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ग्राउंड रिपोर्ट

देश के विश्वविद्यालयों में भर्ती प्रक्रिया प्रश्नों के घेरे में

असली जातिवाद देखना है तो विश्वविद्यालयों की वर्तमान स्थिति को देखा जा सकता है। जातिवाद  के सबसे क्रूर, घिनौने और घिनौने स्थान विश्वविद्यालय बन गए हैं। जहां गले तकभ्रष्टाचार खुले आम हो रहा है। विश्वविद्यालय के मुखिया से लेकर प्रोफेसरों की नियुक्ति अब आरएसएस और भाजपा के इशारे पर हो रही है।

वर्तमान मोदी सरकार शिक्षा के ढांचे को कमजोर कर रही है। केंद्र सरकार राज्य सरकारों को महत्वपूर्ण नीतिगत निर्णयों से बाहर रखकर शिक्षा के संघीय ढांचे को कमजोर कर रही है। शिक्षा नीति में केंद्र सरकार ने सारी ताकत अपने हाथ में ले लेकर सिलेबस और संस्थानों में सांप्रदायिकता फैलाने का सुनियोजित अभियान चला रखा है।

यह सोचना आवश्यक है कि आज के भारत में शिक्षा की स्थिति क्या है? भारत में शिक्षा के ऊपर कई चुनौतियां हैं। यद्यपि साक्षरता दर में सुधार हुआ है, तथापि शिक्षा की गुणवत्ता और बुनियादी ढांचे में अत्यंत सुधार की ज़रूरत है। साथ ही, उच्च शिक्षा में भी गुणवत्ता और संसाधनों की कमी है। आँकड़ों को देखें तो भारत में साक्षरता दर लगभत 73/74% है। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अभी शहरी क्षेत्रों में साक्षरता दर ज़्यादा है। जबकि आबादी अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक है।

अधिकतर ग्रामीण स्कूलों में बुनियादी ढांचे की कमी है। स्कूलों में प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी है। धर्म के आधार पर पुराने पाठ्यक्रमों में बदलाव कर देने और संसाधनों की कमी के कारण शिक्षा का स्तर उम्मीद के अनुसार नहीं है। उच्च शिक्षा में गुणवत्ता और संसाधनों की और भी कमी है। बहुत से छात्र अपनी शिक्षा पूरी करने से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं। इतना ही नहीं, आजकल तो शिक्षा एक व्यापार बनकर रह गया है, इसलिए शिक्षा व्यवस्था में भ्रष्टाचार घर कर गया है। लेकिन सरकार शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए पर्याप्त काम नहीं कर रही है।

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देश के विश्वविद्यालयों में क्या हो रहा है

आज इस मुद्दे पर गौर करने की जरूरत है कि हमारे विश्वविद्यालयों क्या हो रहा है? डा. लक्षमण यादव दिल्ली यूनिवर्सिटी यूनिवर्सिटी के बारे में कुछ कहानियां बताते हैं। पहले अगर आप किसी विषय के प्रोफेसर बनना चाहते थे तो आपके पास उस विषय में अच्छी डिग्री होनी चाहिए थी। लेकिन आज की सरकार ने शिक्षा नीति में कुछ ऐसे बदलाव किए हैं कि आज प्रोफेसर बनने के लिए अपेक्षित डिग्री को महत्व देने के बदले ‘प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस’ के माध्यम से प्रोफेसर बनने लिए अनंत संभावनाएं खोल दी हैं। अगर आपके पास अच्छी डिग्री नहीं भी है तो भी आप फैमिली मैन, प्रोफेसर, कुछ भी बन सकते हैं। यह नया भारत है, यह नई शिक्षा नीति है।

क्या आपको पता है कि उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालयों में कितने लोग हैं? क्या आपको पता है कि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के कितने लोग हैं? अफसोस कि आज की सरकार एक ही जाति और वर्ग के लोगों की होकर रह गई है।  आउटसोर्सिंग के नाम पर उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालयों में बहुत ज़्यादा धोखाधड़ी हो रही है। उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालयों में 10 साल से कार्यकारी परिषद के सदस्यों का चुनाव नहीं हुआ है।

