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सवाल पूछता एक बेचैन युवा

इकहरे शरीर और विनम्र व्यवहार के साथ फिल्मी दुनिया में धीरे-धीरे रच-बस जाने वाले डॉ. सागर ने हिन्दी सिनेमा में अपनी एक पुख्ता पहचान बना ली है । खासकर पिछले कोरोनाकाल में उनके द्वारा लिखा गया गीत बंबई में का बा ने तो धूम मचा दी । उसे लाखों लोगों ने देखा, गुनगुनाया और सराहा […]

इकहरे शरीर और विनम्र व्यवहार के साथ फिल्मी दुनिया में धीरे-धीरे रच-बस जाने वाले डॉ. सागर ने हिन्दी सिनेमा में अपनी एक पुख्ता पहचान बना ली है । खासकर पिछले कोरोनाकाल में उनके द्वारा लिखा गया गीत बंबई में का बा ने तो धूम मचा दी । उसे लाखों लोगों ने देखा, गुनगुनाया और सराहा । कह सकता हूँ कि डॉ सागर की यूएसपी इस गीत ने आसमान पर पहुंचा दी । लेकिन उनकी सफलता की राह आसान नहीं । उन्हें मुंबई ही नहीं अपने गाँव और बनारस दिल्ली में भी विकट संघर्ष करना पड़ा है ।

बलिया के एक गाँव के कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि वाले परिवार से निकलकर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय और जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय, दिल्ली से उच्च शिक्षा प्राप्त कर बॉलीवुड सिनेमा तक पहुंचने वाले डॉक्टर सागर की यात्रा काफी रोचक भी है।  गाँव घर की महिलाओं द्वारा में ‘जाँता’ और ‘ढेका’ के गीत और खेतों में धान रोपाई के समय गाये जाने वाले भोजपुरी लोकगीतों की धुन को मन में बसाए हुए अपने फिल्मी गीतों का अद्भुत लोक रचते हैं डॉ. सागर।  वे आज इक्कीसवी सदी के बॉलीवुड के प्रतिभाशाली एवं महत्वपूर्ण गीतकार हैं। पिछले एक दशक में उन्होंने बॉलीवुड की हिंदी फिल्मों में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई है। महेश भट्ट, सुधीर मिश्र से लेकर अनुभव सिन्हा जैसे फिल्मकारों के साथ उन्हें काम करने का अवसर मिला है और सब उनकी प्रतिभा के मुरीद हैं।  बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय एमए और बाद में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों से पीएचडी तक की डिग्री अर्जित कर भोजपुरी और हिंदी फिल्मों में गीत लेखन के लिए वह मुम्बई में हैं। हमारी पहली मुलाक़ात जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई । हमारा परिचय सुनील कुमार सुमन भैया ने कराया। परिचय भी इस तरह कि, ‘’सिविल की तैयारी करनी है तो सागर भी धौलपुर हाउस जाता है उसके साथ लाइब्रेरी जाया करो’’। सागर भाई से मैं मिला और पढ़ाई और तैयारी के बारे में बातचीत होने लगी। जब सामान्य अध्ययन की बात आती तो मैं पूछता जनरल नालेज में क्या-क्या पढ़ना है। सागर भाई बोलते जनरल नालेज नहीं जनरल स्टडी मने जीएस। उन्होंने मुझे दो तीन बार टोका और करेक्ट किया तब हमने अपना गोरखपुरिया हिसाब बदला और जीके की जगह जीएस बोलना शुरू किया। हमारा गोरखपुर का ही एक दोस्त और क्लासमेट विवेक शुक्ला, जो हमारे ही कावेरी हॉस्टल में  रहता था, से जब हमने सागर भाई का ज़िक्र किया तो उसने अपने भोजपुरिया अंदाज में बताया, ‘’अरे सागर भाई बहुत बढ़िया आदमी हैं, ऊ तो अपने आप को भोजपुरी का महाकवि समझते हैं।’’

