Tuesday, April 8, 2025
Tuesday, April 8, 2025




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमसंस्कृतिकैनवास पर जीवन के रंग बिखेरती दलित किशोरियां

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

कैनवास पर जीवन के रंग बिखेरती दलित किशोरियां

बात जब बिहार में चित्रकला की आती है, तो मिथिला चित्रकला शैली के भित्ति चित्र व अरिपन का नाम जरूर आता है। मिथिला या मधुबनी चित्रकला एशिया के विभिन्न देशों में अपनी कलात्मकता और विशिष्ट शैली के लिए विख्यात है। यह चित्रकला बिहार के दरभंगा, पूर्णिया, सहरसा, मुजफ्फरपुर, मधुबनी एवं नेपाल क्षेत्रों में खूब देखने […]

बात जब बिहार में चित्रकला की आती है, तो मिथिला चित्रकला शैली के भित्ति चित्रअरिपन का नाम जरूर आता है। मिथिला या मधुबनी चित्रकला एशिया के विभिन्न देशों में अपनी कलात्मकता और विशिष्ट शैली के लिए विख्यात है। यह चित्रकला बिहार के दरभंगा, पूर्णिया, सहरसा, मुजफ्फरपुर, मधुबनी एवं नेपाल क्षेत्रों में खूब देखने को मिलती है। इस चित्रकला में मिथिलांचल की संस्कृति को पूरी जीवटता से बनाई जाती है। यह चित्रकला प्राचीन महाकाव्यों, प्राकृतिक दृश्यों व सामाजिक-सांस्कृतिक दृश्यों को प्रदर्शित करती है। दरअसल, भारत में चित्रकला का पुराना इतिहास है। गुफाओं से मिले अवशेष व साहित्यिक स्रोतों के आधार पर स्पष्ट है कि भारत में चित्रकला प्राचीन समय से है। वर्तमान में, विद्यालयी पाठ्यक्रम में चित्रकला शामिल होने से बच्चों के अंदर कलात्मक, सृजनात्मक, तार्किकता, कल्पनाशीलता आदि कौशलों का विकास हुआ है। निजी विद्यालयों में इसे प्रोत्साहित भी किया जाता है। वहीं सरकारी स्कूलों में चित्रकला के प्रति उतनी सजगता नहीं देखी जाती है। जिसके कारण ग्रामीण किशोर-किशोरियों को आर्ट एडं क्राफ्ट की पढ़ाई और कैरियर के बारे में पर्याप्त ज्ञान नहीं है।

[bs-quote quote=”चित्रकला, संगीत कला, नृत्य कला, नाट्य कला, साहित्य कला आदि में कुछ ही परिवार होते हैं जो बच्चों के लिए इसे करियर के रूप में प्रोत्साहित करते हैं। शहरी परिवार के लोगों में कला के प्रति जागरूकता थोड़ी अधिक दिखती है। ऐसे परिवार व्यक्तित्व को और भविष्य को बेहतर करने के लिए घर पर कला का संस्कार देते हैं। वहीं ग्रामीण क्षेत्र के अधिकांश परिवार कला-साहित्य के फायदे-नुकसान से अनभिज्ञ हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

