झाबुआ, मध्य प्रदेश। झाबुआ, मध्य प्रदेश का एक आदिवासी जिला है, जिसकी आबादी करीब 10 लाख है। झाबुआ अपनी जीवंत आदिवासी संस्कृति, हस्तशिल्प और प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए मशहूर है। जिले में पीढ़ियों से आवाम की रोजी-रोटी का मुख्य साधन कृषि है। लेकिन, झाबुआ के कई गाँव की जमीन सालों से राजमार्ग, औद्योगिक निवेश जैसी अन्य परियोजनाओं में अधिग्रहित की जा रही है। जिससे लोग भूमिहीन होते जा रहे हैं। ऐसें में लोगों के स्वतंत्रता, समानता, आर्थिक-सामाजिक न्याय, जैसे अन्य संवैधानिक मूल्य प्रभावित होते हैं। इसलिए परियोजनाओं में हो रहे जमीन अधिग्रहण का लोग सालों से विरोध भी करते आ रहे हैं।
जब हमने पड़ताल कर जानना चाहा कि यह मामला क्या है, और जमीन अधिग्रहण के प्रति आदिवासी आवाम का क्या नजरिया है? तब थान्दला के कुछ आदिवासी लोगों से हमारा संवाद हुआ। इस संवाद के जरिए स्थानीय लोगों ने बताया कि थान्दला तहसील के खादन, नावापाडा, कलदेला, सेमालिया समेत अन्य सात गाँव की जमीन औद्योगिक निवेश के लिए राज्य सरकार द्वारा मांगी गई है। यह सात गाँव दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेस-वे से सटे हुए हैं, जिनकी आजीविका का मुख्य साधन कृषि है।

थान्दला निवासी मनोहर भारिया, बलवेन्द्र सिंह सहित कुछ अन्य लोगों ने हमें बताया कि सात गाँवों की जमीन मांग के आदेश आ गए हैं। लोगों ने यह आदेश हमें दिखाए भी हैं, जिनमें कलदेला गाँव का आदेश पत्र भी है। इस आदेश पत्र का जब हमने अध्ययन किया। तब पत्र पर कुछ अंश हमें यूँ मिलता है-


कलदेला के राजस्व आदेश पत्र (14 जुलाई, 2023) की जानकारी के अनुसार, संस्था औद्योगिक नीति एवं निवेश प्रोत्साहन विभाग के लिए राज्य शासन के किसी विभाग को हस्तांतरण भूमि का स्थायी पट्टा स्वयं संस्था के नाम से मांगा गया है। ऐसे ही भूमि की मांग नावापाडा जैसे अन्य गाँव के आदेश पत्रों में की गयी।
इस भू-अधिग्रहण की मांग को लेकर आगे हमने बाबूलाल सिगाड़, बहादुर कटारा सहित कुछ अन्य लोगों से बातचीत की। बाबूलाल सिगाड़ (निवासी ग्राम खबासा) का कहना है कि आदिवासी इलाके में सरकार की जमीन नहीं है। यहाँ की जमीनें ग्रामसभाओं के अंतर्गत आती हैं। इसलिए यहाँ की जमीन ग्रामसभा की सहमति के बिना लेना गलत है। इस औद्योगिक विस्तार के लिए मेरी करीब चार एकड़ जमीन जा रही है।वहीं, हमारे क्षेत्र से लगभग 500 एकड़ जमीन जा रही। हमारी मर्जी के बिना जमीन लेना हमारे संवैधानिक अधिकारों और मूल्यों का हनन है।’
बहादुर कटारा बताते हैं कि ‘मैं सेमलिया गाँव का निवासी हूँ। मेरी 2.5 एकड़ जमीन खेती करने और मवेशी चराने के लिए है। जमीन हम किसी को दे नहीं सकते।’ पूछने पर बहादुर बताते हैं कि, ‘जमीन हम इसलिए नहीं दे सकते, क्योंकि यह जमीन हमारी और हमारे पशुओं की रोजी-रोटी का एकमात्र साधन है।’
क्या सरकार यहाँ बहादुर जैसे अन्य लोगों के जीने की स्वतंत्रता अनुच्छेद 21 का ध्यान रखेगी?
