आज अमेरिका के ट्रेड सेंटर और पेंटागन के ऊपर हुए आतंकवादी हमले को तेईस साल पूरे हो रहे हैं और इन हमलों का बदला लेने के लिए अमेरिका ने अफगानिस्तान और इराक के अलावा आठ देशों पर जबरदस्ती युद्ध लाद कर, अपने देश के साढ़े तीन हजार लोगों की जान के एवज में, अफगानिस्तान, इराक के ऊपर हमले करते हुए पच्चीस लाख से भी अधिक लोगों की जानें ली है। उसमें आधे से ज्यादा (लगभग पंद्रह लाख) लोग अकेले इराक के हैं। उसमें तीन चौथाई से भी ज्यादा पंद्रह साल से कम उम्र के बच्चे हैं। आर्थिक पाबंदी के कारण, अन्न और दवाओं के अभाव में सबसे ज्यादा बच्चों की जान गई है। यहाँ जान गँवाने वाले बच्चों की संख्या, नागासाकी-हिरोशिमा के अगस्त 1945 एटम बम विस्फोट में मरने वाले लोगों से भी ज्यादा है।
9/11 हमले के बाद, अमेरिका ने अल-कायदा को खत्म करने के नाम पर, अफगानिस्तान के साथ यमन, सीरिया, इराक, लीबिया, मिस्र में भी हमला किया। 585 लाख करोड़ रुपये खर्च कर के आतंकवाद के नाम पर 9-29 लाख लोग मारे गए। जबकि 9/11 की घटना में कुल 84 आतंकी शामिल थे।
अमेरिका की कार्रवाई के बाद, अल-कायदा के खत्म होने के बजाय दस से ज्यादा अलग-अलग नाम के अन्य आतंकी संगठनों ने जन्म लिया और इराक से लेकर नाइजीरिया तक 17 देशों में फैल गए । जिसमें जैश-ए-मुहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा, हक्कानी, इसीस, बोको-हराम आदि समेत 35 गुट जुड़े हुए हैं।
23 सालों में इन गुटों ने 34 हजार हमले किए हैं। जिसमें एक लाख से भी ज्यादा लोगों की जानें गई हैं। इस हमले के आधार पर ही तालिबान के खिलाफ अमेरिका ने अफगानिस्तान को 20 साल तक अपने कब्जे में रखा था। उसी अफगानिस्तान से अमेरिका द्वारा सैनिक वापसी के तुरंत बाद ही तालिबान का कब्जा हो गया था। क्या यह डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के जैसे कुश्ती नहीं लगती? दुनिया की सबसे ताकतवर सेना अफगानिस्तान में बीस साल बगराम इलाके में मौज-मस्ती में मशगूल थी और साढ़े तीन लाख अफगानिस्तानी सैनिकों और खुद अमेरिकी सेना की नाक के नीचे सत्तर हजार तालिबानी, जिन्हें हटाने का दावा बीस साल पहले किया गया था, दोबारा सत्ता में आते हैं। इस बात की एतिहासिक पृष्ठभूमि देखने के बाद पता चलेगा कि आखिरकार इसका कारण क्या है ?
1985 को व्हाइट हाउस के लॉन में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने अफगानियों के एक समूह के मुजाहिद्दीन नेताओं को मीडिया के सामने प्रस्तुत किया और उनकी तारीफ करते हुए कहा कि ये लोग नैतिक मापदंडों पर हमारे देश के संस्थापकों के बराबर ठहरते हैं। यह वह क्षण था, जब अमेरिका ने सोवियत संघ के खिलाफ अपने संघर्ष को जारी रखने के लिए राजनीतिक इस्लाम को नए रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की थी।
इस प्रवृत्ति को बड़े नाटकीय ढंग से 1979 में चित्रित किया गया। जब लोकप्रिय क्रांतियों ने अमेरिका समर्थित दो तानाशाहों की हुकूमत का खात्मा कर दिया। एक निकारागुआ में, तथा दूसरा ईरान में। उस साल के अंत में, सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर हमला कर दिया। तब किसे यह अनुमान था कि इस घटना के एक दशक बाद ही सोवियत संघ बिखर जायेगा?
