Sunday, September 8, 2024
Sunday, September 8, 2024




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमविचारसामाजिक क्रांति के अग्रदूत बने नौजवान : डॉ. मनराज शास्त्री

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

सामाजिक क्रांति के अग्रदूत बने नौजवान : डॉ. मनराज शास्त्री

मनराज शास्त्रीजी से फेसबुक के माध्यम से ही परिचित हुआ था। वे एक उच्च शिक्षित व्यक्ति थे, वे जौनपुर के शाहगंज में एक स्नातकोत्तर कालेज के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त होने के बाद भी सामाजिक कार्योंमें बढ चढ़कर हिस्सा लेते थे। जीवन भर वे पाखण्ड और अंधविश्वास के खिलाफ लड़ते रहे। जिसकी बानगी उनकी पत्नी […]

मनराज शास्त्रीजी से फेसबुक के माध्यम से ही परिचित हुआ था। वे एक उच्च शिक्षित व्यक्ति थे, वे जौनपुर के शाहगंज में एक स्नातकोत्तर कालेज के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त होने के बाद भी सामाजिक कार्योंमें बढ चढ़कर हिस्सा लेते थे। जीवन भर वे पाखण्ड और अंधविश्वास के खिलाफ लड़ते रहे। जिसकी बानगी उनकी पत्नी की मृत्यु के पश्चात देखने को मिली। उन्होंने अपनी पत्नी की तेरहवींया अन्य कोई कर्मकांड नहीं किया, अपितु अपने आवास परमात्र एक श्रद्धांजलि सभा रखकर उन्हें याद किया। वे श्रमजीवी समाज की बेहतरी के और उनके जीवन में हो सकने वाले परिवर्तनों के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे। शास्त्रीजी के विचारों को मैं फेसबुक एवं गाँव के लोगपत्रिका के माध्यम से देखता रहता था। नवजागरण कालीन पत्रपत्रिकाओं का अध्ययन करते हुए मुझे मनराज यादव शास्त्री का एकलेख मिला, जो सन् 1966 का लिखा हुआ था। मुझे थोड़ा संदेह हुआ कि यह लेख उनका ही है या किसी अन्य मनराज शास्त्री का? इस शंका निवारण हेतु मैं शास्त्रीजी से बात करना चाहता था। उनका मोबाइल नंबर अनुपलब्ध था। अबतब के चक्कर में अचानक 16 अप्रैल, 2021 को शास्त्रीजी के निधन का समाचार सोशल मीडिया पर पढ़कर अफसोस के अलावा मेरे पास कुछ नहीं बचा। मैं उनसे उस दौर के राजनीतिक हालात और पत्रपत्रिकाओं पर बात करना चाहता था। खैर…  16 अप्रैल, 2022  को उनकेस्मृतिदिवसके आयोजन को सुनकर मुझे लगा कि उनके लेख की पुष्टि उनके परिजनों और परिचितों से करते हुए उन्हें इस आयोजन सभा के लिए उपलब्ध कराया जाए। आखिर उनके विचारों को ही अब लोगों तक पहुँचाना सच्ची श्रद्धांजलि होगी। प्रस्तुत लेख वाराणसी से निकलने वाली यादवपत्रिका से हूबहू लिया गया है। इसलेख द्वारा शास्त्रीजी के शिक्षा, शिक्षक, बेरोजगारी तथा तत्कालीन सरकार की भूमिका को जाना जा सकताहै।

[bs-quote quote=”हमारी यह शिक्षा प्रणाली शिक्षार्थी को- जिसे ही समाज का उपरी- संकेतिक सुंदर अंग कहा जाता है- विकृत; निष्प्रभ, निराश और कुण्ठित बना रही है। कुण्ठाग्रस्त शिक्षार्थी समाज में किंशुक के पुष्प सदृश्य है, जिसमें दिखावटी श्रृंगार भले हो परंतु सुगंधि का लेश भी नहीं। उसे तो समाज में गुलाब के पुष्प के सदृश होना चाहिए जो न केवल दिखावट में अच्छा लगे अपितु अपनी सुगंध से सारे सामाजिक- वातावरण को आमोदित भी कर दें।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 शिक्षा और शिक्षार्थी