अनिल कटारा का कहना है कि, ‘आदिवासी वर्ग का आर्थिक सिस्टम जमीन है। झाबुआ में दो से तीन औद्योगिक क्षेत्र हैं, जिसमें सबसे बड़ा मेघनगर है। फिर, तहसील पेटलावद का गाँव कसारबरडी औद्योगिक क्षेत्र है। यहाँ की जमीनें औद्योगिक निवेश के लिए अधिग्रहित की गई थीं। लेकिन इन क्षेत्रों में अभी बहुत ज़मीनें खाली पड़ी हैं, जो प्लाटिंग करके खरीदी और बेची जा रहीं हैं। जब पहले से अधिग्रहित ज़मीनों का सही उपयोग नहीं हो रहा, तब और अधिग्रहित की जाने वाली ज़मीनों का क्या उपयोग होगा?’
जब हमने सुनील से चर्चा की। तब वह अपना विचार ऐसे रखते हैं, ‘खवासा गाँव कि आधी जमीन पहले ही 8 लाइन (8 लेन) रोड में जा चुकी है। जमीन जाने से संसाधनों के अभाव सहित आवास, मवेशी चराने, रोजगार करने में संकट आया है, जिससे लोग पलायन का शिकार हुए हैं। यह बदहाली मिलने के बाद अब हम एक इंच जमीन नहीं देना चाहते।’
गौरतलब है कि 8 लाइन राजमार्ग में क्या लोगों के आर्थिक न्याय जैसे संवैधानिक मूल्य का ध्यान रखा गया? शायद नहीं। तब क्या दोबारा लोगों से जमीन मांगना न्यायसंगत है?
नहारपुरा ग्राम निवासी दिनेश का दावा है कि ‘पदाधिकारियों ने ग्रामसभा से जमीन अधिग्रहण के लिए सहमति नहीं ली है। औद्योगिक निवेश से यहाँ के सार्वजनिक जनजीवन को गंभीर खतरा है। जिले में पहले भी औद्योगिक निवेश कर फैक्ट्रियाँ लगाई गईं, लेकिन स्थानीय लोगों को फैक्ट्रियों में कोई रोजगार नहीं मिला।’
इसके बाद, रमेश कटारा अपनी बात इस तरह बयां करते हैं कि, ‘जमीन मांग के विरोध में हम लोगों ने कलेक्टर और अन्य प्रशासनिक अधिकारियों को ज्ञापन भी दिए थे। साथ में यह भी कहा कि हमें कुछ दिनों के अंदर बताया जाए कि, औद्योगिक निवेश के लिए जमीन अधिग्रहण को आगे बढ़ाया जाएगा या जमीन अधिग्रहण पर रोक लगाई जाएगी। महीना भर होने को है, पर अभी तक प्रशासन की तरफ से कोई जबाव नहीं आया।’ शोचनीय है कि इस मामले में प्रशासन का उत्तर न देना लोगों के विश्वास जैसे संवैधानिक मूल्य को नजरअंदाज करना है।
जब हमने शंकर तडवाल से गुफ्तगू की। तब वह सख्त लहजे में कहते हैं कि, ‘‘जहां आदिवासियों की जमीन अधिग्रहित कर औद्योगिक निवेश किया जा रहा है, वहाँ यह भी देखना चाहिए कि उनको क्या मिला? ऐसी जगह आदिवासियों को आजीविका का संकट झेलना पड़ता है, इसलिए वह पलायन करते हैं, लेकिन, वह अपना घर भी नहीं छोड़ पाता। ऐसे में आदिवासी अस्थिर हो जाते हैं। क्या अस्थिर होना यह नहीं दर्शाता कि आदिवासी के सामाजिक न्याय जैसे संवैधानिक मूल्य पर संकट है?
