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चुनार पॉटरी उद्योग : कभी चमचमाता कारोबार अब एक भट्ठी की आस लिए बरबादी के कगार पर  

किसी ज़माने में चुनार के चीनी मिट्टी के बर्तनों की धाक बहुत दूर-दूर तक थी लेकिन आज वह अंतिम साँस ले रहा है। यहाँ के ज़्यादातर व्यवसायी खुर्जा से माल मंगाकर कर बेचते हैं। चुनार पॉटरी उद्योग के खत्म होने के पीछे एक अदद आधुनिक भट्ठी है जो बरसों की मांग के बावजूद नहीं लगाई जा सकी। नौकरशाही की अपनी अलबेली चाल है और व्यवसायियों की अपनी आर्थिक सीमाएं हैं। इन्हीं स्थितियों के कारण महज़ तीन-चार करोड़ की लागत वाली भट्ठी नहीं बन पाई जबकि भारत सरकार पूर्वांचल के विकास के लिए हजारों करोड़ की योजनाएँ घोषित कर चुकी है। एक भट्ठी के अभाव ने एक शहर की कारोबारी पहचान और हजारों लोगों की आजीविका छीन ली है। चुनार से लौटकर अपर्णा की रिपोर्ट

चुनार बाज़ार में यूं तो हज़ारों जिंस बिकती है लेकिन दशकों से यहाँ चीनी मिट्टी के बर्तनों का बोलबाला रहा है। यहाँ से ये बर्तन मुंबई-कोलकाता, मद्रास जैसे भारत के सभी बड़े शहरों तक पहुँचते थे और इससे हज़ारों परिवारों के चूल्हे जलते थे। लेकिन अब यह बीते ज़माने की बात हो गई है। अलबत्ता अभी भी यहाँ ऐसी कई दर्जन दुकानें हैं जहां से लोग चीनी मिट्टी के बने विभिन्न सामान खरीदते हैं लेकिन वास्तव में ये यहाँ नहीं बनते।

दुर्गापूजा, दशहरा और दीवाली आने के दौरान चीनी मिट्टी के बर्तन बेचनेवाली ज़्यादातर दुकानों पर अब प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियाँ बिकती हैं। जो कारीगर पहले चीनी मिट्टी के बर्तन बनाते थे उनमें से अधिकतर ने प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियाँ बनाना शुरू कर दिया है। यह एक मौसमी कारोबार है और इसी के भरोसे पूरे साल की आजीविका कमाई जाती है। लेकिन चीनी मिट्टी की ही तरह प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियाँ भी एक अंधेरे भविष्य का सामना करनेवाली हैं।

कुछ वर्षों से प्लास्टर ऑफ पेरिस को मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए ख़तरनाक माना जाने लगा है। राजनेता और पर्यावरणविद इसके विरुद्ध बयान देते रहते हैं। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्लास्टर ऑफ पेरिस को कई बार खतरनाक कहा है। इनकी जगह मिट्टी की मूर्तियों के प्रचलन को बढ़ावा देने की बात की जाने लगी है। अगर पर्यावरण के सवाल पर सरकार ने प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियों पर पाबंदी लगा दी तो एक झटके में लाखों लोग बेरोजगारी के गर्त में डूब जाएंगे। इस बात को लेकर चुनार के कारीगर चिंता ज़ाहिर करते हैं।

इस तरह गंगा के किनारे बसा उत्तर प्रदेश का यह छोटा सा ऐतिहासिक शहर अपनी औद्योगिक पहचान को लेकर संकट में पड़ता जा रहा है।

चुनार में निर्मित होने वाले पॉटरी में अनेक मुश्किलों के चलते अब बाजार ने इस धंधे को अपना लिया है

