Sunday, March 9, 2025
Sunday, March 9, 2025




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमविविधराजस्थान : पहचान के लिए संघर्ष करता गाड़िया लोहार समुदाय

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

राजस्थान : पहचान के लिए संघर्ष करता गाड़िया लोहार समुदाय

देश भले 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था की बात करता हो लेकिन आज भी ऐसे अनेक समुदाय हैं, जहां लोग बुनियादी सुविधाओं के अभाव में जीवन गुजारने को मजबूर हैं। ऐसा ही राजस्थान का लोहार समुदाय है, जिनके पास हुनर तो है लेकिन आज अत्याधुनिक तकनीकें आ जाने से उनका काम नहीं चल रहा है। जिसकी वजह से ये अच्छे और सुरक्षित भविष्य के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं जबकि सरकार विकास की अनेक योजनाएं लागू है। प्रश्न यह उठता है कि क्यों इन तक सरकारी योजनाएं नहीं पहुँच पा रही हैं।

राजस्थान की राजधानी जयपुर के मोती डूंगरी इलाके में बसे गाड़िया लोहार समुदाय का जीवन संघर्षों से भरा हुआ है। कभी घुमंतू जीवन व्यतीत करने वाला यह समुदाय आज भी अपनी पहचान और अस्तित्व बचाने के लिए संघर्षरत है। जीवन की कठिनाइयों के बावजूद इनकी जिजीविषा और उम्मीदें उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा देती हैं। समुदाय की 58 वर्षीय सुगना गाड़िया बताती हैं कि पहले उनके समुदाय के लोग कृषि के औज़ार बनाते थे, जिससे किसानों की जरूरतें पूरी होती थीं। पर समय के साथ मशीनों के आने से उनके औज़ारों की मांग खत्म हो गई और उनकी आजीविका छिन गई। अब परिवार चलाने के लिए उनके समुदाय के पुरुष दिहाड़ी मज़दूरी करने, रिक्शा चलाने या रद्दी बीनने पर मजबूर हैं।

वहीं 22 वर्षीय मोनू लोहार की आंखों में शिक्षा की कमी का दर्द झलकता है। वह कहते हैं, ‘हमारे पास कोई दस्तावेज़ नहीं है। न आधार कार्ड, न ज़मीन के किसी प्रकार के कागजात हैं। जिसकी वजह से बच्चों का कहीं भी एडमिशन नहीं हो पाता है। इसीलिए हमारे बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं। वे दिनभर कचरे के ढेर पर खेलते हैं, जिससे बीमारियों का खतरा बना रहता है।’ शिक्षा से वंचित रहने के कारण बाल विवाह जैसी कुप्रथाएं आज भी इनके समाज में मौजूद हैं। मोनू की खुद 16 वर्ष की उम्र में शादी हो चुकी है। कम उम्र में विवाह और कुपोषण के कारण उसकी पत्नी हमेशा बीमार रहती है।

यह भी पढ़ें –महाकुंभ 2025 : गंगा की गंदगी से ऊपर राजनीतिक अवसरवाद के आँकड़े

ममता, जो 38 वर्ष की हैं, अपनी पीड़ा बताते हुए कहती हैं कि उनकी झुग्गियों के आसपास कोई शौचालय नहीं है। महिलाओं को खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है, जिससे असुरक्षा बनी रहती है। मंजरी गाड़िया अपने पूर्वजों का इतिहास बताते हुए कहती हैं कि वे कभी महाराणा प्रताप की सेना के लिए हथियार बनाते थे। लेकिन आज उनकी पहचान केवल एक विस्थापित समुदाय की रह गई है। 28 वर्षीय यशोदा की आंखों में अपने पारंपरिक व्यवसाय को फिर से जीवित करने की आस झलकती है। वह कहती हैं, ‘अगर हमारे पास संसाधन होते, तो हम फिर से अपने पुश्तैनी काम को जारी रख सकते थे। लेकिन मशीनों से बने सस्ते औजारों के सामने हमारे बनाए औजारों की क्या कीमत होगी?’ यह कहते हुए वह खुले आसमान की ओर देखती है, मानो कोई जवाब खोज रही हो।

समुदाय की महिलाओं का जीवन और भी कठिनाइयों से भरा हुआ है। घरेलू कार्यों के अलावा वे मजदूरी भी करती हैं, लेकिन उन्हें पुरुषों के मुकाबले कम मजदूरी दी जाती है। महिलाएं अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए संघर्ष करती हैं और अधिकांश बच्चे कुपोषण का शिकार होते हैं। उचित चिकित्सा सुविधाएं न होने के कारण छोटे-मोटे रोग भी गंभीर रूप ले लेते हैं। समाज के अधिकांश सदस्य घुमंतू जीवन के कारण स्थायी निवास नहीं बना सके। जब वे किसी जगह बसने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें वहां से हटा दिया जाता है। उनके पास अपनी जमीन नहीं होने के कारण सरकारी योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पाता। 45 वर्षीय रामस्वरूप लोहार कहते हैं, ‘हम जहां भी जाते हैं, हमें बाहरी समझा जाता है। कोई हमें स्थायी रूप से बसने नहीं देता, जबकि हम भी इंसान हैं और हमें भी एक घर की जरूरत है।’

समाज में अशिक्षा और निर्धनता के कारण युवा भी मजदूरी में लग जाते हैं और शिक्षा प्राप्त करने की उनकी इच्छा अधूरी रह जाती है। 18 वर्षीय रीना कहती हैं, ‘मुझे पढ़ना बहुत पसंद है, लेकिन स्कूल जाना हमारे लिए सपना ही है। घर में इतनी गरीबी है कि पढ़ाई का खर्च उठा पाना मुश्किल है।’ हालांकि कठिनाइयों के बावजूद, इस समुदाय के लोग अपनी परंपरा और संस्कृति से जुड़े हुए हैं। उनकी भाषा और पहनावा अब भी उनके पूर्वजों की पहचान बनाए रखते हैं। त्योहारों और विशेष अवसरों पर वे पारंपरिक वेशभूषा में नाच-गाने का आयोजन करते हैं, जिससे उनके समाज में एकजुटता बनी रहती है।

60 वर्षीय किशनलाल कहते हैं, ‘हम मेहनती लोग हैं, हमें भी रोजगार का अवसर मिलना चाहिए। अगर हमें उचित साधन और थोड़ी मदद मिले, तो हम अपनी खोई हुई पहचान वापस पा सकते हैं।’ दरअसल इस समुदाय की पीड़ा केवल आर्थिक तंगी तक सीमित नहीं है, बल्कि उनकी सांस्कृतिक पहचान और अस्तित्व भी दांव पर लगा हुआ है। लेकिन इसके बावजूद, उनकी उम्मीदें जिंदा हैं। वे संघर्ष कर रहे हैं, अपने बच्चों को एक बेहतर भविष्य देने के लिए, अपनी पहचान बनाए रखने के लिए। उनकी आंखों में सपने हैं, और उनके कदम कठिनाइयों के बावजूद आगे बढ़ने को तत्पर हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here