धान की खेती शुरू होने के साथ किसानों के लिए डीएपी और यूरिया का संकट एक बार फिर से शुरू हो गया है। सरकार के तमाम दावों के बावजूद किसान के सामने सब्सिडी रेट पर डीएपी और यूरिया हासिल करना आसान नहीं है। कई जिलों से यह खबर मिल रही है कि खाद वितरण केंद्र के मिलीभगत से खाद खुली दुकानों पर बेची जा रही है, जहाँ से किसानों को खाद एमआरपी रेट से ज्यादा पैसे देकर खरीदने को मजबूर होना पड़ रहा है। किसानों की समस्या को समझने और उसकी सच्चाई जानने के लिए जब गाँव के लोग ने जमीनी स्तर पर जानकारी हासिल करने की कोशिश की तो जो सच्चाई सामने आई उसने साबित कर दिया कि उत्तर प्रदेश का पूरा पर्वांचल हिस्सा इस समस्या की जद में है। बड़े और एप्रोच वाले किसान भले ही खाद वितरण केंद्र से खाद हासिल करने में सफल हो जाते हैं पर आम और छोटे किसान निजी दुकानों से खाद खरीदने को मजबूर हैं।
खाद वितरण की समस्या की सच्चाई समझने से पहले जरूरी है कि हम सरकार की उस पहल को समझ लें, जिसके अनुरूप खाद को लेकर सरकारी नीति बनाई जा रही है। सामान्य रूप से देखा जाए तो ऐसा लगता है कि सरकार खाद और अन्य उर्वरकों को उचित मात्रा में किसानों तक पंहुचाने के लिए फ़िक्रमंद है। सरकार का कहना है कि उसने उर्वरकों के संतुलित उपयोग को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठाये हैं। पर सच्चाई यह है कि इन प्रयासों के बावजूद यूरिया की खपत में वृद्धि हुई है। दूसरी ओर फसल की पैदावार में कमी भी देखी जा रही है। पर किसानों के सन्दर्भ में एक अन्य और बहुत हद तक बड़ी समस्या भी है। यह समस्या है यूरिया का रियायती दर पर ना मिल पाना ।
खाद के संतुलित प्रयोग के पक्ष में सरकार की मुख्य पहल के तौर पर वर्ष 2015 में भारत सरकार ने सभी यूरिया की नीम-कोटिंग को अनिवार्य कर दिया। वर्ष 2018 में मांग में कटौती के लिये 50 किग्रा. के स्थान पर 45 किग्रा. के यूरिया बैग प्रस्तावित किये। भारतीय किसान उर्वरक सहकारी लिमिटेड (इफको) द्वारा वर्ष 2021 में लिक्विड ‘नैनो यूरिया’ लॉन्च किया गया। इसी को ध्यान में रखते हुए गुजरात के कलोल में पहला लिक्विड नैनो यूरिया (LNU) संयंत्र का उद्घाटन हुआ। LNU एक नैनोपार्टिकल के रूप में यूरिया है और पारंपरिक यूरिया को बदलने तथा इसकी आवश्यकता को कम-से-कम 50% कम करने के लिये विकसित किया गया है।
इस पहल के प्रारम्भिक परिणाम में नीम कोटेड यूरिया के उपयोग से खपत में गिरावट आई किन्तु वर्ष 2018-19 से पुनः इस स्थिति में बदलाव आने लगा और वर्ष 2022-23 में यूरिया की बिक्री वर्ष 2015-16 की तुलना में लगभग 5.1 मिलियन टन अधिक के रूप में सामने आई।
नाइट्रोजन का बेहतर माध्यम होने की वजह से यूरिया सबसे व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाने वाला उर्वरक है जो पौधों की वृद्धि के लिये एक आवश्यक पोषण देने का काम करता है। भारत में यूरिया सबसे अधिक उत्पादित, आयातित, खपत की जाने वाली और भौतिक रूप से विनियमित उर्वरक है। वर्ष 2009-10 से यूरिया की खपत में एक-तिहाई से अधिक की वृद्धि देखी गई है। यह मोटे तौर पर 4,830 रुपए से 5,628 रुपए प्रति टन है। जबकि DAP प्रति टन 27,000 रुपए और MOP प्रति टन 34,000 रुपए में आती है। यूरिया से नाइट्रोजन, डीएपी से फास्फोरस और MOP एमओपी से पोटेशियम की पूर्ति होती है। इसमें यूरिया पर सबसे ज्यादा सब्सिडी है, जिसकी वजह से किसानों में सबसे ज्यादा मांग यूरिया की ही रहती है। डीएपी पर भी सब्सिडी होने के बावजूद भी यह मंहगी होती है, जिसकी वजह से यूरिया के बाद सबसे ज्यादा मांग डीएपी ही रहती है जबकि अन्य उर्वरक पर किसी तरह की सब्सिडी ना होने से किसान इन्हीं दोनों उर्वरकों पर निर्भर रहते हैं।
