पुण्यतिथि पर विशेष
आज संजीव कुमार की 37वीं पुण्यतिथि है लेकिन शायद ‘कलाप्रेमियों’ और ‘कलाकारों’ को छोड़ किसी को उनको याद करने की शायद ही फुर्सत हो। बम्बई के सिनेमा लोक में अक्सर यह कहा जाता है कि दिलीप कुमार कला के सर्वोच्च शिखर थे क्योंकि उनकी हर एक अदा में एक कला थी। सिनेमा की कलात्मकता उनसे शुरू होती है और उन्ही पर ख़त्म होती है। लोग दिलीप कुमार और राज कपूर की तुलना करते हैं और फिर आज के दौर में अमिताभ बच्चन के साथ उनकी तुलना करते हैं। लेकिन बम्बई के सिनेमा में दो बेहद ही सधे हुए या सिद्धहस्त अभिनेता हुए हैं जो परदे पर कभी भी ‘एक्टिंग’ करते नहीं दिखे। ऐसा लगता था कि वे जो भी कर रहे थे वह ‘प्राकृतिक’ था या अंग्रेजी में जिसे नैचुरल कहा जाता है। एक थे अशोक कुमार, जिन्हें दिलीप कुमार स्वयं का आदर्श मानते थे और दूसरे थे संजीव कुमार, जो दिलीप साहेब से बहुत जूनियर थे लेकिन जिनका लोहा उन्हें मानना पड़ा। मैं यह महसूस करता हूँ कि आलोचकों और समीक्षकों ने संजीव कुमार यानी हरी भाई जरीवाला के साथ बहुत अन्याय किया है। वह सिनेमा में न केवल आर्ट पक्ष को मजबूती से रखते थे अपितु कमर्शियल सिनेमा के भी एक बेहद सफल स्टार थे। यह अक्सर हुआ के उनके समक्ष बड़े-बड़े अभिनेता असहज नजर आये और शायद उनका रोल कटवा दिया जाता था। तब भी संजीव कुमार ने हर रोल में जान डाली और उसे बहुत जीवन्तता के साथ निभाया। दिलीप कुमार की एक्टिंग दिखती थी लेकिन संजीव कुमार को रोल में ढलने के लिए कुछ ‘करना’ नहीं पड़ता था।
9 जुलाई 1938 को सूरत के एक गुजराती परिवार में जन्मे संजीव कुमार को दस्तक (1970) और कोशिश (1972) में उनकी बेहतरीन अदायगी के लिए राष्ट्रीय पुरुस्कार मिले। अपने एक्टिंग कैरियर की शुरुआत उन्होंने थिएटर से की थी और वह इंडियन पीपल्स थिएटर असोसिएशन यानी इप्टा से जुड़े जहाँ ए के हंगल जैसे कलाकार पहले से ही जुड़े थे।1960 में हम हिन्दुस्तानी से शुरू हुआ उनका सफ़र1965 में निशान में उन्हें बड़ा कलाकार साबित कर चुका था और जल्दी ही 1968 में उन्हें फिल्म संघर्ष में सिनेमा के सबसे बड़े कलाकार दिलीप कुमार के साथ काम करने का मौक़ा मिला। हालांकि फिल्म में संजीव कुमार नकारात्मक भूमिका में थे लेकिन हकीकत यह है कि दिलीप कुमार जैसे सधे हुए कलाकार से उन्होंने अपनी कलाकारी का लोहा मनवा लिया। संघर्ष के बाद से संजीव कुमार नोटिस कर लिए गए।
1970 में आई खिलौना ने उन्हें पुनः आम आदमी का हीरो बना दिया। 1970 का दशक संजीव कुमार की कला को देखने और समझने का भी है। कवि-कथाकार गुलजार को संजीव कुमार में अपना आम आदमी दिखाई दिया और फिर इन दोनों के बेहतरीन कॉम्बिनेशन ने सिनेमा को वह दिया जो शायद अप्रत्याशित और अकल्पनीय था। उस दौर की इन फिल्मों परिचय, कोशिश, आंधी और मौसम ने दरअसल देश की हवा बदल दी। इन फिल्मों को आज भी देखेँ तो पता चल जाएगा कि संजीव कुमार वास्तव में क्या थे और कैसे उन्होंने हर किस्म के रोल और सधी हुई अदायगी से ‘हीरो’ की परिभाषा बदल डाली। आंधी और मौसम ने देश के राजनैतिक माहौल में वह तूफ़ान खड़ा किया कि सत्ताधारियों को यह फिल्म उनके जीवन की ( निजी और सार्वजानिक दोनों) की कॉपी लगने लगी थी। दोनों ही फिल्मों के गीत आज भी उतने ही कर्णप्रिय और लोकप्रिय हैं जितने उस दौर में थे। 