विकास के कुछ ही दशक बाद विनाश की शुरुआत

चुनार की बड़ी पहचान माना जाने वाला यहाँ का पॉटरी उद्योग लगभग सात-आठ दशक पहले अस्तित्व में आया। हालाँकि कुछ स्थानीय निवासियों का कहना है कि यह सौ साल से भी अधिक पुराना है। पहले यहाँ लाल मिट्टी का काम होता था। मौजूदा पुलिस चौकी के आसपास रहनेवाले स्थानीय कुम्हार इसे अपने घर में बनाते थे। उन्नीस सौ पचपन के आसपास वहां सरकार ने डेवलपमेंट सेंटर के नाम से एक केंद्र खोला। उस समय जो भी लोग बनाते थे वे ज़्यादातर कारीगर ही थे। उनको माल पकाने की सुविधा देने के लिए वहाँ एक बड़ी भट्ठी बनाई गई थी। सारा रॉ मैटेरियल बाहर मिलता था। कारीगर के यहां केवल काम होता था और उसका बनाया हुआ माल आसानी से बिक रहा था।

काम अच्छा चलने लगा। धीरे-धीरे और लोग भी इस काम जुड़ने लगे। इससे वह जगह कम पड़ने लगी। उन्नीस सौ पैंसठ के बाद यहां आ गए। यह ज़मीन ली गई और यहाँ डेवलपमेंट होता गया।

लेकिन यह सारा डेवलपमेंट जितनी शिद्दत से हुआ था उतनी ही आसानी से गर्त में मिलता चला गया। जो जगह चुनार पॉटरी की पहचान बन चुकी थी वह धीरे-धीरे छीजने लगी और आज उसकी यह दशा है। बेशक इसके पीछे कई कारण हैं।

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चुनार पॉटरी उद्योग एसोसियेशन के सचिव कृष्णा यादव

चुनार पॉटरी उद्योग एसोसियेशन के सचिव कृष्णा यादव कहते हैं ‘पॉटरी के क्षेत्र में बड़ी बड़ी कंपनियाँ माल बनाने लगीं। इनमें उच्च कोटि की मशीनों की सुविधा होने से सारा प्रोसेस होकर पैक होकर निकलता है। उनकी लागत कम आती है।दूसरी ओर हम लोग जो काम करते थे तो उससे लागत ज़्यादा आती थी क्योंकि हमारे सारे काम हाथ से होते थे। अपने घर पर बनाइए, पकाइए और पैक कीजिए। समय भी ज्यादा लगता था। कास्ट भी बढ़ जाती थी, जिसकी वजह से हम मार्केट में मौजूद कंपनियों के रेट से तुलना नहीं कर पाते थे और एक समय ऐसा आया जब काम बंद कर देना पड़ा।’

ज़ाहिर है इसके अनेक परिणाम हुए। चुनार, सेवापुरी, चिनहट आदि जगहों पर मौजूद छोटे-छोटे सेंटर बंद होते गए और जो लोग इन जगहों पर पहले बनाते थे अब बड़ी कंपनियों से माल लाकर बेचने लगे ताकि अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकें।

फिलहाल अब केवल खुर्जा में पॉटरी उद्योग फल-फूल रहा है। दिल्ली के नज़दीक होने के कारण वहाँ अनेक प्रकार की सहूलियात हैं। बड़े व्यापारियों का इनवेस्टमेंट भी है। सरकारी सहयोग और आवागमन की सुविधाएं और जगहों के मुक़ाबले ज्यादा हैं। पूरे देश में चाहे कहीं भी माल भेजना हो, पचास पेटी या सौ पेटी हो, दुकानदार ने फोन से अपना ऑर्डर भेज दिया और कम पैसे में उसका माल उसके दरवाज़े पर उतर गया।

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चुनार के व्यवसायी और पाटरी उद्योग एसोसियेशन के अध्यक्ष विजय वर्मा

