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बुद्धदेव भट्टाचार्य : मैंने उन्हें हरदम सर्वहारा की कसौटी पर जीते देखा

पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के नहीं रहने पर मीडिया में लोग अपने-अपने तरीके श्रद्धांजलि दे रहे हैं। वे पक्के कम्युनिस्ट थे, विचार से भी और कर्म से भी। उनके कुछ संस्मरण यहाँ साझा कर रहे हैं लेखक डॉ सुरेश खैरनार

आठ अगस्त को पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का कलकत्ता में अपने आवास पाम एवेन्यू बालीगंज में अस्सी साल की उम्र में निधन हो गया। अनेक मुख्यमंत्रियों से मिलने का मौका मिला लेकिन बुद्धदेव भट्टाचार्य के संबंध में मैंने जो आकलन किया, उसमें मैंने पाया की वे मुख्यमंत्री होने के बाद भी सुसंस्कृत, शालीन तथा सभ्य बने रहे।  मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उन्होंने अपने पाम एवेन्यू, बालीगंज, स्थित छोटे से दो कमरों के फ्लैट में ही रहना पसंद किया। उस दौरान उनकी बेटी कलकत्ता के कॉलेज में पढ़ाई कर रही थी। वह भी अपने कॉलेज बस या ट्राम जैसे पब्लिक ट्रांसपोर्ट से ही आती-जाती थी।

उनके नहीं रहने पर मुझे इतिहास में पीछे जाने का मौका मिला और ऐसी कुछ घटनाएँ याद गईं, जो मैंने खुद देखी थी। मुझे उनकी कॉफी हाउस वाली घटना आज भी याद है। पहले वे कॉलेज स्ट्रीट के कॉफी हाउस में कॉफी पीने आते थे लेकिन मंत्री और मुख्यमंत्री बनने के बाद, समय के अभाव के कारण कभी-कभी ही उनका आना होता था लेकिन आते जरूर थे।

उनके मुख्यमंत्रित्व काल में कॉफी हाउस कर्मचारियों का वहां के मैनेजमेंट के साथ विवाद हो गया, तब उन्होंने ही मध्यस्थता करते हुए, कर्मचारियों से कोऑपरेटिव बनाने की पहल की, जिसकी वजह से आज भी कलकत्ता विश्वविद्यालय के सामने कॉलेज स्ट्रीट के कॉफी हाउस में वही पुरानी रौनक दिखाई देती है। सबसे अच्छी बात यह कि कॉफी हाउस आज वहां के कर्मचारियों का है। इस समय यहाँ युवाओं और युवतियों को ही ज्यादातर टेबल एंगेज करके बैठे हुए देखा हूँ।  कई बार हमारे जैसे उम्रदराज लोगों को खड़े देखकर, कुछ युवक और युवतियों ने हमारे लिए टेबल खाली कर बैठने की जगह भी दी। देश के कई शहरों के इंडियन कॉफी हाउस बंद हो गये है लेकिन कलकत्ता में आज भी कॉफी हाउस यथावत चल रहा है। आज बुद्धदेव भट्टाचार्य के चले जाने के बाद मुझे कॉफी हाउस में उनके द्वारा किए गए समझौते की घटना याद आ गई।

सोवियत रूस में कम्युनिस्ट पार्टी के पतन के बाद, उन्होंने भी मार्क्सवाद-लेनिनवाद पर पुनर्विचार करने का प्रयास किया। यह उनके उदार दृष्टिकोण के वजह से ही संभव हुआ है।

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वर्ष 1993 में लेफ्ट फ्रंट सरकार के भीतर भ्रष्टाचार को देखकर नाराज होकर इस्तीफा दे दिया था। लेकिन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने उन्हें मनाकर फिर से मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया। वे गृहमंत्री और उपमुख्यमंत्री भी रहे। 2000 से 2011 तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहते हुए, उन्होंने चीन की आर्थिक वृद्धि को देखा, वे बंगाल में भी उसी तरह एसईजेड (स्पेशल इकॉनमिक जोन) के तर्ज पर आर्थिक और औद्योगिक विकास करने की कोशिश की। जिसमें नंदीग्राम तथा सिंगूर के औद्योगिक कारखानो के लिए जमीन का अधिग्रहण किया लेकिन किसानों के तरफ से जबरदस्त विरोध हुआ। अंतत: वहाँ कोई भी औद्योगिक विकास नहीं हो पाया। इस आंदोलन के बाद ही 2011 के विधानसभा चुनाव में पार्टी की बुरी तरह से हार हुई। कम्युनिस्ट पार्टी तब से आज तक दोबारा बंगाल में खाता खोलने में कामयाब नहीं हो हुई।

