आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है, जिसकी उत्पत्ति विभिन्न सामाजिक समूहों के पुरुषों और उनकी महिलाओं के मध्य शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक के असमान बंटवारे से होती रही है। इसी आर्थिक और सामाजिक विषमता के गर्भ से किसी भी देश में सदियों से भूख-कुपोषण, आतंकवाद, विच्छिन्नतावाद और परस्पर संघर्ष की स्थिति पैदा होती रही है। वर्तमान में इस समस्या से भारत जैसा पीड़ित देश विश्व में शायद ही कोई और हो! किन्तु, भारत के राजनेताओं और बुद्धिजीवियों के लिए शायद यह कोई बड़ा मसला ही नहीं है, इसलिए हर ओर इस पर ख़ामोशी नजर आती है।
बहरहाल, इस समस्या पर अगर जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग अर्थात सवर्ण समुदायों के नेता और बुद्धिजीवी चुप्पी साधे रहते हैं तो इसलिए कि इसके जनक तथा इसका लाभान्वित वर्ग वे ही हैं। लेकिन ताज्जुब की बात तो यह है कि इससे सर्वाधिक आक्रांत बहुजन वर्ग के बुद्धिजीवी भी प्रायः निर्लिप्त रहते हैं। ताज्जुब इसलिए और होता क्योंकि खुद बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने 25 नवम्बर,1949 को सांसद के केन्द्रीय कक्ष से इसके निकटतम भविष्य के मध्य इसे ख़त्म करने का जोरदार आह्वान किया था. पर, यह ख़त्म होने के बजाय बढ़ते-बढ़ते आज चरम बिंदु पर पहुँच चुकी है। बहरहाल, भारत में भीषणतम रूप में फैली मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या के चौंकाने वाले दो पक्ष नजर आते हैं। इनमें सबसे बड़ा एक पक्ष यह है कि इससे लाभान्वित होने वाले देश की सकल जनसंख्या के 7.5 प्रतिशत सवर्ण हैं, जो शासकों द्वारा इस समस्या के खात्मे की दिशा में सम्यक प्रयास न किये जाने के कारण लगभग 80 से 85 प्रतिशत शक्ति के स्रोतों का भोग कर रहे हैं। इसका दूसरा और सबसे स्याह पक्ष यह है कि देश की आधी आबादी अर्थात महिलाएं इससे सर्वाधिक पीड़ित हैं। भारत की आधी आबादी इससे किस कदर पीड़ित है, इसका अनुमान पिछले वर्ष आईग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट से लगाया जा सकता है।
वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम (WEF) द्वारा अप्रैल 2021 में प्रकाशित ‘ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट- 202’ में भारत की स्थिति देखकर दुनिया स्तब्ध रह गयी थी। उस रिपोर्ट से पता चला था कि भारत लैंगिक समानता के मोर्चे पर बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार, भूटान इत्यादि अपने दुर्बल प्रतिवेशी देशों से भी ज्यादा पिछड़ गया है। 2006 से वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम द्वारा प्रकाशित की जा रही ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट में स्वास्थ्य, शिक्षा, अर्थव्यवस्था और राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं और पुरुषों के मध्य सापेक्ष अंतराल में हुई प्रगति का आकलन किया जाता है। यह आंकलन चार आयामों- पहला, अर्थव्यवस्था में महिलाओं की हिस्सेदारी और महिलाओं को मिलने वाले मौके; दूसरा, महिलाओं के स्वास्थ्य की स्थिति; तीसरा, महिलाओं की शिक्षा और चौथा, राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी- के आधार पर किया जाता है ताकि इस वार्षिक रिपोर्ट के आधार पर प्रत्येक देश स्त्री और पुरुषों के मध्य बढ़ती असमानता की खाई को पाटने का सम्यक कदम उठा सके।