एक तरफ लैटरल एंट्री है और दूसरी तरफ एनएफएस है। इन प्रकार सभी दलितों और पिछड़ों की शिक्षा और प्रोफेसरशिप जैसे नष्ट ही हो रही थी। विश्वविद्यालय अब ‘प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस’ का नया प्रावधान लेकर आ गए हैं। स्पष्ट रूप से कहें तो अब विश्वविद्यालयों में प्लेसमेंट सेंटर की तरह आरएसएस और भाजपा का कैडर काम कर रहा है। अर्थात अधिकतर शीर्ष पदों को आरएसएस और भाजपा के लोगों से भरा जा रहा है। और तो और, अब नई शिक्षा नीति, नए यूजीसी ड्राफ्ट रेगुलेशन एक्ट 2025 पर हस्ताक्षर भी हो गए हैं।

आज से करीब 4 साल पहले उत्तर प्रदेश के एक कृषि विश्वविद्यालय में 15 प्रोफेसरों की नियुक्ति हुई थी। उनमें से 11 एक ही समुदाय के थे। वे उसी समुदाय से हैं, जिस समुदाय से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। आप कहेंगे कि वे तो योगी हैं। तो इस बात पर गौर कर लीजिये कि उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया था कि वे अपने ‘ठाकुर’ होने पर गर्व करते हैं जब वे हैं तो बाकी क्यों नहीं? लगता तो यह है कि वे केवल अपने राजपूतों की राजनीति करते हैं।

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इसीलिए इस खुली भर्ती के बावजूद पूरे उत्तर प्रदेश में किसी अखबार या टेलीविजन डिबेट ने यह नहीं आया कि उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री की जाति के 15 लोगों का उत्तर प्रदेश के कृषि विश्वविद्यालय में नामांकन हुआ। हालांकि एक अखबार ने सवाल उठाया, क्या यह टैलेंट है या जातिवाद?

साल 2022 की एक और खबर के अनुसार उत्तर प्रदेश के बलिया में चंद्रशेखर यूनिवर्सिटी के आवेदनों पर, 80% पद ब्राह्मणों द्वारा भरे गए। ऐसी खबरें गोरखपुर, इलाहाबाद, कानपुर, लखनऊ, आगरा में मिल सकती हैं, अगर आप शोध करने में रुचि रखते हैं तो पता नहीं यह कहां तक ​​फैलेगी। क्योंकि उच्च जाति के लोग ज्ञान को अपनी बपौती समझते हैं।

अगर असली जातिवाद देखना है तो विश्वविद्यालयों की वर्तमान स्थिति को देखा जा सकता है। जातिवाद के सबसे क्रूर, और घिनौने स्थान इस देश के विश्वविद्यालय बन गए हैं। यानी विश्वविद्यालयों में भ्रष्टाचार संभव है। कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने एक पत्रकार से सवाल पूछा कि विश्वविद्यालयों में क्या हो रहा है? जब उन्होंने यह बयान दिया तो हड़कंप मच गया। ऊंची जाति के लोगों ने हर विश्वविद्यालय पर कब्जा कर लिया है।

केवल भर्तियों का ही मामला नहीं है, अपितु जितने भी ऊंची जाति के लोग हैं, उन्होंने कभी पिछड़े, दलित, एससी, एसटी के बच्चों को आगे नहीं आने दिया। बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने जो आदेश दिया था, उस आदेश के साथ वे खेल रहे हैं। उन्हें यूनिवर्सिटी में पढ़ने नहीं दे रहे हैं, कॉलेजों में पढ़ने नहीं दे रहे हैं, क्योंकि वे इस मुद्दे पर बहस नहीं करना चाहते हैं। क्या आपने ध्यान से सुना कि अखिलेश यादव क्या कह रहे हैं? वे वही कह रहे हैं जो इस देश के विश्वविद्यालयों से जुड़ा हर व्यक्ति जानता है।

