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मेरा गाँव : 30 वर्षों के बाद गांव वापस लौटे अतुल यादव के खट्टे-मीठे अनुभव

यह कहानी लेखक अतुल यादव के गांव पांडेयपुर की है, जो 30 वर्षों बाद अपने गांव वापस लौटे हैं, अपने गांव लौटने का जिक्र उन्होंने अपने कई शुभचिंतकों, दोस्तों और गुरुजनों से किया, लेकिन किसी ने इस बारे में सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी , सभी ने कहा कि तुम्हें और आगे बढ़ना चाहिए गांव में क्या रखा है? आगे की कहानी अतुल की जुबानी...

मेरे पिताजी ने साल 2001 में हमारा साथ छोड़ दिया था। मां कभी मेरे पास रहती थीं, कभी गांव में अकेले। मैं भी महीने में एकाध बार ही गांव जाया करता था। मां भी 2012 में साथ छोड़ गईं। उसके बाद तो चार-छह माह में एक बार घर जाना होने लगा। गत 18 वर्षों में बच्चों का कैरियर संवारते-संवारते घर की याद ही धुंधली हो गई। 2019 में बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो चुके थे। पुत्री की शादी हो चुकी थी। मैं अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त हो चुका था। हम मियां-बीवी अपना जीवन बिता रहे थे, लेकिन अब लखनऊ में रहना बोझ लगने लगा था। अब लग रहा था कि वर्षों से उपेक्षित अपने गांव लौटने का समय आ गया है। अब मुझे अपना घर-गांव, नाते-रिश्तेदारी और समाज पुनर्स्थापित करना था जो अभी तक की आपाधापी में पीछे छूट चुका था। मुझे उन दीयों में थोड़ा तेल डालना था जो मुलमुला कर बुझने ही वाले थे।

जब मैंने अपने गांव वापस जाने का जिक्र अपने मित्रों और शुभचिंतकों से किया तो, लोगों ने कुछ सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी। राम सुधाकर सिंह सर ने कहा कि लोग गांव से निकल कर शहरों की ओर आ रहे हैं और तुम शहर से वापस गांव की ओर जा रहे हो। गांव मत जाओ। अब तुम्हें दिल्ली की ओर बढ़ना चाहिए। बेंगलुरु अच्छा शहर है वहां जाकर बेटे के पास बसो। गांव में क्या रखा है…?

डॉ वी.पी. शर्मा जो लखनऊ के नामी गिरामी हड्डी के डॉक्टर थे उन्होंने अपने गांव प्रेम की कथा बताई कि कैसे उन्होंने अपने गांव के लिए एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र स्वीकृत कराया था। इसी बहाने वे अपने गांव के विकास को गति देंगे पर गांव के कुछ लोगों ने शिकायत करके येन केन प्रकारेण उक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र को निरस्त करा दिया। डॉ. शर्मा ने यह भी बताया कि कैसे नौकरी के दौरान गांव के एक मृत व्यक्ति के वारिसों को दया के आधार पर नौकरी दिलाने की पैरवी की तो गांव के दबंग से धमकी मिली। इसके बाद आहत होकर उन्होंने गांव के विकास का प्रयास करना छोड़ दिया और पूरी तरह से लखनऊ के होकर रह गए।

मेरे जौनपुर प्रवास के संरक्षक तथा तमाम मुद्दों पर मेरे मार्गदर्शक एवं शुभचिंतक बाबूराम यादव से भी मैंने गांव वापस जाकर बसने की बात कही। उन्होंने भी कहा कि अतुल, गांव में रह नहीं पाओगे। पीने का साफ पानी नहीं है। सड़कें, बिजली तथा अन्य सुविधाओं का बहुत अभाव है। गांव अब रहने लायक नहीं रह गया है। इतनी ईर्ष्या, द्वेष, लड़ाई-झगड़ा और कटुता फैल चुकी है कि गांव में रह पाना संभव नहीं है। बहुत थोड़े से लोग ही थे जो मेरे गांव वापस जाने का समर्थन कर रहे थे।

बहरहाल, मेरा मन अब गांव को बड़ी शिद्दत से याद कर रहा था। कारण अपने पूर्वजों की भूमि के प्रति लगाव तो था ही, उससे बड़ी भूमिका इस बात की थी कि अब लखनऊ में मेरे पास करने के लिए कुछ रह नहीं गया था। एक सफल मध्यमवर्गीय परिवार को 50 साल की आयु में जो कुछ मिलना चाहिए, वह सब मुझे मिल चुका था। मेरे दोनों बेटे आईआईटीयन, बेटी-दामाद पीसीएस ऑफिसर, लखनऊ के संभ्रांत इलाके में अपना एक छोटा सा मकान, एक चार पहिया गाड़ी, गजटेड ऑफिसर का पद, एक ख्याल रखने वाली सुन्दर पत्नी, न शुगर, न बीपी। सब बातों पर सोच-विचार करने के बाद गांव जाने की योजना पक्की हो गई।

अपने गांव में लेखक अतुल यादव

मैंने अपने गृह जनपद जौनपुर के आस-पास के जनपद मीरजापुर में स्थानांतरण का आवेदन चकबंदी आयुक्त महोदय को दिया। मेरा आवेदन स्वीकृत हो गया। 12 जुलाई को मुझे औरैया से मीरजापुर ट्रांसफर किए जाने का आदेश जारी हो गया। अंधे को क्या चाहिए, दो आंखें। खुशी-खुशी औरैया को प्रणाम किया तथा मीरजापुर में दाख़िल हुआ। पिछले 11 वर्षों तक मेरा लांचिंग स्टेशन लखनऊ था, लेकिन अब वह दर्जा मुझे अपने गांव को देना था।

गांव पहुंचा तो घर की दशा बहुत ख़राब थी। मिट्टी का पुश्तैनी मकान खंडहर हो चुका था। जिस आंगन में हम खेलते- कूदते, दौड़ते-गिरते, रोते-गाते बड़े हुए थे, अब वह सांप बिच्छू का बसेरा बन चुका था। दीवारें टुकड़ों में ढह रही थीं। कभी जो मिट्टी के मकान की अपनी शान हुआ करते थे। घोरिया, कलशा, मोटी दीवार, बड़ा आंगन, नरिया-थपुआ की छवाई, दीवारों पर लिपाई-पोताई और ऊपर से चावल पीसकर पतला घोल बनाकर सरपत की छोटी झाड़ू से दीवारों पर डिजाइनदार छिड़काव हुआ करता था- आज वह कृति खंडहर हो चुकी थी। पीछे की दीवारें ढह गई थी। आंगन में नीम सहित कई पेड़ घर के ऊपर तक बढ़ आए थे। घर के अंदर के दरवाजे और लकड़ियां गिरकर मिट्टी में आधे ढक चुके थे। घर में घुसते ही डर लगा था- जहरीले कीड़ों का। ख़ैर…. यह विध्वंस नया निर्माण मांग रहा था।