श्री मनराज यादव, एमए शास्त्री प्रवक्ता, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-5]

मानव समाज एक अंगी है और प्रत्येक मनुष्य उसका अंग। अंगी की स्थिति उसके स्वस्थ अंगों पर निर्भर करती है। प्रत्येक अंग को अंगी के उपयुक्त होना चाहिये। यदि कोई भी अंग अनुपयुक्त हुआ तो अंगी में सद्यः विकृत के लक्षण दृष्टिगत होने लगेंगे। यही एक ऐसी मूल भावना है जो प्रत्येक माता-पिता को इस बात के लिए सतर्क कर देती है कि उसकी संता – जो की अंगी समाज का अंग है- अंगी के लिए स्वस्थ और उपयुक्त अंग सिद्ध हो। इसी भावना को अपने अन्तस्तल में रखकर वे हर क्षण प्रयासशील रहते हैं। परन्तु माता-पिता से भी बढ़कर महत्व शिक्षा का है। शिक्षा ही मनुष्य को अंगी समाज का उपयुक्त, सक्षम और सुंदर अंग बनाती है। जिससे सत्य और शिव की कल्पना भी सार्थक होती है। यदि दी गई शिक्षा अपने इस उद्देश्य को पूर्ण नहीं करती तो सुन्दर के अभाव में न तो सत्य अंकुरित होगा और नहीं शिव पुष्पित और फलित। ऐसी स्थिति में समाज में असुन्दर तत्वों का बाहुल्य होगा और सत्य एवं शिव स्वत: विलीन हो जायेगें। उनके सामंजस्य के अभाव में समाज विश्रृंखलित होने लगेगा।

यह भी पढ़ें…

जो भी कन्ना-खुद्दी है उसे दे दो और नाक ऊंची रखो। लइकी हर न जोती !  

सम्प्रति जो शिक्षा दी जा रही है और उसका जो स्वरूप अथवा उसकी जो परिस्थिति हमारे समक्ष प्रस्तुत है, उससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि समाज में सुन्दर, सत्य और शिव का सामंजस्य विपर्यस्त हो रहा है। शिक्षा समाज के उपयोगी अंगों को विकृत कर रही है, उसे ह्रास के गर्त में धकेल रही है। शिक्षा शास्त्री उन अंगों की शक्ति का या तो अनुमान नहीं लगा पा रहे हैं या तो अनुमान और सही आकलन करके भी वस्तु स्थिति की उपेक्षा कर रहे हैं। संभवतः उनका ध्यान इस ओर नहीं जा रहा है कि खोई हुई शक्ति पुनः कथमपि-कदापि अर्जित नहीं की जा सकती। यदि ध्यान से देखा जाए तो यही ज्ञात होगा कि देश की शक्ति के 60-70 प्रतिशत भाग का या तो दुरुपयोग हो रहा है या उसे निरर्थक रूप से विनष्ट होने दिया जा रहा है। यह सब क्यों हो रहा है? क्या हमारी दूषित और अतर्कित शिक्षा प्रणाली ही इसके प्रति उत्तरदायिनी नहीं है?

हमारी यह शिक्षा प्रणाली शिक्षार्थी को- जिसे ही समाज का उपरी- सांकेतिक सुंदर अंग कहा जाता है- विकृत; निष्प्रभ, निराश और कुण्ठित बना रही है। कुण्ठाग्रस्त शिक्षार्थी समाज में किंशुक के पुष्प सदृश्य है, जिसमें दिखावटी श्रृंगार भले हो परंतु सुगंधि का लेश भी नहीं। उसे तो समाज में गुलाब के पुष्प के सदृश होना चाहिए जो न केवल दिखावट में अच्छा लगे अपितु अपनी सुगंध से सारे सामाजिक- वातावरण को आमोदित भी कर दें। परंतु देश का दुर्भाग्य कहिए कि आज दुर्गंध ही फैल रही है। दुर्गंध न भी हो, परंतु कुछ वर्णों द्वारा उसका ढिंढोरा पीटा ही जा रहा है। क्या शिक्षार्थी इसके लिए उत्तरदायी हैं? कदापि नहीं। इसके लिए तो हमारी शिक्षा प्रणाली, हमारा संस्कार, सरकार की आर्थिक नीति और अर्थव्यवस्था तथा योजना आयोग उत्तरदायी है?