[bs-quote quote=” मेरी नजर में वह बहुत अमीर आदमी हैं क्योंकि उनके पास अच्छे दोस्तों की लम्बी फेहरिस्त है जो देश ही नहीं दुनिया के कोने-कोने में मौजूद हैं।  जो हमेशा उनकी हौसला अफजाई करते रहते हैं । सागर के गीतों में जीवन के तमाम विरोधी भाव चित्रित हुये हैं। बम्बई में का बा गीत में गांव-शहर, अमीरी-गरीबी, टूटी खोली और ऊंचे अपार्टमेंट्स, ऊंच-नीच का भेद, ज्यादा मेहनत कम आय, साधनहीन और साधनसम्पन्न, की जो बाइनरी है वह न केवल वास्तविक हालात को बयां करती है बल्कि ऐसे तत्व ही डॉ सागर के गीतों सौंदर्य शास्त्र भी रचते हैं।  ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

डॉ. सागर हिंदी सिनेमा के दो महान गीतकारों शैलेन्द्र और साहिर को अपना आदर्श मानते है। जिस तरह शैलेन्द्र के गीतों में भोजपुरी भाषा और लोकतत्व मौजूद रहता है ठीक उसी तरह सागर के गीतों में भी भोजपुरी के  लोकतत्व और मुहावरे अपनी पूरी ठसक के साथ मौजूद हैं। साहिर लुधियानवी साहब हिन्दी सिनेमा के सार्वकालिक श्रेष्ठ गीतकार हैं। साहिर की तरह डॉ. सागर भी किसी पारलौकिक शक्ति या भाग्यवाद में विश्वास न करके अपनी प्रतिभा मेहनत और कर्म में भरोसा करते हैं। भोजपुरी और हिंदी भाषा में उनके द्वारा लिखे उनके गीतों को हम तीन श्रेणियों में वर्गीकृत कर सकते हैं:

  1. क्लास गीत –(वो तो यहीं है लेकिन –फिल्म-मैं और चार्ल्स, सपनों को सच करने के लिए तितली ने सारे रंग बेच दिए, मन का मृगा ढूंढे कस्तूरी कहाँ है (बॉलीवुड डायरीज)
  1. मास गीत – (मोरा पिया मतलब का यारअनारकली ऑफ़ आरा, दिल मे डिलीट वाला ऑप्शन कहाँ बा (अलबम), बबुनी तेरे रंग (होली गीत-अलबम)।
  1. जनजागरण गीत-.लेके बाबा साहेब का नाम-डॉ भीम राव आंबेडकर पर लिखा गया गीत

एवं जननायक को याद करो-जननायक कर्पूरी ठाकुर के ऊपर लिखा गीत ।

 

‘बम्बई में का बा’ गीत की पृष्ठभूमि

डॉ. सागर का यह गीत भोजपुरी भाषा का पहला रैप सांग भी है जो यू टयूब पर 9 सितम्बर 2020 को रिलीज हुआ। उस समय बिहार विधानसभा चुनावों के प्रचार चल रहे थे। बम्बई में का बा? गीत का उपयोग सभी दलों ने अपने प्रचार में किया। विपक्षी दलों ने रूलिंग पार्टी से पूछना शुरू किया, बिहार में का बा? टेलीविजन डिबेट में भी बिहार में का बा ? लेख लिखे गए। उभरती हुई गायिका नेहा राठौर ने इस गीत के तर्ज पर अपना गीत बिहार में का बा? बनाया तो मैथिली ठाकुर ने जवाब दिया – बिहार में ई छे? भोजपुरी गायिका दीपाली सहाय ने डॉ. सागर के इस गीत को गाया तो उन्हें भी चार लाख से ज्यादा व्यूज मिले। मनोज बाजपेयी ने डॉ.सागर के साथ इस गीत में काम करने के अपने अनुभव पर लिखा – डॉ. सागर ही इस पूरी कोशिश के अग्रणी हैं. कमाल की समझ है शब्दों और उनके चयन की। वास्तव में यह गीत उस समय का एक एंथेम बन गया। इस गीत ने समाज के सभी वर्गों की सोच को प्रभावित करने का काम किया।