मैं खुद नंदीग्राम और सिंगूर के किसानों के चल रहे आंदोलन की फॅक्ट फ़ाइंडिंग के लिए एक टीम लेकर, दोनों जगह गया था। वहाँ मैंने एक सप्ताह तक गांव-गांव जाकर चल रहे आंदोलन में शामिल लोगों से बातचीत की थी। वह समय था वर्ष 2007 का दिसम्बर माह। यह इसलिए भी याद है कि 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद विध्वंस के पंद्रह साल के उपलक्ष्य में, सीपीएम के तरफ से कलकत्ता के मौलाली स्थित युवा केंद्र में, आयोजित कार्यक्रम में मुझे भी एक वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया था।

उस सभा में मैं देर से पहुंचा था। देरी का एकमात्र कारण कारण था कि नंदीग्राम से निकलते समय बीच रास्ते में मुख्य मीडिया के ओबी वैन नंदीग्राम कलकत्ता के रास्ते में ईंट भट्टे बनाने वाली जगह पर कुछ शव गड़े हुए मिले, जिसका सभी चैनल वाले लाइव प्रसारण कर रहे थे और रास्ता जाम हो गया था। किसी चैनल वाले ने पकडकर मेरा भी इंटरव्यू प्रसारित किया। इस वजह से कलकत्ता वाली बाबरी मस्जिद विध्वंस के पंद्रह साल के कार्यक्रम में पहुँचने में थोड़ी देरी हुई।

2007 और 2011 के नियोजित विधानसभा चुनाव में लगभग आधे से अधिक समय बाकी था। मैंने देखा कि स्टेज पर बुद्धदेव भट्टाचार्य के मंत्रिमंडल के छ: मंत्री भी मौजूद थे, जिन्होंने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त करने पर संघ परिवार की करतूतों पर पानी पी-पीकर कोसने वाले भाषण दिए।

काफी समय बाद मुझे बोलने के लिए बुलाया गया। मैंने शुरुआत ही की देर से आने पर माफी मांगते हुए। जिसकी एकमात्र वजह बताया कि पिछले एक हफ्ते से नंदीग्राम-सिंगूर के किसानों से लगातार बातचीत कर स्थिति के बारे जानकारी ले रहा था। आते हुए बीच रास्ते में हुई घटना का भी ज़िक्र किया। उन्हें वहाँ की स्थिति से अवगत कराते हुए बताया कि सिंगूर-नंदीग्राम पहुँचने के बाद व्यस्तता के चलते एक सप्ताह से नहाने का अवसर नहीं मिला, इस वजह से मेरा पजामा-कुर्ता नंदीग्राम की धूल से सने हुए थे।

अपने भाषण में कहा कि आज आप लोगों ने बाबरी मस्जिद गिराने के पंद्रह साल के उपलक्ष्य में कार्यक्रम आयोजित किया  है। लेकिन मैंने जो नंदीग्राम परिसर में देखा, बहुत ही बुरा हाल है। नंदीग्राम मुस्लिम बहुल क्षेत्र है, जहां 60 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है। मैंने वहां के लोगों को पूछा कि आप लोग कारखानो का विरोध क्यों कर रहे हो? लगभग सभी मुस्लिम रो-रोकर बताने लगे, ‘दादा हम लोग तो बरसों से सीपीएम से ही जुड़े हुए हैं लेकिन अगर यह जमीन चली जायेगी तो हम भूखे मरे जाएँगे, तो इससे बेहतर है कि लड़कर मरे क्योंकि बंगाल में लेफ्ट फ्रंट ने सत्ता आने के बाद जमीन का एक  कानून बनाया है, जिसमें अगर किसी की जमीन पर कोई बंटाईदार जमीन पर फसल उगाने का काम कर रहा है तो जमीन के असली मालिक उसे जमीन से बेदखल नहीं कर सकता और जमीन के रिकॉर्ड पर जमीन जोतने वाले जिसे बंगला में बोर्गेदार (ऑपरेशन बर्गा) बोलते हैं, की होगी। जब जमीन सरकार की तरफ से अधिग्रहित की जाती है तो उसका मुआवजा मूल मालिक को ही दिया जाता है इसलिए हम लोग परियोजना के खिलाफ अपनी जान की परवाह किए बिना आंदोलन कर रहे हैं।’  जिसमें सबसे बड़ा आंदोलन नंदीग्राम-सिंगूर का था। जिसके बाद पैंतीस साल की सत्ताधारी पार्टी सीपीएम की सत्ता समाप्त हो गई है।

