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‘मोट्यारिन’ के शब्द, डायरी (26 मई, 2022) 

 शब्द मुझे बेहद प्यारे लगते हैं। इसलिए प्रयास करता हूं कि हर दिन कम से कम एक शब्द अपने शब्दकोश में अवश्य जोड़ूं। फिर शब्द किसी भी भाषा व बोली की ही क्यों ना हो। कल जो शब्द मिला है, वह हिंदी का शब्द नहीं है। वह गाेंडी भाषा का शब्द है और इसका श्रेय […]

 शब्द मुझे बेहद प्यारे लगते हैं। इसलिए प्रयास करता हूं कि हर दिन कम से कम एक शब्द अपने शब्दकोश में अवश्य जोड़ूं। फिर शब्द किसी भी भाषा व बोली की ही क्यों ना हो। कल जो शब्द मिला है, वह हिंदी का शब्द नहीं है। वह गाेंडी भाषा का शब्द है और इसका श्रेय जाता है इस भाषा की शानदार अध्येता उषाकिरण आत्राम को, जिन्होंने अपनी कविता संकलन मोट्यारिन का नया संस्करण मुझे तोहफे में दिया है। यह संस्करण बेहद खास है। खास इसलिए कि उषाकिरण आत्राम ने अपनी कविताओं को गोंडी भाषा में रचीं और यह संस्करण उन कविताओं को हिंदी और अंग्रेजी में प्रस्तुत करता है। इसका अनुवाद संतोष कुमार सोनकर ने किया है। वे इंदिरा गांधी नेशनल ट्राइबल यूनिवर्सिटी, अमरकंटक, मध्य प्रदेश के अंग्रेजी व विदेशी भाषा संकाय के सहायक प्रोफेसर हैं।
तो पहले वह शब्द, जिसने मुझे आज और समृद्ध किया है। यह शब्द है इस संकलन का शीर्षक– मोट्यारिन। इसके पहले कि मैं कुछ और दर्ज करूं, मैं इस कविता को इस आलोचना के साथ दर्ज कर रहा हूं कि हिंदी अनुवाद में अनेक त्रुटियां हैं। (और सराहना भी कि संतोष कुमार सोनकर ने भरपूर कोशिश् की है कि गोंडी भाषा में रची गयीं कविताओं को गैर-गोंड समुदायों तक पहुंचायी जाय।)

गोंडी भाषा से अंग्रेजी में अनुवादित कविता संग्रह मोटियारिन

[bs-quote quote=”संतोष कुमार सोनकर ने मोट्यारिन का अर्थ बताया है। इसके मुताबिक यह शब्द गोटुल (कहीं कहीं घाेटुल भी पढ़ा है) परंपरा से जुड़ा है। यह एक सामुदायिक संस्थान के जैसा है, जहां गोंड समुदाय के युवक-युवतियों को सामुदायिक रीति-रिवाजों, शिक्षाओं के बारे में बताया जाता है। यह एक ऐसा संस्थान है जहां युवक-युवती अपनी पसंद के आधार पर एक-दूसरे के साथ रहते हैं और बाद में सहमति होने पर वैवाहिक संबंध भी बनाते हैं। तो मोट्यारिन गोटुल की वह नायिका होती है, जो युवतियों को शिक्षा देती है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

कविता है–

सखी! मुझे यह बता
कब तक ऐसे शरमाते रहेंगे हम?
चौराहे के रास्तों पर बैठे हैं छिपकर
चोरों की तरह, शस्त्र लिए मक्तेदार।
छीन लेंगे शस्त्र उन्हीं के हाथ से।
बता मुझे! जलता सूरज किसी के लिए रूकता है क्या?
पूरब से पश्चित जाते समय रोता है क्या?
फिर हम क्यों रोएंगे?
हम क्यों रूकेंगे?
क्यों हम डरेंगे?
जलाएंगे मशाल हम चौराहे के हर रास्तों पर
डालेंगे जलता अंजन उनकी आंखों में।
ले चलूंगी सब सखियों को मोर्चे में मैं,
बांध दूंगी सूरज पल्लू में सबके।
सखियों! सहेलियों! हो जाओ सावधान मेरी बेटियों!
मैं हूं मोट्यारिन तुम्हारी!
फेंक दो फटे-चिथड़े वस्त्र अपने तन से,
तोड़ दो मणि की माला अपने गले से
हो जाओ मुक्त इस बंधन से।
निकाल दो नजरों का डर,
डरो मत, उठा लो जलती मशाल,
मैं चल रही आगे-आगे, आओ तुम सब मेरे पीछे।