1975 की फिल्म मौसम में भूपिंदर सिंह का गाया गीत दिल ढूंढता है फिर वही , फुर्सत के रात दिन में संजीव कुमार-शर्मीला टैगोर के साथ आज भी उम्रदराज लोगों में रोमांस का रोमांच जगा देता है। फिल्म आंधी के गीतों ने तो तूफ़ान बरपा दिया था- तेरे बिना जिंदगी से जिंदगी से कोई, शिकवा तो नहीं’, इस मोड़ से जाते है, कुछ सुस्त कदम रस्ते, कुछ तेज कदम राहें, या तुम आ गए हो नूर आ गया है को देखकर कोई यह नहीं कह सकता कि रोमांस की कोई विशेष उम्र होती है। इनमें से किसी भी गीत में संजीव कुमार किसी टीन ऐज या युवा प्रेमी की भूमिका में नहीं थे लेकिन जिस खूबसूरती से उन्होंने इनको निभाया वह किसी भी कलाकार के लिए दोबारा कर पाना आसान नहीं होगा।
दरअसल संजीव कुमार इतने बड़े कलाकार थे कि स्टारडम उन्हें छू तक न सका। हिन्दुस्तानी सिनेमा में ऐसे लोगों की स्थिति मुश्किल होती है जहाँ एक्टर नहीं स्टारडम चलता हो। लेकिन उन्होंने जैसा भी रोल मिला वैसी भूमिका कर उसमें जान डाल दी। कोशिश जैसी फिल्म में संजीव कुमार और जया भादुड़ी ने जो भूमिकाएँ निभाई हैं वे कदापि भुलाई नहीं जा सकतीं। सार्थक सिनेमा देखने वालों को यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए। 1972 में आई इस फिल्म में संजीव कुमार और जया ने मूक बधिर की अपनी-अपनी भूमिका में इतना बेहतरीन अभिनय किया है कि आज के दौर में इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस फिल्म ने उनके लाजवाब अभिनय का लोहा देश में ही नहीं विदेशो में भी मनवा दिया।
संजीव कुमार की ख़ास बात यह थी कि वे किसी भी भूमिका में अपने को पूरी तरह से ढाल देते थे। उनके अभिनय की कोई सीमा नहीं थी। दस्तक, खिलौना, आंधी, मौसम, कोशिश , अनामिका , राजा और रंक आदि उनकी गंभीर भूमिकाओं वाली फिल्मे हैं तो अंगूर, नमकीन, मनचली, इतनी सी बात, श्रीमान श्रीमती, जिंदगी, ये है जिंदगी आदि फिल्में आपको बेहतरीन कॉमेडी भी दिखाती हैं। कभी भी ऐसा नहीं लगता कि वह ओवर एक्ट कर रहे हैं। कॉमेडी करने के लिए संजीव कुमार ने कभी भी फूहड़पन का सहारा नहीं लिया। मेरी भींगी भींगी सी पलकों में रह गए, जैसे मेरे सपने बिखरके; या ओ मनचली, कहाँ चली; अपने लिए जिए तो क्या जिए आदि उनपर फिल्माए गए बेहतरीन गाने हैं। ऐसा नहीं था कि संजीव कुमार के अपने दम पर फिल्में नहीं चलीं। वह दिखने में भी बेहद खूबसूरत थे और उनकी रोमांटिक फिल्मे भी बहुत चलीं। सीता और गीता में धर्मेंद्र और हेमामालिनी साथ उनकी उपस्थिति एक अलग ही अंदाज की है। हेमा के साथ रोमांटिक गाने ‘हवा के साथ साथ, घटा के संग संग..ओ साथी चल’ में आज भी वैसे ही रोमांच है जैसे उस समय रहा होगा।
