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ग्राउंड रिपोर्ट

बेहतर स्वास्थ्य सुविधा को जाना पड़ता है 12 किलोमीटर दूर

किसी भी देश, राज्य या क्षेत्र की तरक्की इस बात पर निर्भर करती है कि वहां रहने वाले लोग कितने पढ़े-लिखे हैं और कितने सेहतमंद। जहां भी इन दोनों अथवा किसी एक का भी अभाव हुआ है वहां का विकास स्तर प्रभावित हो जाता है। दुनिया के कई अति पिछड़े देश इसका उदाहरण हैं, जो […]

किसी भी देश, राज्य या क्षेत्र की तरक्की इस बात पर निर्भर करती है कि वहां रहने वाले लोग कितने पढ़े-लिखे हैं और कितने सेहतमंद। जहां भी इन दोनों अथवा किसी एक का भी अभाव हुआ है वहां का विकास स्तर प्रभावित हो जाता है। दुनिया के कई अति पिछड़े देश इसका उदाहरण हैं, जो इन दोनों अथवा किसी एक की कमी के कारण विकास की दौड़ में पीछे रह गए हैं। यही कारण है कि दुनिया के लगभग सभी विकसित देशों ने अपने नागरिकों के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य पर काफी गंभीरता से ध्यान दिया है। इन देशों ने अपने नागरिकों के लिए स्वास्थ्य सुविधा बिल्कुल मुफ्त कर रखी है। भारत में भी इस मुद्दे पर गंभीरता से ध्यान देने की कोशिश की जाती रही है। देश के लगभग सभी राज्यों के बड़े शहरों में एम्स जैसे बड़े अस्पताल संचालित हो रहे हैं। आज़ादी के बाद से ही सभी सरकारों ने स्वास्थ्य के मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए इस ओर काफी काम किया है। इसे मौलिक और बुनियादी अधिकार की श्रेणी में रखा है।

लेकिन अभी भी देश के कई ऐसे ग्रामीण क्षेत्र मौजूद हैं जहां के नागरिक इस बुनियादी सुविधा से आज भी वंचित हैं। भारत में बहुत से ऐसे गांव हैं, जहां अस्पताल जैसी सुविधा उपलब्ध नहीं है। इन्हीं में राजस्थान के उदयपुर जिला स्थित सलुम्बर तहसील का मालपुर गांव भी है। जहां के लोग इस दौर में भी अपने स्वास्थ्य की समस्या को लेकर दर-दर भटक रहे हैं। इस गांव में लगभग 300 घर हैं। यहां के लोगों को अपने उपचार के लिए गांव से 12 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है क्योंकि इस गांव में स्वास्थ्य सुविधा नगण्य है। गांव में एक उप-स्वास्थ्य केंद्र अवश्य है लेकिन वह केवल दिखावा मात्र से अधिक नहीं है। ऐसे में किसी इमर्जेंसी में गांव के बुज़ुर्ग, बच्चे, गर्भवती महिलाएं और किशोरियां किस स्थिति से गुज़रती होंगी इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है। इस संबंध में गांव की किशोरियां कंचन, मीरा और पूजा का कहना है कि हम अपने उपचार के लिए नर्स बहनजी के पास नहीं जाती हैं क्योंकि उन्हें किसी प्रकार की जानकारी तक नहीं है कि उप-स्वास्थ्य केंद्र में लड़कियों के लिए क्या-क्या सुविधाएं हैं। गांव की अन्य किशोरियां सविता और अनीता का कहना है कि हमने एक बार उप-स्वास्थ्य केंद्र जाकर जानकारी लेनी चाही कि यहां पर लड़कियों के लिए माहवारी अथवा अन्य किसी स्वास्थ्य समस्याओं से जुड़ी क्या-क्या सुविधाएं उपलब्ध हैं तो उन्हें कोई संतुष्टिपूर्वक जवाब नहीं मिल सका।