यदि 9/11 की घटना अमेरिका की खुशियों पर थोड़ी देर के लिए पानी फेर देती है तो इस घटना से यह प्रश्न भी खड़ा होता है कि आखिर किस कीमत पर शीतयुद्ध में विजय पाई गई ? इस सवाल के जवाब के लिए आपको राष्ट्रपति रीगन के शासनकाल पर नजर डालनी होगी। रोनाल्ड रीगन ने दावा किया था कि तीसरी दुनिया में अमेरिकी समर्थक तानाशाहों की हार स्पष्ट रूप से सोवियत संघ के कारण हुई। इसके बाद रीगन ने आह्वान किया कि सोवियत संघ को पीछे ढकेलने के लिए हमें अपनी सारी शक्ति झोंक देनी चाहिए। इसके लिए हमें चाहें जो भी उपाय करने पड़ें। अफगानिस्तान दूसरे देशों के मुकाबले, शीतयुद्ध का उच्च बिंदु था।
अफगान युद्ध ने निकारागुआ में चल रहे प्रतिक्रांति अभियान को अपेक्षाकृत कमजोर कर दिया। दोनों युद्धों को जीतने के लिए जो तरीके ढूँढे गए थे, उनके बाद के प्रभावों पर गंभीरता से विचार किया गया। युद्ध में सोवियत संघ की लगभग एक लाख जमीनी सेनाएं लड़ रहीं थीं। अफगानिस्तान युद्ध ने अमेरिका को यह मौका दिया कि वह सोवियत संघ को विएतनाम सौंप दे। रीगन ने इसे सामरिक उद्देश्य में ढाला, इसलिए कि अफगान युद्ध के प्रति उनका नजरिया क्षेत्रीय के बदले वैश्विक अधिक था। यह युद्ध रीगन प्रशासन ने दस साल तक खींचा, लिहाजा अफगान युद्ध दुनिया में सबसे खतरनाक क्षेत्रीय युद्ध में तब्दील हो गया। विएतनाम युद्ध से लेकर अबतक सीआईए का भी यह सबसे बड़ा अर्द्धसैनिक अभियान था।। जो सोवियत इतिहास में सबसे लंबे युद्ध के रूप में परिवर्तित हो गया। 1979 की ईरानी क्रांति का अफगान युद्ध की नीति पर व्यापक प्रभाव पड़ा। ईरानी क्रांति के कारण अमेरिका तथा राजनीतिक इस्लाम के बीच संबंधों का एक नया स्वरूप सामने आया।
पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो के खिलाफ जमात-ए-इस्लामी की मदद की तथा मिस्र में नासिर के खिलाफ सोसायटी ऑफ मुस्लिम ब्रदरहुड की मदद की। आशा यह थी कि राजनीतिक इस्लाम धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादिता के विरुद्ध एक स्थानीय प्रतिरोध खड़ा करेगा। यह विचार इस्राइल से लेकर रूढ़िवादी अरब हुकूमतों तक उस क्षेत्र के दूसरे अमेरिकी मित्रों को भी रास आया, लेकिन यह योजना पूरी तरह नाकामयाब रही।
इस्राइल इस उम्मीद में था कि वह अपने कब्जा किए हुए क्षेत्र में इस्लामी राजनीतिक आंदोलन को बढ़ावा देगा और इसका इस्तेमाल फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (पीएलओ) के धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादियों के विरुद्ध करेगा। इस्राइली गुप्तचर विभाग ने पहले इंतेफादा के दौरान हमास को आगे बढ़ने की पूरी इजाजत दे दी, साथ ही एक विश्वविद्यालय तथा बैंक खाता खोलने की छूट भी दी। इसके अलावा उनकी आर्थिक मदद भी की। यह सब इसलिए कि वह एक मजबूत हमास को दूसरे इंतेफादा के संगठन के रूप में टक्कर दे सके।