[bs-quote quote=”आज का विद्यार्थी इस बात पर आश्वस्त नहीं है कि वह अपनी शिक्षा समाप्त करके किस दिशा को अपनाएगा? हमारी सरकार इस बात पर विचार नहीं करती कि प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में उत्तीर्ण होने वाले इन छात्रों का जिनके ऊपर राष्ट्रीय आय का इतना बड़ा हिस्सा जनता लगाती है क्या उपयोग किया जाएगा? यदि सरकार सोचती भी है तो ऐसा कोई कदम नहीं उठा रही है, जो इस स्थिति को सुधारने के लिए उपयुक्त हो।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

इधर दो-एक महीने से विद्यार्थियों ने देश में एक ऐसी माहौल उत्पन्न कर दिया है, जिसने संपूर्ण देश का ध्यान केंद्रित कर लिया है। वर्षों से विद्यार्थियों के मानस में पलने वाला अशांतिका ज्वालामुखी भड़क उठा है। भड़काने का निमित्त कुछ भी हो सकता है, परंतु उसकी पहुंच सही स्थान पर हुई। विद्यार्थियों में व्याप्त अशान्ति की मीमांशा करते समय शिक्षा प्रणाली के दोष भी सामने आ जाएंगे। यहां अत्यंत संक्षेप में उन कारणों का उल्लेख किया जाएगा जो इस अशांति के प्रति उत्तरदाई हैं।

किसी भी देश की गौरवकांक्षिणी और उत्तरदायिनी सरकार का यह परम कर्तव्य है कि वह सभी नवयुवकों और विशेष कर शिक्षित नवयुवकों के भविष्य को सुरक्षित रखें। उसे यह प्रयास और दृढ़ प्रयास करना चाहिए कि कोई भी नवयुवक यह न अनुभव करें कि वह बेकार है और इसलिए बेकार है कि उसे उसकी योग्यता के अनुकूल काम नहीं दिया जा रहा है;  किसी भी नवयुवक को यह कष्ट न हो कि उसकी शक्ति का उपयोग नहीं किया जा रहा है अथवा उसका दुरुपयोग किया जा रहा है। यह उसी सरकार की जिम्मेदारी है कि वह शक्तिशाली नवराष्ट्र निर्माण में नवयुवकों में कुंठा और असंतोष न पनपने दे। अन्यथा लोहे में स्पात बनने के पूर्व ही जंग लग जाएगा। यदि हम स्वतंत्रता के बाद के भारत पर दृष्टि डालें तो यह बात अत्यंत स्पष्ट दिखाई पड़ती है कि हमारी सरकार ने अपने इस उत्तरदायित्व का पालन नहीं किया।

अगोरा प्रकाशन की किताबें अब किन्डल पर भी…

इसका परिणाम यह हुआ कि देश के शिक्षित नवयुवकों का भी एक बहुत बड़ा भाग अपने भविष्य के प्रति आशावान नहीं रह गया। उसका भविष्य अंधकारमय हो गया। उनकी संख्या में वृद्धि ही हुई, कमी नहीं आई। ऐसे नवयुवकों में असंतोष फैलना स्वाभाविक ही था। अब जब उन लोगों ने अपना असंतोष व्यक्त किया तो उन्हें अपनी उत्तरदायी सरकार से लाठी और गोली का उपहार मिला। उन पर विरोधी दलों द्वारा पथभ्रष्ट किए जाने का आरोप लगा। मानता हूं सरकार के इस कथन में किंचित सत्य हो सकता है, परंतु साथ ही यह भी मानता हूं कि यह सरकार के लिए सत्यता से आंखें फेरना ही है। ऐसा करना किसी भी जिम्मेदार सरकार के लिए शोभा की बात नहीं है। आश्चर्य तो तब होता है जब सरकार उन लोगों को भी कोई काम नहीं देती जिनके लिए वह करोड़ों रुपये खर्च करती है। कौन नहीं कहेगा कि ऐसी सरकार की बुद्धि का दिवाला पिट चुका है? आज का विद्यार्थी इस बात पर आश्वस्त नहीं है कि वह अपनी शिक्षा समाप्त करके किस दिशा को अपनाएगा? हमारी सरकार इस बात पर विचार नहीं करती कि प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में उत्तीर्ण होने वाले इन छात्रों का जिनके ऊपर राष्ट्रीय आय का इतना बड़ा हिस्सा जनता लगाती है क्या उपयोग किया जाएगा? यदि सरकार सोचती भी है तो ऐसा कोई कदम नहीं उठा रही है, जो इस स्थिति को सुधारने के लिए उपयुक्त हो।