हालांकि बिहार सरकार ने प्रत्येक शनिवार को बैगलेस डे (बिना स्कूली बस्ता) घोषित किया है। इस दिन बच्चों को किताबी ज्ञान की जगह कला, संस्कृति और खेलकूद से जोड़ा जाता है। जिससे बच्चों के अंदर कला और शिल्प के प्रति थोड़ी जागृति आती दिख रही है। परंतु, महंगी शिक्षा व्यवस्था के इस काल में दो जून की रोटी जुटाने वाले परिवार के बच्चे भला लोककला, लोक संस्कृति, चित्रकला, नृत्य कला, संगीत कला आदि कौशलों को कैसे सीख पाएंगे? यह शासन और समाज के लिए यक्ष प्रश्न है। देश में नामचीन चित्रकार की पहुंच हाशिये पर खड़े लोगों से कोसों दूर है। इनके लिए चाहकर भी समय निकालना मुश्किल काम है। ऐसे में देश के ग्रामीण इलाकों से ही सही, कला-चित्रकला की धीमी लौ कुछ युवाओं के प्रयास से जल रही है। इन्हीं में एक युवा चित्रकार सुजीत कुमार हैं, जिनके प्रयासों से दलित-महादलित बस्ती की सुरुचि, चांदनी, अमनदीप, मेघा, अनूप प्रिया, राखी, वैष्णवी, नेहा आदि किशोर-किशोरियां सरकारी स्कूल में पढ़ाई के साथ-साथ आर्ट एंड क्राफ्ट के जरिए कैरियर को मुकाम देने में मशगूल हैं और अपने जीवन के उदासीपन, बचपन, गरीबी, मुफलिसी, भेदभाव और लैंगिक पूर्वाग्रह को कैनवास पर तूलिका से विभिन्न रंगों में भर रहे हैं।

बिहार के मुजफ्फरपुर जिला मुख्यालय से करीब 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अहियापुर-मुरादपुर दलित-महादलित बस्ती के इन बच्चों की सामाजिक व आर्थिक स्थिति बिल्कुल निम्न है। बावजूद इसके वह अपने मनोभाव, मनोदशा, अकुलाहट एवं बेबसी को कैनवास पर जीवंत करने में जुटे हुए हैं। गांव की गरीबी, बेबसी, बदइंतजामी आदि के बीच रहते हुए इन बच्चों के माता पिता मजदूरी करके किसी प्रकार दैनिक खर्चों को पूरा कर पाते हैं। इसके बावजूद वह अपने बच्चों को सृजनात्मक व कलात्मक कार्यों के लिए सुजीत कुमार के कलाकृति आर्ट स्टूडियो भेजते हैं, जहां सुजीत इन्हें निःशुल्क पेंटिंग सिखाते हैं। उनके मार्गदर्शन में अब इन बच्चों का पढ़ाई के साथ पेंटिंग भी लक्ष्य बन गया है।

कैनवास पर जीवन के रंग बिखेरती किशोरियां

दलित परिवार में जन्मे सुजीत ने बचपन से अपने मज़दूर पिता की मजबूरी और मां की बेबसी, लाचारी, गरीबी आदि को बहुत गहराई से देखा और समझा है। जीवन के झंझावातों, मुफलिसी के बीच अपने दुखों को व्यक्त करने के लिए उन्होंने चित्रकला को कैरियर के रूप में चुना। सरकारी स्कूल से पढ़ाई करने के बाद आर्ट एडं क्राफ्ट कॉलेज, पटना से बैचलर डिग्री प्राप्त की। त्रिपुरा सेंट्रल यूनिवर्सिटी से मास्टर डिग्री प्राप्त करने के बाद दलित-महादलित बस्तियों की पीड़ा ने उन्हें बस्ती की बच्चियों को पढ़ाने और लोककला, चित्रकला व नाट्कला के जरिए जीवन में बदलाव लाने के लिए प्रेरित किया। अपने कलाकृति आर्ट स्टूडियो के माध्यम से इन गरीब बस्ती की किशोरियों के मन में बचपन से कला के रंग भरने के लिए उनके परिजनों को तैयार किया। वह वर्ष 2018 से करीब 50 बच्चों को चित्रकला का कौशल सीखा रहे हैं। सुजीत कहते हैं कि उपेक्षित समाज में नशा, बाल विवाह, अशिक्षा, ढोंग-ढकोसला, अंधविश्वास आदि का बोलबाला रहा है, लेकिन चित्रकला के जरिए इन बच्चों में शिक्षा, स्वास्थ्य, समाज, संस्कृति, प्रकृति व कला की बेजोड़ समझ आई है।