मिस्र में, नासिर की मौत के बाद अनवर सादात राजनीतिक इस्लाम के एक मुक्तिदाता के रूप में सामने आये। 1971 से 1975 के बीच अनवर सादात ने इस्लाम समर्थकों को जेल से आजाद किया, जो बरसों से जेल में थे। इतना ही नहीं, उन्हें पहली बार यह आजादी मिली कि वे अपने विचार खुलकर लोगों के सामने रखें और स्वयं को संगठित करें। यह अलग बात है कि उनका समर्थन इस्रायली तथा अमेरिकी गुप्तचर एजेंसियां कर रही थीं।]
काबुल में सोवियत समर्थक सरकार के विरोधियों को उस वक्त गुप्त अमेरिकी सहायता मिलना आरंभ हो गई थी जब सोवियत सेनाओं ने अफगानिस्तान पर हमला भी नहीं किया था। तेहरान में अमेरिकी दूतावास को बंधक बनाए जाने के दौरान सीआईए तथा विदेश विभाग के जो दस्तावेज हाथ लगे थे उनसे यह बात उजागर हुई कि अमेरिका ने अफगान विद्रोही नेताओं के साथ पाकिस्तान में अप्रैल 1979 मे गुप्त बैठकें आरंभ कर दी थी। यह घटना सोवियत सेनाओं के अफगानिस्तान में घुसने के आठ महीने पहले घटी। इसकी पुष्टि जिगनवि ब्रेंजेंज्की द्वारा की गई, जो राष्ट्रपति कार्टर के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थे। उन्होंने पेरिस के एक अखबार ल नुवेल ऑब्जरवेटर (जनवरी 15-20,1998 ) को दिए साक्षात्कार में इसका खुलासा किया था। साक्षात्कार का सवाल और जवाब कुछ इस तरह था-
सीआईए के पूर्व निदेशक रॉबर्ट गेट्स ने अपने संस्मरण (फ्राम द शैडोज ) में लिखा है कि अमेरिकी गुप्तचर एजेंसियों ने अफगानिस्तान में सोवियत सेनाओं के घुसने के छ: महीने पहले से ही मुजाहिदीन को सहायता पहुंचाना आरंभ कर दिया था। इस दौरान आप राष्ट्रपति कार्टर के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थे। इस प्रकार आपने इस मामले में एक अहम भूमिका निभाई थी, क्या यह सही है?
सोवियत सेनाओं ने 24 दिसंबर, 1979 को अफगानिस्तान पर हमला किया। इतिहास में दर्ज सरकारी बयान के अनुसार तो सीआईए द्वारा मुजाहिदीन को दी जाने वाली सहायता 1980 से आरंभ हुई थी। यानि उसके काफी बाद। लेकिन वास्तविकता इसके ठीक उलट है। वास्तव में 3 जुलाई 1979 को राष्ट्रपति कार्टर ने पहले आदेश पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत काबुल में कम्युनिस्ट सरकार के विरोधियों को सहायता पहुंचाने का प्रावधान था। उसी दिन मैंने राष्ट्रपति कार्टर को लिखकर यह स्पष्ट किया कि हमारी यह सहायता सैनिक हस्तक्षेप की राह मुश्किल करेगी।
कार्टर से लेकर रीगन के समय तक अमेरिकी विदेश नीति में काफी बदलाव आया था। अब यह कैंटोनमेंट से रोल-बॅक की तरफ पलट रहे थे। अफगानिस्तान में निकारागुआ की तरह ही कार्टर प्रशासन ने दो तरह के रास्तों को अपनाना उचित समझा। कम्युनिस्ट विरोधियों को उदार स्तर का गुप्त समर्थन दिया जाए, चाहे वह कोई हुकूमत हो या समूह। इसके साथ ही बातचीत के जरिए भी समाधान की कोशिशें जारी रहे।