उसके बाद फिल्म मनचली और आप की कसम ने संजीव कुमार के अभिनय को और पुख्ता किया। आप की कसम हालांकि राजेश खन्ना और मुमताज के मुख्य रोल वाली फिल्म थी इसके बावजूद संजीव कुमार ने लोगों के दिलो पर राज किया। दुखद बात यह है कि भारत के सभी सुपर स्टार्स को संजीव कुमार से अंदरूनी तौर पर बेहद ‘तकलीफ’ थी क्योंकि रोल कैसा भी हो संजीव कुमार अपनी अदा से लोगों का ध्यान अपनी और आकर्षित कर लेते थे। बताया जाता है कि फिल्म आनंद के लिए हृषिकेश मुख़र्जी ने बाबू मोशाय वाले रोल के लिए संजीव कुमार को इसकी स्क्रिप्ट सुनाई और उन्होंने इसे यह जानते हुए भी स्वीकार कर लिया के वह लीड रोल नहीं है। संजीव कुमार एक लीड एक्टर के तौर पर स्थापित हो चुके थे। जब राजेश खन्ना को इसका पता चला तो उन्होंने इसे पसंद नहीं किया। अंततः संजीव कुमार की जगह पर अमिताभ बच्चन आये जो उस समय तक स्थापित होने के लिए संघर्ष कर रहे थे और राजेश खन्ना के लिए उनसे कोई खतरा नहीं था। दोनों अभिनेताओं को जानने वाले लोग यह कहते हैं कि राजेश खन्ना, जो अपने दौर के सर्वोच्च अभिनेता थे, अंदरूनी तौर पर संजीव कुमार की अभिनय क्षमता से कही न कही असुरक्षित महसूस करते थे। आपकी कसम का अंत भी कुछ आनंद जैसा ही था लेकिन यहाँ संजीव कुमार के जबरदस्त अभिनय के आगे राजेश खन्ना फीके नज़र आये।
बहुत बार आज के नायकों से सवाल पूछे जाते हैं तो दिलीप कुमार के बाद अमिताभ बच्चन का नाम लेकर बात समाप्त कर देते हैं और यह शर्मनाक है। शोले में ठाकुर का रोल हो या त्रिशूल में अमिताभ के धनी पिता की भूमिका अथवा सिलसिला में डाक्टर आनंद की भूमिका यादगार बन चुकी है।
संजीव कुमार ने बहुत फिल्में कीं जो मसालेदार भी थीं और जिन्हें टोटल एंटरटेनमेंट भी कहा जा सकता है लेकिन उनका रोल इन फिल्मों की ओर लोगो का ध्यान आकर्षित करता है। यहाँ हम एक बहुत बड़े कलाकार की भूमिकाओं पर चर्चा कर रहे हैं। ऐसा कहा जाता है कि पति पत्नी और वो के निर्देशक उनसे फिल्म के विषय में बात करने आये तो उन्होंने अपने वेट ( वजन) को लेकर कुछ कहा और बताया कि उस रोल को नहीं कर पायेंगे, लेकिन निर्माता जानते थे कि संजीव कुमार किसी भी भूमिका में जान डालने वाला अभिनेता है इसलिए वो जिद पर अड़े रहे और अंत में संजीव कुमार ने फिल्म की। इस फिल्म का वह गाना सबसे ज्यादा हिट हुआ जिसमें संजीव कुमार नहा रहे है। उनका बाहर निकला पेट भी दिखाई देता है लेकिन फिल्म बहुत चली और गाना तो आज भी पॉपुलर है…. ठन्डे ठन्डे पानी से नहाना चाहिए, गाना आये या ना आये गाना चाहिए।
एक ही फिल्म में विभिन्न भूमिकाओं को जिस प्रकार से संजीव कुमार ने निभाया है शायद उनके समकालीन अभिनेताओं में किसी में भी उतनी क्षमता कभी नहीं रही। फिल्म नया दिन नयी रात आज भी देखने लायक है जिसमें उन्होंने 9 विविध प्रकार की भूमिकाएँ निभाई थीं। सिनेमा में अधिक से अधिक तीन रोल सबने देखे लेकिन एक साथ नौ भूमिकाएँ करके संजीव कुमार ने भारतीय सिनेमा में वह चुनौती खड़ी की जिसे करने में स्टार अदाकारों की भी हवा खिसक जाती। सत्यजीत रे ने उनके साथ शतरंज के खिलाड़ी बनाई तो राजकपूर ने बीवी ओ बीवी। जैसी भूमिकाएँ मिलीं वह निभाते चले गए।
