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ग्राउंड रिपोर्ट

गरीबों-वंचितों और बेसहारों का सहारा है बनारस का अमन कबीर

आज से हम एक नए कॉलम की शुरुआत कर रहे हैं जिसका नाम है लोकल हीरो। इसमें हम उन लोगों की कहानियाँ ढूंढकर लाएँगे जिन्होंने स्थानीय स्तर पर अपने-अपने क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया है। शिक्षा, स्वास्थ्य, समाज सेवा,  पानी, पर्यावरण,  संस्कृति, सामाजिक सद्भाव , स्त्रियों  के अधिकारों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, बच्चों, बूढ़ों,  किसानों, मजदूरों, वंचितों और हाशिये के समाजों की बेहतरी के लिए काम करने वाले ऐसे अनेक लोग पूर्वाञ्चल में हैं जिनके बारे में जानकर हमें गर्व का अनुभव होता है और उनके काम से प्रेरणा मिलती है। यह कॉलम प्रत्येक रविवार को प्रकाशित होगा। आज इसकी पहली कड़ी में बनारस के एक महत्वपूर्ण युवा अमन कबीर के बारे में जानिए। 

 

वाराणसी। पीठ पर एक बैग, उसमें फर्स्ट ऐड किट डेटॉल, पट्टी, रुई के साथ कुछ दवाइयाँ और कुछ पुराने कपड़े। पैरों में जूता नहीं और बिखरे हुए बाल। साधारण पहनावा और सेकेंड हैंड एक बाइक लिए वाराणसी शहर के अस्पतालों, घाटों, गली, नुक्कड़ों, चट्टी-चौराहों पर अक्सर किसी गरीब व्यक्ति की मदद करते हुए, इन्हें देखा जाता है। नाम है अमन कबीर। उम्र यही कोई 30 साल। जुनून ऐसा कि चाहे गरीब और बेसहारा लोगों की मदद करने के लिए घर से पैसा लगाना पड़े या किसी घायल व्यक्ति को आधी रात में अस्पताल ले जाना हो या फिर किसी गरीब व्यक्ति के अंतिम संस्कार में पैसे की आ रही दिक्कतों की बात हो, बस एक बार अमन को पता चल जाए, फिर वह उस व्यक्ति की मदद को तुरंत पहुंच जाते हैं। यही नहीं इसके लिए उन्हें अपने फेसबुक अकाउंट से ऐसे गरीब और बेसहारा लोगों की सहायता करने के लिए अपील करनी पड़े, हाथ जोड़ना पड़े, वे सब करते हैं और पीछे नहीं रहते। अमन कबीर कहते हैं ‘जब भी आप दूसरों की मदद करते हैं तो दूसरों की मदद करने से जो सुख प्राप्त होता है उसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती।’

वाराणसी के दारा नगर के निवासी अमन यादव के पिता का नाम राजू यादव और माता का नाम छाया देवी है। तीन भाई बहनों में अमन कबीर सबसे बड़े हैं। अमन के पिता राजू यादव गाड़ी चलाकर अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। लेकिन वह अमन की बदमाशियों से तंग आ चुके थे। क्योंकि अमन बचपन से ही बहुत शरारती था । जैसा कि अमन बताते हैं ‘मैं बचपन में बहुत ही शरारती था। सुबह घर से बिना बताए निकल जाता और रात में आता था। जब घर पहुंचता तो पापा पहले से ही डंडा लेकर तैयार रहते थे। घर में पहुँचते ही खूब मार पड़ती थी। अगले दिन पिताजी खूब समझाते, तुम्हें जो कुछ भी चाहिए मुझसे मांगो मैं तुम्हें लाकर दूंगा, लेकिन तुम आवारा बच्चों की तरह इधर-उधर मत घूमा करो। पिताजी के इतना समझाने के बावजूद मेरे रवैये में कोई बदलाव नहीं आया। और अगली सुबह फिर बिना बताए घर से निकल जाना और दोस्तों के साथ इधर-उधर घूमना यही मेरी दिनचर्या रहती थी।’

अमन बचपन की अपनी शरारतों के बारे में आगे बताते हुए कहते हैं ‘एक बार तो मैं बिस्मिल्लाह खान के कार्यक्रम में चला गया और घर पहुँचने में देर हो गयी। मैं समझ गया था कि आज फिर पिटाई होगी। घर में अंदर घुसते ही पिताजी जी ने पहले खूब पिटा उसके बाद पैर में बेड़ी लगाकर बांध दिया और बोले ‘अब देखता हूँ। तू कैसे जाता है।’ लेकिन मैं बेड़ियाँ पैर से निकाल कर घर से भाग गया।’

