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बनारसी साड़ी उद्योग : महंगाई से फीका पड़ रहा है तानी का रंग

पिछले कई सालों में पारंपरिक रूप से बनारस के घर-घर में चलने वाला करघा उद्योग, व्यापार, गली और मंदिर तोड़ दिए गए हैं। बनारस की समृद्ध विरासत को खत्म किया जा रहा है। बनारसी साड़ियों पर भी इसका असर देखने को मिला है। बनारसी साड़ी बनाना सामूहिक काम है, इस वजह से जब से साड़ियों का बाजार मंदा हुआ है, उससे जुड़े हर कारीगर अपनी रोजी के लिए भटक रहा है। इससे साड़ी का धागा रंगने वाले (रंगरेज) का काम भी कम हुआ है। सवाल यह है कि जब साड़ी बनाने वाले हर कारीगर मंदी की मार सह रहे हैं, ऐसे में गिरस्ता और बड़े व्यवसायी कैसे दिनों-दिन अमीर होते जा रहे हैं।?

तेजी से बढ़ते मशीनी उत्पादन और मार्केटिंग के मॉल कल्चर के वर्चस्व ने बहुत से पारंपरिक रोजगरों को तबाही के कगार पर लाकर खड़ा किया है।
बजाज की छोटी-छोटी दुकानें कम होती गईं तो उन पर अपनी मशीन के साथ बैठे दर्जी भी पुराने जमाने की बात हो गए हैं। केवल यही नहीं कपड़ों की  रंगाई का काम करने वाले रंगरेज़ भी इसका शिकार हुए हैं। रंगने की कला एक कौशल थी लेकिन सिमटते काम ने इस कौशल को बहुत नुकसान पहुंचाया है। बनारस के रंगरेज आज अपनी कला और आजीविका को लेकर गंभीर संकट में हैं।
यह संकट हर तरह के काम पर बढ़ा है। एक विपर्यास की तरह जितनी चमक बाजार में बढ़ती गई उतना ही अंधेरा कारीगरों के जीवन में भरता गया है। मसलन ग्लोबल गाँव के शोर शराबे के बीच इस सदी की शुरुआत ही बुनकरों के लिए अंधेरे दिनों की शुरुआत बनकर आई। रेशम की किल्लत और उसको लेकर रोज आनेवाली नई-नई परेशानियों ने धीरे-धीरे बनारसी साड़ी उद्योग की कमर तोड़ दी।
बनारस का नाम लेते ही बनारसी साड़ियों की चमक दिमाग में कौंध जाती है। लेकिन उस साड़ी को बनाना केवल पावर या हैंडलूम पर चढ़ाकर ही नहीं होता बल्कि एक साड़ी को कई प्रक्रियाओं से होकर गुजरना होता है। तब जाकर साड़ी बाजार में  पहुंचकर शोरूम में बिकने के लिए सजाई जाती है।
बनारसी साड़ी की चकाचौंध के बुनियादी आधार हथकरघा तथा पावरलूम के आकर्षण के पीछे एक समुदाय का हुनर और मेहनत है। यह समुदाय मुसलमान अंसारी, हिंदू दलित, अन्य पिछड़ी जातियों से मिलकर बनता है। आज यह पूरा बुनकर  समुदाय बुरी तरह से गरीबी के शिकंजे में आ गया है और नजरों से ओझल हो चुका है (2019, वर्ल्ड ऑफ बनारस वीवर, रमन वासंती)
ready banarasi saree-gaonkelog
बुनकरों और कारीगरों के पास से बुनकर आई साड़ियों का हिसाब करते गिरस्ता
बुनकरों से लगातार हमारी बातचीत होती रही है, उनकी परेशानियों को हम लगातार पाठकों के सामने लाते रहे हैं। हमारा प्रयास है कि साड़ी के तंत्र से जुड़े सभी लोगों की ज़िंदगी को लोगों के सामने लाया जाय। इस क्रम में साड़ियों की तानी रंगने वाले रंगरेजों की स्थिति जानने के लिए हम कोटवाँ गाँव के मुस्लिमपुरा बस्ती में पहुँचे। यहां हर घर से बनारसी साड़ी बुनते हुए पावर लूम की खट..खूट.. खट..खूट..की आवाजें आ रही थीं क्योंकि यहाँ अधिकतर परिवारों का यही रोजगार है। आज गाँव के लोग की टीम बुनकरों के पास नहीं बल्कि रेंगरेज शमशेर अहमद के पास पहुंची।
50 वर्षीय शमशेर अहमद बहुत बड़े हाल के एक कोने में ऊंचे से तखत पर बैठकर रेशमी धागे की धुली हुई गीली लच्छियों को फटकार कर अलग-अलग करने का काम कर रहे थे। रेशमी धागे की धुलाई-रंगाई से पहले की प्रक्रिया है। रेशमी धागे से साड़ी बनाने का काम हैन्डलूम पर होता है। पावरलूम पर चढ़ने वाला धागा नायलॉन या पॉलिस्टर का होता है।
शमशेर अहमद ने पहले तो हमसे बात करने से मना किया क्योंकि उन्हें आज मिले रंगाई के ऑर्डर को पूरा करना था लेकिन जब उनसे कहा गया कि आप अपना काम करते हुए ही हमसे बतिया लें, तब वे तैयार हो गए।
उन्होंने हमसे सारी बात अपना काम करते हुए की क्योंकि आज उनके पास तीन गिरस्तों के पास से धागा रंगने को आया था।
उन्होंने बताया कि धागे रंगने का काम उनके बाप-दादाओं के समय से चला आ रहा है। जब से समझदारी आई तब से यही काम देखा और मेरे पूर्वजों ने मुझे बचपन से ही इस काम में लगा दिया। पुश्तैनी काम को घर के बच्चे कब और कैसे सीख जाते हैं पता ही नहीं लगता। बस जब जिम्मेदारी सौंपी गई तो लगा कि मुझे यह काम आ गया।
silk thread colour 1 - gaonkelog
बनारसी साड़ी के रेशम धागे की ढुलाई व रंगाई के लिए कंडाल में पानी गरम करते हुए

