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काशी में चिता की राख से ज़िंदगी का राग ढूँढने वाला समुदाय

वाराणसी। जिले के मणिकर्णिका घाट पर कुछ दूर चलने के बाद शवदाह स्थल के पास पहुंचकर मैं रुक गया। वहाँ पर मैंने चार-पाँच की संख्या में लोगों को देखा, जो गंगा के पानी में शवों के जलने से बनी राख से कुछ निकाल रहे थे। मेरे वहाँ पहुंचते ही वे लोग हकबका से गए, जैसे […]

वाराणसी। जिले के मणिकर्णिका घाट पर कुछ दूर चलने के बाद शवदाह स्थल के पास पहुंचकर मैं रुक गया। वहाँ पर मैंने चार-पाँच की संख्या में लोगों को देखा, जो गंगा के पानी में शवों के जलने से बनी राख से कुछ निकाल रहे थे। मेरे वहाँ पहुंचते ही वे लोग हकबका से गए, जैसे वे कोई चोरी का कम कर रहें हों और मैंने उन्हें पकड़ लिया हो। उन्हें सामान्य होने में समय लगा और तब तक मैं उनके काम को निहारता रहा। बातचीत की शुरुआत मैंने ही की।

आप लोग क्या कर रहे हैं? कुछ सिक्के ढूंढ रहे हैं क्या? उनमें से एक युवक ने जवाब दिया– ‘हाँ भैया, सिक्के के साथ कुछ और भी ढूंढ रहा हूँ।’ और क्या ढूंढ रहे हो भाई? सुनील नाम के व्यक्ति ने जवाब दिया- ‘इस राख में हम लोग सोना, चाँदी, लोहे की कील, ताबा, सोने चाँदी से बनी वस्तुएँ ढूंढ रहे हैं, जिससे हम लोगों की रोजी-रोटी चलती है।

सुनील

‘महीने में कितनी कमाई हो जाती है?’ सवाल के जवाब में सुनील कहते हैं, ‘यह तो हम लोगों के भाग्य पर निर्भर करता है। कभी-कभी किसी अच्छे घराने की लाश आ जाती है तो नथिया, बाली, सोने की चेन, अंगूठी, मांग टीका मिल जाता है। जिस दिन इनमें से एक भी मिल जाता है, उस दिन हमारे घर में खास पकवान बनता है। इस दिन घर परिवार में बड़ी खुशी का माहौल रहता है। रही बात हमारी महीने की कमाई की तो वह 10 से 15 हजार के बीच हो जाती है। पहले यह कमाई और हुआ करती थी, क्योंकि पहले के लोग पढ़े-लिखे नहीं थे। पुरानी रीति-रिवाज और परम्पराओं में आस्था एवं विश्वास रखते थे। इससे इतर देखा जाय तो आज के लोग ज्यादा पढ़े-लिखे और चीजों को समझ रहे हैं। पहले के लोग भावुक स्वभाव के होते थे। आज लोग ज्यादा चालाक हो गए हैं। आज आप किसी को इमोशनल ब्लैकमेल नहीं कर सकते। कभी-कभी ऐसा भी दिन आता है कि पूरे दिन हमें कुछ भी नसीब नहीं होता और उस दिन घर में चूल्हा जलना भी मुश्किल हो जाता है।’

[bs-quote quote=”दलित समुदाय से आनेवाले ये लोग अपने जटिल जीवन के साथ न जाने कितने सवाल लपेटे जी रहे हैं। जिस बनारस में घाट-घाट धार्मिक पाखंड और जाति-व्यवस्था का सख्ती से पालन दिखता हो और घाट-बाट के बाभन को भी नीची नज़र से देखने का चलन हो, वहाँ चिता की राख में मुर्दे का गहना ढूंढने वाले समुदाय को लोग क्या सम्मान देते होंगे, यह गौर करने की बात है। शायद सामाजिक घृणा की इसी यातना से मुक्ति के लिए इन समुदायों ने अपने लिए कुछ पवित्र मिथक गढ़ लिया है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