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विश्वविद्यालय बने आरएसएस और भाजपा के कैडर भर्ती-केंद्र

विश्वविद्यालय के मुखिया से लेकर प्रोफेसरों की नियुक्ति अब आरएसएस और भाजपा के इशारे पर हो रही है। उल्लेखनीय है कि राजभवन उत्तर प्रदेश की सरकारी वेबसाइट पर एक वीडियों, जो 30 अप्रैल 2024 का है, जिसमें विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की सूची दी गई है। यदि इसमें दर्ज सूची को ऊपर से नीचे तक दिए गए नामों को देखेंगे तो आप पाएंगे कि उनके नाम ये हैं –डॉ.. विजेंद्र सिंह, प्रोफेसर संजीव मिश्रा, प्रो. .नरेंद्र प्रताप सिंह, डॉ.. माधवी सिंह, प्रो. मुकेश पांडे, डॉ.आनंद कुमार सिंह, प्रो. विनय कुमार पाठक, प्रो.संगीता शुक्ला, प्रो.पूनम टंडन, प्रो. जेपी पांडे, प्रो.आशु रानी, ​​डॉ. प्रतिभा गोयल, प्रो.डॉ. सीएम सिंह, प्रो. संजय सिंह, प्रो. शमशेर, प्रो.संजीव कुमार गुप्ता, प्रो. नरेंद्र बहादुर सिंह, प्रो. सोनिया नित्यानंद, प्रो. हृदय शंकर सिंह, प्रो. जय प्रकाश सैनी, प्रो. प्रदीप कुमार शर्मा, प्रो.आनंद कुमार त्यागी, प्रो. कृष्णपाल सिंह, प्रो.अवधेश कुमार सिंह, डॉ. अखिलेश कुमार सिंह, प्रो. चन्द्रशेखर, प्रो. बिहारीलाल शर्मा, प्रो. राधाकृष्ण धीमान, प्रो. के. के. सिंह, प्रो. कविता शाह, प्रो. आलोक कुमार राय, प्रो. अनिल कुमार सर्वस्तव, प्रो.सत्यकाम, प्रो.वंदना सिंह आदि।

अब एक सवाल उठता है कि संदर्भित सूची में पीडीए समाज यानि पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समाज के कितने प्रोफेसर हैं?  कितने कुलपति हैं? जिस समाज की जनसंख्या इस देश में 85-90% है, उनकी भागीदारी (पीडीए) 2-4 प्रतिशत ही है। अगर विदित हो की राज्य विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति राज्य के अनुरोध पर होती है। पश्चिम बंगाल की राज्य सरकार ने भी यही किया और फिर तमिलनाडु की राज्य सरकार ने भी। इन दोनों राज्यों ने कैबिनेट के ज़रिए पारित करके कुलपतियों की नियुक्ति का अधिकार राज्य सरकार से छीन लिया। ताज़ा मामला तमिलनाडु का है। तमिलनाडु की स्टालिन सरकार ने अपने राज्य के विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति का अधिकार पश्चिम बंगाल की राज्य सरकार से छीन लिया है क्योंकि उन्हें पता था कि राज्य सरकार जो भाजपा और आरएसएस की रीढ़ है, राज्य सरकार के हित में काम नहीं कर रही है।

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डा. लक्षम्ण कहते हैं  दिल्ली यूनिवर्सिटी में रहते हुए रोस्टर प्रो. टेस्ट के दौरान हमने एक RTI लगाई और फिर हमने इस देश के दलितों और पिछड़ों को बताया कि 2019 तक इस देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में OBC का एक भी प्रोफेसर नहीं था और आज 2025 में 4-5% प्रोफेसर OBC समुदाय से हैं जिनकी आबादी इस देश में 60-65% है। यानि देश के 100 लोगों में से 65 लोग पीडीए वर्ग से आते हैं  किंतु 100 में से 4 लोग भी  प्रोफेसर नहीं हैं। अनुसूचित वर्ग और अनुसूचित जनजाति में उनकी आबादी 25% है। उस आबादी में से 5% प्रोफेसर भी नहीं हैं और न ही कोई कुलपति। एक खबर के अनुसार इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में बिना इंटरव्यू के ही वे असिस्टेंट प्रोफेसर बना दिए गए।