शिक्षा के उद्देश्य की दृष्टि से अधिकतर लगभग 80% छात्र और सरकार दोनों ही दिशाहीनता के शिकार हैं। इसके साथ ही शिक्षा सर्वसाधारण के लिए सुलभ नहीं है। देश के बहुत बड़े हिस्से को आबाद करने वाले किसानों के बच्चों के लिए उच्च शिक्षा निरर्थक ही सही कितनी दुर्लभ है? अभी तो असंतोष की लहर केवल उन छात्रों में ही है जो बेकार हैं और जब यह लहर उन नवयुवक किसानों में भी तरंगित होने लगेगी जिनकी शिक्षा का मार्ग सरकार की खर्चीली शिक्षाप्रणाली ने अवरुद्ध कर दिया है तो सरकार की क्या दशा होगी? कितने लोगों को लाठी, गोली, पुलिस और सेना से शांत किया जा सकेगा, आज विद्यार्थियों के असंतोष की चर्चा है, वह न केवल विद्यार्थियों का असंतोष है वरन ऐसे बहुत से नवयुवकों का भी असंतोष है जो उच्च शिक्षा से वंचित होने के कारण दिशाहीन होकर अनभीष्ट दिशा अपना चुके हैं।

अगोरा प्रकाशन की किताबें अब किन्डल पर भी…

आज के उत्तीर्ण विद्यार्थी को जातीयता, प्रांतीयता, सांप्रदायिकता और भाई-भतीजावाद का भी सामना करना पड़ रहा है। क्या यह कम असंतोष का कारण है? जिस सरकार के नेतृत्व में इन गलत परंपराओं को प्रश्रय मिले, उस सरकार को गद्दी पर रहने का क्या नैतिक अधिकार है? यदि सजग विद्यार्थी उसके विरुद्ध आवाज न उठाएंगे तो क्या अशिक्षित और जाहिल वृद्धों से इसकी आशा की जायगी? हां! यह बात अवश्य है कि विद्यार्थी का पहला कर्तव्य पढ़ना है। परंतु वहीं उसका यह भी कर्तव्य है कि वह उन अन्यायों के खिलाफ भी आवाज उठाये जो उसपरया उस समाज पर हो रहे हैं जिसका वह अंग है।

आज की शिक्षा प्रणाली के पास में आबद्ध विद्यार्थी को उन विषयों का भी अध्ययन करना पड़ता है, जिनमें उसकी रुचि नहीं है। फल यह होता है कि वह अनुत्तीर्ण होता है। एक बार नहीं कई बार। उदाहरण के लिए अंग्रेजी को ले सकते हैं अथवा नौकरी के लालच में कला वर्ग में रुचि होने पर भी विज्ञान वर्ग को लेने को। बार-बार अनुत्तीर्ण होने से छात्र कुंठित और असंतुष्ट न होगा तो होगा क्या? यदि उसकी रूचि और उसकी मेधा के अनुकूल विषयों को पढ़ने का अवसर उसे प्राप्त होता तो वह अवश्य उत्तीर्ण होता। परंतु ऐसा होता ही कहा है? ऐसीस्थिति में अशांति का होना स्वाभाविक है।

[bs-quote quote=”कदम उठावे और विद्यार्थियों का अनुचित रूप से दमन न करे। आज शिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है। यदि हमारी यह सरकार उसे नहीं करती तो दमन का कुचक्र सदा उसकी सहायता नहीं कर सकेगा और उसे बुरा दिन देखना ही होगा। इसके लिए अधिक दिन तक छात्रों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। उन्हें दबाया नहीं जा सकता।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