2021 में जो रिपोर्ट आई, उसमे दक्षिण एशियाई देशों में भारत का प्रदर्शन सबसे खराब रहा। भारत रैंकिंग में 156 देशों में 140वें स्थान पर रहा, जबकि बांग्लादेश 65वें, नेपाल 106वें, पाकिस्तान 153वें, अफगानिस्तान 156वें, भूटान 130वें और श्रीलंका 116वें स्थान पर रहा। रिपोर्ट में नंबर एक पर आइसलैंड, दो पर फ़िनलैंड, तीसरे पर नार्वे, चौथे पर न्यूजीलैंड और पांचवें पर स्वीडेन रहा। इससे पहले 2020 में भारत 153 देशों में 112वें स्थान पर था, जो इस बात संकेतक है कि वर्तमान हिंदुत्ववादी सरकार में यह समस्या नयी- नयी ऊंचाई छूती जा रही है।
भारत के लगातार पिछड़ते जाने के कारणों पर प्रकाश डालते हुए ग्लोबल जेंडर गैप- 2021 की रिपोर्ट में कहा गया था, ‘इस साल भारत का जेंडर गैप 3% बढ़ा है।अधिकांश कमी राजनीतिक सशक्तीकरण उप-सूचकांक पर देखी गई है, जहां भारत को 5 प्रतिशत अंक का नुकसान हुआ हैं। 2019 में महिला मंत्रियों की संख्या 23.1% से घटकर 9.1% हो गई है। पेशेवर और तकनीकी भूमिकाओं में महिलाओं की हिस्सेदारी घटकर 2% रह गई। वरिष्ठ और प्रबंधकीय पदों पर भी महिलाओं की हिस्सेदारी कम है। इनमें से केवल 6% पद महिलाओं के पास हैं और केवल 8.9% फर्म महिला शीर्ष प्रबंधकों के पास हैं। भारत में महिलाओं द्वारा अर्जित आय पुरुषों द्वारा अर्जित की गई केवल 1/5वीं है। इसने भारत को वैश्विक स्तर पर बॉटम 10 में रखा है। महिलाओं के खिलाफ भेदभाव, स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत को निचले पांच देशों में स्थान दिया गया है।
आर्थिक असमानता के ख़त्म होने में लगेंगे 257 साल!
ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट- 2021 में एक बेहद चौंकाने वाला तथ्य भी आया है, जिसमें बतलाया गया है कि पूरे विश्व में लैंगिक समानता का लक्ष्य पाने में 135 वर्ष लग जायेंगे। इस सिलसिले में डब्ल्यूईएफ की ओर से कहा था, ‘पहले यह माना जा रहा था कि लिंग असमानता को खत्म होने में 108 साल लग जाएंगे। लेकिन जिस तरह विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, अब कहा जा रहा है कि भेदभाव खत्म होने में 99.5 साल लगेंगे। हालांकि देश में शिक्षा, स्वास्थ्य, काम और राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं और पुरुषों में अभी भी असमानता है। हालांकि, 2018 में स्थिति थोड़ी बेहतर हुई थी।’ डब्ल्यूईएफ ने कहा था,’ राजनीति में महिलाओं की स्थिति में काफी सुधार देखा जा सकता है। राजनीतिक असमानता को खत्म होने में करीब 95 साल लगेंगे। पिछले साल कहा जा रहा था कि इसमें 107 साल लग सकता है। दुनिया भर में महिलाओं का लोअर-हाउस (नीचले सदन) में 25.2% और मंत्री पदों पर 21.2% हिस्सेदारी है। जबकि पिछले साल यह 24.1% और 19% थी। हालांकि, आर्थिक असमानता में अभी भी काफी खाई है।
पिछले साल की 202 साल की अपेक्षा अब आर्थिक असमानता खत्म होने में 257 साल लगेंगे।’ रिपोर्ट के मुताबिक, इसमें सबसे बड़ी चुनौती है क्लाउड कंप्यूटिंग, इंजीनियरिंग, डेटा और एआई जैसे क्षेत्रों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का कम होना। डब्ल्यूईएफ ने 2006 में जेंडर गैप को लेकर जब पहली बार रिपोर्ट पेश की थी, उस समय भारत 98वें स्थान पर था। तब से भारत पिछड़ते जा रहा है। चार मानकों में तीन पर भारत पिछड़ गया है। भारत राजनीतिक सशक्तीकरण में 18वें स्थान पर है। जबकि स्वास्थ्य के मामले में 150वें, आर्थिक भागीदारी और अवसर के मामले में 149वें और शिक्षा पाने के मामले में 112वें स्थान पर है। वर्ष 2021 में डब्ल्यूईएफ ने कहा था कि भारत में महिलाओं के लिए आर्थिक अवसर (35.4%) बेहद सीमित हैं। यह पाकिस्तान में 32.7%, यमन में 27.3%, सीरिया में 24.9% और इराक में 22.7% है कंपनियों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व वाले देशों में भी भारत (13.8%) काफी पीछे है। चीन (9.7%) में स्थिति बदतर है।
भारतीय महिलाओं की आर्थिक असमानता ख़त्म होने में लगेंगे 300 साल से अधिक!
