहराई का परीक्षण है। यह इस बात का संकेत है कि लोकतंत्र केवल चुनाव करवाने से नहीं चलता, बल्कि यह इस बात पर निर्भर करता है कि किसे चुनाव में हिस्सा लेने दिया गया, और किसे चुपचाप बाहर कर दिया गया। यदि वंचितों के नाम मतदाता सूची से हटाना शुरू हो चुका है, तो यह लोकतंत्र के अंत की शुरुआत है।
चुनाव आयोग ने स्पष्टीकरण दिया है कि दस्तावेज़ न होने पर भी फॉर्म जमा किया जा सकता है। लेकिन यह सिर्फ तकनीकी समाधान है, व्यवहारिक नहीं। लाखों गरीब, वंचित, अशिक्षित लोग आयोग की वेबसाइट पर नहीं जाते, उन्हें फॉर्म कहाँ से मिलेगा, कौन उन्हें भरना सिखाएगा? ये सवाल केवल तकनीकी नहीं, न्याय के प्रश्न हैं। यह प्रणाली के आत्मनिरीक्षण की मांग करता है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी वर्ग का मत छीनना सिर्फ एक व्यक्ति का अधिकार छीनना नहीं है, बल्कि यह पूरे लोकतंत्र को गूंगा करने की साजिश है। यह साजिश अगर अब नहीं रोकी गई, तो कल यह हर उस व्यक्ति पर लागू हो सकती है जो सत्ता से असहमत है, गरीब है, जाति या धर्म से बहिष्कृत है। इस खतरे को रोकना हर लोकतंत्रप्रेमी नागरिक का कर्तव्य है।