Thursday, November 21, 2024
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ग्राउंड रिपोर्ट

मजदूरों को काम देने में नाकाम होती जा रही हैं बनारस की श्रम मंडियाँ

एक समय था जब असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को मंडियों में आसानी से काम मिल जाया करता था लेकिन आज स्थिति यह हो गई है कि पूरे महीने भर में केवल 10-15 दिन ही लोगों को रोजगार मिल पा रहा है। यह स्थिति मजदूरों के अनुसार पिछले 8-10 वर्षों में जयादा तेजी के साथ आई है।

खनन, कंस्ट्रक्शन, खेती-किसानी, कारपेंटरी और भट्ठियों पर काम करने वाले असंगठित क्षेत्र के मजदूरों का जीवन कैसा है इसकी बानगी शहर की मंडियों में ही देखने को मिलती है इनमें कुछ ईंटों की चिनाई करने का काम करते हैं तो कुछ ईंट-गारा ढोने का। मेनहोल का गटर साफ करने और सिर पर सामान ढोने वाले भी काम की तलाश में लाइन लगाकर सड़कों के किनारे बनारस की विभिन्न मंडियों में चिलचिलाती धूप में इस आस से खड़े रहते हैं कि शायद कोई आएगा और आज की रोटी का इंतजाम हो जायेगा।

 प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संसदीय क्षेत्र में की लगभग 20-25 मंडियों में काम की तलाश में आने वाले मजदूरों  की स्थिति बद से बदतर होती गई है। काम न मिलने के कारण सड़क के किनारे लाइन लगाकर खड़े इन मजदूरों की आंखों से तब आंसू आ जाता है जब कोई इनसे काम के नाम पर सवाल पूछता है।

बढ़ता जा रहा है काम न मिलने का संकट

जौनपुर और वाराणसी के बार्डर के गांव गढ़खरा जो कि गाजीपुर जिले के सिधौना से 4 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी तय कर वाराणसी की अर्दलीबाजार की मजदूर मंडी में रोज काम की तलाश में आने वाले आज हरेन्द्र से जब हमने बात की तो वह काफी निराश दिखे। कारण कि आज उन्हें काम नहीं मिला। काम के इंतजार में ये 12 बजे तक इंतजार करते रहे और अब निराश मन से घर वापसी की तैयारी में हैं।

मंडी में काम के सवाल पर बोले, ‘मंडियों में आज काम मिलना बड़ा मुश्किल हो गया है। रोज 25 किलोमीटर की दूरी तय करके यहां मंडी में आता हूं। महीने में 10-15 दिनों तक काम मिलता है बाकी दिन निराशा ही हाथ लगती है। काम न मिलने का कारण पूछे जाने पर हरेन्द्र बोले, ‘महंगाई इतनी हो गई है कि कन्सट्रक्शन का काम एकदम से रुक सा गया है। आप कौन सा काम करते हैं और एक दिन में कितनी कमाई हो जाती है?

सवाल के जवाब में हरेन्द्र बताते हैं ‘मैं ज्यादातर लेबरई का काम करता हूँ। एक दिन का 500-550 रुपया लेता हूँ। लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि लेबरई का काम न मिलके छोटा ही काम मिल जाता है जैसे गाड़ियों से मॉल उतारना होता है तो ऐसे कामों का 200-250 रुपया मिल जाता है। खाली हाथ घर जाने से अच्छा है कुछ काम कर लिया जाय नहीं तो घर के बच्चे और परिवार के लोग क्या  खायेंगे।’

गढ़खरा गांव के रहने वाले हरेन्द्र

क्या इसके पहले भी काम मिलने में इतनी दिक्कत थी?  इस सवाल पर हरेन्द्र बोले, ‘नहीं, 8-10 साल पहले इतनी दिक्कत काम मिलने में नहीं आती थी, लेकिन आज ज्यादा दिक्कतें आ रही हैं। हरेन्द्र के ऊपर दो लड़के और दो लड़कियों सहित घर के सात लोगों के भरण पोषण की जिम्मेदारी है। उनके पास दस बिस्वा जमीन है। मंडी में जब काम नहीं मिलता तो एक उसी जमींन में काम-धाम कर लेते हैं लेकिन उनकी असल चिंता बच्चों के भविष्य को लेकर है। हरेन्द्र सवाल पूछने वाले अंदाज में कहते है खेती में भी अनाज पैदा करने के लिए उसमें खाद, बीज और पानी की जरूरत होती है। इन सबके लिए पैसा तो जेब में होना चाहिए। पैसा नहीं रहेगा तो खाद बीज और पानी की व्यवस्था कैसे करेंगे? हरेन्द्र आगे अपने मन की पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहते हैं ‘रोज आने में ही 60-70 रूपए खर्च हो जाता है। ऐसे में जिस दिन काम नहीं मिलता उस दिन बहुत अखरता है। अभी तो बच्चे छोटे हैं। सब काम जैसे-तैसे चल जा रहा है लेकिन जब वे बड़े होंगे तो उनकी पढ़ाई और शादी-व्याह का भी तो इंतजाम करना है। यह सोचकर कभी कभी बड़ा कष्ट होता है।’