चुनार जैसे केन्द्रों की बरबादी को लेकर चुनार के व्यवसायी और पाटरी उद्योग एसोसियेशन के अध्यक्ष विजय वर्मा का कहना है- ‘सबसे बड़ा संकट यह है कि सरकार ने पॉलिसी बदल दी। अब उस पॉलिसी के अनुसार चुनार के लोग सेट नहीं हो पा रहे हैं। क्योंकि यहां सबके पास उतनी ही पूंजी है जिससे वे साल में अपना काम करके अपने परिवार का जीवनयापन कर ले रहे हैं।  देखने में लोगों को लगता है कि यह बहुत बड़ी इंडस्ट्री है लेकिन सच्चाई बिलकुल भिन्न है।’

इस उद्योग को कई तरह के हमलों का सामना करना पड़ा

एक जमाने में चुनार शहर के इस चमचमाते उद्योग में हर समुदाय के लोग लगे थे और सम्मानजनक रूप से अपनी आजीविका कमा रहे थे। कुम्हार, जायसवाल, गुप्ता, मौर्य, वर्मा, यादव, मुस्लिम बड़ी संख्या में इसमें लगे थे। लेकिन यह खुशहाली बहुत दिनों तक कायम न रहने पाई। खुर्जा के सस्ते माल के मुक़ाबले चुनार का माल थोड़ा महंगा पड़ता था और इसे पीछे करने के लिए इतना ही काफी था।

खुर्जा में अत्याधुनिक तकनीक और डीजल तथा बिजली की भट्ठियों से कम खर्च और न्यूनतम नुकसान से प्रचुर माल उत्पादित होता था। लेकिन चुनार में कोयले की पुरानी तकनीक वाली भट्ठी थी जिसके अनियंत्रित तापमान के कारण उत्पादन पर बुरा असर पड़ने लगा। कम तापमान पर बर्तन कच्चे रह जाते थे और अधिक तापमान पर जल जाते थे। इन कारणों से उत्पादन महंगा होता रहा और बाज़ार में सस्ते माल के मुक़ाबले वह तिक नहीं पाया।

इसका परिणाम यह हुआ कि ज़्यादातर लोगों ने काम बंद कर दिया। बहुत से लोग खुर्जा से माल मंगाकर बेचने लगे जिससे आजीविका चलती रही लेकिन यह एक कठिन राह थी।

दूसरी मार जीएसटी की पड़ी। यूं तो जीएसटी ग्राहक से ही वसूली जाती है लेकिन इस व्यवसाय के लिए यह घातक सिद्ध हुई। पहले वैट था और वह किफ़ायती था लेकिन अब 18 से 28 प्रतिशत तक जीएसटी इस व्यवसाय के लिए जानलेवा साबित हुई।

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चुनार में बनने वाले पॉटरी की एक दुकान

यहाँ के दुकानदारों ने बताया कि चुनार से बंगाल, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ तक माल जाता रहा है। बाहर भेजने के लिए जीएसटी सहित बिल चाहिए। यह बहुत ज्यादा था और इसका खामियाजा हमारे व्यापार को भुगतना पड़ा। माल की खपत में भारी गिरावट आई और कारोबार बिलकुल सिमट गया।

इसके बावजूद इससे जुड़े लोग चाहते थे कि हमारा कारोबार सही-सलामत और किफ़ायती रहे। इसके लिए जरूरी था कि उत्पादन पद्धति में नयापन हो और लागत घटे। इसमें सबसे जरूरी थी आवश्यकतानुसार तापमान नियंत्रित करनेवाली भट्ठी। लेकिन बार-बार प्रयास के बावजूद भट्ठी नहीं बन सकी। बल्कि भट्ठी स्वयं एक विडम्बना बनकर रह गई।

लग्घी से पानी पिलाने की कलाबाज़ी

सवाल उठता है कि जिस उद्योग ने इस छोटे से शहर को बड़ी पहचान दी वह कैसे तबाह होता गया और आज वहाँ उत्पादन नहीं बल्कि केवल उसका भ्रम बच रहा है? यह भी काबिलेगौर है कि साठ साल पहले जो डेवलपमेंट सेंटर बनाया गया था वह किस गति को प्राप्त हुआ?