इस गीत को प्रवासी मजदूरों के जीवन की गाथाकहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी।  इस गीत में लगातार मानव जीवन के विरोधाभासों का सिलसिला चलता रहता है। गीतकार बार-बार यह तो पूछता है कि बम्बई में का बा? लेकिन गीत को पंक्ति दर पंक्ति और एक बंद से दूसरे बंद तक सुनते हुए एक बात साफ़-साफ़ समझ में आती है कि गरीब-वंचित, शोषित-पीड़ित इस देश की बहुसंख्यक आबादी के लिए न गाँव में कुछ है न ही शहर में। उनके हिस्से में सहूलियतें बहुत कम हैं। महानगर केन्द्रित विकास ने भारत देश में क्षेत्रीय असंतुलन पैदा किया है और ग्रामीण क्षेत्रों से लोगों को रोजगार की तलाश में पलायित होने को मजबूर किया है। इसके कारण एक क्षेत्र विशेष की जल, जंगल, जमीन, आवास आदि संसाधनों पर अतिरिक्त बोझ भी पड़ा है जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है। सन नब्बे के दशक में खुली बाजार व्यवस्था ने जजमानी और अन्य स्थानीय रोजगार की व्यवस्थाओं को ध्वस्त कर दिया। लोग अधिक पैसा कमाने और बेहतर रोजगार की तलाश में शहरों की तरफ गये। यातायात के आधुनिक और तेज रफ्तार साधनों ने प्रवास के लिए और अनुकूल परिस्थितियां पैदा कीं। कोरोना वायरस से फैलती महामारी के डर से मार्च 2020 में हुई अखिल भारतीय तालाबंदी के कुछ दिनों बाद प्रवासी मजदूर भोजन, काम और पैसों के अभाव में अपने घरों की तरफ चल पड़े । बस, ट्रक, सायकिल, पैदल जिसको जैसे बन पड़ा अपने घर के लिए चल पड़ा। कई हादसे हुए जिसमे लोगों ने अपनी जान गंवाई। कितने लोग पैदल चलते-चलते, अंतिम सांस तक सायकिल चलाते-चलाते रास्ते में ही मर गए। घर उनका इंतज़ार करते रहे लेकिन वे नहीं लौट सके।  मरेंगे वहीं जाकर जहाँ ज़िन्दगी है  गुलज़ार साहब का गीत उनके लिए सही साबित नहीं हो सका। ज्योति कुमारी नाम की लड़की अपने बीमार पिता को लेकर दिल्ली से बिहार के अपने गाँव 1200 किमी से ज्यादा सायकिल चलाकर पहुंची थी। साल भर बाद 3 जून 2021 को उसके पिता की मृत्यु हो गयी। सच है कि गाँव हो या शहर मजदूर और गरीब के लिए जिंदगी कहीं भी आसान नहीं है। इस गीत के आरम्भ में बैकग्राउंड में ट्रेन है उसमे कपडे, दूध के बड़ी बाल्टियाँ और कई सामान टंगे दिखते हैं। ये वही ट्रेन है जिसे प्रवास का माध्यम बताकर भोजपुरिया माटी के किसी गीतकार ने ‘’रेलिया बैरन पिया को लिए जाए रे’’ गीत को रचा था। ट्रेन मजदूरों को देश के कोने-कोने तक ले जाती है लेकिन लॉकडाउन में गरीबों की सवारी ट्रेन भी बंद थी। गीत में ट्रेन दिख तो रही है उसकी सीटी भी आ रही है लेकिन वह रुकी हुई है इसलिए 1500 किलोमीटर की दूरी बम भोले यानि के भगवान भरोसे ही पैदल या सायकिल से ही जाना है।

रोजगार की तलाश में उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवों से पुरुष कोलकाता, दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे बड़े शहरों में टेम्पो चालक, निर्माण मजदूर, सेक्युरिटी गार्ड जैसी नौकरियां करते हैं। भिखारी ठाकुर ने बिदेसिया नाटक और गीतों के माध्यम प्रवासियों और उनके परिवारों की समस्या को प्रभावी ढंग से चित्रित किया था।  सागर का गीत का प्रवासी मानुष कल्पना करता है कि अपने खेत की मिटटी मे हाथ लगाते ही मन खुश हो जाता है।  बलिया, सिवान, छपरा की चोखा-बाटी इतना स्वादिष्ट होती है कि लोग कहीं भी चले जाएँ उसकी याद मन में बसी रहती है। प्रवासियों की भावनाओं दोहन करने के लिए बाजारवादी ताकतों ने अब शहरों में बाटी चोखा रेस्टोरेंट खोल दिए हैं। डॉ. सागर के बलिया के लोकल बाटी-चोखा का स्वाद अब ग्लोबल बन चुका है फिर भी वे अपने गाँव के खेत और बाग़-बगीचे में ही जीवन जीने की लालसा लिए हुए कहते कि मजबूरी में अपने बचपन का गाँव छोडकर मैं यहाँ मुंबई में आया हुआ हूँ।