 

पिताजी का बनवाया हुआ दालान ही अब हमारा घर होने वाला था। दालान में एक कमरा और एक बड़ा हॉल। अंदर और बाहर एक-एक कमरा। बाहर एक बड़ा बरामदा। कुल इतना ही दालान था। दो कमरों में से एक में लाइब्रेरी थी जो जनवरी 2015 से चल रही थी। दूसरे कमरे में मां के, पिताजी के, तथा पत्नी को शादी में मिले सभी बक्से रखे थे। एक बड़ा बक्सा सर्दी के कपड़ों का था गद्दा, रजाई, कंबल आदि। इसके अलावा कुछ तख़्त, दो चारपाई, कुछ लकड़ियां और दो बखारी गेहूं। दालान की छत कुछ-कुछ सीलन टाइप लग रही थी। छत पर सालों से जमे पत्ते सड़ चुके थे। इस कारण छत पर पानी भी जमा था। छत पर, दीवारों पर घास भी थी। दुआरे पर भी ढेर सारी घास उग आई थी। बीच-बीच में कुत्तों की गंदगी पड़ी थी। कीड़े मकोड़े तो थे ही। मच्छरों की भी भरमार थी।

गांव के बुजुर्ग के साथ अतुल यादव

अभी तक मेरा घर, दालान तथा बड़ा सा द्वार सार्वजनिक हो चुका था। गर्मी की दोपहरी में कुछ लड़के दालान में बैठकर ताश खेलते थे, गांजा पीते थे, शाम के अंधेरे में वहीं दारू पीते थे तथा कभी-कभार बरामदे में मीट और मछली भी पकाया जाता था। दुआरे पर गांव के बच्चे क्रिकेट खेलते थे तथा कभी-कभी कुत्ते भी अपनी सुविधानुसार द्वार का प्रयोग कर लेते थे। शादी-विवाह के सीजन में एक-दो शादियां भी हमारे द्वार पर संपन्न हो जाती थी। जिन घरों के सामने जगह नहीं थी या पर्याप्त नहीं थी, उनके लिए  मेरे घर के द्वारे की जगह मैरिज लॉन की तरह थी। लावारिस…। दालान में वायरिंग हुई थी पर बरामदे की वायरिंग शैतान बच्चों ने उखाड़ डाली थी। बिजली का बोर्ड गिरा दिया था। पास-पड़ोस के लोग खड़ंजे वाली चकरोड तक अतिक्रमण कर बढ़ आए थे। इतना की खड़ंजे वाली यह चकरोड न होती तो शायद मेरा द्वार काफी छोटा कर चुके होते। खै़र….। अब मैं अपने घर आ चुका था।

पहला काम जो मैंने घर आने पर किया वह था दालान की बिजली की वायरिंग दुरुस्त कराना तथा बिजली का कनेक्शन लेना। इसके लिए सिकरारा पावर हाउस गया तो पता चला कि आवेदन ऑनलाइन होगा। सुनकर अच्छा लगा। पर दुखी तब होना पड़ा जब यह जाना कि मेरे पास अपने पुश्तैनी गांव का निवासी होने का कोई प्रमाण नहीं था। आधार कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, वोटर कार्ड सभी में पता लखनऊ का था। खै़र, काफी मशक्कत के बाद सिद्ध कर पाया कि मैं इसी गांव का मूल निवासी हूं।

गांव के प्राइमरी स्कूल पर झंडारोहण कार्यक्रम में अतुल यादव

पिताजी ने अपने ज़माने में जानवरों को बांधने के लिए एक पक्का गोरुआर बनवाया था जो दालान के ठीक सामने दूसरी ओर था। खपरैल छत अब तक ढह चुकी थी। पहली नजर में वह ब्रास्तील के दुर्ग के खंडहर की तरह दिखता था। इसमें जानवर तो ख़ैर बीसों साल से नहीं बांधे गए थे, अलबत्ता कुछ लकड़ी, कुछ ईंट, थोड़ी बालू उसमें न जाने कब से रखी थी। उस गोरुआर को ढहाकर उसमें से ईंटें निकालने के लिए दो-तीन दिन तक पास के गांव में जाकर मजदूरों की तलाश की, लेकिन हां कहने के बावजूद मजदूर काम पर नहीं आते थे। यह बात पड़ोसी भतीजे पप्पू को पता चली तो एक दिन तीन लेबर पकड़ लाया। उसने मुझे गुरुमंत्र दिया कि चचा, अब लेबर भैया-बाबू कहने से नहीं आते, डांटना और गरियाना पड़ता है। लीजिए, इनसे अपना काम कराइए। और हां, इन्हें पूरी मजदूरी मत दीजिएगा। नहीं तो अगले दिन भाग जाएंगे और बहुत मुश्किल होगी। उसका यह दिव्य ज्ञान परम सत्य था। मजदूर का पसीना सूखने के पहले उसकी मजदूरी मिल जाती तो सर्वोत्तम रहता है, मेरी यह धारणा दरकने वाली थी।

खै़र…. मैंने तीन मजदूरों के साथ चौथा मजदूर बनकर पूरे समय तक उनके साथ मेहनत शुरू की। धूप में। डेढ़ ईंट की दीवार और दो ईंट की नींव, राबिश की चिनाई, सभी ईंट साबुत उखाड़ ली गईं। अब द्वार थोड़ा और चौड़ा लगने लगा। मेरे द्वार के एक ओर कच्चे मकान का खंडहर, दूसरी ओर दालान, तीसरी ओर एक-दो फीट ऊंची बाउंड्री तथा चौथी ओर बांस गाड़कर बाड़ा बांधा गया था, जिससे गांव के लोगों की भैंस वगैरह द्वार पर न आकर चकरोड पकड़कर ही जाएं। यह बांस का बाड़ा मुझे बहुत बुरा लगता था। अतः उसे हटाकर जानवरों के घर से निकली ईंट को बाउंड्री के रूप में लगवा दिया। अब द्वार थोड़ा सा ठीक-ठाक लगने लगा।

मेरे दालान में तीन दरवाजे थे। सभी खुले। जब हम कहीं बाहर जाते थे तो बरामदे का सारा सामान अंदर रख कर जाते थे क्योंकि बरामदा खुला था और कुत्ते-बिल्ली का डर हमेशा लगा रहता था। पत्नी ने फरमाया कि यदि इन तीनों दरवाजों पर लोहे की जाली लग जाती तो कितना अच्छा होता। किनारे वाले दोनों दरवाजों में जाली फिक्स कर दी जाए तथा बीच वाले दरवाजे में एक छोटा दरवाजा बनवा दिया जाए। दरअसल यह कॉन्सेप्ट हमारे बिधुना के मकान मालिक संजय के मकान से लिया गया था । वहां पर बंदरों से बचने के लिए उन्होंने दो सूत की सरिया से जाली बनवाई थी। हमारे यहां बंदर तो नहीं थे पर हां , कुत्ते-बिल्ली का डर जरूर था।