लालबहादुर शास्त्री  एयरपोर्ट बाबतपुर के पास के कर्मी गांव के माता प्रसाद प्रतिदिन 25 किलोमीटर की दूरी तय करके वाराणसी की अर्दलीबाजार की मजदूर मंडी में काम की तलाश में आते हैं। आज इन्हें भी निराशा ही हाथ लगी क्योंकि आज इन्हें काम नहीं मिला। घर जाने की तैयारी में लगे माता प्रसाद से जब यह पूछा गया कि महीने में कितने दिन काम मिल जाता है तो रुआँसे होकर माता प्रसाद बोले, ‘आप लोग हम लोगों के कष्ट को नहीं समझ सकते। आज मंडी में भी काम मिलना मुश्किल हो गया है। किसी महीने 10 दिन तो किसी महीने में 15 दिन काम मिल रहा है। महंगाई इतनी ज्यादा है कि घर चलाना मुश्किल हो गया है।’

तीन लड़कों और एक लड़की के पिता माता प्रसाद के ऊपर माता-पिता सहित कुल आठ लोगों के पालन पोषण की जिम्मेदारी है। माता प्रसाद जब अपने मन की बात कह रहे थे तो उनके मन की पीड़़ा आंखों के माध्यम से आंसुओं के रूप में बाहर आने लगी। इस दौरान वहां पर जो दूसरे मजदूर खड़े थे वे उन्हें दिलासा दे रहे थे –‘रोने से आपके दुख को क्या ये कम कर देंगे? आप क्यों रो रहे हैं?’ माता प्रसाद थोड़ी देर बाद शांत हुए और फिर बोलना शुरू किए – ‘हम लोगों के काम में एक के बाद एक रुकावट आती रहती है। कभी कोरोना तो कभी दूसरी किसी चीज के नाम पर।’

बाबतपुर के पास के कर्मी गांव के माता प्रसाद

आपको महीने में 20 दिन भी काम नहीं मिल पा रहा है तो ऐसे में घर परिवार का खर्च और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई कैसे कर ले रहे हैं? इस सवाल के जवाब में माता प्रसाद बोले ‘बच्चों की पढ़ाई तो छूट चुकी है। वे अब स्कूल नहीं जा रहे हैं। किसी तरह से दो वक्त की रोटी मिल जा रही है, वही बहुत है उनके लिए। यह वाक्य कहते-कहते माता प्रसाद नीचे जमीन पर देखने लगे। ऐसा लग रहा था जैसे वे बच्चों के प्रति अपने फर्ज को पूरा न कर पाने की पीड़ा से बहुत दुखी हैं। वही पीड़ा उनकी आँखों से आंसू बनकर रह-रहकर निकल रही है। वह ज्यादातर श्रमिक का काम करते हैं लेकिन वह बताते हैं कि इसके आलावा जो भी काम मिल जाता है वह भी कर लेते हैं। वह किसी भी तरह से खाली हाथ घर नहीं जाना चाहते। माता प्रसाद बताते हैं ‘लेबरगीरी के काम में तो ऐसे कोई ले जाता है तो 500 रुपया मिल जाता है लेकिन ठेकेदार के साथ जाने पर 50 रुपये कम मिलता है क्योंकि 50 रुपया ठेकेदार कमीशन ले लेता है। माता प्रसाद के पास जमीन-जायदाद नहीं है। इनके लिए रोज कुआं खोदना और पानी पीने वाली स्थिति है।

काम पाने की जद्दोजहद में कम मजदूरी भी स्वीकारनी पड़ती है

वाराणसी के अर्दलीबाजार की मजदूर मंडी में काम की तलाश में आए भदोही के गोपीगंज के गांधीगांव निवासी सुखराम प्रजापति पिछले तीन दिनों से अपना रात का समय कैंट स्टेशन पर गुजारते हैं और दिन में अर्दलीबाजार की मजदूर मंडी में पहुंच जाते हैं। इन्हें तीन दिन में एक दिन काम मिला उसमें भी 500 की जगह 400 ही मिला। कारण पूछने पर सुखराम प्रजापति बताते हैं ‘कई लोग 450 रुपए पर काम करने के लिए तैयार हो गए तो मैंने सोचा आज भी हाथ से काम निकल ना जाय इसलिए मैं 400 रुपए में कम के राजी हो गया।’