कैसे रंगरेज को जाति में बदल दिया गया

बात करते हुए उनसे पूछा कि आप तो रंगरेज हैं क्योंकि आप कपड़े या धागे पर रंग चढ़ाते हैं। इतना सुनते ही उन्होंने थोड़ी नाराजगी दिखाते हुए कहा कि हम अंसारी हैं, रंगरेज नहीं लेकिन हमारा रोजगार है इसलिए यह काम करते हैं। उन्हें लगा कि उन्हें ऐसा कहकर उनकी जाति बदल दी जा रही है जबकि रंगरेज़ कोई जाति नहीं होती बल्कि रंगाई करने वालों को कहते हैं। उन्होंने स्पष्टीकरण देते हुए यह भी कहा कि हमारे समाज में पहले ऐसा नहीं था लेकिन अब काम के आधार पर बिरादरी बना कर नाम दे रहे हैं। जब हम अंसारी हैं तो रंगरेज कैसे बन सकते हैं? इस जवाब को सुनकर लगा कि हमारा देश जाति व्यवस्था से कभी बाहर निकल ही नहीं सकता। हर किसी का जाति को लेकर अपना अलग-अनुभव और अवधारणाएं हैं।

 मंदी का असर रंगरेज के काम पर भी

हर काम के लिए नई तकनीकें आ गई हैं। मशीनों का उपयोग हो रहा है लेकिन धागे रंगाई के काम के तरीके में किसी तरह से कोई बदलाव नहीं आया है। जिस तकनीक से पहले रंगाई होती थी, वैसे ही आज भी रंगाई हो रही है क्योंकि रेशम का धागा बहुत नाजुक होता है, इस वजह से इसे रंगते हुए बहुत सावधानी रखना जरूरी होता है, नहीं तो रेशम के खराब होने का डर रहता है, जरा सा खराब हो जाने पर यह किसी काम का नहीं रहता और उसके नुकसान की भरपाई गिरास्ता हमसे लेता है।
क्या कभी ऐसा हुआ है? उन्होंने बताया कई बार होता है। तुरंत रेशम धागे के हुए नुकसान को दिखाने के लिए नारंगी रंग से रंगे हुए रेशम की लच्छी निकाल बताया कि इसे मैंने रंगकर बिल्कुल सही स्थिति में भेज दिया था, गिरस्ता ने उसे साड़ी बनाने के लिए कारीगर को दिया लेकिन उसने लूम में लगाते समय धागे में खींचातानी कर खराब कर दिया, बाद में गिरस्ता ने उसका 10 हजार रुपया मुझसे वसूला, यह कोरोना के बाद की घटना है। मुझे देना पड़ा, यदि नहीं देता तो आगे काम मिलने में मुझे मुश्किल होती। एक तरह से गिरस्ता ने दबाव बनाकर अपना नुकसान मुझसे ले लिया। रेशम के एक किलो धागे की कीमत 7000 से 8000 रुपए तक होती है। इस काम को करते हुए बहुत सतर्कता बरतनी पड़ती है नहीं तो हजारों रुपए की भरपाई हमसे की जाती है।
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रंगरेज शमशेर अहमद ने बताया की कारीगर ने इस धागे को खराब किया लेकिन गिरस्ता ने हर्जाना इनसे वसूला
काम की स्थिति पूछने पर उन्होंने बताया कि काम में बहुत मंदी है। हमारा काम बनारसी साड़ियों की मांग पर निर्भर करता है। अभी बाजार मंदा है तो हमारे पास भी काम कम है। आज से लगभग 15-20 वर्ष पहले इस काम से अच्छी आमदनी हो जाती थी। परिवार की सभी जरूरतें पूरी हो जाती थीं।
धागे को रंगने में लगने वाले कच्चे माल की कीमत में भी बहुत इजाफा हो गया है। रंगने के लिए रंग की बुकनी(पाउडर) और धागा गिरस्ता का होता लेकिन बाकी सामान हमारा होता है।