लेखक अतुल यादव के पिताजी श्री शंभूनाथ यादव

ट्रांसफर होने पर एक-दो माह तक हाथ थोड़ा तंग रहता है क्योंकि खर्चे बढ़ जाते हैं। नये जिले में वेतन भी तमाम औपचारिकताओं के बाद थोड़ा देर से ही मिलना शुरू होता है। 22 साल की नौकरी में शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि अगले माह की सैलरी आने तक पिछले माह की सैलरी का कुछ अंश खाते में बचा हो। पता नहीं किसका श्राप था कि लगभग हमेशा समय पर वेतन का इंतजार बना ही रहता था। ज़रूरतें बाल्टी भर पानी के बराबर, और वेतन लोटे भर पानी के बराबर। बहरहाल पैसे नहीं थे पर काम आवश्यक था। मैं थोड़ा रुककर यह काम कराना चाहता था पर घर की मालकिन को यह काम तुरंत कराना था तो उन्होंने एक भांजे को फोन कर हुक्म दिया कि अभी हाल में उसका जो नया घर बना है उसमें लोहे का काम करने वाले कारीगर को बुलाओ। दरवाजे की नाप ले जाए और दो सूत सरिया की जाली बनाकर दे जाए। अगले दिन सुबह मिस्त्री हाज़िर। दरवाजे की नाप ले गए और कुछ पैसे भी। दो हफ्ते में बनाकर पहुंचाने का वादा भी कर गए। कुल खर्च बताया लगभग 20-22 हजार रुपए का। दो हफ्ते बाद फोन आया कि जाली बनकर तैयार हो गई है। हम पति-पत्नी भभौरी गए। जाली देखी, तुलवाई।

कुल वजन संभावित तीन कुंतल से बढ़कर सवा चार कुंतल हो गया। कुल खर्च 70 रुपये प्रति किलो के हिसाब से लगभग 30 हजार रुपए। मुझे मिर्जापुर आए दो माह हो चुके थे पर अभी वेतन नहीं मिला था। मैंने गुज़ारिश की कि जब जाली बना ही चुके हो तो घर भिजवा दो, हम उसे दालान में लगवा दें। एकाध हफ्ते में वेतन आ ही जाएगा तब पैसे दे दूंगा। भांजे के परिचित, दोस्त होने के बावजूद लोहे का कारीगर धंधे वाला आदमी भी था। हामी भरने के बाद भी उसने दो हफ्ते तक जाली घर नहीं भिजवाई। मेरे पास पैसा नहीं और वह बिना पैसे के जाली पहुंचाने वाला नहीं। बरसात का महीना। जाली दो हफ्ते खू़ब भीगी। लोहे का रंग मुरचहा हो गया। दो हफ्ते बाद मेरा वेतन आया तो शेष पैसा चुकाकर जाली मंगवाया और दालान के दरवाजे पर फिक्स कराया । बाद में मैंने उसी तरह के काम के लिए सिकरारा में जांचा तो पता चला कि यहां का दुकानदार 60 रुपए किलो के हिसाब से ही काम करने को तैयार है। ख़ैर…. ग़लती मेरी कि बिना एक-दो ज़गह जांचे-परखे, मोलभाव किए, भांजे का मित्र देखकर भभौरी में आर्डर दे दिया था। जहां से घटिया अनुभव प्राप्त हुआ। मजदूरों वाले सबक के बाद यह मेरा गांव का दूसरा सबक था।

दालान में किचन नहीं था। जमीन पर बैठकर खाना बनाना पत्नी के साथ-साथ मेरे लिए भी कष्टकारी था। अतः दालान के बरामदे में ही पश्चिम दिशा में दो टांड़ ढलवाकर ओपेन किचन बनवाया गया। साथ ही अंदर के हॉल और कमरे में भी एक एक टांड़ सामान रखने के लिए बनवाया गया। अब दालान पूरी तरह से सुरक्षित थी। लाइट हो गई। किचन बन गया। दरवाजे पर लोहे की जाली लग गई। अब लखनऊ से गृहस्थी का सामान- बेड, आलमारी, फ्रिज, वॉशिंग मशीन, कूलर, तख्त, बरतन और कपड़े लाकर दालान भर दिया गया। एक खाली तथा उपेक्षित दालान एक भरा-पूरा घर बन गया।

30 साल बाद अपने गांव वापस आया रहने के लिए

अब थोड़ा गांव और गांव वालों की ओर रुख करते हैं। मेरा गांव- पांडेयपुर। जिसमें सबसे अधिक पांडे, दूसरे स्थान पर एससी, तीसरे स्थान पर यादव तथा एक दो घर ठाकुर, बनिया, कहार आदि। यादव बस्ती सबसे दक्षिण में थी।  लगभग 40 घरों का एक पुरवा। जिसका अलग से कोई नाम नहीं था- अहिरान कहा जाता था। दूर गांव के लोग बटखरी का पुरवा कहते थे क्योंकि किसी एक बटखरी नाम के आदमी ने सबसे पहले यहां डेरा डाला था । इन्हीं के बंशज आज बढ़कर 40 घर हो गए हैं। सभी यादव – ग्वाल। गांव में कोई कच्चा मकान नहीं है। सभी के पास पक्का मकान है, बिजली है। कुछ लोगों के पास ट्रक है। कुछ लोगों के पास ट्रैक्टर भी है। गांव में तीन-चार कारें भी है। कई लोगों के पास अपनी टैक्सी और ऑटो-रिक्शा भी है जो मुंबई में चलती है। लगभग सभी घरों में भैंस पाली जाती है। 60 प्रतिशत घरों में शौचालय है। यह अलग बात है कि लोग बाहर ही शौच करने जाते हैं।

वर्तमान में तीन लड़के इलाहाबाद रहकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं। दो आईआईटीयन हैं, दो गजटेड ऑफिसर, तीन आर्मी मैन, तीन प्रदेश सरकार के कर्मचारी। शादियां देर से होती हैं। शादी-ब्याह के समय बारात में 20-30 बोलेरो जाती है। शादी के बाद लड़के अमूमन मुंबई या सूरत जाकर अपना धंधा-पानी करते हैं। पढ़ने योग्य सभी बच्चे पढ़ रहे हैं। लोकल मार्केट में कुछ कोचिंग भी चलती है। वहां पर भी अपने गांव के कुछ बच्चे पाए जाते हैं। गांव में एक मंदिर भी है। नवरात्रि में दो स्थानों पर दुर्गा प्रतिमाएं भी रखी जाती है। गांव में एक किराने की दुकान भी है। इतने के बाद भी गांव के काफी लोगों के पास बीपीएल कार्ड है। भैंस नहीं लगती तो डॉक्टर के इलाज के साथ-साथ झाड़ फूंक भी कराई जाती है। बच्चे बीमार होते हैं तो, नज़र और टोना भी झराया जाता है। भूत को लेकर झगड़े भी होते है।