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कॉन्टोनमेंट यानी साथ मिलकर। इस अर्थ में, यह सहअस्तित्व की तलाश के रूप में संकेतित था। इसके विपरीत, रीगन प्रशासन को इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं थी कि समझौते के तहत कोई राह निकाली जाए। सह-अस्तित्व के बजाय, रीगन निति का केंद्रीय बिंदु पे-बैक था यानी हर वह काम किया जाए जो अफगान युद्ध को सोवियत संघ के लिए विएतनाम बना दे। मकसद एक ही था कि सोवियत संघ को हर हाल में परास्त किया जाए। सीआईए इस बात के लिये दृढ संकल्प के साथ खड़ा था कि अफगानिस्तान में असल उद्देश्य के रास्ते में कोई बाधा नहीं आने पाए। रूसियों को मारना ही इनका मुख्य उद्देश्य था। रीगन के सहायक रक्षा सचिव रिचर्ड पर्ल, वाशिंगटन के ऊंची पहुंच वाले हत्यारो में से एक थे। उन्हें जॉर्ज डब्ल्यू बुश के शासनकाल में अधिक जिम्मेदारी सौंपी गई, विशेष रूप से 9/11 की घटना के बाद।
यदि रीगन प्रशासन सोवियत संघ के खिलाफ कट्टर विचारधारा वाले समूहों से पहले मिला हुआ था तथा समझौतापरक समाधान में उसकी कोई रुचि नहीं थी तो वहीं क्रम से आए पाकिस्तानी सरकारों के लिए अफगान राष्ट्रीयता अविश्वास की बात थी। यह तब अधिक स्पष्ट हुआ जब अफगान शासक जहीर शाह को उनके भतीजे तथा पूर्व प्रधानमंत्री मो. दाऊद ने जुलाई 1973 में देश छोडने के लिए मजबूर कर दिया था। दाऊद ने सेना के रिपब्लिकन एलायंस को कम्युनिस्ट पार्टी के एक विंग के साथ जोड़ दिया। जिसका नामकरण उसने अपने अखबार परचम के नाम पर कर दिया था। नई राष्ट्रवादी सरकार ने पश्तूनिस्तान का लोकप्रिय मसला उठाया। अफगानिस्तान की आधी आबादी पश्तूनिस्तान और पाकिस्तान के नार्थ ईस्ट फ्रंटियर में भी लाखों पश्तून रह रहे हैं और इसलिए पाकिस्तान सरकार को खुली छूट दे दी कि वह अफगानिस्तान की गैरराष्ट्रवादी ताकतों की मदद करे। इस मामले में जियाउल हक को भी खूब मौका मिला। दाऊद की सत्ता के खिलाफ बढ़ रहें जनविरोध के कारण एक और सैनिक तख्तापलट की घटना सामने आई, जिसे सौर क्रांति के नाम से जाना जाता है। इसने कम्युनिस्ट पार्टी के दोनों अंगों परचम और खल्क को एक साथ सत्ता में ला दिया। 17 अप्रैल, 1978 की इस क्रांति के साथ, कम्युनिस्टों का अंतर्राष्ट्रीयकरण सरकारी तौर पर प्रतिष्ठा का विषय हो गया तथा इस्लामवादियों के अंतरराष्ट्रीयकरण को विध्वंसक करार दे दिया गया। उदारवादी तथा कट्टरपंथी इस्लामी प्रतिक्रियावादी काबुल विश्वविद्यालय छोड़कर पाकिस्तान चले गए, जहां उनका जबरदस्त स्वागत हुआ। 1978 के कम्युनिस्ट बिखराव ने पाकिस्तान के प्रति अमेरिकी नीति में निर्णयात्मक बदलाव हुए। कार्टर प्रशासन ने 1977 में पाकिस्तान को दी जाने वाली आर्थिक सहायता में कमी कर दी थी। इसका कारण यह बताया गया था कि पाकिस्तान का मानवाधिकार का रिकॉर्ड बहुत खराब है। एक तो सेना द्वारा एक निर्वाचित प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की संवैधानिक हत्या का षडयंत्र रचा गया तथा दूसरे इसके बढ़ते परमाणु कार्यक्रम का विश्व स्तर पर प्रभाव बढने लगा था।