इस संदर्भ में वर्मा कहते हैं ‘ सबसे पहले तो लाल मिट्टी ही मिलनी बंद हो गई। भट्ठी और चिमनी सारी चीजें खत्म हो गईं। कोरोना के बाद से परेशानी और बढ़ गई। पहले माल ढोने के लिए यहां ठेला वाले को पैसा देते थे। वे स्टेशन ले जाते थे। पुलिस को पैसा देते थे फिर ट्रेन पर चढ़ाते थे। उनकी बीस पेटी होती तो पंद्रह पेटी चढ़ती और कभी-कभी पांच पेटी छूट भी जाती थी। जगह नहीं मिलती तो समस्या होती थी। बार-बार पैसा लगता था। कोरोना के समय जब लोगों को ट्रेन में टिकट की दिक्कत होने लगी तो वे अपना साधन लेकर आते लेकिन यह सब बहुत महंगा सौदा था और देर तक इसे चला पाना संभव नहीं था।’

चुनार के पॉटरी उद्योग की जगह प्लास्टर ऑफ पेरिस की दुकानें

यादव इस बारे में कहते हैं – ‘असल में यह समय के साथ तालमेल न बैठा पाने के कारण बर्बाद हुआ। यहाँ पर कोयले से चलनेवाली भट्ठी थी और उसके तापमान को नियंत्रित करना असंभव था। यह कभी कम होता तो कभी बहुत ज्यादा हो जाता। इस कारण बहुत सारा माल खराब होता था।

‘जबकि खुर्जा जैसे केन्द्रों पर डीजल फर्नेश्ड था। उनकी टेक्नॉलॉजी नई थी। इसलिए कम खर्चे में वह अधिक उत्पादन करते थे। उनके मुक़ाबले हम लोग मार्केट में लड़ और टिक नहीं पाये। उन्होंने पूरे मार्केट को टेकओवर कर लिया और हम अपनी पिछड़ी स्थिति के कारण कमजोर पड़ते गए।’

उत्पादन न होने के बाद कारण के व्यवसायियों ने अपनी स्थिति बचाए रखने के लिए स्वयं खुर्जा से माल मंगाना और बेचना शुरू कर दिया। लेकिन अब पहलेवाली बात नहीं रही।

वर्मा कहते हैं कि ‘मिर्ज़ापुर की सांसद और केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल ने कई बार बैठक की, लेकिन अभी कुछ नहीं लग रहा है कि कुछ हो पाएगा।’

चुनार पॉटरी व्यवसाय से जुड़े कुछ अन्य लोग कहते हैं कि ‘इसको चलाने के लिए अनुप्रिया पटेल ने कोई विशेष प्रयास किया है, हमें नहीं लगता। हालांकि कई बार मीटिंग हुई। कई बार लोगों से राय ली गई और जिलाधिकारी को लिखा भी गया लेकिन कोई हल नहीं निकल सका है।’

जिलाधिकारी प्रियंका निरंजन ने 18 जनवरी को राजकीय चीनी पात्र विकास केंद्र, चुनार का दौरा किया और संबंधित अधिकारियों को इसे जल्द शुरू करने का निर्देश दिया

कृष्णा यादव कहते हैं ‘ इसे फिर से चालू करने की मांग वर्षों से चल रही है क्योंकि यह प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से कई हज़ार परिवारों की आजीविका से जुड़ा है। हमने सरकार से गुहार की कि हमारे लिए ऐसी व्यवस्था की जाय ताकि हम सरवाइव कर सकें। हमने राजकीय चीनी पात्र विकास निगम में अर्जी लगाई कि हमें डीजल भट्ठी दी जाय। इससे हम सही ढंग अपना माल पका सकें और हमारी आजीविका खत्म न होने पाये। लेकिन वहाँ से हमको केवल उपेक्षा मिली। लड़ते-लड़ते थक गए तो बहुत से लोगों ने अपना काम बंद कर दिया।