लेखक अतुल यादव के गांव का पैतृक घर

गांव छोड़ने के लगभग 30 साल बाद मैं अपने गांव रहने के लिए वापस आया था। गांव में केवल वही लोग पहचान में आ रहे थे जो मेरे हमउम्र या मुझसे बड़े थे। कुछ छोटे भी पहचान में आ रहे थे पर एक बड़ी संख्या 20 साल से छोटी उम्र की थी, जो पहचान से बाहर थी। ढेर सारी नयी-नयी बहुएं थी जो मुंह ढककर आ-जा रही थीं। जिन्हें मैं कत्तई नहीं पहचान सकता था। हां, नये-नये लड़के, लड़कियों से उनका परिचय पूछ लेता था। खै़र…. सबको पता चल चुका था कि मेरा ट्रांसफर मिर्जापुर हो गया है और अब मैं गांव में ही रहकर मीरजापुर में नौकरी करुंगा। मैं घर आकर बहुत खुश था तथा शायद घर भी मुझे पाकर खुश था।

मेरा गांव पूरब से पश्चिम में अधिक लंबा है बनिस्बत उत्तर और दक्षिण के। उत्तर से दक्षिण कोई एक रास्ता नहीं है पर पूरब से पश्चिम एक प्रतिनिधि रास्ता है जिस पर ईंटा बिछाया गया है, न जाने कितने सालों पहले। गांव के पूरब से पश्चिम वाले सबसे चालू रास्ते पर खड़ंजा लगाया तो चौड़ा गया था पर अतिक्रमण के कारण संकरा रह गया था। ऐसा कोई काम नहीं जो इस खड़ंजे पर न होता हो। इस खड़ंजे पर सटाकर जानवरों के खूंटे गाड़े गए थे। इसी खड़ंजे पर गाय भैंस की नादें भी थीं। इसी खड़ंजे पर मिट्टी भी रखी गई थी। इसी पर ईंट के चट्टे भी रखे थे। इसी पर स्नान भी होता था। इसी पर उपरी भी पाथी जाती थी। इसी पर बच्चे शौच भी करते थे। कुछ लोगों ने इसी से सटाकर बांस भी बांध रखा था। कूड़ा भी इसी पर रखा जाता था। कहीं घर का पनारा भी इसी पर गिरता था। इससे अधिक काम शायद इस खड़ंजे पर नहीं किया जा सकता था इसलिए इतना ही काम होता था। बरसात के महीने में पूरब से पश्चिम खड़ंजा पर से सुरक्षित निकल पाना मुश्किल था। आप खुद बिना गिरे इस खड़ंजे पर से निकल भी गए तो ज़रुरी नहीं कि आपका कपड़ा भी सुरक्षित रहे।

गांव के अधिकांश लोगों की खेती-बाड़ी गांव के दक्षिण की ओर थी। एक खड़ंजा गांव के दक्षिण ओर भी था जो गांव से निकलकर माइनर तक जाता था। कुल दूरी -500 मीटर। यह खड़ंजा भी कम उपयोगी नहीं था। इस पर चोर के पौधे, मनार के पौधे, कुछ डेढ़-दो फीट ऊंची अन्य घासों के पौधे भी थे। खड़ंजा के दोनों ओर धान के खेत थे, माइनर तक। इस खड़ंजे पर गांव भर के लोग, भैंस, ट्रैक्टर, मोटर कारें सभी आते जाते थे। रात-बेरात इसी पर बरसाती सांप भी निकल आते थे। बावजूद इसके इस चकरोड के दोनों ओर गंदगी की जाती थी। पैदल तो आप दिन में नाक बंद करके कूदते-फांदते निकल भी सकते हैं, अपने जूते-चप्पल या पैंट बचा भी सकते हैं, लेकिन अगर आप चार पहिया गाड़ी से हैं, तो घर आने पर आपकी गाड़ी बदबू करती है। इस चकरोड पर गंदगी करने का दशकों पुराना इतिहास है। पहले ज़माने में बगल गांव के कुछ लोग सूअर चराते थे। सारी गंदगी सूअर खा जाते थे। अब उन लोगों ने सूअर रखना और चराना लगभग छोड़ दिया है।

ख़ैर, मैं इन सब चीजों का उतना अभ्यस्त नहीं था जितना अन्य लोग। मुझे लगा कि गांव में नया-नया आया हूं तो कुछ नया कर भी सकता हूं। मुझे करना भी चाहिए। आख़िर कुछ तो फर्क दिखना चाहिए मेरी मौजूदगी और गैर मौजूदगी में।

नई रोशनी-नया गांव मिशन की शुरुआत

गांव के रास्तों और साफ-सफाई का जिक्र मैंने पप्पू, बबलू और नान्हक से किया। ये तीनों लोग मेरी तुलना में गांव में अधिक रहने वाले तथा मेरी तुलना में गांव के अधिकांश युवाओं से अधिक घुले मिले थे। ये तीनों भी इस गंदगी और अतिक्रमण से त्रस्त थे पर ये मान चुके थे कि गांव सुधरने वाला नहीं है। इन लोगों ने भूतकाल में कुछ फुटकर प्रयत्न किए थे लेकिन मनचाही सफलता नहीं मिल पाई थी। इन तीनों ने अपने अनुभव बताए तथा यह भी बताया कि गांव के कौन-कौन लोग इस सफाई मिशन के दुश्मन हैं, कौन-कौन विरोध करेगा, वगैरह-वगैरह।

चकरोड को अतिक्रमण मुक्त करते गाँव के युवा

ख़ैर, निर्धारित किया गया कि कल सुबह गांव के दक्षिण के रास्ते की थोड़ी बहुत साफ-सफाई की जाएगी। यह बात गांव के वॉट्सऐप ग्रुप- ‘नई रोशनी-नया गांव’ पर डाल दी गई। सभी को बता दिया गया। ग्रुप पर यह खबर मैंने डाली। कुछ रिस्पॉन्स भी आए, उन लोगों के जो गांव के बाहर रहते हैं। अगले दिन तय समय पर मैं, पप्पू, बबलू फावड़ा लेकर इस उम्मीद में घर से निकले कि अब गांव के और बच्चे आएंगे और आज एक ऐतिहासिक शुरुआत होगी। तय समय से एक घंटे बाद तक गिनती तीन तक ही रही। कोई भी बंदा गांव से निकलकर हमारी ओर आता नहीं दिखा। हमारी ओपनिंग फेल हो चुकी थी। हम निराश होने लगे थे। थोड़ा बहुत रास्ते की घास, झाड़ झंखाड़ साफ किया गया, लेकिन मन विचलित सा था।