[bs-quote quote=”यह कविता हिंसा के बजाय अहिंसा को महत्व देती है। इसलिए वह हथियारों को छीन लेने की बात कहती हैं। वह कहती हैं कि जो मक्तेदार हैं, अतिक्रमणकारी हैं, उनके हाथ से हथियार छीन लेंगे। लेकिन वह उनका हथियार उनके उपर चलाने का आह्वान नहीं करती हैं। इसके बदले वह कहती हैं कि वह सूरज अपने गोटुल की युवतियों के पल्लू में बांध देंगी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

संतोष कुमार सोनकर ने मोट्यारिन का अर्थ बताया है। इसके मुताबिक यह शब्द गोटुल (कहीं कहीं घाेटुल भी पढ़ा है) परंपरा से जुड़ा है। यह एक सामुदायिक संस्थान के जैसा है, जहां गोंड समुदाय के युवक-युवतियों को सामुदायिक रीति-रिवाजों, शिक्षाओं के बारे में बताया जाता है। यह एक ऐसा संस्थान है जहां युवक-युवती अपनी पसंद के आधार पर एक-दूसरे के साथ रहते हैं और बाद में सहमति होने पर वैवाहिक संबंध भी बनाते हैं। तो मोट्यारिन गोटुल की वह नायिका होती है, जो युवतियों को शिक्षा देती है।

गोंडी भाषा की कवयित्री उषाकिरण आत्राम

अब इस आधार पर उपरोक्त कविता को आसानी से समझा जा सकता है कि मोट्यारिन अपने गोटुल में रहनेवाली युवतियों को बाहरी समुदायों के बारे में समझा रही है कि किस तरह वे जल-जंगल-जमीन के अलावा आदिवासी संस्कृति और अस्मिता के लिए खतरा हैं तथा उनकी नजर किस तरह बुरी है। लेकिन पूरी कविता एक आह्वान है, जिसमें डरने के बजाय लड़ने के लिए कहा जा रहा है।
कविता की सबसे खास बात है इसमें इस्तेमाल किये गये बिंब। मसलन जलता अंजन डालने का बिंब। अंजन का मतलब काजल है। निश्चित तौर पर उषाकिरण आत्राम इस बिंब के माध्यम से कहना चाह रही हैं कि जो गोंड परंपरा से नावाकिफ हैं और अतिक्रमणकारी हैं, उनकी आंखों में ज्ञान का काजल डाला जाय ताकि वे समझ सकें। हालांकि यह कविता हिंसा के बजाय अहिंसा को महत्व देती है। इसलिए वह हथियारों को छीन लेने की बात कहती हैं। वह कहती हैं कि जो मक्तेदार हैं, अतिक्रमणकारी हैं, उनके हाथ से हथियार छीन लेंगे। लेकिन वह उनका हथियार उनके उपर चलाने का आह्वान नहीं करती हैं। इसके बदले वह कहती हैं कि वह सूरज अपने गोटुल की युवतियों के पल्लू में बांध देंगी।
अहा! कितना खूबसूरत है यह।
जलाएंगे मशाल हम चौराहे के हर रास्तों पर
डालेंगे जलता अंजन उनकी आंखों में।
ले चलूंगी सब सखियों को मोर्चे में मैं,
बांध दूंगी सूरज पल्लू में सबके।
सृजनकर्ता उषाकिरण आत्राम और अनुवादक संतोष कुमार सोनकर को खूब सारी भीमकामनाएं।

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

 

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