सुनील आगे बताते हैं कि ‘घाट पर ही उन्हें साफ-सफाई का भी जिम्मा मिला हुआ है। प्रतिदिन डेढ़-सौ रुपये के हिसाब से महीने में साढ़े चार हजार रुपया मिल जाता है, लेकिन यह आमदनी ऊंट के मुँह में जीरा… साबित होती है। क्योंकि घर-परिवार में इतने लोग हैं कि कोई न कोई बीमार है तो उसका इलाज करवाओ। खाना-पीना के अलावा बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, सब इसी पैसे से देखना पड़ता है।

सुनील बताते हैं कि ‘कभी-कभी तो जी में आता है कि इस जलालत भरी जिंदगी को छोड़ दूं। क्या फायदा जब आम जन के सामने सिर उठाकर ठीक से कह नहीं सकता कि मैं कौन-सा काम  करता हूँ। लेकिन दिक्कत यह है कि उम्र के इस पड़ाव पर अब दूसरा कौन-सा नया कम शुरू करूँ? जो भी नया काम शुरू करूंगा, पहले उसे सीखने और समझने में ही काफी वक्त निकाल जाएगा। ऐसे में मन को मारकर फिर इसी काम  में लग जाता हूँ।’

‘क्या आप अपने बच्चों से भी आगे इस काम को करवाते रहेंगे?’ सवाल के जवाब में सुनील कहते हैं- ‘मैं कभी भी अपने बच्चों से इस कम को नहीं करवाऊँगा, क्योंकि मैं खुद इस काम को करके संतुष्ट नहीं हूँ। मैं चाहता हूँ कि मेरे बच्चे पढ़-लिखकर कोई सरकारी नौकरी करें और यदि उसे सरकारी नौकरी न मिले तो वह अपना खुद का कोई दूसरा काम धाम शुरू करें, लेकिन इस काम को न करें।’

एक तरफ जहां मणिकर्णिका घाट पर लाशों की राखों के ढेर से सुनील जैसे लोग अपनी आजीविका का निर्वाह कर रहे हैं, तो वहीं, दूसरी तरफ हरिश्चंद्र घाट पर भी कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिला। हरिश्चंद्र घाट पर भी पाँच से सात की संख्या में लोग गंगा के जल में राख को छानकर सोना, चाँदी और तांबे की खोज कर रहे थे। इस दौरान जब मैं उनके करीब जाकर उनकी गतिविधियों को देख रहा था तो उनकी नजरें बार-बार झुकी-झुकी नजर आती। उन्हें देखकर ऐसा महसूस हो रहा था, जैसे वे कोई गलत काम कर रहे हों। और अंत में जब बातचीत करने का प्रयास किया गया तो उन लोगों ने मना कर दिया।

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इन लोगों ने बात करने से मना क्यों कर दिया? इस बात की गुत्थी सुलझाई घाट के पास रहने वाले हीरा ने। हीरा ने बताया कि ‘एक तो ये लोग शव से कमाई करके खाते हैं, जिसकी आत्मग्लानि इन्हें स्वयं रहती है। दूसरी बात यह कि इनकी जो भी कमाई है, कहीं वह मीडिया के माध्यम से सरकार के पास चली गई तो इन लोगों कि रोज़ी-रोटी का क्या होगा? कैसे चलाएँगे ये लोग अपना घर-परिवार? एक तो सरकार की नजर ऐसी है कि वह सभी की जेब ढीली करने पर तुली हुई है। ऊपर से ये लोग एक और आफत मोल लेकर अपनी जिंदगी कि बची-खुची खुशियों में आग नहीं लगाना चाहते। पहले कमाई ज्यादा हो जाया करती थी, लेकिन अब पहले की तरह कमाई नहीं हो पा रही है।’