इतने में जोगी आता दिखा। मेरा पड़ोसी भतीजा। जोगी की एक ख़ासियत है कि हर किसी के घर जाता है, हर जगह बैठता है, सबकी बात सुनता है, अपनी कहता है। गांव की सबसे अधिक सूचनाएं जोगी के पास रहती हैं। पप्पू ने जोगी को बुलाया। पप्पू को लगा कि देर से ही सही अब टीम आएगी तथा काम आगे बढ़ेगा। जोगी आया तो पर उसने फावड़ा नहीं उठाया। थोड़ा इधर-उधर की बात करने के बाद उसने बताया कि गांव के लोग इस काम में आपके साथ कोई नहीं आएगा। लोगों का कहना है कि साफ-सफाई करना है, अतिक्रमण हटवाना है तो सबसे पहले आप अपने घर से शुरू कीजिए। आपने चकरोड पर जो कब्जा कर रखा है, पहले उसे हटवाइए। मैं इस बात को सुनकर डबल शॉक्ड था। पहला तो यह कि मैंने तो कहीं अतिक्रमण किया ही नहीं है। इतने सालों बाद घर आया ही हूं तो अतिक्रमण कब करुंगा, दूसरा यह कि मुझमें गांव के लोगों का विश्वास नहीं है। जोगी आगे कहता गया – पातर (मेरा चचेरा छोटा भाई) ने अपनी बाउंड्री के बाहर सड़क पर कूड़ा इकट्ठा कर रखा है, वहां से साफ-सफाई, अतिक्रमण हटाने का काम शुरू कीजिए, सब आएंगे।

जोगी को यद्यपि दाढ़ी आ गई थी पर मेरी नज़र में अभी वह बच्चा ही था। मैंने उसको कभी सीरियसली नहीं लिया था। पर आज, अभी तुरंत मैंने उसको पहली बार ग़ौर से सुना तथा इतनी सटीक बात जो मुझसे और किसी ने नहीं कहा, जोगी ने बिना लाग लपेट के सीधे-सीधे कह दी। मैंने इस बात के लिए मन ही मन उसकी तारीफ की। आज का कार्यक्रम यही समाप्त किया गया। मैंने पप्पू, बबलू और जोगी को वहीं बताया कि कल अभियान पातर के घर से ही शुरू किया जाएगा।

इंटर कॉलेज में लाइब्रेरी के उद्घाटन के अवसर पर अतुल यादव

गांव के सबसे दक्षिण में मेरा घर था। मेरे घर के बाद खेत शुरू होते थे तथा आगे फिर माइनर पड़ता था। यानी गांव में माइनर की ओर से घुसेंगे तो सबसे पहले मेरा ही (पातर का) घर पड़ेगा। ख़ैर, अगले दिन सुबह गांव के कुछ लड़के मेरे घर के आस-पास मंडराने लगे। मैंने किसी से फावड़ा तो किसी से तसला मंगवाया और पातर की बाउंड्री के पास आकर खड़ा हुआ। एक के हाथ से फरसा लेकर पातर की बाउंड्री के बाहर सड़क पर रखा कूड़ा तसले में भरने लगा। एक तसला भर कूड़ा पातर की बाउंड्री के अंदर डाला। सड़क पर जिसका कूड़ा था उसकी बाउंड्री में फेंके जाते ही दसेक लड़के तुरंत सक्रिय हो गए। कोई फरसा पकड़ा तो कोई तसला। एक घंटे में सड़क के पातर की ओर का सारा कूड़ा हटाकर उनकी बाउंड्री के अंदर कर दिया गया। ऐतिहासिक काम की शुरुआत हो चुकी थी।

पातर घर पर नहीं थे। उनकी मां ने मेरी उपस्थिति स्वीकारते हुए एक भी शब्द नहीं बोला। वरना सामान्य दिनों में किसी की क्या मज़ाल कि बाउंड्री के ऊपर आंख डाल दे। गांव के सारे बच्चे जोश में। महिलाएं तथा बूढ़े भी इकट्ठे होते गए तथा कौतूहल से हमारा काम देखते तथा आगे बढ़ते गए। अभी चकरोड की शुरुआत में केवल एक ओर का कूड़ा हटा था, अब दूसरी ओर का भी हटाने लगा। एक घंटे और बीतते- बीतते सुनील के घर की तरफ से भी कूड़ा हटाकर खड़ंजा खोल दिया गया। चूंकि पातर की तरफ से कोई नहीं बोला तो सुनील की तरफ से भी कोई नहीं बोला और कुल दो घंटे के अंदर चकरोड की साफ-सफाई, अतिक्रमण मुक्त करने का कार्य बड़ी शानदार तरीक़े से शुरू हो चुका था। सड़क अनुमान से अधिक चौड़ी, साफ और सुन्दर दिखने लगी थी। गांव के अन्य लोग – बूढ़े, महिलाएं आकर साफ चौड़ी सड़क देखने तथा लड़कों की तारीफ करने लगे। कोई अपने घर से ढेर सारा गुड़ उठा लाया, कोई महिला बाल्टी का पानी और लोटा। सबने पानी पीया और एक नयी अनुभूति के साथ अपने-अपने घर गए कि कल सुबह फिर यहीं आकर आगे का काम करना है। आज के काम की ढ़ेर सारी फोटो गांव के वॉट्सऐप ग्रुप पर डाली गई तथा गांव के बाहर रहने वाले सभी लोगों ने आज के कार्य की तारीफ की और हमारी टीम का उत्साहवर्धन किया।

फिर तो सिलसिला शुरू हो गया। बालकों की टीम दूने उत्साह के साथ अन्य लोगों के अतिक्रमण भी हटाने लगी। पता नहीं कहां से लड़कों में इतना जोश आ गया था। दो-तीन घंटे रोज श्रमदान शुरू हो गया। गांव के पूरब से पश्चिम तक चकरोड पर घास साफ करना, चकरोड पर बढ़ आए पेड़ों को छांटना, चकरोड पर बह रही नालियों को ईंट से ढ़कना, उखड़ गए खड़ंजों को दुरुस्त करना, चकरोड पर की नादों को हटाकर पीछे करना तथा चकरोड पर से खूंटा उखाड़ने का ऐतिहासिक काम क्रांति की तरह होने लगा। सभी लड़के आत्मप्रेरित थे। स्वतः स्फूर्त थे।