महंगाई बढ़ी, कच्चे माल के दाम में वृद्धि हुई लेकिन मजदूरी में कोई वृद्धि नहीं 

 महंगाई बढ़ने के हिसाब से मजदूरी में कोई वृद्धि नहीं हुई है। कितना पैसा मिल जाता है एक दिन में? शमशेर अहमद ने बताया कि कोई तय नहीं। जब काम आता है, उस दिन काम के हिसाब से मिलता है। वैसे रंगाई के हिसाब से पैसा मिलता है। यदि एक किलो धागा एक ही रंग में रंगना है तो उसकी मजदूरी 300 रुपए है। यदि धागा दो रंगों में रंगना होता है तो मजदूरी 450 रुपये मिलती है। जितना काम होता है उसी के हिसाब से कमाई है। धागे रंगने का काम रोज नहीं आता, गिरस्ते अपनी जरूरत के हिसाब से धागे रँगवाते हैं।
300 रुपए तो मेरी मजदूरी हुई लेकिन मैंने भी अपने काम के लिए दो मजदूर रखे हैं, जिन्हें एक दिन की 500 रुपये मजदूरी देनी होती है।
इन्हीं सब परेशानियों को देखते हुए मैंने यह काम अपने तक रखा। अपने दोनों बेटों को इस काम में नहीं लाया।  हालांकि वे भी पावरलूम पर बनारसी साड़ी बनाते हैं, लेकिन वे मेरी तरह रंगरेज के काम में नहीं आए।
शर्फुद्दीन उर्फ सागर जो आज से 15 वर्ष पहले खुद का पावरलूम चलाते थे और जरूरत पड़ने पर खुद के लिए ही साड़ी में लगने वाले धागे की रंगाई भी करते थे। लेकिन साड़ी के बाजार की अनेक समस्याओं और मंदी के चलते उन्होंने इस काम से दूरी बना ली।
आगे बात करते हुए उन्होंने बताया कि धागे को धोने के लिए साबुन जो आज से 20-22 वर्ष पहले 40-45 रुपये किलो मिलता था अब 300 रुपये किलो हो चुका है। रंगाई के समय रंग पक्का करने के लिए पहले एसिड 16 से 20 रुपये लीटर मिल जाता था लेकिन अब उसकी कीमत दस गुना बढ़ चुकी है मतलब 160 रुपए लीटर है। धागों को रंगते समय चमक आ जाए इसके लिए शैम्पू डाला जाता है, जो 100 रुपये लीटर मिलता है। एक समय जब बाजार में शैम्पू नहीं आया था, उस समय चमक के लिए मिट्टी का तेल उपयोग में लाया जाता था। पानी गरम करने के लिए कोयला आज 1800 रु, क्विंटल है। फिर भी एक किलोग्राम रेशम धोने और रंगने के लिए लगने वाले पानी की कीमत जोड़ते ही नहीं हैं। जबकि रंगने और धोने के लिए 200 से 300 लीटर पानी की जरूरत पड़ती है।
Washing the silk of a Banarasi sari-gaonkelog
रेशम के धागे की गरम पानी में धुलाई करते हुए ( बगल में धोने के लिए रखा हुआ साबुन)
मजदूरी की दर पर बात करते हुए उन्होंने बताया कि पिछले 15 वर्षों में महंगाई की दर 50 प्रतिशत तक बढ़ी है लेकिन मजदूरी की दर में मात्र 15-20 प्रतिशत की ही वृद्धि हुई है। इस वजह से लगभग 25 से 30 प्रतिशत तक हुई वृद्धि का भार मजदूरों पर पड़ता है, जिसके कारण मालिक बढ़ी हुई महंगाई की भरपाई मजदूरों को कम मजदूरी देकर करता है।
इनका कहना इस लिहाज से सही था कि बनारसी साड़ी बीनने वाले मजदूर यदि 12 घंटे लूम पर काम करते हैं, तो उन्हें मात्र 300 रु मजदूरी मिलती है वह भी तब यदि एक साड़ी एक दिन में बना लें।
बुनकरों के लिए सरकार की कोई भी ऐसी योजना नहीं है, जिससे इन्हें राहत मिले। काम नहीं चलने से लगभग 2000 बुनकर यहाँ से पलायन कर सूरत और बेंगलुरु चले गए हैं। वहाँ पर भी पावरलूम पर काम करते हैं क्योंकि वहाँ मिलने वाली मजदूरी यहाँ से ज्यादा है, कुछ तो साड़ियों को फोल्ड करने का काम कर रहे हैं। यहाँ से उनका पलायन मजबूरी थी क्योंकि यहाँ काम ही नहीं मिल रहा था और घर चलाने के लिए कर्ज लेने की नौबत आ रही थी। यह जरूर है कि वहाँ रहते हुए भी उन्हें दो जगह का खर्च उठाना पड़ता है लेकिन सबसे बड़ी बात है कि वहाँ काम रोज है और मजदूरी भी ठीक है।