लेकिन सत्ता पलट तथा अफगानिस्तान में सोवियत हमले ने सब कुछ बदल दिया। वास्तव में सोवियत हमले के कुछ दिनों बाद ही कार्टर ने जिया को फोन पर यह पेशकश की थी कि यदि वह कम्युनिस्टों के खिलाफ विद्रोहियों की मदद करते हैं तो अमेरिका उन्हें एक करोड़ डॉलर की आर्थिक तथा सैनिक सहायता देगा, लेकिन जिया की मांग ज्यादा थी, इसलिए जिया-कार्टर दोस्ती परवान नहीं चढ़ सकी। दोनों देशों के बीच संबंधों में गर्माहट रीगन प्रशासन के काल में आई। जब पाकिस्तान को एक बड़ी आर्थिक और सैनिक सहायता की पेशकश की गई। इस तरह अमेरिकी सहायता पाने वाले देशों में पाकिस्तान तीसरे नंबर का मुल्क हो गया। यानी इस्राइल और मिस्र के बाद तीसरा।
रीगन के राष्ट्रपति काल में ही अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी सीआईए तथा पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसी के बीच करीबी रिश्ता बना और दोनों एजेंसियों ने साझे रूप से सोवियत शक्तियों के साथ निपटने के लिए मुजाहिदीन को अधिक से अधिक शस्त्र पहुंचाना शुरू किया। इस्लामिक आतंकवादियों की भर्ती करने के लिए और संगठित रूप से आतंकवाद की पौध तैयार करने के लिए खुले हाथों से पैसा दिया गया। सिर्फ मुस्लिम मुल्कों से ही नहीं, बल्कि अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन जैसे देशों से भी इस्लामिक आतंकवादी पाकिस्तान के विभिन्न मदरसों में आकर ट्रेनिंग लेने लगे। जिसमें एक बहुत ही मशहूर उदाहरण शेख अब्दुल्ला अज्जाम का है, जिसे लॉरेंस राइट नाम के पत्रकार ने अस्सी के दशक में द न्यूयार्कर में जेहाद के चौकीदार का खिताब दिया था। यह फिलीस्तीनी धर्मशास्त्री था और उसने अल-अजहर विश्वविद्यालय से इस्लामी कानून में पीएचडी की थी। उसके बाद जेद्दाह के किंग अब्दुल अजीज विश्वविद्यालय में पढ़ाने के लिए नियुक्त हुआ था। उसके शागिर्दों में ओसामा बिन लादेन भी था। अज्जाम ने सीआईए के संरक्षण में सारी दुनिया का दौरा किया था। वह सऊदी टेलिविजन और अमेरिका में हुईं रैलियों में वक्ता के रूप में भाग लेता था। उस समय धर्मयोद्धा सीआईए की पूंजी थे और अज्जाम धर्मयोद्धाओं की भर्ती के लिए अस्सी के दशक में अमेरिका के हर इलाके में यात्राएं करता रहा और अफगानिस्तान की लड़ाई के लिए लड़ाकों की भर्ती करता रहा। अज्जाम हमास के संस्थापकों में से एक था।
अज्जाम का स्पष्ट संदेश था। जेहाद में शिरकत न केवल आज वैश्विक जिम्मेदारी है, बल्कि यह मजहबी दायित्व भी है। इस जेहाद का मतलब सिर्फ दुश्मनों को यानी रूसियों को मारना ही नहीं है, बल्कि शहादत प्राप्ति के बाद जन्नत का सफर करना भी है, जहाँ पर 72 कुँवारी और बेहद खूबसूरत लड़कियां आपके स्वागत के लिए तैयार खड़ी हैं। अज्जाम का जेहाद का फार्मूला बहुत ही आसान था। कोई बातचीत नहीं, कोई कांफ्रेंस नहीं, कोई वार्तालाप नहीं, सिर्फ और सिर्फ बंदूक ही उसका जवाब था और यह फार्मूला बड़े कारगर तरीके से आईएएस और सीआईए के साझे उद्देश्य को ध्वनित करता था।