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गांव की एक महिला मीराबाई (बदला हुआ नाम) कहती हैं कि मेरे चार बच्चे हैं। सभी बच्चों के जन्म के समय मुझे सलुम्बर के जिला अस्पताल जाना पड़ा, क्योंकि गांव में स्वास्थ्य से संबंधित कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है। रात के समय तो हमें बहुत दिक्कत होती है। इमरजेंसी में हमें खुद से गाड़ी करके मरीज़ को ले अस्पताल जाना पड़ता है। गाड़ी वाले 400 से 500 रुपए किराया लेते हैं। जो गांव की गरीब जनता के लिए बहुत मुश्किल होता है। हालत यह है कि ब्याज पर पैसे लेकर इलाज करवाने पर मजबूर होना पड़ता है। यदि गांव के अस्पताल में स्वास्थ्य की बेहतर सुविधा उपलब्ध होती तो न केवल मरीज़ों को समय पर इलाज उपलब्ध हो जाता बल्कि गरीब जनता को ब्याज पर पैसा भी नहीं लेना पड़ता। गांव की एक अन्य महिला साहना बाई (बदला हुआ नाम) कहती हैं कि इस गांव में नर्स बहनजी हैं, परन्तु वह कभी-कभी आती हैं और टीकाकरण का काम करके चली जाती हैं। उप-स्वास्थ्य केंद्र में केवल गर्भवती महिलाओं को कुछ गोलियां मिल जाती हैं बाकि ग्रामीणों को सलुम्बर जाने को मजबूर होना पड़ता है। वहीं, गांव की एक बुजुर्ग महिला कमला बाई का कहना है कि ‘हमारे गांव में एंबुलेंस की कोई सुविधा नहीं है, जिसकी वजह से हम जैसे लोगों को बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। चार कदम भी हम लोग ठीक से चल नहीं पाते हैं। हमारे पास इतने पैसे नहीं होते हैं कि हम निजी गाड़ी करके अस्पताल जा सकें। सर्दी और खांसी जैसे छोटे उपचार के लिए गांव में नर्स बहनजी हैं, परंतु किसी बड़े उपचार के लिए हमें दूर जाना पड़ता है।’

गांव की आशा वर्कर का कहना है कि यहां की एक एएनएम के पास छह गांवों का ज़िम्मा है। वह प्रतिदिन अलग-अलग गांव में जाकर टीकाकरण का काम करती है। उनका कहना है कि केंद्र पर गर्भवती महिलाएं आती हैं। यदि उन गर्भवती महिलाओं को कोई भी समस्या आ जाती है तो वह स्वास्थ्य केंद्र जाती हैं। परंतु कोई किशोरी इस उप-स्वास्थ्य केंद्र पर नहीं आती है। गांव में बेहतर स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध नहीं होने के कारण झोलाछाप डॉक्टरों का बोलबाला है। जागरूकता और आर्थिक कमी के अभाव में ग्रामीण इन झोलाछाप डॉक्टरों के चंगुल में फंसने पर मजबूर हैं। यदि गांव में सरकारी सुविधा और डॉक्टरों की संख्या बढ़ेगी तो ग्रामीण अवश्य ही झोलाछाप डॉक्टरों की शरण में जाने से बच जायेंगे। साथ ही स्थानीय स्तर पर स्वास्थ्य कार्यकर्ता भी सरकारी सुविधा की जानकारी घर-घर जाकर लोगों तक पहुंचा सकने में सफल होंगे।

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बहरहाल, एक गांव में अस्पताल होना बहुत जरूरी है। लोगों की पहली जरूरत ही अस्पताल होती है। इस वर्ष के केंद्रीय बजट में भी ग्रामीण स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाने पर भी काफी ज़ोर दिया गया है। एक ओर जहां क्रिटिकल केयर अस्पताल खोलने की बात की गई है, वहीं 75 हज़ार नए ग्रामीण हेल्थ सेंटर खोलने की भी घोषणा की गई है। केंद्र सरकार सस्ता और बेहतर इलाज मुहैया कराने के लिए छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस निजी अस्पताल खोलने पर छूट और प्रोत्साहन दे रही है। सरकार ने प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएमजेएवाई) के तहत तैयार इस मसौदे पर 20 राज्यों से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए चर्चा भी की है। इन सबका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों तक बेहतर स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराना है, लेकिन सरकार को इस बात का भी ध्यान रखने की ज़रूरत है कि निजी अस्पताल गांव तक तो पहुंच जाएं, लेकिन कहीं वह गरीबों की पहुंच से दूर न हो जाएं?

शिल्पा उदयपुर में पत्रकार हैं।

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