सरकार ने बनारस की विरासत को बचाने की बजाय ध्वस्त किया  

शर्फुद्दीन उर्फ सागर ने बताया कि बनारसी साड़ी से जुड़े मुस्लिम समुदाय से आने वाले जितने भी कारीगर हैं उनके साथ सरकार लगातार भेदभावपूर्ण व्यवहार करती है। सरकार बुनकरों के लिए किसी भी तरह कोई सुविधा उपलब्ध नहीं कराती है बल्कि पहले बिजली पर जो सब्सिडी मिलती थी योगी आदित्यनाथ की सरकार ने उसे भी बंद कर दिया।
 वर्ष 2014-2020 के दौरान पूर्वांचल के चार जिलों के बुनकर/ कारीगरों पर सीजेपी की तथ्य अनुसंधान रिपोर्ट 2020 में प्रकाशित हुई। यह रिपोर्ट पूर्वांचल की राजनीति के मानचित्र में महत्वपूर्ण बदलाव होने के पूरे साढ़े छह साल बाद आई।
इस काम से हिन्दू-मुस्लिम दोनों जुड़े हुए हैं। इनमें साप्रदायिक सद्भाव बरसों से चला आ रहा है लेकिन इस सरकार ने उसमें भी भी फूट डालने की पूरी कोशिश की है।
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गिरस्ता के पास आए तानी के धागे को धोने के बाद रंगने से पहले तैयार करते शमशेर अहमद
2014 में सत्ता में आने के बाद से ही भाजपा सरकार ने सुनियोजित एजेंडे के तहत मुसलमानों को सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिदृश्य से ओझल कर देने का काम किया। अन्य पहलुओं के साथ भारतीय प्रजातंत्र को हिन्दू राष्ट्र बनाने का सांस्कृतिक बिगुल भी फूंका गया। बनारस से नरेंद्र मोदी के लोकसभा सदस्य बनने और उनके द्वारा विश्वनाथ मंदिर कारिडोर को लेकर किया गया धार्मिक-सांस्कृतिक प्रदर्शन भारतीय राजनीति के चरित्र के परिवर्तन की शुरुआत है।
नए सिरे से गढ़े जाने वाली नैरेटिव को स्थापित करने की कोशिश में पिछले दो सालों में पारंपरिक रूप से बनारस के घर-घर में चलने वाला बुनाई उद्योग, व्यापार, गली और मंदिर तोड़ दिए गए हैं। बनारस की समृद्ध विरासत को खत्म किया जा रहा है।
नवम्बर 2016 में भारत की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था और खासकर बनारस के बुनाई उद्योग को नोटबंदी के रूप में पहला बड़ा झटका लगा। नीति बनाने वाले बनारस के बुनाई के आकर्षक पहलू को देश के दूसरे भागों में ले जाने की तैयारी कर रहे थे।
बनारसी साड़ी का काम बुनकरों और इनसे जुड़े छोटे कारीगरों के मंदा चल रहा है, वे कम मजदूरी में काम करने को मजबूर हैं, लगातार शोषित हो रहे हैं। सवाल यह उठता है कि जब काम में मंदी है तब बड़े गिरस्ते और बड़े दुकानदार कैसे दिनों-दिन अमीर हो ऊंची-ऊंची कोठियाँ खड़ी कर रहे हैं?
बनारसी साड़ी की मंदी का असर केवल मजदूरों, रंगरेजों और साड़ी सजाने वाले महिला कारीगरों पर ही क्यों दिखाई देता है? कभी गिरस्ते और बड़े व्यवसायी पर क्यों नहीं?
अपर्णा
अपर्णा
अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।

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