सड़क किनारे लावारिस पड़े लोगों की ऐसे सहायता करते हैं अमन।

रोज-रोज घर से अमन के भाग जाने से उनके माता-पिता ज्यादा परेशान रहने लगे। इसी बीच अमन की जिंदगी में एक नया मोड़ तब आया जब वाराणसी के कचहरी में 23 सितंबर 2007 को बम ब्लास्ट की वारदात हुई। अमन को जैसे ही बम ब्लास्ट की जानकारी हुई, चौखम्बा में एक परिचित की दुकान में अपना स्कूल बैग रख कचहरी के लिए निकल पड़े। अमन बताते हैं ‘उस समय मैं सातवीं कक्षा का छात्र था। स्कूल की छुट्टी हो चुकी थी। बाहर निकला तो मालूम हुआ कि कचहरी में बम ब्लास्ट हुआ है। चौखंबा पर ही मेरे एक परिचित की दुकान थी। वहीं पर स्कूल बैग रख मैं पैदल ही कचहरी के लिए निकल पड़ा। कचहरी में मैंने घायल लोगों को देखा तो मेरा दिल भर आया। मैं बार-बार यही सोचता रहा कि क्यूं लोग एक-दूसरे की जान लेने पर उतारू हैं? क्या इससे हमारे समाज का भला होगा? क्या इससे हमारा समाज आगे जाएगा। फिर मैंने वहीं पर यह ठान लिया कि जो भी होगा देखा जाएगा, लेकिन मुझे अपने समाज के लोगों के लिए कुछ करना है। भले ही मेरे इस काम से घर वाले नाराज हों, लेकिन मैं अब सेवा-भाव का ही काम करूंगा। अमन आगे बताते हैं ‘कचहरी से निकलकर मैं पैदल ही घर के लिए निकल पड़ा। रास्ते भर मैं इसी उधेड़बुन में लगा रहा कि क्या मुझे यह काम करना चाहिए।’

जिस प्रकार से मेरा परिवार गरीबी के दंश को झेल रहा है उस स्थिति में, क्या इस प्रकार का फैसला सही साबित होगा? मेरी समाज सेवा से क्या मेरे घर परिवार की ज़रूरतें पूरी होंगी? मुझे समाज सेवा के साथ कोई-न-कोई काम करना होगा। अमन बताते हैं, ‘इसके बाद मैं अपने पिताजी के एक परिचित की मेडिकल की दुकान पर काम करने लगा। उस मेडिकल स्टोर पर मुझे 300 रुपया महीना मिलता था। एक दिन दुकान से निकलकर मैं इमरजेंसी वार्ड में घूम रहा था। मैंने देखा एक वृद्ध अपनी बेड से नीचे गिर गया है और छटपटा रहा है। वहां पर दूसरा और कोई नहीं था। मैं तुरंत उसके पास दौड़कर गया और मैंने उन्हें उठाकर बिस्तर पर सुलाया। मैंने पता किया तो मालूम हुआ कि उस व्यक्ति के दो बेटे हैं और दोनों नालायक। किसी तीसरे आदमी ने उन्हें यहाँ भर्ती करवाया है। उसके दोनों बेटों में से कोई भी अभी तक झाँकने नहीं आया था।’ इस दूसरी घटना से अमन के जीवन में बहुत बड़ा बदलाव आया। कबीरचौरा मंडलीय अस्पताल के ठीक सामने विवेकानंद मेडिकल स्टोर में अमन काम करते थे और जब भी उन्हें मौका मिलता, वे अस्पताल में एक चक्कर मार आते। अस्पताल में मरीजों की जरूरत के हिसाब से वे लोगों की सेवा करते और फिर समय पर घर चले जाते। धीरे-धीरे यही अमन की दिनचर्या  बन गई। अमन को लोगों की सेवा करते हुए देखकर धीरे-धीरे उनके बहुत सारे परिचित हो गए।