बीएचयू ने भी अपने से संबंधित कॉलेजों की भर्ती में यही स्टैंड ले लिया है। यह खबर अगस्त 2024 की है। पिछले कई सालों से उनसे जुड़े विश्वविद्यालयों में बड़ी संख्या में ऐसे लोग ही भर्ती हुए हैं। इन लोगों ने कई योग्य छात्रों और अभ्यर्थियों का भविष्य बर्बाद किया है। अभी भी बर्बाद कर रहे हैं। इन लोगों के लिए यह अभी भी शर्म की बात है कि योग्य छात्रों और उम्मीदवारों का उच्च शिक्षा के पदों पर चयन होना संभव नहीं है। अगर कोई इंटरव्यू बोर्ड में किसी की कृपा से बैठता है तो वह कृपालु की कृपा के अनुसार ही निर्णय लेगा ताकि अगली बार उसे अपनी पसंद की नौकरी मिल सके या किसी अन्य पद या समिति या कार्यालय में उसका प्रमोशन हो सके।

उत्तर प्रदेश के राज्य विश्वविद्यालयों और दूसरे उच्च शिक्षण संस्थानों में सेवानिवृत्त लोगों का प्रतिनिधित्व लगभग शून्य के बराबर है। उत्तर प्रदेश के राज्य विश्वविद्यालयों में और दूसरे उच्च शिक्षण संस्थानों में पर्याप्त अवसर सुनिश्चित करने के लिए सेवानिवृत्ति के नियमों नागपुर (आर एस एस‌) से जो टोपी लगाई जा रही है वो बड़े-बड़े पदों पर जाती है। दलित-पिछड़े भी आजकल टोपी के लालच में हैं। सिर्फ़ दिल्ली और लखनऊ यूनिवर्सिटी में ही नहीं  बल्कि  भाजपा शासित सारे प्रदेशों के  विश्वविद्यालयों में यही हो रहा है।

ऐसा क्यों है कि प्रदेश में उन सदस्यों की नियुक्ति नहीं हो रही है? अब आप इस सवाल का जवाब भी पूछिए कि उत्तर प्रदेश में राजपाल जी या मुख्यमंत्री जी, जो भी जवाब देना चाहे, कि आप दस साल से उन चार सदस्यों की नियुक्ति नहीं कर पाए हैं, जो किसी की कृपा के मोहताज नहीं हैं। क्या ये किसी भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए किया जा रहा है? या अपनी इच्छाशक्ति को बनाए रखने के लिए किया जा रहा है? लखनऊ विश्वविद्यालय के कई प्रोफेसरों पर यह आरोप है कि बहुत से ऐसे प्रोफेसर थे जिनके पास न तो उचित डिग्री थी और न ही उचित योग्यता। लेकिन फिर भी वे प्रोफेसर बन गए। दिल्ली यूनिवर्सिटी में इसको लेकर आंदोलन होने वाला है सरकार ने पीएचडी की वेतनवृद्धि वापस ले ली है क्योंकि देश को पैसे की जरूरत है। इस साल के बजट में शिक्षा बजट में भी कटौती की गई है।

अब आपको तय करना है कि आप कलम और किताब को कितना महत्व देते हैं। शिक्षा बचेगी तो कलम और किताब भी बचेगी और तभी आपके बच्चों का भविष्य बचेगा। अगर शिक्षा को नष्ट किया जाता रहा तो एक अशिक्षित भीड़ बनेगी जिसका इस्तेमाल हथियार की तरह किया जाएगा और समाज में एक मृत नागरिक बनकर रह जाएगा

तेजपाल सिंह 'तेज'
तेजपाल सिंह 'तेज'
लेखक हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार तथा साहित्यकार सम्मान से सम्मानित हैं और 2009 में स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त हो स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

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