उनके मार्गदर्शन में जहां मीनाक्षी राय और मो. इजहार चित्रकला में बैचलर ड़िग्री लेकर जीवन को कला के रंगों से भर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर जया परमार, नेहा कुमारी, मेघा, चांदनी कुमारी आदि आर्ट एंड क्राफ्ट में एडमिशन के लिए परीक्षा की तैयारी में जुट गई हैं। इसके अलावा इन बच्चों ने जहां राष्ट्रीय चित्रकला महोत्सव और स्थानीय कला प्रदर्शनी में चित्रकारी का परचम लहराया है, वहीं राज्य और जिला स्तरीय चित्रकला और नाट्यकला में भी बेहतर प्रदर्शन के लिए बच्चों को कई पुरस्कार भी मिले हैं। उनसे चित्रकला सीखने आई 13 वर्षीय मुन्नी कहती है कि चित्रकारी से मुझे बहुत खुशी मिलती है। यह कला ही नहीं बल्कि मेरे मन के दुखों को कैनवास पर उतारने का माध्यम भी है।

किशोरियों द्वारा बनाई गई पेंटिंग

हाल ही में मुजफ्फरपुर व बेगूसराय जिला मुख्यालय में नाट्य व चित्रकला महोत्सव का आयोजन किया गया था। वहां कलाकृति आर्ट के दर्जनों बच्चों ने अपनी चित्रकला प्रदर्शनी लगाई थी। कैनवास पर उकेरे गए इन बच्चों की आकृतियों को देखने के लिए प्रतिदिन सैकड़ों की भीड़ उमड़ रही थी। इन प्रदर्शनियों में भाग लेने वाले अधिकतर बच्चों के माता-पिता स्थानीय बाजार समिति में दैनिक मजदूरी करते हैं, तो कुछ के सड़क किनारे ठेला पर समोसे, गोलगप्पे, कचैड़ियां बेचकर बच्चों के जीवन में उजाला लाना चाहते हैं। बच्चों के हौसले को देखते हुए अक्सर सुजीत अपने पैसों से उनके लिए रंग और ब्रश का इंतज़ाम करते हैं, जबकि स्वयं का खर्च चलाने के लिए वह स्थानीय प्राइवेट स्कूलों में पेंटिंग टीचर के रूप में काम करते हैं। उनका मानना है कि दलित-महादलित और गरीब-उपेक्षित परिवार के बच्चों में भी बहुत हुनर है। ज़रूरत है बचपन से ही कला के प्रति उनमें रुचि पैदा करना और उनका मार्गदर्शन करना, जिससे उनके जीवन को बेहतर बनाया जा सके। इस समुदाय की किशोरियां बहुत ही उत्साह और बारीकी से उनसे चित्रकला सीख रही हैं।

यह भी पढ़ें…

प्लास्टिक सामग्रियां छीन रही हैं बसोर समुदाय का पुश्तैनी धंधा

वस्तुतः चित्रकला, संगीत कला, नृत्य कला, नाट्य कला, साहित्य कला आदि में कुछ ही परिवार होते हैं जो बच्चों के लिए इसे करियर के रूप में प्रोत्साहित करते हैं। शहरी परिवार के लोगों में कला के प्रति जागरूकता थोड़ी अधिक दिखती है। ऐसे परिवार व्यक्तित्व को और भविष्य को बेहतर करने के लिए घर पर कला का संस्कार देते हैं। वहीं ग्रामीण क्षेत्र के अधिकांश परिवार कला-साहित्य के फायदे-नुकसान से अनभिज्ञ हैं। वह इसे करियर के रूप में महत्वहीन समझते हैं। यही कारण है कि वह अपने बच्चों का रुझान इस ओर जाने नहीं देते हैं। जबकि चित्रकला में भारत के कई ऐसे चित्रकार हैं जिन्होंने विश्व पटल पर अपनी कला का लोहा मनवाया है। उनकी पेंटिंग को आज भी दुनिया भर में सराहा जाता है। ऐसे में सुजीत का यह प्रयास प्रशंसनीय है। जो समाज के उपेक्षित और हाशिये पर धकेल दिए गए समुदाय के बच्चों की प्रतिभा को पहचान कर उनके करियर को संवार रहे हैं।

अमृतांज इंदीवर, मुजफ्फरपुर (बिहार) में सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here