शुरू-शुरू में तो अमन खुद के कमाए पैसे से लोगों की जरूरत को पूरा करता रहा, लेकिन एक दिन ऐसा आया जब बड़ी तादात में लोग अमन से सहायता की उम्मीद करने लगे। लेकिन अमन के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह बड़ी संख्या में लोगों की मदद कर सके। अमन बताते हैं कि ‘मेरे एक मित्र ने ही मुझे यह सुझाव दिया कि तुम अपना एक फेसबुक पर एक अकाउंट खोल लो। उस पर 1 रुपए की सहायता राशि की मांग करो। साथ ही अपने द्वारा किए गए कार्य की फोटो भी अपलोड करो। जब लोग तुम्हारे कार्यों को देखेंगे तो वह तुम्हारी जरूर सहायता करेंगे। इससे तुम्हारी ‘पैसे की कमी’ दूर हो जाएगी और तुम लोगों की सेवा भी कर सकोगे। अमन कहते हैं ‘फिर मैंने यही काम किया,अकाउंट बनाया और जो भी काम मेरे द्वारा किया जाता, उसकी  फोटो फेसबुक पर डालता गया। 1 रुपए चंदा लेता और काम हो जान के बाद से करता और काम हो जाने के बाद दूसरा मैसेज देकर लोगों को पैसा देने से मना कर देता। इससे लोगों का मुझ पर विश्वास भी बढ़ता गया और लोग मेरे एक बार के आग्रह पर पैसा डालने लगे।’

इस प्रकार से लोगों द्वारा दिए जा रहे एक-एक रुपये की सहायता ने अमन कबीर के उत्साह  बढ़ता गया। जैसा कि अमन कहते हैं ‘लोगों द्वारा दिए गए चंदा ने मेरे उत्साह को दोगुना कर दिया। मैं दोगुना उत्साह से काम करने लगा। किसी को ब्लड, व्हीलचेयर, दवाइयों की जरूरत हो या फिर किसी के अंतिम संस्कार की बात हो बस मुझे मालूम हो जाता तो मैं ऐसे लोगों की मदद करने पहुंच जाता। लेकिन इसके पहले जब मेरे पास सिर्फ अपनी कमाई का पैसा होता था तो चाहकर भी मैं सबकी सहायता नहीं कर पाता था, क्योंकि जेब में कम पैसे होने की स्थिति में मुझे यह निर्णय लेना पड़ता था कि तत्काल किसको सहायता की ज्यादा जरूरत है। ऐसी स्थिति में मुझे कभी-कभी अपने आप से नफरत हो जाती थी। क्योंकि जिस प्रकार का जीवन बचपन में मैं जिया हूँ, मैं नहीं चाहता की उस प्रकार का जीवन कोई भी व्यक्ति जिए।’

अमन अपने बचपन की बातों को याद करके भावुक हो जाते हैं। वह कहते हैं ‘मैं बचपन में बहुत ही कमजोर था। हमेशा बीमार रहता था। माँ-बाप के पास इतने पैसे नहीं रहते थे कि वे मेरा ठीक से इलाज करवा सकें। कोई मदद करने वाला भी नहीं होता था। बचपन में पाँच साल तक न मैं चल पाता था न ही बोल पाता था। माँ बताती हैं कि कभी-कभी तो मेरी बीमारी से तंग आकर वो यह भी सोचती थी,क्यों न इसका गला दबाकर मार दूँ ‘ना रहेगा बांस न बजेगी  बाँसुरी।’ इन सब बातों का मेरे जीवन पर बड़ा प्रभाव पड़ा। मैं नहीं चाहता कि पैसे के अभाव में किसी की आँखों का तारा काल की गाल में समा जाये।’

इस प्रकार से अमन ने समाज के गरीब-कुचले-दबे लोगों की मदद का जो बीड़ा उठाया वह कारवां लगातार बढ़ता ही गया। अमन के साथ कुछ इस प्रकार की अप्रत्याशित घटनाएँ हुईं, जिसे वे चमत्कार मानते हैं। अमन याद करते हुए एक घटना के विषय में बताते हैं कि ‘बनारस के ही एक व्यक्ति का बेटा छत पर से गिर गया और बच्चे के सिर में गंभीर चोट लगी, तो उसके माँ-बाप उसे लक्ष्मी हॉस्पिटल में ले गए। वहाँ के डॉक्टर ने कहा कि 25 हजार ऑपरेशन में लगेंगे। पैसे का इंतजाम कर लीजिए तो तुरंत इसका ऑपरेशन कर दिया जायेगा। उस गरीब व्यक्ति के पास उस समय इतने पैसे नहीं थे। किसी ऑटो चालक ने उसे मेरा नंबर दिया। उसने मुझे फोन किया। मैंने पूछा कि आप कहां हैं ? उसने बताया कि मैं लक्ष्मी हॉस्पिटल के पास हूं। मैंने उससे कहा कि आप बीएचयू ट्रामा सेंटर आइए, मैं वहीं पहुंच रहा हूं। इसके बाद मैं सीधे बीएचयू पहुंचा। मैंने उस बच्चे को ट्रामा सेंटर में भर्ती करवाया। डॉक्टर काफी हीला-हवाली कर रहे थे। ठीक से बच्चे का इलाज नहीं कर रहे थे। इस दौरान मेरी डॉक्टर से कहा सुनी भी हो गई। डॉक्टर ने मुझसे कहा कि तुम लोग नेता बनने के लिए आ जाते हो। जिसका बच्चा है वह कुछ नहीं बोल रहा है,  तुम क्यों बोल रहे हो। मैंने कहा कि मैं लोगों की सहायता करता हूं। इसके बाद मैंने उस बच्चे को ट्रामा सेंटर से निकलवाकर लक्ष्मी हॉस्पिटल में ले जाने का निर्णय किया।’