इसी पृष्ठभूमि में अमेरिका ने, अफगान जेहाद को संगठित किया था तथा उसके प्रमुख उद्देश्य को उजागर किया कि धर्मयुद्ध के द्वारा एक अरब मुसलमानों को एक सूत्र में जोड़ना उसका मकसद है। सोवियत संघ के खिलाफ अफगानिस्तान की भूमि पर ईसाई धर्मयुद्ध (क्रूसेड), जेहाद की बनिस्बत क्रूसेड उस बौद्धिक दायरे को अधिक उजागर करता है जिसके तहत ये कार्रवाइयां की जाती थीं। एक दूसरा उद्देश्य यह था कि दो इस्लामी संप्रदाय (शिया और सुन्नी) के बीच और दूरी को बढ़ावा दिया जाए। अफगानी जेहाद असल में अमेरिकी जेहाद था लेकिन यह उत्कर्ष पर तब पहुंचा जब मार्च 1985 में रीगन दोबारा सत्ता में आए। रीगन ने नैशनल सिक्योरिटी डिसीजन डायरेक्टीव 166 पर हस्ताक्षर किया। इसमें यह अधिकार मिल गया था कि मुजाहिदीन को गुप्त रूप से मिलने वाली सहायता में इजाफा किया जाए।
नए रूप से परिभाषित किए गए युद्ध की पूरी जिम्मेदारी सीआईए प्रमुख विलियम केसी को सौंपी गई, जिसने 1986 में तीन महत्वपूर्ण कदम उठाए। पहला यह कि कांग्रेस को इस बात के लिए सहमत किया जाए कि अमेरिकी तेज मारक क्षमता वाली विमानभेदी मिसाइलें उपलब्ध कराई जायें, दूसरा अफगानिस्तान के आगे ताज़िकिस्तान, उजबेकिस्तान जैसे मुस्लिम आबादी वाले सोवियत गणराज्यो में गोरिल्ला युद्ध का विस्तार किया जाए और तीसरा, पूरी दुनिया के प्रतिक्रियावादी इस्लाम को मानने वाले लोगों को भर्ती कर के पाकिस्तान में लाया जाए और सैनिक प्रशिक्षण देकर दूसरी तथा तीसरी दुनिया के काफिरों के खिलाफ एक धर्मयुद्ध के रूप में उग्र किया जाए। यह फार्मूला अफगानिस्तान में निकारागुआ से भी बड़ेअर्थों में गंभीर था। युद्ध के घेरे में पूरी दुनिया की इस्लामी जनता थी। इसीस, अल-कायदा, तालिबान और बोको हराम यह उसी की पैदाइश हैं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने ‘अफगानिस्तान पर तालिबान के दोबारा सत्ता आने को लेकर कहा था कि आज उन्हें गुलामी से मुक्त करने वाले आजादी का सिपाही कहा जा रहा है। यह वही पाकिस्तान है जिसके सभी पूर्वी शासको ने कम या अधिक परिमाण में सभी तरह के आतंकवादी संगठनों को पनपने का मौका दिया है और इमरान खान भी इसके अपवाद नहीं हैं। जिया से लेकर मुशर्रफ और जुल्फिकार अली भुट्टो से लेकर इमरान खान तक भले तथाकथित रूप से चुनकर आने का दावा करते होंगे पर पाकिस्तान के पचहत्तर साल के इतिहास का कोई भी चुनाव फ्री एंड फेअर नहीं होने के कारण सभी प्रधानमंत्री आईएसआई और पाकिस्तान की सेना के आगे कुछ भी करने का आत्मविश्वास नहीं रख सकते हैं। इसीलिये उनके एक भी निर्णय स्वतंत्र नहीं होते। तालिबान को तो जन्म देने के लिए आईएसआई ने सीआईए के संरक्षण में सारी भूमिका अदा की है। यह बात मुशर्रफ ने खुद अपनी आत्मकथा इन द लाइन ऑफ फायर: ए मेमोयर में कही है। साढ़े तीन सौ पन्नों की भारीभरकम किताब के पांचवें प्रकरण में 199 से 275 तक यानी लगभग 76 पन्ने सिर्फ द वार ऑन टेरर के नाम से लिखा है। उसके माध्यम से समझा सा सकता है कि पाकिस्तान की आतंकवादी गतिविधियों में क्या भूमिका रही है। वह खुद अपने ही मुल्क में आतंकवादियों के हमलों से तीन बार बाल-बाल बचे हैं।