बड़े और अधिक उम्र के लोगों को परंपराओं से बड़ा प्यार होता है। जो दसियों साल से चकरोड पर उपरी पाथ रहे थे, खूंटा गाड़े थे या नाद रखे थे वे ऐसा होने से बुदबुदाने लगे तथा कहीं कहीं मंद स्वर में विरोध में भी आ गए। पर तारीफ करनी होगी उनके घर की युवा बहुओं की। वे आगे आईं तथा उन्होंने घूघंट के अंदर से ही खुलकर सहयोग किया। टूटे खड़ंजे के लिए कुछ महिलाएं घर बनाने के लिए रखी ईंटों में से कुछ ईंट देने लगीं तो कुछ महिलाएं अपने दरवाजे पर से मिट्टी खोदकर चकरोड पर यथा आवश्यकता डालने देने को तैयार हो गई। जिनकी गाय-भैंसे सड़क पर बैठती थीं वो इस बात के लिए तैयार हो गई कि वे इस प्रकार बांस बांधेगी कि जानवर सड़क पर नहीं आने पाएगा। जिनके घर के पास काम होता था वो महिलाएं अपने घरों से गुड़ तथा बाल्टी लोटा पानी देकर लड़कों का उत्साह बढ़ाने लगीं ।

इन सारे कार्यों की फोटो खींच-खींच कर गांव के ह्वाट्सएप ग्रुप पर प्रतिदिन डाला जाने लगा। दिल्ली, मुंबई, सूरत आदि शहरों में रहने वाले लड़कों ने ग्रुप पर बकब किया। काम की चौतरफा तारीफ होने लगी। शाम को आस-पास की छोटी-छोटी दुकानों नुमा बाजारों- मीठेपार, झिम्मलगंज, तिराहा, यहां तक कि सिकरारा चौराहा तक भी इस काम की चर्चा होने लगी। मैं भी गांव के अपने इस अनुभव को अपने फेसबुक पेज पर ‘गांव कनेक्शन’ नाम से एक सिरीज के रूप में फोटो सहित लिखने लगा। कुछ ही दिनों में गांव का सबसे बड़ा रास्ता, पूरब से पश्चिम तक चौड़ा, साफ-सुथरा तथा सुन्दर दिखने लगा।

मेरे गांव में बिजली 1987 में आई थी। पहले तार नंगा था पर बाद में पता नहीं कब केबल तार आ गया जो पेड़ों की डालों में से होकर गुजरता था। आंधी आने या तेज हवा चलने पर खंभे तथा तार जोर-जोर से हिलने लगते थे। एक दिन सीढ़ी, बांका, हेलमेट लेकर युवा टीम इकट्ठा हुई तथा पूरे गांव में बिजली के तार के रास्ते में आने वाले पेड़ों की अच्छी काट -छांट कर दी गई। इस काट-छांट का भी सभी ने स्वागत किया। किसी ने कोई विरोध नहीं किया। यह अभियान नित नई सफलता प्राप्त करता जा रहा था।

जब नये लड़कों को भड़काया गया

हमारी युवा टीम के परिश्रम, लगन और शोहरत से पता नहीं कैसे ग्राम प्रधान को थोड़ी सी शर्म आई। उस बंदे ने गांव के पश्चिम ओर चकरोड पर जिस पर लगभग 30 वर्ष पूर्व खड़ंजा पड़ा था, उसकी मरम्मत की सोची तथा काम शुरू करवा दिया। हमारी टीम ने प्रधान का पूरा सहयोग किया। यथा आवश्यकता तथा बिना आवश्यकता के ही हमारी टीम दिन भर में एक-दो चक्कर उक्त खड़ंजे पर करने लगी। मनरेगा के मजदूरों के कामों की देखभाल करने लगी। उनसे बात करना तथा यथासंभव उनका सहयोग करना शुरू किया।

मेरे गांव की असल प्रधान एक महिला हैं। जैसा कि ऐसी दशा में होता है- प्रधानपति या प्रधानपुत्र ही असली भूमिका में होता है। प्रधान का जो लड़का प्रधानी का कार्य देख रहा था वह सीधा-सरल लड़का है तथा यह उसकी सरलता और सीधापन का ही असर था कि बंदे ने हमारे गांव के पश्चिम का मुख्य निकास मार्ग बनने के 30 वर्ष बाद रिपेयर कराने का  सोचा तथा किया भी। वरना इसके पहले पता नहीं कितनी बार, कितने प्रधानों ने कागज पर उक्त सड़क की मरम्मत कराई होगी – राम जाने।

गांव के कुछ महीन लोगों को हमारी युवा टीम का यह काम पसंद नहीं आया। उन्होंने एक साथ कई मोर्चों पर अभियान को विफल करने का कार्य शुरू किया। कुछ नये लड़कों को यह कहकर भड़काया गया कि फरसा चलाते समय की तुम्हारी फोटो इंटरनेट पर चली जाएगी तो कल को तुम्हारी शादी भी नहीं होगी। लोग कहेंगे कि लड़का मनरेगा में काम करता है। कुछ ने इस बात पर विश्वास भी किया और मिशन के काम से दूरी बनाने लगे। कुछ एक लोगों ने आवश्यकता न होने पर भी सड़क के किनारे पुनः खूंटा गाड़ लिया। एक ने गाड़ा तो कइयों ने गाड़ लिया।

एक ने नाद खड़ंजे के नजदीक खिसका ली तो औरों ने भी देखा-देखी नाद थोड़ा और सड़क की ओर बढ़ा ली। यह अफवाह भी उड़ाई गई कि “ये” अब घर आ गए हैं तो बेटों की शादी गांव से ही करेंगे। इसलिए रास्तों की साफ-सफाई करा रहे हैं। खुद अपने पैसे से मजदूर लाकर काम कराएं, गांव के लड़कों से क्या मजदूरी करा रहे हैं। एक आरोप यह भी उड़ाया गया कि नान्हक, पप्पू और मेरे पास चार पहिया गाड़ियां हैं और सड़क सफाई एवं चौड़ीकरण का कार्य हम लोगों द्वारा अग्रणी रूप से किया जा रहा है। यानी ये लोग अपनी-अपनी गाड़ियों के लिए ऐसा कर रहे हैं। यह अलग बात है कि गांव में कई एक ट्रैक्टर बीसों साल से हैं। एक यह बात भी उड़ाई गई कि चूंकि अब मैं रिटायरमेंट के आस-पास हूँ, अगले साल प्रधानी का चुनाव है अतः मैं यह सब प्रधानी का चुनाव लड़ने के लिए कर रहा हूं। उपरोक्त सभी आरोप छन-छन कर मेरे पास आ रहे थे। सीधे मुझसे किसी ने ऐसा कुछ नहीं कहा।