सागर के गीतों में गाँव से शहर की तरफ गए मजदूरों के लिए ‘कन्फ्यूजन’ का भोजपुरी संस्करण कन्फ्यूजिया और ‘कन्फ्युजियाइल’ शब्द कई स्थानों पर प्रयुक्त होता है। अनारकली ऑफ़ आरा फिल्म के गीत ‘हमरा के कन्फ्यूजिया के गया, खिड़की से पटना दिखा के गया और ‘बम्बई में का बा’ गीत में गाँव शहर के बिचवा में गजबे हम कन्फ्युजियाइल बानी इसके उदाहरण हैं। बीस साल गाँव में जवान होकर आगे की जिन्दगी शहर में गुजारने वाला आदमी कन्फ्यूज ही रहता है, द्विविधा में दिग्भ्रमित होकर जीता है।

भारत देश में श्रम करने और पसीना बहाने वाले वर्ग को हमेशा कम पैसा मिलता है। वे केवल इतना ही कमा पाते हैं कि खुद जी सकें और अपने बच्चों को जीवित रख सकें. गाँव औ शहर के जीवन में बहुत अंतर है जिसको प्रवासी हर पल महसूस करते हैं। गाँव में किसी से रास्ता पूछ लो कई आदमी जुटकर इत्मीनान से बताता है लेकिन शहर में गंवार आदमी किसी से कुछ पूछ ले तो ढंग से बताता नहीं या डांट देता है।  गीतकार डॉ. सागर ने इस गीत में समाज और देश के विविध पहलुओं को उठाया है। पीछे बीस सालों में हम लोगो के देखते-देखते शहरों के नाम बदल गए, कलकत्ता से कोलकाता, मद्रास से चेन्नई, बंगलौर से बेंगलुरु और बम्बई से मुंबई जिसके राजनीतिक और भाषाई कारण रहे हैं। गाँव का आदमी इतनी आसानी से नए नाम को नहीं अपना पाता है न ही उसे किसी राजनीति से मतलब होता है। उसे अपनी रोटी-रोजगार से मतलब होता है जिसके लिए वह अपना घर छोडकर हजारों किलोमीटर दूर जाता है जिसे गीत के इस अंश में देखा जा सकता है, बम्बई ना, मुंबई बोलें? ई मुंबई है, ये हम ते बम्बई आइल रहलीं…चेन्नई होखे, दिल्ली होखे, मुंबई होखे, हमनी के जान ते ओइसे सांसत में फंसल बा ये बाबू।   

प्रभुत्व बरकरार है

आजादी के बाद पचास के दशक में जमींदारी व्यवस्था क़ानूनी तौर पर समाप्त हुई। गाँव और शहरों के स्थानीय निकायों में भी मतदान के माध्यम से चुने हुए लोग शासन चलाने लगे। परन्तु सच्चाई यह है कि समाज के प्रभु वर्ग ने अपना प्रभाव यें केन प्रकारें अब तक बनाये रखा है।  देश के अन्य हिस्सों की तरह भोजपुरी क्षेत्र में भी माफिया, दबंगों और अपराधी तत्वों का डर बना रहता है। आम इंसान इनसे अपने अधिकार और सम्मान के लिए लड़ नहीं सकता क्योंकि शासन  सत्ता तक उनकी पहुँच होती है जिसके कारण वे संविधान कानून के शिकंजे से भी बच निकलते हैं। समाज में विद्यमान इस स्तरीकरण और भेदभाव की आँखों देखी हकीकत को  भी डॉ. सागर ने इस गीत में वर्णित किया है।