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अफगान जेहाद को संगठित करने के लिए पैसे की कमी को ड्रग के व्यापार से पूरा करने की कोशिश की गई थी। इसे सीआईए के अधीन, संगठित तथा केंद्रीकृत रूप से चलाया गया। जैसे-जैसे मुजाहिदीनों नें अफगानिस्तान की भूमि पर कब्ज़ा जमाना शुरू किया उन्होंने क्रांतिकारी टैक्स के तौर पर किसानों को अफीम उगाने के लिए प्रोत्साहित किया। उसका परिणाम यह निकला कि अफीम की कीमत गेहूं के मुकाबले पाँच गुना बढ़ गई। इसके अलावा वहां ड्रग्स तैयार करने के लिए कारखानों की कमी नहीं थी। सीमापार पाकिस्तान में अफगान नेताओं तथा स्थानीय व्यापारियों द्वारा आईएसआई के संरक्षण में सैकड़ों प्रयोगशालायें चलाई जा रही थीं। 1988 में द नेशन में लॉरेंस लिफ्शुल्स ने इस बात को चिन्हित किया था कि हेरोइन के कारखाने, जो नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रांत में स्थित थे, जनरल जियाउल हक के करीबी जनरल फजल हक के संरक्षण में चलाया जा रहा था और सबसे अहम बात, इस नशीले पदार्थ की ढुलाई पाकिस्तानी सेना के नेशनल लोजीस्टिक सेल द्वारा की जा रही थी। इन्हीं ट्रको में सीआईए द्वारा दिए गए हथियारों को कराची तक पहुंचाया जाता था। उसके साथ हेरोइन भी भेजी जाती थी। आईएसआई के कागजात की वजह से इन ट्रकों को पुलिस चेक नहीं करतीं थी।
पाकिस्तान के अखबार द हेराल्ड ने सितंबर 1985 में एक खबर प्रकाशित की थी कि नशीले पदार्थों को नेशनल लोजेस्टीक सेल(एनएलसी) द्वारा सीलबंद करके, अपने ट्रकों से ढोया जाता है और उनकी पुलिस द्वारा तलाशी नहीं ली जाती है और यह काम पिछले तीन-साढ़े तीन साल से बेरोक-टोक चल रहा है। सीआईए ने इसे कानूनी संरक्षण दिया अन्यथा इस अवैध व्यापार में इतनी वृद्धि की कल्पना नहीं की जा सकती थी। इस दशक में, खुले ड्रग व्यापार के दौरान इस्लामाबाद का, अमेरिकी ड्रग एन्फोर्समेंट एडमिनिस्ट्रेशन किसी बड़ी खेप को पकड़ने में तथा व्यापारियों को कैदी बनाने में नाकाम रहा। अमेरिकी अधिकारियों ने अफगानियों द्वारा नशीले पदार्थों के कारोबार के आरोप को इसलिये खारिज कर दिया कि वह सोवियत संघ के खिलाफ चल रहे युद्ध में कारगर साबित हो सकें।
अफगान जेहाद के पहले, अफगानिस्तान में हेरोइन का उत्पादन नहीं होता था। वहां अफीम की खेती होती थी, जिसे वहां के छोटे तथा क्षेत्रीय बाजारों में बेचा जाता था। लेकिन अफगान जेहाद समाप्त होने तक तस्वीर नाटकीय रूप से बदल गई थी। पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमावर्ती क्षेत्र अफीम तथा हेरोइन की पैदावार का बड़ा केंद्र बन गया। वहां विश्व के 75% अफीम की पैदावार होने लगी थी। जिसकी कीमत कई बिलियन डॉलर थी। 2001 के आरंभ में जारी एक रिपोर्ट में यह बताया गया है कि युनाइटेड नेशंस इंटरनेशनल ड्रग कंट्रोल प्रोग्राम ने 1979 के आसपास अफगान अफीम की पैदावार में सबसे अधिक वृद्धि दर्ज की। इसी साल अमेरिकी प्रायोजित जेहाद की शुरुआत हुई थी। 