पिछले साल की वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम की ओर से जो ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट प्रकाशित हुई, उसमें सबसे चौंकाने वाली जो बात कही गयी थी वह यह थी कि अब आर्थिक असमानता खत्म होने में 257 साल लगेंगे। बहरहाल, यह कयास उन देशों की महिलाओं को ध्यान में रखकर लगाया गया था, जो लैंगिक समानता के मामले में भारत से काफी आगे हैं। ऐसे में अगर विश्व के दूसरे देशों में महिलाओं की आर्थिक असमानता ख़त्म होने में 257 वर्ष लगेंगे तो भारत जैसे अनग्रसर देश को, जो लैंगिक समानता के मोर्चे पर म्यांमार, भूटान, नेपाल, बांग्लादेश इत्यादि जैसे आर्थिक रूप से कमजोर देशों से भी पीछे है, शर्तिया तौर पर 300 साल से भी ज्यादा लग जायेंगे, यह मानकर चलना चाहिए। वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम के इस घोषणा के आईने कि हमारी महिलाओं को आर्थिक समानता अर्जित करने में 300 साल से अधिक लग जायेंगे: मोदी सरकार के साथ, महिला अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले संगठनों, तमाम राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों की नींद हराम हो जानी चाहिए थी। क्योंकि, इस घोषणा ने साबित कर दिया था कि भारतीय महिलाओं की आर्थिक असमानता देश ही नहीं संभवतः दुनिया की भी सबसे बड़ी समस्या है, जिसके सामने बाकी समस्याएं बहुत छोटी हैं। लेकिन इसे लेकर देश में कोई हलचल नहीं हुई। यहाँ तक कि पिछले दिनों पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में किसी दल ने भूले से भी इसकी ओर संकेत नहीं किया और आज भी इसे लेकर चारों ओर ख़ामोशी है!
आर्थिक असमानता का सर्वाधिक शिकार अतिदलित, जबकि न्यूनतम शिकार सवर्ण समाज की महिलाएं!
बहरहाल, अगर विश्व में सर्वाधिक आर्थिक विषमता की शिकार भारत की आधी आबादी है तो यहाँ इससे सर्वाधिक पीड़ित जहां अति दलित- आदिवासी समुदाय की महिलाएं हैं तो अग्रसर सवर्ण समाज की महिलाएं सबसे कम! क्योंकि सवर्ण समुदाय सबसे समृद्ध समाज है जिसका शक्ति के स्रोतों पर 80 से 85 प्रतिशत कब्ज़ा है, जिसका कुछ लाभ उस समाज की महिलाओं को मिलना तय है। अगर सबसे समृद्ध सवर्ण है तो सबसे दरिद्र दलित और आदिवासी समाज है, जिस कारण इन समुदायों की महिलाएं आर्थिक असमानता का सर्वाधिक शिकार हैं। दलित- आदिवासी अधिकारों के लिए कार्यरत संस्था नैक्डोर के एक अध्ययन के मुताबिक, भारत के उच्च पितृसत्तात्मक और जाति आधारित समाज में दलित / अनुसूचित जाति (एससी) महिलाएँ, जाति, वर्ग और लिंग का तिगुना भार वहन करती हैं। भारतीय समाज के सबसे निचले सामाजिक क्रम पर तैनात होने के कारण, अनुसूचित जाति की महिलाएं शिक्षा के अभाव, आर्थिक नुकसान, सामाजिक अधिकार-सशक्तीकरण, घरेलू हिंसा, राजनीतिक अदर्शन और यौन उत्पीड़न सहित कई तरह के भेदभाव झेलती हैं।
भारत में दलित महिलाओं की आबादी 9.79 करोड़ है जो भारत की कुल दलित आबादी का 48.59% है। भारत में कुल महिला आबादी 58.7 करोड़ है जिसमें 16.68% दलित महिला आबादी है। इनमें से 7.4 करोड़ महिलायें ग्रामीण और 2.3करोड़ महिलाएँ शहरी क्षेत्र में वास करतीं हैं। सामान्य महिलाओं की तुलना में दलित महिलाओं के लिंग अनुपात में सुधार हुआ है। राष्ट्रीय जनगणना के अनुसार, दलित पुरुषों की तुलना में दलित महिलाओं का लिंग अनुपात 1000 पुरुषों के मुकाबले 945 है।