खेत में छिड़काव करते अतुल यादव

कोई भी अभियान अनंत काल तक नहीं चल सकता। मेरे गांव आने के तीन चार महीने तक इतना काम हुआ। फिर सबकी अपनी-अपनी व्यस्तताएं होती गई तथा मिशन भी पूरा हो ही चुका था। पप्पू को मर्चेन्ट नेवी से बुलावा आ गया था, उन्हें जाना पड़ा। नान्हक मुंबई में प्रापर्टी का काम करते हैं उन्हें भी जाना पड़ रहा था। बबलू अपने बड़े भाई राजेश के आमंत्रण पर सपरिवार मुंबई घूमने जा रहे थे तथा मैं भी मीरजापुर में पूरी तरह से स्थापित हो चुका था। ऐसी दशा में मिशन को रुकना या कहिए विराम लेना ही था। संगठन को ढीला होना ही था। विपरीत शक्तियों को कुछ-कुछ सफलता मिलनी ही थी। फिर भी गांव में एक बदलाव की शुरुआत हो चुकी थी। कुछ दिन बाद ही पता चला कि जिला पंचायत अध्यक्ष जो इसी क्षेत्र से जिला पंचायत सदस्य चुने गए थे- उन्होंने गांव के दक्षिण छोटी नहर से लेकर गांव के अंदर तक पक्की सड़क बनवाने की मंजूरी दे दी है तथा इसी वित्त वर्ष में यह कार्य पूर्ण हो जाएगा। पता नहीं यह संयोग था या हमारी टीम का प्रयास या कुछ और कि हम इकट्ठा हुए तो क्या ग्राम प्रधान, क्या जिला पंचायत अध्यक्ष, सभी ने हमारे गांव के लिए काम करना शुरू कर दिया। मेरा गांव वाकई बदल रहा था।

गांव के बाहर दक्षिण पूरब कोने पर एक कुआं था जहां किसी के मरने पर घट बांधा जाता था तथा शुद्धक का काम होता था। 2001 में जब मेरे पिताजी की मृत्यु हुई तब परम्परा के अनुसार शुद्धक का पूरा काम उसी कुएं पर हुआ था। उस समय वह कुआं ज़मीन के बराबर था यानी जगत वगैरह नहीं बनी थी। मैंने उसी समय निश्चय किया कि पिताजी की पहली पुण्यतिथि तक इस कुंए को पक्का करा देना है। मैंने ऐसा कराया भी।

कुएं के बगल में बाथरूम बनवाने का विचार

मेरे पिताजी आधुनिक विचारों वाले व्यक्ति थे- धार्मिक कूप-मंडूकता से अलग। जब हमारे गांव में मेरी उम्र के लड़के शादी के बाद बाम्बे जाकर कमा रहे थे तथा ट्रैक्टर, भैंस और खेत खरीद रहे थे तब मेरे पिताजी मुझे तथा मेरे दो चचेरे भाइयों को पढ़ा रहे थे। उन्होंने गांधी आश्रम की नौकरी की थी, जहां कमाई से केवल बच्चों को पढ़ाया ही जा सकता था। ख़ैर….

उक्त कुएं के पुनर्निर्माण में जो भी ईंट, सीमेंट, मजदूरी आदि लगा, सब मैंने अकेले खर्च किया। कुएं की जगत बन गई। छूही नहीं बन पाई, सीढ़ी नहीं बन पाई तब तक बरसात आ गई। अतः काम रोक दिया गया। ईंट वहीं रख दी गई कि बरसात के बाद इस कुएं का शेष काम पूरा किया जाएगा।  भाई लोगों ने बरसात बीतते-बीतते सारी ईंट गायब कर दी। उस समय मेरी पोस्टिंग हरदोई में थी। घर आना कम हो पाता था। अतः एक बार काम रुक गया तो दोबारा शुरू नहीं हो सका। गांव के किसी और व्यक्ति द्वारा उक्त अधूरा काम पूरा करने की सोचना बेमानी था।

इधर 2019-20 में जब गांव में एक के बाद एक मौतें होने लगीं तथा पानी देने एवं श्राद्ध का काम उसी कुएं पर किया जाने लगा तो मैंने एक चीज नोटिस की कि उस कुएं के आस-पास कोई पेड़ भी नहीं था तथा महिलाएं भी वहीं कुएं की जगत पर या नीचे खुले में नहाती थीं, कपड़ें बदलती थीं। यह बात मुझे खली तथा एक बार फिर मेरे मन में ख्याल आया कि कुछ किया जाना चाहिए। आखिर अपने गांव की ही तो मां, बहन, बहुएं, बेटियां हैं जो यहां खुले में नहाती हैं। मैंने मन ही मन निश्चय किया कि इस कुएं के बगल में एक बाथरूम बनवाया जाए।

इस बार मैंने यह काम अकेले करने का नहीं सोचा। इस बार गांव के सभी लोगों का सहयोग लेने का मन बनाकर एक दिन मैंने अपनी बात गांव के ह्वाट्सएप ग्रुप- ‘नई रोशनी, नया गांव’ पर शेयर किया। काफी सहमति हुई। ह्वाट्सएप पर ही तय हुआ कि अगले संडे को सभी लोग उस कुएं पर सुबह नौ बजे इकट्ठा हों तथा बाथरूम बनवाने के बारे में विचार किया जाएगा। सही समय पर बारह-पन्द्रह लोग कुएं पर पहुंचे, फरसा एवं फीता के साथ। दो महिलाएं भी आईं- अन्नू की मां और मेरी पत्नी। 8×10 फीट की जगह पसंद की गई तथा ईंट, सीमेंट, लेबर आदि सबका एस्टिमेट डिस्कस किया गया। सर्वसम्मति से निर्णय हुआ कि गांव में प्रति परिवार एक हजार रुपए चंदा लगाया जाए। सभी तो देंगे नहीं। या तो कुछ लोग बिल्कुल नहीं देंगे, कुछ लोग पूरा नहीं देंगें। कुल मिलाकर बाथरूम बनाने तथा एक हैंडपंप लगवाने भर का पैसा इकट्ठा हो जाएगा। सबको उपयोग करना है तो सबकी सहभागिता एवं सहमति उचित होगी। सभी लड़कों ने मेरे साथ पूरा गांव घूमा तथा सबसे इस बारे में चर्चा की गई। पूरा गांव घूमने के बाद कुल चार हजार रुपए इकट्ठा हुए। तरह-तरह की बातें, तर्क सुनना पड़ा। यह निर्णय किया गया कि अगले रविवार को पुनः अभियान चलाया जाएगा।

षडयंत्र के चलते नहीं बन सका बाथरूम

निगेटिव शक्तियां एक बार पुनः सक्रिय हो गई। तरह-तरह की बातें, तर्क-कुतर्क शुरू हो गए। प्लान फेल करने की साजिश बड़ी तेजी से कार्य करने लगी। कुछ लोगों ने मेरी इस योजना पर लानतें भेजनी शुरू कर दीं कि मुझे यह काम अकेले करना चाहिए, अनायास ही मैं चंदा लगा रहा हूं। किसी ने कहा कि ईंट मैं दूंगा, किसी ने कहा सीमेंट मैं दूंगा। तय हो गया कि चंदे से काम नहीं होगा।