1979 से शुरू हुआ अवैध नशीले पदार्थों का व्यापार आज भी जारी है और 1980 में जिस क्षेत्र में सिर्फ 5% अफीम की पैदावार होती थी, वहीं दस साल से भी कम समय में यह 71% पहुंच गया। अफगानिस्तान के भविष्य में बर्मा जैसा साम्य दिखाई देता है। यह एक दूसरा पहाड़ी क्षेत्र था जो शीत युद्ध के प्रारंभ में सीआईए के हस्तक्षेप का शिकार बना था। सीआईए ने शैन स्टेट में राष्ट्रवादी चीनी सैनिकों को सहायता देने के लिए 1950 में बर्मा में अफीम की पैदावार को बढ़ावा देने का काम किया था। अलफ्रेड मकौय के निष्कर्ष के अनुसार, इस तरह से एजेंसी सीआईए की गतिविधियों से मुजाहिदीन गोरिल्लाओं को पैदा करने के लिए 1980 में अफगानिस्तान में अफीम की पैदावार को विस्तार दिया था तथा पाकिस्तान के अंदर स्थित हेरोइन की प्रयोगशालाओं को विश्व बाजार से जोड़ दिया था।
हेरोइन आधारित अर्थव्यवस्था ने, अफगानिस्तान और पाकिस्तान को दूषित कर दिया है और अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन के जुमले कि ‘ये लोग हमारे देश के संस्थापकों के बराबर हैं, ने इसे और प्रतिष्ठा देने का काम किया था। सबसे बुरा उदाहरण गुलबुद्दीन हिकमतियार का था जिसने सीआईए द्वारा दिए गए, आधे गुप्त स्रोतों को प्राप्त किया, जिसकी दस सालों में कुल कीमत दो बिलियन डॉलर थी। उसने तेजी से अफगान मुजाहिदीन पर अपना वर्चस्व स्थापित करना शुरू कर दिया था।
भले नौ ग्यारह के बाद अमेरिका ने यू टर्न लेते हुए, पाकिस्तान को डरा-धमकाकर अपना काम निकाला। (पाकिस्तान के तत्कालीन प्रमुख जनरल मुशर्रफ ने खुद अपनी आत्मकथा इन द लाइन ऑफ फायर: ए मेमोयर में लिखा है कि किस तरह से तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री कॉलिन ने फोन पर धमकी भरे लहजे में पूछा था कि आप हमारे साथ हो या नहीं?)
अमेरिकी सैनिकों को एक न एक दिन अफगानिस्तान से निकलना तो था पर 83 हजार बिलियन डॉलर का खर्चा करके अफगानिस्तान में तालिबान के रूप में जिस राक्षस का निर्माण किया है, क्या अमेरिका अफगानिस्तान को सिर्फ तालिबान के हवाले कर के चुपचाप बैठा रहेगा? यह संभव नहीं दिखता। इसके अलावा चीन और रूस के भरोसे अफगानिस्तान को छोड़ने की संभावना तो बिलकुल भी नहीं लगती है। बहुत हद तक संभव है कि अमेरिका पाकिस्तान का उपयोग इसी के लिए कर रहा होगा। क्योंकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दुश्मनी या दोस्ती नाम की कोई भी बात कभी भी नहीं होती है।
संदर्भ
(1)Mahmood Mamdani, A Good Muslim Bad Muslim. Permanent Black,(2) Ahmed Rashid,s, Descent in to Chaos, publish Penguin books, (3),Inside Global Network of Terror Al Qaeda ,Rohan Gunaratna Publish by Roli Books,( 4 ), Parvez Musharraf’s, In the Line of Fire A Memoir publish by, Free Press,(5)Mohammed Hanif,s, A case of Exploding Mangoes publish by Random house India।
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