‘फिर भी हमने अपना संघर्ष जारी रखा और दस साल से अधिक संघर्ष के बाद क्लस्टर योजना के तहत डीजल भट्ठी पास हुई लेकिन उसका बजट इतना बड़ा बन गया कि वह महज कागज़ी खानापूर्ति बन कर रह गई। आज तक ज़मीन पर नहीं उतरी।’

क्लस्टर योजना का बजट तीन करोड़ का था और इसमें 80 और 20 का अनुपात था। यानी दो करोड़ चालीस लाख का अनुदान स्वीकृत किया गया और साठ लाख व्यवसायियों को लगाना था। लेकिन यह बिलकुल सिरे नहीं चढ़ पाया और बात वहीं की वहीं रह गई।

सवाल यह उठता है कि इतने व्यवसायियों के लिए साठ लाख रुपये जुटाना कौन सी बड़ी बात है? इस बारे में कृष्ण का कहना है कि ‘यहाँ जो लोग बनाते हैं वे बहुत छोटे स्तर पर काम करते हैं। किसी तरह से उनका काम चलता है। ऐसे में एकमुश्त लाख दो लाख जुटाकर इन्वेस्ट करना उनके लिए बहुत मुश्किल है। यही कारण है कि न साठ लाख रुपये जुटे और न डीजल भट्ठी बन पाई।’

विगत वर्ष व्यापारियों ने मिर्ज़ापुर की जिलाधिकारी प्रियंका निरंजन से मिलकर अपनी समस्या का समाधान निकालने को कहा। जिलाधिकारी ने भट्ठी के लिए पचास लाख रुपये दिये। वह पैसा UPPCL को प्रोजेक्ट बनाने के लिए दे दिया गया। लेकिन कुछ समय बाद यूपीपीसीएल ने बजट कम होने की बात कही और भट्ठी का काम खटाई में पड़ गया।

इस संदर्भ में व्यापारियों ने पुनः जिलाधिकारी से संपर्क किया तब उन्होंने जवाब दिया कि मेरी जितनी सीमा थी वह मैंने कर दिया। अब कुछ करना संभव नहीं है। इस प्रकार डीजल भट्ठी नहीं बन सकी।

ज़ाहिर है कि पुराना सेटअप बर्बाद होने और नई डीजल भट्ठी न बन पाने के कारण चुनार में उत्पादन बंद हो गया। ऐसे में अपनी आजीविका को बचाए रखने के लिए अब यहाँ के निर्माता खुर्जा से माल मंगाते हैं और अपना बता कर बेचते हैं। इस प्रकार उनकी रोजी-रोटी चल रही है। हालांकि कुछ लोग यह भी कहते है कि अब खरीद कर माल बेचना भी मुश्किल होता जा रहा है।

कई तरह की कहानियों और अफवाहों का बाज़ार  

इन स्थितियों के कारण अनेक लोग धंधे से दूर हो चुके हैं लेकिन दूसरी ओर तमाम संकटों और अवरोधों के बावजूद डीजल भट्ठी के लिए प्रयास खत्म नहीं हुआ है। सरकार की ओर से एक प्रस्ताव आया कि एक सोसायटी की स्थापना की जाय और आगे जो भट्ठी बनेगी उसे सोसायटी ही चलाएगी। इसलिए सोसायटी बना दी गई।

लेकिन इसमें भी बीस प्रतिशत की भागीदारी की बात आई और कहा गया कि जो लोग पैसा लगाएंगे उन्हें अलग से पकाने का किराया नहीं देना पड़ेगा बल्कि डिपॉजिट में से ही किराया कटता रहेगा। लेकिन जब यह प्रस्ताव लोगों के पास गया तो लोगों ने बीस प्रतिशत लगाने में असमर्थता जताई। उन लोगों ने कहा कि हम किराया दे देंगे लेकिन बीस प्रतिशत भागीदारी नहीं दे पाएंगे।