संजीव कुमार भारतीय सिनेमा के ऐसे स्टार थे जिन्हें कला की दृष्टि से परिपूर्ण कहा जा सकता है। उन्होंने इसकी परवाह नहीं की कि रोल बड़ा है या छोटा। उनमे स्वाभिमान था लेकिन कुटिलता नहीं थी, इसलिए उनके समकालीन नामी-गिरामी सुपरस्टार उनसे कही न कही घबराते या कतराते थे। यह शुरुआत संघर्ष से शुरू हुई जब उनके सामने दिलीप कुमार हलके पड़ गए। आप की कसम, सिलसिला, त्रिशूल, शोले, सीता और गीता, विधाता के बाद तक भी संजीव कुमार चलते रहे। मल्टी स्टारर फिल्मों को यदि एक तरफ छोड़ दें तो संजीव कुमार की एकल हीरो वाली फिल्मों ने भी कहीं कमतर प्रदर्शन नहीं किया।
आप कभी गुलजार, जया भादुड़ी को परदे पर जरूर देखें। इन कुछेक फिल्मों का मैंने उल्लेख किया है। वे जिन्दा फिल्में हैं और हमेशा हमें परिवार सहित स्वस्थ मनोरंजन का महत्व बताती रहेंगी। संजीव कुमार ने यह साबित किया कि असल कलाकार को मनोरंजन के लिए फूहड़ता की जरूरत नहीं है। बम्बई में फर्जी पुरस्कारों ने संजीव कुमार की कला और क्षमता को शायद कम आंका हो, लेकिन हकीकत यह है कि उनकी कला के दीवाने और प्रशंसक आज भी हैं। लोगो ने उन्हें बहुत सराहा और प्यार दिया। वह एक कलाकार थे और जीवंत कलाकार थे। शायद इसी कारण मनमौजी भी थे। उन्हें अपनी मृत्यु का अहसास था और शायद इस बात का भी कि वह ज्यादा दिन जीवित नहीं रहेंगे। शायद इसीलिये उन्होंने विवाह नहीं किया और अपनी आदतों, विशेषकर खान-पान सम्बन्धी, से कभी समझौता नहीं किया। अपनी जिंदगी को अल्हड़ता से जीने के कारण ही वह हमेशा दूसरों से अलग और शायद बेहतरीन इंसान थे। 6 नवम्बर 1985 को संजीव कुमार का 47 वर्ष की उम्र में देहांत हो गया जो सिनेमा के लिए बहुत बड़ी क्षति थी। फिर भी इतने कम समय में उन्होंने सिनेमा को जो दिया वह अविस्मरणीय है। उनकी फिल्मों की फेहरिस्त बहुत बड़ी है क्योंकि उन्होंने बहुत-सी मल्टीस्टार फिल्मों में काम किया जिनमें उनकी विशेष भूमिकाएँ हमेशा याद रखी जायेंगी। उनकी फिल्में हमेशा लोगों का मनोरंजन करती रहेंगी और जो नए कलाकारों को कलात्मक फिल्में करने के लिए प्रेरित भी करती रहेंगी। उनके जल्दी चले जाने से सिनेमा में जो रिक्तता पैदा हुई वह कोई कलाकार भर नहीं पाया। संजीव कुमार को हमारी श्रद्धांजलि!
विद्याभूषण रावत प्रखर सामाजिक चिंतक और कार्यकर्ता हैं। उन्होंने भारत के सबसे वंचित और बहिष्कृत सामाजिक समूहों के मानवीय और संवैधानिक अधिकारों पर अनवरत काम किया है।
जी साथी, मैं संजीव कुमार का प्रशंसक रहा हूं।ठेठ और खांटी कलाकार थे ।कुछ फिल्में जैसे मौसम,आंधी,नया दिन नई रात,दस्तक,त्रिशूल, सिलसिला,खिलौना आज भी अपने समय से आगे की फिल्में हैं।कोशिश मै नहीं देख पाया हूं।
काफी अच्छा लगा। आज के व्यावसायिक और सांस्कृतिक
फूहड़पन के दौर में संजीव कुमार जैसा जमीनी स्तर का कलाकार विरला ही मिलेगा।