देवरिया में राकेश कबीर के घर पर डॉ.सागर,अमरनाथ पासवान और मीठी

गाँव में स्कूल अस्पताल की सुविधा नहीं है, लोग बिना दवा के मर रहे हैं, गरीब-अमीर के बीच गहरी खाई है, जरूरतमन्द लोगों के राशन पर माफिया की कुदृष्टि है। गीतकार इन हालातों के लिए ज़िम्मेदार अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों से सवाल करता है-हे हाकिम लोग हमरो कुछ सुनवाई बा? गीत का अंतिम दृश्य देखिये और सुनिए, घर लौटने की एक ख़ुशी रैपर के चेहरे पर दिखती है, रास्ता बहुत लम्बा है लेकिन मेहनतकश आदमी उम्मीद से भरा हुआ होता है इसलिए उसे डर नहीं लगता । उसे भविष्य की भी बहुत चिंता नहीं रहती है, वह रोज कमाता है रोज खाता है उसे जमा करने की चिंता भी नहीं रहती है। वह काम करते-करते एक दिन मर जाता है उसे बीमार पड़ने की जरूरत भी नहीं पड़ती है। लेकिन उसकी यह बात हमें अंदर तक हिला जाती है कि, जबले जान रही गोड़ चलत रही बाबू।  वह बम भोले का नाम लेकर भगवान भरोसे चल पड़ता है मुश्किल सफर पर अपनी अजेय उम्मीद के सहारे।

मनोज वाजपेयी और यह गीत

मनोज बाजपेयी एक बेहतरीन अभिनेता हैं और बिहार राज्य के भोजपुरी भाषी क्षेत्र के रहने वाले हैं। वह जिस तरह से भोजपुरी शब्दों के उच्चारण से और चेहरे के भावों के तालमेल से प्रवासी मजदूरों के दर्द को प्रस्तुत कर पाते है वह विरल है। एक और बात ध्यान देने की है मनोज की वास्तविक उम्र अभी 50 साल के आसपास है, प्रवासी मजदूर जो कल कारखानों में या अन्य श्रम के कार्य करके गांव लौटते हैं वे 25 की उम्र में 50 साल के दिखते हैं वह भी बीमार से। गीत के बीच मे एक अन्तरे से दूसरे अन्तरे को जोड़ने के लिए भोजपुरी भाषा के जिन सूत्र वाक्यों को जोडा गया है वह इसके प्रभाव में कई गुना वृद्धि कर देता है। जैसे फोन करने का दृश्य, हलो, हलो …सुनाता ?कहाँ बाड़ू, का?? होली में आवतानी, एह । अपनी पत्नी से घर लौटने की बात करके मजदूर चरित्र इतराने सा लगता है। वह दिखाना चाहता है कि वह अकेला नही है, उसका भी घर परिवार है, पत्नी है जो उसके आने की राह देख रही है, छोटी बच्ची है जिसे वह गोंद में भरना चाहता है लेकिन ऐसा नहीं कर पाता। ऐसा भाव उसे रवींद्रनाथ टैगोर के काबुलीवाला के समकक्ष लाकर खड़ा कर देता है जो जेल में कैद होकर अपने वतन और अपनी बेटी को याद करता है। अपने खेत की मिट्टी छू लेने की ख्वाहिश मामूली नहीं  होती। ‘दो बीघा जमीन’ फिल्म के क्लाईमैक्स के दृश्य में नायक को देखिए जो अपनी ही  बिक चुकी जमीन पर खड़ी फैक्ट्री के गेट पर पड़ी मिट्टी को जब छूना चाहता है तो ड्यूटी पर खड़ा सेक्युरीटी गार्ड उसे चोर समझकर डपटकर भगा देता है। गार्ड भी उसी के संवर्ग का आदमी है और डबल ड्यूटी करने को मजबूर है। दोनों की हालत खराब है लेकिन वे एकजुट नहीं हो पाते, खटना ही उनकी नियति बन चुकी है।