सुनील यह बताते हैं कि ‘हमलोग शायद अपनी पीढ़ी के आखिरी लोग हैं, जो यह काम कर रहे हैं। मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र जैसे घाटों पर शायद बीस-पचीस की संख्या में ऐसे लोग हैं, जो घाटों की सफाई के साथ-साथ शवदाह से निकली राख से सोने, चाँदी और तांबे के आभूषणों को खोजकर अपनी आजीविका चला रहे हैं, उनकी इस दयनीय स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है?’ आसपास के कुछ लोग कहते हैं कि ये लोग पता नहीं कब से इस काम को कर रहे हैं, लेकिन बदलते समय ने इन्हें भी उस आत्म-सम्मान का अहसास कराया है कि यह घटिया काम है। स्वयं सुनील बार-बार यह कहते हैं कि ‘अब इस उम्र में कौन-सा दूसरा काम पकड़ेंगे? बल्कि अब तो इसी की आदत पड़ गई है। हालांकि, अब बच्चे दूसरे कामों में लग रहे हैं। हम भी बिलकुल नहीं चाहते कि हमारे बच्चे इस काम में लगे।

दलित समुदाय से आनेवाले ये लोग अपने जटिल जीवन के साथ न जाने कितने सवाल लपेटे जी रहे हैं। जिस बनारस में घाट-घाट धार्मिक पाखंड और जाति-व्यवस्था का सख्ती से पालन दिखता हो और घाट-बाट के बाभन को भी नीची नज़र से देखने का चलन हो, वहाँ चिता की राख में मुर्दे का गहना ढूंढने वाले समुदाय को लोग क्या सम्मान देते होंगे, यह गौर करने की बात है। शायद सामाजिक घृणा की इसी यातना से मुक्ति के लिए इन समुदायों ने अपने लिए कुछ पवित्र मिथक गढ़ लिया है। मसलन मणिकर्णिका घाट पर लाश जलाने वाले एक व्यक्ति से जब मैंने पूछा कि क्या आपको इस काम से किसी किस्म की ग्लानि नहीं होती है? तब उसने तुरंत कहा कि ‘ग्लानि क्यों? आप नहीं जानते कि हम लोग कौन हैं! राजा हरिश्चंद्र भी हमारे पूर्वजों की चाकरी कर चुके हैं। जब राजा हरिश्चंद्र का विमान स्वर्ग जाने लगा था, तब हमारे पूर्वज कालू डोम ने विमान का लटकता रस्सा पकड़ा और स्वर्ग गए थे।’

हरिश्चंद्र घाट का दृश्य

चिता की राख़ मिलते ही कई लोगों का समूह उसमें से कोई न कोई चीज पाने के लिए लग जाता है और इस प्रक्रिया में उनकी आँखों और सांस में भी वह भर जाती है और फेफड़ों में जमती है, जिससे आगे चलकर कई बीमारियाँ स्वाभाविक हैं। सुनील और उनके जैसे दूसरे लोगों को इस समस्या से निजात पाने के लिए शराब का सहारा लेना पड़ता है। कई बार घाटों पर दस-बीस रुपये के परिश्रमिक के लिए रिरियाना पड़ता है और अक्सर पैसे को लेकर गाली-गलौज और सिर फुटौवल भी होती है।

मुझे मशहूर मराठी उपन्यासकार बाबा भांड के उपन्यास दशक्रिया के एक तरुण पात्र की याद आती है, ‘जो दलित है और उसका सपना है कि उसके पास एक छलनी हो जाय तो वह चिता की राख छानकर काफी पैसा बना सकता है।’ हालांकि यह उपन्यास कई दशक पहले छपा था और तब से अब तक कई पीढ़ियाँ बदल चुकी हैं लेकिन बनारस में सुनील जैसे लोगों को देखकर लगता है कि इस पाँच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था के दावे वाले समय में उनके और उनके समुदाय के लिए आखिर कोई सम्मानित आजीविका क्यों नहीं मिल पा रही है?

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