उस समय न तो अमन के पास पैसा था न ही घायल बच्चे के पिता के पास। अमन के अनुसार ‘लक्ष्मी हॉस्पिटल जाने के लिए हम दोनों ऑटो वाले का इंतजार कर रहे थे। इतने में सुंदरपुर की तरफ से एक आदमी साइकिल पर सवार होकर आता है और पहले मुझसे पूछता है कि क्या बात है,कोई दिक्कत? अमन कहते हैं ‘कुछ नहीं दादा ।’ फिर साइकिल सवार व्यक्ति  ने  घायल बच्चे के पिता से परेशानी पूछी और उसने इतना कहा कि कि मेरे बेटे को चोट लग गई है, उनकी पूरी बात सुने बगैर सायकिल सवार ने कुछ पैसे उस व्यक्ति के बैग में डाला और तुरंत आगे बढ़ गया। मैं उस व्यक्ति को कुछ कहता, इससे पहले ही वह हमसे दूर चला गया था। अस्पताल जाकर जब हमने देखा तो बैग में 25 हजार था। फिर उसी पैसे से उस लड़के का आपरेशन हुआ।

 इसी प्रकार से गाजीपुर की एक लावारिस लाश घाट पर लाई गई। उसके अंतिम संस्कार के लिए लोगों के पास पैसे नहीं थे, यह बात जब मुझे मालूम हुई, तब मैंने घाट पर जाकर लकड़ी खरीदी और पूरे विधि-विधान से उस व्यक्ति का अंतिम संस्कार करवाया।

इस प्रकार से देखा जाए तो आज अमन को समाज सेवा का यह कार्य करते हुए 14 वर्ष होने को आ चुके हैं और वह लगातार इसमें अभी भी पूरे तन-मन से लगे हुए हैं। चाहे आधी रात को ही क्यों ना फोन आ जाए वह बिना किसी हिचकिचाहट के बताए गए स्थान पर पहुँच जाते हैं। संबन्धित व्यक्ति को जिस प्रकार की भी मदद की जरूरत होती है वे उस जरूरत पूरा करने में सहयोग करते हैं।

अमन की माने तो इन 14 वर्षों में अब तक वे 100 से अधिक लावारिस लाशों  को खुद मुखाग्नि दे चुके हैं। जबकि 400 से अधिक लाशों को जलाने के लिए लकड़ी वगैरह  का प्रबंध किए हैं। 300 से अधिक परिवारों से रक्तदान करवा चुके हैं। यही नहीं वह खुद भी 50 बार रक्तदान कर चुके हैं। 17 से अधिक प्रदेशों के लोगों को उनके परिजनों से भी मिलवा चुके हैं। ऐसे लोगों की संख्या भी 3 सौ के आसपास होगी।

अमन की सहायता से कई लोगों ने  रीति- रिवाज से जलाया अपने परिजनों का शव

14 वर्षों से लगातार समाज सेवा का यह भाव मन में लेकर चलने वाले अमन कबीर से हमने सवाल किया कि इस काम के दौरान आपको किस तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है के रास्ते में क्या कभी कठिनाइयां नहीं आई? अगर आईं तो  किस प्रकार से अमन ने  उनका सामना किया ? सवाल का जवाब अमन एक घटना से देते हुए कहते हैं कि कबीर चौराहा मंडलीय अस्पताल से एक व्यक्ति का रात में 12 बजे फोन आया कि मेरे पास पैसे नहीं है। मैं बहुत गरीब हूं। ऐसे में यदि आप अगर कुछ सहायता कर देंगे तो बड़ा उपकार होगा।