साथ ही, विद्यार्थियों को जो-जो सुविधाएं मिलनी चाहिए, वह भी कम ही मिल पाती है। उदाहरण के लिए आवासादि से भिन्न एक अन्य महत्वपूर्ण बात को ले सकते हैं। प्रायः एक अध्यापक के जिम्मे 70-80 और यदि बहुत कम हुए तो 50-60 विद्यार्थी रहते हैं। कभी-कभी तो 150 विद्यार्थी भी रहते हैं। ऐसी स्थिति में एक ही प्राध्यापक का ध्यान सभी विद्यार्थियों पर नहीं जापाता। वह मशीन की भांति व्याख्यान देता चला जाता है और विद्यार्थी भी कम रुचि ले पाते हैं। यदि विद्यार्थियों और अध्यापकों का अनुपात ऐसा होता कि प्रत्येक विद्यार्थी पर अध्यापक का ध्यान उचित रूप से जा पाता तो उनमें अनुशासन भी बना रहता है और अध्ययन में भी उनकी रुचि रहती। परंतु हमारी सरकार की बुद्धिमानी कहिये कि बजट में सबसे कम धन शिक्षा विभाग को ही दिया जाता है।

एक बात और है। सभी विद्यार्थी एक ही उद्देश्य लेकर नहीं पढ़ते। कुछ प्रतिशत विद्यार्थी ऐसे भी होते हैं, जो नेतृत्व सम्हालना भी चाहते हैं। ऐसे विद्यार्थी उचित पार्टी की तलाश में रहते हैं। शासन करने वाली पार्टी पर बुजुर्गों का अधिकार रहता है और नवयुवक कम ही आ पाते हैं। अतः निश्चित है कि वे विरोधी पार्टियों में जाते हैं। शासक पार्टी से असंतोष उन्हें ऐसा करने को बाध्य करता है। हां, इतना अवश्य है कि कुछ लोग सिद्धांततः भी ऐसा करते हैं और देश में लोकतंत्र की परंपरा को बनाए रखने के लिए विरोधी दल की आवश्यकता को देखते हुए उनका ऐसा करना प्रशंसनीय भी है। उक्त स्थिति भी विद्यार्थियों में असंतोष को जन्म देने में सहायक है।

अगोरा प्रकाशन की किताबें अब किन्डल पर भी…

शिक्षा प्रणाली को सभी दोषों से मुक्त करने के लिए वैचारिक स्तर पर सामाजिक क्रांति की आवश्यकता है। ऐसी क्रांति के अग्रदूत विद्यार्थी ही हो सकते हैं। अपने इस अशांति प्रदर्शन से विद्यार्थियों ने उसका संकेत दे दिया है। अब यह सरकार का काम है कि वह समय रहते, उसके महत्व को समझें। उधर, कदम उठावे और विद्यार्थियों का अनुचित रूप से दमन न करे। आज शिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है। यदि हमारी यह सरकार उसे नहीं करती तो दमन का कुचक्र सदा उसकी सहायता नहीं कर सकेगा और उसे बुरा दिन देखना ही होगा। इसके लिए अधिक दिन तक छात्रों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। उन्हें दबाया नहीं जा सकता।

यह भी पढ़ें…

1984 में दिल्ली के त्रिलोकपुरी में सिख विरोधी हत्याओं का एक चश्मदीद

यादव जाति के युवक जो शिक्षित कम है किंतु वीर हैं वह सेना में जाकर देश की रक्षा में भाग लेना चाहते हैं। उससे उनका जीवन स्तर भी ऊंचा होगा। इनकी संख्या देश में 10 प्रतिशत है। किन्तु सरकार अहिर रेजीमेंट बनाकर उनकी मांग को पूरा नहीं कर रही है। सरकार कहती है कि जाति के नाम पर रेजीमेंट नहीं बनेगी किंतु जाति के नाम पर रेजीमेंट हैं। सरकार झूठे आदर्श की दुहाई देकर यादव युवकों को आगे बढ़ने देना नहीं चाहती सरकार में आत्मीयता या स्नेह नहीं है इस कारण कुमार्ग पर जा रही है।

(यादव, दिसम्बर सन् 1966 ई०, पृष्ठ 6-9 )

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।
1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here