आदमी आदमी जैसा कब दिखता है? यह एक बड़ा सवाल है। जाहिर तौर पर बलात्कार करता हुआ आदमी, किसी की हत्या करता आदमी, लाशों की राजनीति करता आदमी आदमी नहीं होता। इन सबके लिए समाज में अलग-अलग संबोधन हैं। मसलन कोई बलात्कारी है, कोई हत्यारा है, कोई डकैत है। यही किसी भी समाज की खासियत भी होती है। वह आदमी को उसके कर्म से पहचानता है। लेकिन इन सबके बावजूद आदमी आदमी कब दिखता है, इसका जवाब बचपन में नहीं मिला था। यह कहना सत्य के बेहद करीब होना रहेगा कि कभी सोचा ही नहीं। आदमी मतलब दो हाथ, दो पैर, दो आंखें और दिमाग आदि। मतलब जिनके पास यह सब हो, तकनीकी रूप से उसे आदमी कह सकते हैं।
असल में बचपन में एक सवाल जेहन में आया और फिर लंबे समय तक बना रहा। सवाल यही था कि आदमी आदमी जैसा कब दिखता है। इस सवाल के पीछे भी एक घटना है। तब शायद दूसरी या तीसरी कक्षा का छात्र रहा होऊंगा। एक अर्द्धविक्षिप्त महिला हमारे गांव में घूम रही थी। हम छोटे-छोटे बच्चे उसे घूर रहे थे। वह हमें जितना डांटती, भगाती हम उसे और चिढ़ाते। मां की नजर पड़ गयी हमसब पर। औरों को तो मां ने कुछ नहीं कहा। बस मेरा कान पकड़ घर ले गयीं। रास्ते में दो-तीन तमाचे भी लगे इस नसीहत के साथ कि आदमी को आदमी जैसा व्यवहार करना चाहिए।
मां की बात केवल इतनी ही समझ में आयी कि किसी को चिढ़ाना नहीं चाहिए। अगले दिन गांव में हल्ला मचा हुआ था। पापा मां को बता रहे थे कि पांच लोगों ने गलत काम किया है उस पगली के साथ। बघरा पुल के नीचे। गांव में पुलिस आयी है। गलत काम क्या होता है, यह तो उस समय समझ में नहीं आया। लेकिन जब पुलिस ने गांव के तीन लोगों और पड़ोसी गांव के दो लोगों को पकड़ा तब बात सुनने को मिली कि किस तरह का गलत काम किया है इन लोगों ने। फिर तो पांचों को जेल भेज दिया गया। करीब एक साल में वे लोग जेल से बाहर भी आ गए। किस कानूनी जानकार ने उन्हें सजा से क्यों बचाया, यह बात न तो तब समझ में आयी थी और न अब समझ में आती है।
[bs-quote quote=”इन सबके बावजूद आदमी आदमी कब दिखता है, इसका जवाब बचपन में नहीं मिला था। यह कहना सत्य के बेहद करीब होना रहेगा कि कभी सोचा ही नहीं। आदमी मतलब दो हाथ, दो पैर, दो आंखें और दिमाग आदि। मतलब जिनके पास यह सब हो, तकनीकी रूप से उसे आदमी कह सकते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
खैर, बचपन में दिखा वह मंजर आज भी मेरे सामने है। मां की यह बात भी कि आदमी को आदमी के जैसा व्यवहार करना चाहिए। सवाल यही है कि आदमी आदमी जैसा दिखता कब है?
कल देर रात नींद नहीं आ रही थी। अचानक एक शब्द ने बेचैन कर दिया। भारत सरकार ने विकलांगजनों के लिए एक शब्द इजाद किया है। यह शब्द है – दिव्यांग। मतलब यदि किसी व्यक्ति का कोई अंग काम न करे तो वह दिव्यांग कैसे हो सकता है। यह तो बिल्कुल वैसा ही है जैसे किसी भूमिहीन को यह कहना कि तुम तो इस पूरी दुनिया के शाहंशाह हो।
हमारे यहां पटना में गंगा के उस पार के इलाके को दियारा कहते हैं। गंगा के दोनों पारों के जीवन में बहुत अंतर है। भाषा का भी अंतर है और रहन-सहन का भी। गंगा के दक्षिणी भाग में रहने वाले हम स्वयं को बहुत सभ्य मानते हैं क्योंकि पटना हमारे हिस्से में आता है। बिहार के राजा और उसके मंत्रियों आदि का महल हमारे हिस्से में है। सचिवालय का घंटाघर भी हमारे हिस्से में ही आता है। जबकि गंगा के उस पार रेत है, उपजाऊ जमीन है, लोग हैं लेकिन नागरिक सुविधाओं का घोर अभाव। खैर, मैं यह बता रहा था कि उस पार के लोग बड़े वाचाल होते हैं। ऐसा मैंने महसूस किया है। उनसे पूछिए कि आपके पास कितनी जमीन है तो आप नहीं चौंकने के लिए तैयार रहिए जब वे कहें कि हई पार से हऊ पार जवन लौकत बा, हमरे नू बा। मतलब यह कि इस पार से उस पार तो जो कुछ भी नजर आ रहा है, वह मेरा ही है।
[bs-quote quote=”सरकार लोकसभा में उन्हें यह आरक्षण नहीं देना चाहती है तो कम से कम वह राज्यसभा में तो दे ही सकती है। राष्ट्रपति जैसे कलाकारों और साहित्यकारों का मनोनयन करते हैं, वैसे ही विकलांगों को भी राज्यसभा में मनोनीत करें।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
ऐसी ही है हमारी सरकार। भूमिहीनों को दुनिया का मालिक और विकलांगों को दिव्यांग बताती है। दरअसल, यह एक साजिश है जिसके जरिए उन्हें हक-अधिकार से वंचित रखा जाय और उनके अंदर उठने वाले विरोध को उठने के पहले मार दिया जाय।
खैर, मैं यह मानता हूं कि विकलांगों जिनके लिए संविधान के अनुच्छेद 41, 42 और 43 में सामाजिक सुरक्षा के तमाम प्रावधान किये गए हैं, उनका विस्तार किया जाना चाहिए। हालांकि प्रशासन में भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए उन्हें आरक्षण दिया जाता है, परंतु यह नाकाफी है। यदि विकलांगजनों को संसद में आरक्षण मिले तो संभव है कि वे अपने सवाल अधिक पुख्ता तरीके से उठाएं। यदि सरकार लोकसभा में उन्हें यह आरक्षण नहीं देना चाहती है तो कम से कम वह राज्यसभा में तो दे ही सकती है। राष्ट्रपति जैसे कलाकारों और साहित्यकारों का मनोनयन करते हैं, वैसे ही विकलांगों को भी राज्यसभा में मनोनीत करें।
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मैं एक सपना देख रहा हूं। इस देश का प्रधानमंत्री एक दिन कोई विकलांग बने। मुझे लगता है कि वह सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री साबित होगा। ऐसा मानने की कई वजहें हैं मेरे पास। एक तो यही कि उसके पास इसका जवाब है कि आदमी आदमी जैसा दिखता कब है।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
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