मैं तुरंत मंडलीय अस्पताल में पहुंचा। अस्पताल में लाश के पास सिर्फ एक व्यक्ति था। मैंने कहा ‘लाश कैसे ले चलना है। वह व्यक्ति कुछ नहीं बोला। फिर मैं सड़क पर गया और वहां पर एक ट्राली वाला जा रहा था। मैंने उसे आवाज दी लेकिन वह नहीं सुना। फिर मैं मुड़कर वापस अस्पताल कि तरफ आ रहा था तो गेट पर एक ट्राली वाला मिला और घाट तक उसने लाश को पहुंचाया। अब बात आ गई कंधा देने की। दो लोग लाश को कैसे कंधा देंगे इतने में वहां पर चार लोग और आ गए जो की अलग-अलग प्रदेशों के थे, बोले हम तो कंधा देने के लिए ही यहां पर आए हैं। उन चारों की मदद से हम घाट पहुँचकर अंतिम संस्कार करवाए।

आर्थिक सहायता देकर गरीब का अंतिम संस्कार की रस्म अदायगी करते हुए अमन

 इसी प्रकार जब भी हमारे सामने कोई समस्या आती है तो मैं अकेले ही उस काम को करने के लिए चल देता हूं, बजाय यह सोचने के कि यह काम अकेले कैसे होगा। फिर अपने आप उसका रास्ता खुलता चला जाता है और काम अपने आप पूर्ण हो जाता है। अमन आगे बताते हैं ‘मेरे पास पहले गाड़ी नहीं थी। मैं पैदल ही लोगों की सेवा के लिए इधर-उधर जाया करता था। एक भैया थे उन्होंने कहा तुम्हारे पास कोई गाड़ी नहीं है मेरी यह गाड़ी लो और चलाओ।

देवरिया के हीरालाल यादव जो की मुंबई में रहते थे, मेरे सेवा भाव से बहुत प्रभावित हुए। समाज के प्रति मेरे लगाव को देखते हुए उन्होंने अपने मित्र गणेश यादव (ये जापान में रहते हैं) से कहा कि हो सके तो अमन की सहायता करिए। फिर एक दिन गणेश ने मुझे फोन किया और मुझे तीन गाड़ियों का पैसा लेने को कहा । पहले तो मैंने मना किया। फिर मेरे खाते में एक गाड़ी का पैसा भेज दिया। फिर कुछ दिन बाद दो और गाड़ियों का पैसा भेजा। उन  पैसों से मैंने तीन गाडियाँ  खरीदी। दो गाड़ी एंबुलेंस के रूप में काम कर रही हैं। जबकि एक गाड़ी चलाने के लिए है।

अमन आगे बताते हैं कि ‘एंबुलेंस वाली गाड़ियाँ लावारिश लाशों को ढोने का काम करती हैं। लेकिन अगर कोई सामान्य परिस्थिति में उसकी सेवा लेना चाह रहा है तो हम तेल और ड्राइवर का खर्च लेकर सेवा दे देते हैं।हीरारथ में मरीज को अस्पताल ले जाने की तैयारी।

आने वाले समय के लिए क्या रणनीति है? क्योंकि अभी आपकी शादी होनी बाकि है, शादी होगी बाल-बच्चे  होंगे तो घर-परिवार चलाने के लिए ज्यादा पैसे की जरूरत होगी, जो समाज सेवा से संभव नहीं है? सवाल के जवाब में अमन कबीर कहते हैं ‘घर में चाहे जितनी भी परेशानियां आ जाएं फिर भी  समाज सेवा के काम नहीं छोडूंगा। रही बात मेरे काम को लेकर मेरी माँ की सोच की, तो मैं आपको बता दूं मेरी माँ खुद गरीबों की सेवा करती हैं। किसी गरीब के पास खाने को नहीं है तो उसे खाने के लिए कुछ न कुछ दे देंगी। बगल के किसी बीमार व्यक्ति को देख लेंगी तो मेडिकल की दुकान से दवा खरीद कर देती हैं। मेरी माँ शुरू से ही दयालु प्रवृत्ति की हैं। गरीबों-अनाथों  के प्रति मेरे लगाव  से वे काफी खुश रहती हैं। नवम्बर 2014 में पिताजी की मृत्यु के बाद  घर की माली हालत ठीक न होने और मेरा समाज सेवा के प्रति समर्पण से जो कठिन हालात  पैदा हो गए थे, उस दौरान भी माँ ने बस यही कहा तुम अपना काम करते रहना, छोड़ना मत, सब ठीक हो जाएगा।

बहरहाल जो भी हो, बिना किसी स्वार्थ भाव के गरीब, बेसहारा और वंचितों की जिस प्रकार से अमन कबीर सेवा करते जा रहे हैं, नि:संदेह वह सराहनीय है। यही नहीं आज के समय में जो लोग पैसे और अपने काम को ही अपना सब कुछ मानते हैं,  ऐसे लोगों को अमन आईना दिखाने का भी काम कर रहे हैं।

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