बाद में एक सुझाव यह भी आया कि डेवलपमेंट सेंटर की ज़मीन के छोटे-छोटे हिस्से निर्माताओं को दे दिये जाएँ। लेकिन यह सुझाव कई तरह की गलतफहमियों का शिकार हो गया। पहले से चली आ रही ढुलमुलयकीनी फिर सिरे नहीं चढ़ सकी और इस प्रकार यह मामला भी जहां का तहां रह गया।

बिरहा गायक और कारोबारी राजेश यादव

कई लोग कहते हैं कि सोसायटी बनाने के बाद उसमें ग्रांट का पैसा आया और जल्दी ही वह खत्म भी हो गया लेकिन भट्ठी नहीं बन सकी। सोसायटी को लेकर खींचतान शुरू हुई और वह भी अब निष्क्रिय हो चुकी है। कुल मिलाकर मामला वहीं का वहीं है। एक दुकानदार ने कई तरह की कहानियाँ सुनाते हुये अपने अनुभव के समापन में कहा – न नौ मन तेल होई न राधा नचिहन।

फ़िलहाल चुनार पॉटरी उद्योग से जुड़े ज़्यादातर लोग अब इसके फिर से आबाद होने के बारे कोई उम्मीद नहीं रखते। जब यहाँ भट्ठी बंद हुई थी तब बहुत से निर्माताओं को अनेक प्रकार से घाटा उठाना पड़ा था। उत्पादन रुक जाने पर बर्तन बनाने के लिए खरीदकर जो मिट्टी लाई गई थी उसे ज़मीन में गाड़ दिया और वह बरसों बीत जाने के बाद आज तक नहीं काम में ली जा सकी है।

बड़ी संख्या में कारीगर बेरोजगार हुये और उन्हें पलायन करना पड़ा। अनेक लोगों ने दूसरे काम-धंधे अपना लिए और अब वे इस विषय पर बात करना पसंद नहीं करते। चुनार के प्रसिद्ध बिरहा गायक और दिवाली के दिनों में प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियों की दुकान चलाने वाले राजेश यादव का कहना है कि ‘तमाम कारणों से बर्तन बनाने की महत्वपूर्ण एक कला चुनार खत्म हो गई और इसके कलाकारों को आजीविका के लिए दूसरी जगहों और कामों की ओर पलायन करना पड़ा। जो काम इस शहर की एक बड़ी पहचान रहा है उसका इतनी बेरहमी से विनाश बहुत तकलीफ़देह है।’

स्वयं विजय वर्मा भी व्यथित होकर कहते हैं ‘इसके लिए सरकार जब तक आगे बढ़कर पहल नहीं करेगी तब तक कुछ नहीं होनेवाला है लेकिन सरकार ने तो पालिसी ही बदल दी है।’

इसी महीने की अठारह तारीख को जिलाधिकारी प्रियंका निरंजन ने राजकीय चीनी पात्र विकास केन्द्र, चुनार का दौरा किया। उनके साथ एसडीएम राजेश कुमार वर्मा तथा यूपीपीसीएल के अधिकारी भी थे। उन्होंने निर्देश दिया कि पॉटरी सेंटर की साफ-सफाई और शेड का निर्माण जल्द से जल्द होना चाहिए। जिलाधिकारी ने स्पष्ट कहा कि अगले छह महीने में यहाँ उत्पादन शुरू होना चाहिए। उन्होंने जिला खनिज निधि से इस कार्य के लिए 50 लाख रुपये आबंटित किया।

जिलाधिकारी की इस सक्रियता ने चुनार पॉटरी उद्योग से जुड़े लोगों को फिर आशान्वित कर दिया है और उन्हें लगने लगा है कि देर-सबेर यह फिर से पुरानी रौनक पा लेगा। उम्मीद पर चुनार कायम है।

अपर्णा
अपर्णा
अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।

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