आदिवासी या आदिवासी महिलाएँ भारतीय समाज में आबादी के सबसे शोषित और वंचित वर्गों में से एक हैं। ये सबसे अधिक हाशिए पर हैं और इन्हें अत्यधिक भयावह अत्याचार का सामना करना पड़ता हैं। उन्हें अक्सर आदिम और असभ्य माना जाता है। प्राकृतिक आवास, जंगल के साथ आजीविका और पारंपरिक बंधन और रीति-रिवाजों के प्रमुख स्रोत के रूप में निकटता के कारण, उन्हें कभी-कभी अन्य मनुष्यों के साथ भी नहीं माना जाता है और उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता है। उन्हें क्रमशः जाति-आधारित भेदभाव और सभ्यतागत अधीनता के आधार पर व्यवस्थित मानव अधिकारों के उल्लंघन के अधीन किया जाता है। भारत में 2011 के जनगणना के अनुसार अनुसूचित जनजाति की महिलाओं की जनसंख्या, राष्ट्रीय जनगणना में 5.18 करोड़ है जो कि भारत की कुल आदिवासी आबादी का 49.74% है। 2011 की राष्ट्रीय जनगणना के अनुसार, भारत में कुल महिला जनसंख्या 58।7 करोड़ है, जिसमें 8.83% आदिवासी महिलायें हैं। इनमें से 4.6 करोड़ ग्रामीण और लगभग 52 लाख महिलाएँ शहरों में वास करती हैं। सामान्य महिलाओं की तुलना में आदिवासी महिलाओं का लिंग अनुपात में सुधार हुआ है। राष्ट्रीय जनगणना के अनुसार आदिवासी पुरुषों की तुलना में आदिवासी महिलाओं का लिंग अनुपात 1000 पुरुषों के मुकाबले 990 है।
इसमें मगजपच्ची की जरुरत नहीं कि भारत में आर्थिक और सामाजिक असमानता का सर्वाधिक शिकार महिलाएँ हैं और महिलाओं में भी सर्वाधिक शिकार क्रमशः दलित और आदिवासी महिलाएँ! यदि सवर्ण समुदाय की महिलाओं को आर्थिक समानता अर्जित करने में 300 साल लग सकते हैं तो दलित-आदिवासी महिलाओं को 350 साल से अधिक लग सकते हैं। बहरहाल, भारतीय महिलाओं को 300 वर्षो के बजाय आगामी कुछेक दशकों में आर्थिक समानता दिलाना है तो इसके लिए अबतक आजमाए गए उपायों से कुछ अलग करना होगा। इस मामले में मेरे पास एक नया विचार है। इसके लिए हमें अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में दो उपाय करने होंगे। सबसे पहले यह करना होगा कि अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में सवर्णों को उनकी संख्यानुपात में लाना होगा ताकि उनके हिस्से का औसतन 70 प्रतिशत अतिरक्त (सरप्लस ) अवसर वंचित वर्गो, विशेषकर आधी आबादी में बंटने का मार्ग प्रशस्त हो। दूसरा उपाय यह करना होगा कि अवसर और संसाधन प्राथमिकता के साथ आधी आबादी के हिस्से में जाय। चूंकि अति दलित महिलाएँ असमानता का सर्वाधिक और अग्रसर सवर्ण महिलाएँ न्यूनतम शिकार हैं, इसलिए ऐसा करना होगा कि सवर्णों का छोड़ा 70 प्रतिशत अतिरिक्त अवसर सबसे पहले अतिदलित महिलाओं को मिले। इसके लिए अवसरों के बंटवारे के पारंपरिक तरीके से निजात पाना होगा। पारंपरिक तरीका यह है कि अवसर पहले जनरल अर्थात सवर्णों के मध्य बंटते हैं, उसके बाद बचा हिस्सा वंचित अर्थात आरक्षित वर्गो को मिलता है। यदि हमें 300 वर्षों के बजाय आगामी कुछ दशकों में लैंगिक समानता अर्जित करनी है तो अवसरों और संसाधनों के बंटवारे केरिवर्स पद्धति का अवलंबन करना होगा।