स्थानीय लोगों ने हमें यह भी बताया कि हमने औद्योगिक निवेश के लिए जमीन अधिग्रहण के विरोध में राष्ट्रपति, राज्यपाल और कलेक्टर को ज्ञापन भी लिखें हैं। ऐसे ही ज्ञापन की एक कॉपी आदिवासियों ने हमें सौंपी। ज्ञापन की तस्वीर आप देख सकते हैं –
झाबुआ ग्रामसभा द्वारा 25 जुलाई, 2023 को राष्ट्रपति, राज्यपाल और कलेक्टर के नाम एक आवेदन पत्र लिखा गया। इस पत्र का विषय सात गाँवों में भू-अधिग्रहण आदेश को निरस्त करें… है। पत्र में आगे लिखा गया है कि झाबुआ जिले के सात गाँवों में औद्योगिक निवेश हेतु इंटरनेशनल कॉरिडोर आ रहा है, इन गाँव में सबसे ज्यादा आदिवासी निवास करते हैं। गाँव इस प्रकार हैं- सेमलिया, नारेला, कलदेला, मादालदा, नावापाड़ा, खाण्डन और तेजपुरा।
इनमें किसी भी प्रकार गाँवों की ग्रामसभा से कोई एनओसी-अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं लिया गया है। अगर लिया भी गया है तो, ग्राम सभा के किसी भी सदस्य को नहीं मालूम है। इसमें भ्रष्टाचार के बू आ रही है।
इस पत्र के नीचे लिखा गया है- श्रीमानजी से निवेदन है कि प्रस्तावित औद्योगिक निवेश क्षेत्र से संबंधित जमीन का प्रस्ताव अविलंब निरस्त करें।अन्यथा, हमारे अनुसूचित जन जाति परिवार का आपकी सरकार और आपके प्रशासन पर से भरोसा उठ जाएगा।
औद्योगिक निवेश हेतु जिन गाँवों से जमीनें मांगी गई हैं, वहाँ के लोगों ने बताया कि ग्रामसभाओं ने जमीन अधिग्रहण के विरोध में प्रस्ताव भी लिखे हैं। कई गाँवों के प्रस्ताव लोगों ने हमारे साथ साझा भी किए। इन प्रस्ताव में कलदेला ग्रामसभा का प्रस्ताव भी शामिल है। कलदेला के प्रस्ताव में वर्णित कुछ भाग इस प्रकार हैं- प्रस्ताव दिनांक (5 अगस्त, 2023) ज्ञात हुआ कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा ग्रामसभा के अंतर्गत औद्योगिक निवेश क्षेत्र प्रारंभ किया गया है। उक्त कार्य ग्राम सभा की स्वीकृति के बगैर चालू किए गए हैं।

आगे हमारी चर्चा भू-समस्याओं पर कार्य कर रहे डॉ. कमल सिंह डामोर से हुई। डॉ. कमल का मानना है कि ‘यदि आदिवासी वर्ग की जमीन नहीं रहेगी तो वह खत्म हो जाएगा। झाबुआ जिले से गुजरे 8 लाइन राजमार्ग में आदिवासियों की अधिकतर जमीनें अधिग्रहित की जा चुकी हैं। अब लोगों की जो थोड़ी-बहुत जमीनें बची हैं, उसे औद्योगिक निवेश के नाम पर नोटिस जारी कर मांगा गया है। हमारी ही जमीन क्यों मांगी गई है? औद्योगिक निवेश हेतु वन विभाग की जमीन भी खाली है।’ डॉ. कमल आगे कहते हैं कि ‘अब हम जान दे देंगें, लेकिन जमीन नहीं। अगर जमीन अधिग्रहण की कार्यवाही नहीं रुकी, तब हमारा प्लान व्यापक जन आंदोलन की तरफ होगा।
जब हमने भू-अर्जन के संबंध में भू-अधिकारों पर कार्यरत संस्था एकता परिषद के मध्यप्रदेश संयोजक डोंगर भाई से बात की तो वह कहते हैं कि, ‘जहां भी भू-अधिग्रहण किया जाता है, वहाँ जमीन के बदले जमीन दिया जाना चाहिए। क्योंकि, जमीन के बदले जो मुआवजा दिया जाता है, उससे लोग जितनी जमीन अधिग्रहित की गई है, उतनी जमीन नहीं खरीद पाते। लोग जब भूमिहीन हो जाते हैं, तब शहरों की तरफ पलायन करने लगते हैं, जिससे शहरों पर भी दबाव बढ़ रहा है।
मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता राहुल श्रीवास्तव से आदिवासी वर्ग की जमीन अधिग्रहण प्रक्रिया के कानूनी पक्ष पर चर्चा की गई तो उन्होंने बताया कि, ‘पेसा एक्ट के पाँचवी अनुसूची क्षेत्र में ग्रामसभा से परामर्श की बात कही गई है। यदि ग्रामसभा परियोजना में (भू-अधिग्रहण) का विरोध कर रही है और उसने कलेक्टर को ज्ञापन भी दिया है तब देखना जरूरी है कि, क्या वास्तव में ग्रामसभा से परामर्श किया गया। यदि हाँ, तो ग्रामसभा के लोग विरोध क्यों कर रहें हैं? यदि ग्रामसभा से परामर्श किए बगैर कोई प्रक्रिया की जा रही है। तब यह ग्रामसभा के संवैधानिक अधिकारों और पेसा एक्ट के प्रावधानों का उल्लंघन होगा। सरकार को आदिवासी ग्रामसभाओं के अधिकार सुनिश्चित करते हुए योजना बनानी चाहिए।’
जब हमने जमीन अधिग्रहण की मांग का यह मुद्दा आदिवासी वर्ग को लेकर कार्य कर रहे बारगी विस्थापन संघ के कार्यकर्ता राजकुमार सिन्हा के सामने रखा, तब वह कहते हैं, ‘आदिवासियों की आजीविका खेती और मजदूरी पर निर्भर है। अनुसूचित जनजातियों की रक्षा करने का काम राज्य सरकार का है। विकास के नाम पर आदिवासियों की जमीन लगातार ली जा रही है, यह चिंताजनक है। जमीन जाने से जो विस्थापन मिलता है, उससे आदिवासी वर्ग का आर्थिक, सामाजिक सांस्कृतिक ताना-बाना टूट जाता है।’
विचारणीय है कि, झाबुआ में औद्योगिक निवेश हेतु जिन सात आदिवासी गाँवों की जमीनें मांगी गयी, उनकी जीविका का एकमात्र साधन कृषि है। ऐसें में देश के विकास के हवाले जमीनें अधिग्रहित करना, आदिवासियों के जीने का आधार छीनना है। अगर, इन सात गाँवों की जमीनें अधिग्रहित कर आदिवासी समुदाय को विस्थापित किया जाता है। तब प्रावधान है कि, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013 के तहत विस्थापित आदिवासी लोगों के परिवार के सदस्य को नौकरी, प्रभावित परिवार को घर का पट्टा, विस्थापित परिवार को शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, श्मशान घाट, डाक जैसी विभिन्न नागरिक सुविधाएं मुहैया कराई जाएं। अगर यह सुविधाएं विस्थापित आदिवासी लोगों को नहीं दी जाती हैं, तब लोगों के आर्थिक और सामाजिक न्याय, अवसर की समता जैसे विभिन्न संवैधानिक मूल्यों पर संकट बरकरार रहेगा। साथ-साथ यह प्रतीत होगा कि, विकास के नाम पर स्थापित की गई परियोजनायें आदिवासियों के विनाश का कारण हैं, ऐसें में लोग न्याय की गुहार लगाते रहेंगे। अगर, सही मायने में विकास को समझा जाए तो विकास का मतलब केवल यह नहीं है कि ऊंची इमारतें खड़ी हों जायें या सड़क निर्माण जैसी अन्य परियोजनाएं स्थापित हो जायें। सही मायने में विकास का मतलब बुनियादी सुविधाओं से वंचित और विस्थापित लोगों के जीवन स्तर में आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक जैसे अन्य क्षेत्रों में सुधार लाना है। जिससे बुनियादी सुविधाओं से वंचित और विस्थापित लोगों को यह अहसास न हो कि उनके आवास और जमीन जैसे अन्य संसाधन छीनकर सरकार ने अपना और कुछ लोगों का विकास कर दिया।
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