निर्देशक अनुभव सिन्हा और मनोज बाजपेई के साथ डॉ.सागर

और अंत में दोस्ती …

मार्च 2020 से अब तक का समय कोरोना काल है। साल भर के समयांतराल में घर वापसी और वायरस के संक्रमण से लाखों लोगों ने अपनी जान गंवाई है। रचनाकारों और फिल्मकारों ने अपने-अपने तरीकों से इस समय के दर्द को दर्ज किया है। डॉ सागर एक नेकदिल और सम्वेदनशील. इंसान हैं । डॉ. सागर मुस्कान के पीछे छिपी एक जिद का नाम है । वह कहीं पहुँचने के लिए हंसते हँसते अपना बहुत कुछ बलिदान तो करती है लेकिन उसका ज़िक्र या शिकायत कभी नहीं करती। वह अपने पसंद के काम करने के लिये प्रतिबद्ध शख्सियत हैं।  साधारण से दिखने वाले असाधारण आदमी सागर जी कहते , मैंने तय किया था कि बलिया में अपनी गीतों से कमाए पैसे से घर बनाऊंगा और बनाया।  मेरी नजर में वह बहुत अमीर आदमी हैं क्योंकि उनके पास अच्छे दोस्तों की लम्बी फेहरिस्त है जो देश ही नहीं दुनिया के कोने-कोने में मौजूद हैं।  जो हमेशा उनकी हौसला अफजाई करते रहते हैं । सागर के गीतों में जीवन के तमाम विरोधी भाव चित्रित हुये हैं। बम्बई में का बा गीत में गांव-शहर, अमीरी-गरीबी, टूटी खोली और ऊंचे अपार्टमेंट्स, ऊंच-नीच का भेद, ज्यादा मेहनत कम आय, साधनहीन और साधनसम्पन्न, की जो बाइनरी है वह न केवल वास्तविक हालात को बयां करती है बल्कि ऐसे तत्व ही डॉ सागर के गीतों सौंदर्य शास्त्र भी रचते हैं।

डगरिया मसान हो गइल गीत में भी डॉ. सागर के प्रवासी मन का मजदूर इसी दर्द को बयां करता है कि जिस शहर को हमने भरमवश अपना समझ लिया था और यहां के लोगों ने भी सबने हमें मुश्किल वक्त में पराया कर दिया। अब इस नगर को मैं कैसे और किस मुंह से वापस लौटूंगा लेकिन उसे फिर लौटना पड़ता है क्योंकि उसके राशन की लूट उन लोगों द्वारा जारी है जिनके पेट, घर और गोदाम सभी भरे पड़े हैं। गांवों में जो रोजगार उपलब्ध है वह कागजों में ज्यादा जमीन पर कम है । इसलिए गरीब-मजदूर को दूर बसे शहरों में लौटना पड़ता है ताकि उनकी रोटी का जुगाड़ हो सके।

सागर भोजपुरी गीतों को मुंबई के बॉलीवुड के बड़े निर्देशकों, संगीतकारों, नायक नायिकाओं, गायकों के माध्यम से सोशल मीडिया प्लेटफार्म के माध्यम से पूरी दुनिया से जोड़ रहे हैं। दुनिया के कोने-कोने में फैले भोजपुरी सुनने, बोलने समझने वाले करोड़ों लोग डॉ. सागर की नयी भोजपुरी जिसमें रस, छंद, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक सब हैं । उससे नए तरीके से न केवल रुबरु हो रहे हैं बल्कि अपनी भाषा की ताकत को भी समझ रहे हैं। उनके मन में अपने क्षेत्र, अपनी भाषा और लोगों के लिए बेपनाह मोहब्बत भरी है। उम्मीद है कि भविष्य में डॉ सागर और भी बेहतरीन गीत रचने का काम करते रहेंगे। बॉलीवुड में वह भोजपुरी भाषा की ताकत और संम्मान को स्थापित करने का काम कर रहे हैं तथा श्रोताओं में यह भरोसा पैदा कर रहे कि भोजपुरी भाषा में बेहतरीन गीत लिखे जा सकते हैं। ‘बम्बई में का बा गीत सुनकर साथी डॉ. कौशल कुमार मधुकर ने प्रतिक्रिया दी थी कि, डॉ. सागर का यह गीत नोबल पुरस्कार विजेता अमेरिकी गायक बाब डिलेन के गीतों की याद दिलाता है’’।  डॉ. सागर महत्तम उंचाई तक पहुंचे हम सबकी यही शुभकामना है।

 

 

 

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2 COMMENTS
  1. पूरा लेख पढ़कर मुंह से एक ही शब्द निकला- ”शानदार”.
    वाह, आनंद आ गया। पूरे मन से लिखी गई रचना है।

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