हमें भारत के विविधतामय प्रमुख सामाजिक समूहों- दलित, आदिवासी, पिछड़े, धार्मिक अल्पसंख्यकों और जनरल अर्थात सवर्ण को दो श्रेणियों- अग्रसर अर्थात अगड़े और अनग्रसर अर्थात पिछड़ों में विभाजित कर, सभी सामाजिक समूहों की अनग्रसर महिलाओं को प्राथमिकता के साथ 50 प्रतिशत हिस्सेदारी देने का प्रावधान करना होगा। इसके तहत संख्यानुपात में क्रमशः अति दलित और दलित; अनग्रसर आदिवासी और अग्रसर आदिवासी; अतिपिछड़े और पिछड़े; अनग्रसर और अग्रसर अल्पसंख्यकों तथा अनग्रसर और अग्रसर सवर्ण महिलाओं को संख्यानुपात में अवसर सुलभ कराने का अभियान युद्ध स्तर पर छेड़ना होगा। इस सिलसिले में निम्न क्षेत्रों में क्रमशः दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक और सवर्ण समुदायों की अनग्रसर अर्थात पिछड़ी महिला आबादी को प्राथमिकता के साथ 50 प्रतिशत हिस्सेदारी सुलभ कराना सर्वोत्तम उपाय साबित हो सकता है-
- सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की, सभी प्रकार की नौकरियों व धार्मिक प्रतिष्ठानों
- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जानेवाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप
- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जानेवाली सभी वस्तुओं की खरीदारी
- 4-सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों, पार्किंग, परिवहन
- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जानेवाले छोटे-बड़े स्कूलों, विश्वविद्यालयों,तकनीकि-व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं के संचालन, प्रवेश व अध्यापन
- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों,उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जानेवाली धनराशि
- देश-विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) को दी जानेवाली धनराशि
- प्रिंट व् इलेक्ट्रोनिक मिडिया एवं फिल्म-टीवी के सभी प्रभागों
- रेल-राष्ट्रीय मार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की खली पड़ी जमीन व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए अस्पृश्य-आदिवासियों में वितरित हो एवं
- ग्राम-पंचायत, शहरी निकाय, संसद-विधासभा की सीटों; राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट; विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों; विधान परिषद-राज्यसभा; राष्ट्रपति, राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि।
यदि हम उपरोक्त क्षेत्रों में क्रमशः अनग्रसर दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक और सवर्ण समुदायों की महिलाओं को इन समूहों के हिस्से का 50 प्रतिशत भाग सुनिश्चित कराने में सफल हो जाते हैं तो भारत 300 वर्षों के बजाय 30 वर्षों में लैंगिक समानता अर्जित कर विश्व के लिए एक मिसाल बन जायेगा। तब मुमकिन है हम लैंगिक समानता के मोर्चे पर आइसलैंड, फ़िनलैंड, नार्वे, न्यूलैंड, स्वीडेन इत्यादि को भी पीछे छोड़ दें। यही नहीं उपरोक्त क्षेत्रों के बंटवारे में सर्वाधिक अनग्रसर समुदायों के महिलाओं को प्राथमिकता के साथ 50 प्रतिशत हिस्सेदारी देकर लैंगिक असमानता के साथ भारत से मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या के खात्मे में तो सफल हो ही सकते हैं, इसके साथ ही भारत में भ्रष्टाचार को न्यूनतम बिन्दू पर पहुँचाने, लोकतंत्र के सुदृढ़ीकारण, नक्सल/ माओवाद के खात्मे, अस्पृश्यों को हिन्दुओं के अत्याचार से बचाने, आरक्षण से उपजते गृह-युद्ध को टालने, सच्चर रिपोर्ट में उभरी मुस्लिम समुदाय की बदहाली को खुशहाली में बदलने, ब्राह्मणशाही के खात्मे और सर्वोपरि विविधता में एकता को सार्थकता प्रदान करने जैसे कई अन्य मोर्चों पर भी फतेह्याबी हासिल कर सकते हैं।