यदि यह उर्वरक रियायती दरों पर उपलब्ध हो जाता है तब किसानों के लिये कृषि लागत कम करने का माध्यम बन जाता है किन्तु यदि यह उर्वरक सरकारी वितरण केंद्र पर नहीं मिल पाता है, तब किसानों की कृषि लागत बढ़ जाती है। यूरिया के अधिक प्रयोग से कृषि में पड़ने वाला उर्वरक असुन्तालित हो जाता है, जिससे किसान की जमीन की उर्वरता भी खराब होती है और उत्पादन भी उम्मीद के अनुरूप नहीं हो पाता है। फिलहाल डीएपी पर रियायती दर लागू होने से यूरिया और DAP दोनों की बिक्री में बढ़ोत्तरी हुई है।
यह बढ़ोत्तरी ही खाद के परिप्रेक्ष्य में किसान की सबसे बड़ी समस्या है। इस समस्या पर जब हमने भदोही जिले के लच्छापुर के किसान बेनीमाधव से खाद की उपलब्धता के बारे में जानना चाहा तो वह कुछ देर चुप रहे, फिर हाथ की खैनी को चुटकी से उठाकर होंठो के बीच रखते हैं और खाद वितरण केंद्र के संचालक पर अपना आक्रोश जताते हुए कहते हैं कि, ‘जबसे ई केंद्र चलाय रहा है तबसे खाद आकासे कई तरई होय गई है। 50 क 45 तो सरकारै कई देहे अहै अब हियाँ से भी बोरी फटी मिळत है, तौले पर 40 ठहर जाय तउ बड़ी बात। सही बोरी लेय का अहै त बजारे से लेय का परी पर दाम हुआँ चढ़ बदत रहत है।’
वाराणसी जिले के पुआरी कला के जगदीश मिश्रा भी केंद्र पर खाद ना मिलने को लेकर नाराज दिखते हैं। वह बताते हैं कि, ‘ब्लैक ही मिलती है, जो सोसाइटी है वहां वैसे कभी मिल जाए तो मिल जाए पर सीजन में तो कभी नहीं मिलती है। वह बताते हैं कि 70% किसानों को बाजार से ही खरीदनी पड़ती है। सेंटर वाले ही खाद को बाजार में बेच कर काला बाजारी करते हैं।’
प्रतापगढ़ जिले में तो और भी बुरा हाल देखने को मिलता है। अधिया पर खेती करने वाले रामनाथ पासी कहते हैं, ‘जेकर खेत जोतत-बोअत अहि उनके कहे तो सेंटर वाले दई देथीं लेकिन साहेब जब अपने खेते बरे लेय का होत है तब रातिन से जाय के लाइन मा लागै का परत है।उहू मा कौनौ भरोसा नाही रहत की मिली की पारी आवत-आवत गोदाम खाली होय जाई।
प्रयागराज जिले में भी लगभग यही स्थिति दिखती है। फाफामऊ 70 साल की रामकली खाद मिलने की बात पर वह कहती हैं ‘देखा लरिका हमरे नैहरे माँ पहिले ढैंचा सराय के खेत तैयार कई लेत रहेन उही से खेती होय जात रही पर अब बिना खाद पानी के तव कुछ पैदा होय वाला नाही है। लाउग लगावत की खाद तो छीटे ही परी, घरे मा कौनव मरद तो अहैं नाही की रोज-रोज सेंटर पर जायके लाइन मा लग के खाद लय पावैं, बाजार से चार पैसा ज्यादा दय के मंगवाय लेब।’
यह संकट अब लगभग हर आम किसान का जरूरी संकट बन चुका है। जबकि सरकार का कहना है कि यूरिया की उपलब्धता का कोई संकट नहीं है। उत्तर प्रदेश में मिलती है।
सरकार का दावा
कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल में कटौती नहीं की गई तो मानव जीवन पर इसका काफी दुष्प्रभाव पड़ेगा। उनके मुताबिक, खाद्यान्नों की पैदावार में वृद्धि की मौजूदा दर से वर्ष 2025 तक देश की आबादी का पेट भरना मुश्किल हो जाएगा। इसके लिए मौजूदा 253 मीट्रिक टन खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ा कर तीन सौ मीट्रिक टन के पार ले जाना होगा।
बीते पांच वर्षों के दौरान देश में रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल भी बढ़ा है। वर्ष 2015-16 के दौरान जहां देश में करीब 57 हजार मीट्रिक टन ऐसे कीटनाशकों का इस्तेमाल किया गया था, वहीं अब इस तादाद के बढ़ कर करीब 65 हजार मीट्रिक टन तक पहुंचने का अनुमान है। इस मामले में महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश शीर्ष पर हैं। राष्ट्रीय स्तर पर इस्तेमाल होने वाले रासायनिक कीटनाशकों में से करीब 40 फीसदी इन दोनों राज्यों में ही इस्तेमाल किए गए।