एक पूर्व ग्राम प्रधान तथा मेरा एक चचेरा भाई इस प्लान को फेल करने वाली साजिश के प्रमुख सूत्रधार थे। वेन्यू था जौनपुर का रामघाट तथा मौका था मुरारी के अंतिम संस्कार के समय का। गांव के काफी लोग वहां इकट्ठा थे। चर्चा छिड़ गई। पूर्व प्रधान ने कहा कि बाथरूम बनवाने में जितना ईंटा लगेगा सब मैं दूंगा। मेरे चचेरे भाई ने कहा कि सीमेंट और मजदूरी मैं दूंगा। इन दोनों ने गांव में घोषणा कर दी कि कोई भी चंदा न दे। इस साल गर्मियों में हम लोग मिलकर बाथरूम बनवाएंगे। ताली बज गई। पूर्व प्रधान और मेरा चचेरा भाई मेरी योजना को पलीता लगा चुके थे।

यह वही पूर्व प्रधान जी हैं जो 15 साल गांव की प्रधानी किए हैं। क्या किए क्या नहीं यह तो नहीं पता पर एक बात थी कि यादव बस्ती में हर शादी -ब्याह, मरनी-करनी में आते थे तथा समय देते थे। उन्हें पता था कि अहिरान जिसके साथ होगा वही गांव का प्रधान होगा। गांव में सबसे अधिक वोट ब्राह्मणों का था, दूसरे स्थान पर अनुसूचित जाति के लोगों का था फिर यादवों का। शेष जातियां अल्पसंख्यक थीं। ब्राहमणों में एक दो लोग चुनाव लड़ा ही करते थे तथा प्रधान भी हुए थे। अनुसूचित जाति के लोगों में भी जागरूकता थी तथा वे भी चुनाव लड़़कर प्रधान हुए थे। यादवों में ऐसा नहीं था।

आज तक के मेरे ज्ञात इतिहास में दो यादवों ने प्रधानी का चुनाव लड़ा था पर दोनों बुरी तरह चुनाव हारे थे। एक मेरे पिताजी तथा दूसरे गिरजा शंकर यादव। दोनों बार गांव में दारू, मीट तथा रुपया खूब चला था। लगभग पूरा अहिरान उसमें डूबा था। परिणाम- सारी वोट बाहरी लोग ले गए। यादवों की इस कमजोरी का फायदा हर दूरदर्शी प्रधान प्रत्याशी उठाता था। इस बात को सभी अच्छी तरह जानते थे। इसलिए गांव में अक्सर मीट और दारू की दावतें होती थी तथा उनके लोग सहर्ष उसका आनंद लेते थे, इसमें मेरा चचेरा भाई भी था। ऐसी दावतें अक्सर मेरे दरवाजे पर ही हुआ करती थीं, जब मैं गांव में नहीं आया था। बाद में मेरे घर के खंडहर में मिली दारू की बोतलें इस बात का प्रमाण थीं।

मेरे इस चचेरे भाई का नाम पातर है। जब वह स्नातक कक्षा में थे तो इनके मामा ने मेरे पिताजी से कुछ रुपए मांगे कि यदि आप इतना रुपया दे देते तो पातर की नौकरी के लिए मैं प्रयास करुं, मेरा जुगाड़ है, काम बन सकता है। मामा रामफेर एक भले आदमी थे। वे विश्वसनीय तथा जांचे परखे व्यक्ति थे। स्वास्थ्य विभाग के अहलकार थे। जैसा मैंने पहले ही बताया था कि मेरे पिताजी गांधी आश्रम में नौकरी करते थे तथा हम तीन लोग (मैं तथा दो चचेरे भाई) पढ़ रहे थे। ऐसे में नौकरी के लिए रुपए देने की औकात मेरे पिताजी की नहीं थी। पर चूंकि बात भतीजे की नौकरी की थी तो पिताजी को समझौता करना पड़ा। अपने गांव के ब्राह्मण बस्ती में एक पांडेय जी ब्याज पर रुपया बांटते थे। पिताजी उनके पास खुद जाने को तैयार नहीं थे तो उन्होंने गांव के ही गौरीशंकर यादव को उन पांडेय जी के पास भेजा तथा ब्याज पर रुपया मंगवाया और रामफेर मामा को दे दिया गया।

उस समय मेरे पिताजी रसड़ा, बलिया में पोस्ट थे। उन्होंने यह वाकया मुझे एक पत्र में लिखकर भेजा। पांच फीसदी मासिक चक्रबृद्धि ब्याज पर एक बड़ा एमाउंट लेना पीड़ादायक था। उस समय मैं जौनपुर के कामता लॉज में रहकर टीडी कॉलेज से M. com. कर रहा था। वहां मेरे संरक्षकों में एक थे बाबूराम यादव। जो तहसील जौनपुर में लेखपाल थे।आज भी मैं उनका बड़ा सम्मान करता हूँ तथा वह मुझे उतना ही स्नेह करते हैं। मैंने पिताजी का वह पत्र बाबूराम चचा को दे दिया तथा पूछा कि मुझे क्या करना चाहिए। उन्होंने मुझे सलाह दिया कि पत्नी के पास गहने वगैरह हों तो बेच-बाच कर पांडे का पैसा वापस कर दो। ब्याजी पैसा बड़ी तेजी से बढ़ता है। गहना गुरिया तो बाद में भी बन जाएगा।

मेरी शादी में हमारी ओर से गहना तो बहुत कम दिया गया था पर मेरी पत्नी मायके पक्ष की अकेली लड़की थी तो उन्हें गहने वगैरह पर्याप्त मिले थे। मैंने बाबूराम चचा की बात मानी तथा पत्नी की चेन अंगूठी, झुमका आदि कुछ गहने बेचकर गौरीशंकर यादव को एक महीने के ब्याज के साथ पूरा रुपया देकर पांडेय जी का पैसा अदा करने के लिए भेजा। पैसा लिए अभी एक माह से अधिक नहीं हुआ था। जब पांडेय जी को पता चला कि वह रुपया मेरे पिताजी ने मंगवाया था तो उन्होंने ब्याज का पैसा नहीं लिया। ख़ैर…… पातर आज जो नौकरी कर रहे हैं वह उसी पैसे का परिणाम है।

पूर्व प्रधान तो प्रधानी का चुनाव लड़ने वाले थे जो इसी साल के अंत में होगा इसलिए उन्होंने एक पासा फेंका था बाथरूम के लिए ईंट देने के रूप में पर मेरे चचेरे भाई की क्या नीति थी, वह मुझे क्यों फेल करना चाहता था, यह मैं नहीं समझ सका। बहरहाल, मिशन बाथरूम टांय-टांय फिस्स……..।

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