 बाबरी मस्जिद विध्वंस के पंद्रह साल हो जाने पर आयोजित सभा में मैंने, बुद्धदेव भट्टाचार्य के मंत्रिमंडल के आधा दर्जन मंत्रियों की तरफ देखते हुए कहा कि ‘आज बाबरी मस्जिद ध्वस्त होने के पंद्रह साल के उपलक्ष्य में आप लोग विलाप करते हुए मातमपुर्सी कर रहे हैं। साठ प्रतिशत मुस्लिम आबादी नंदीग्राम के परिसर में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। आगे चलकर बाबरी मस्जिद के बीस-पच्चीस वर्ष भी होंगे लेकिन न ही बाबरी मस्जिद वापस आएगी न ही भारत के मुसलमानों को सुकून की जिंदगी मिलेगी। आप लोग लेफ्ट फ्रंट के होने के बाद भी मुसलमानों के धार्मिक स्थल को गिराने की घटना पर मातमपुर्सी मत कीजिये। मैं इस समय आप ही के प्रदेश के मुसलमानों की अस्तित्व को बचाने के लिए लड़ाई देखकर सीधा इस मंच पर आया हूँ। मेरी विनम्र प्रार्थना है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस का कोई भी कार्यक्रम नहीं किया तो भी चलेगा। लेकिन आपके अपने ही प्रदेश के मुसलमानों को अपने अस्तित्व को बचाने के लिए लड़ने की नौबत आई है, तो उस लड़ाई को देखते हुए, आप लोग ‘शिल्पायन तो होते ही होबे’ (‘औद्योगिककारण तो होकर रहेगा’ उन दिनों लेफ्ट वालों का यह नारा था) की ज़िद छोड दीजिये।

उस समय लेफ्ट फ्रंट सरकार को अपना कार्यकाल खत्म होने का आधे से अधिक समय बाकी था। लेकिन लेफ्ट फ्रंट की क्या मजबूरी थी? मुझे नहीं मालूम, लेकिन उस के बाद 2011 के चुनाव में लेफ्ट फ्रंट की सरकार को सत्ता से बेदखल होना पड़ा और आलम यह कि जिन्होंने पैंतीस साल राज किया उनकी पार्टी के एक भी विधायक विधानसभा में जीतकर नहीं पहुंचा। वर्तमान बंगाल की विधानसभा में एक सदस्य भी लेफ्ट फ्रंट या कांग्रेस का  नहीं है।

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नरेंद्र मोदी सरकार ने 2022 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित करने का फैसला किया था लेकिन बुद्धदेव भट्टाचार्य ने पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया। यह उनके राजनीतिक जीवन के साधन शुचिता का ताजा उदाहरण है। काश, उन्होंने ऐसी ही समझदारी से नंदीग्राम और सिंगूर में खेती की जमीन के अधिग्रहण की प्रक्रिया को जोर-जबरदस्ती न करते हुए किसानों से सम्मानजनक तरीके से बात करते हुए रोका होता तो शायद आज स्थिति कुछ और होती।

बुद्धदेव भट्टाचार्य लेफ्ट फ्रंट के आखिरी मुख्यमंत्री रहे। आज तेरह साल हो चुके लेफ्ट फ्रंट की राजनीतिक स्थिति क्या है? यह स्थिति क्यों बनीं? इस पर बुध्ददेव भट्टाचार्य के निधन पर अंतर्मुख होकर सोचने की आवश्यकता है । यही उनके लिए सबसे अच्छी श्रद्धांजलि होगी। अन्यथा आने वाले समय में बच्चों को बताया जायेगा कि ‘इस तरह की लेफ्ट फ्रंट नाम की भी सरकार पश्चिम बंगाल में पैंतीस वर्ष सत्ता में थी। !

डॉ. सुरेश खैरनार
डॉ. सुरेश खैरनार
लेखक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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