आज सुखराम प्रजापति को काम नहीं मिला। निराश मन से एक दुकान के बरामदे में इस उम्मीद के साथ बैठे हुए हैं कि शायद कोई आएगा और उन्हें काम मिल जाय। काम के सवाल पर बोले, ‘भदोही में काम नहीं मिल रहा था इसलिए बनारस आ गया। इस उम्मीद के साथ की यहां मजदूर मंडी में काम तो आसानी से मिल जाएगा, लेकिन यहां भी काम का टोटा है। देखा, बड़ी संख्या में यहां लोग आए हुए थे और काम न मिलने की वजह से चले गए। मैं सोच रहा हूं थोड़ी देर और इंतजार कर लूं शायद कोई आ जाए और काम मिल जाए।’

भदोही के गोपीगंज के गांधीगांव निवासी सुखराम प्रजापति

आपके घर में कौन-कौन लोग हैं? सवाल पर सुखराम प्रजापति आगे बोले घर में मां-बाप के अलावा एक भाई, बहन, पत्नी और दो बच्चे हैं। भदोही में बहुत काम ढूँढ़ा लेकिन मेरे लायक कोई काम ही नहीं मिला। भदोही में तो कार्पेट का इतना बड़ा व्यापार है फिर आपको वहां काम कैसे नहीं मिला? इस सवाल पर सुखराम प्रजापति आगे बोले, ‘कार्पेट का काम मुझे नहीं आता इसलिए मैंने सोचा यहां पर लेबरई का कोई काम मिल जाएगा तो किसी तरह से परिवार चल जाएगा लेकिन आज तो खुद के खाने का पैसा भी नहीं निकाल पा रहा हूं। एक टाइम आधा पेट खाकर एक टाइम पानी पीकर जैसे-तैसे यहां हूं। लेकिन यही हाल रहा तो काम के लिए कहीं और जाना पडे़गा।’ सुखराम प्रजापति सरकार से मांग करते हुए कहते हैं सरकार से हमारा निवेदन है कि वह हम मजदूरों के लिए एक योजना बनाए जिससे कि हमें रोजगार मिल सके। जब तक हमें रोजगार नहीं मिल जाता तब तक हमारे जीवन यापन के लिए गुजारा भत्ता दे, जिससे की हमारा जीवन चल सके।’

पूरे महीने काम कभी नहीं मिलता  

मूल रूप से भदोही जिले के रहने वाले मुन्ना यादव अर्दली बाजार के पास ही किराए के मकान में परिवार साथ रहते हैं। मुन्ना यादव हर तरह के काम के लिए तैयार रहते हैं। वे कहते हैं ‘मैं यहां पर सुबह में 5 बजे आ जाता हूं। ट्रक में माल लोड करना हो या ईंट-गारा आदि मैं हर काम के लिए तैयार रहता हूं।’ महीने में कितने दिन काम मिल जाता है ? सवाल के जवाब में मुन्ना यादव कहते हैं 15-20 दिन काम मिल जाता है। लेकिन 10-12 दिन ऐसा होता है कि काम नहीं मिलता इस दौरान घर पर बैठकर खाना पड़ता है।

 सरकार से आप क्या चाहते हैं? सवाल के जवाब में मुन्ना यादव बोले, ‘सबसे पहले तो सरकार महंगाई कम करे। दूसरी बात हम जैसे लोगों को रोजगार दे। यदि रोजगार न दे सके तो हमें सरकार की ओर से एक निश्चित राशि मिलनी चाहिए क्योंकि हमारे पास भी अपना परिवार है। यह सरकार की जिम्मेदारी होती है कि वह आम लोगों को रोजगार का साधन उपलब्ध करवाए। अगर रोजगार नहीं दे पा रही है तो उसके एवज में एक निश्चित राशि प्रदान करे। लेकिन मुझे इस सरकार से उम्मींद नहीं है कि वह हमें रोजगार न दे पाने की स्थिति में गुजारा भत्ता जैसी कोई राशि दे सकती है।

मुन्ना इस मंडी में मजदूरी का काम पिछले 12-15 वर्षों से कर रहे हैं। उनका कहना है ‘जो स्थितियां या जो हालात आज हैं वैसे पहले कभी नहीं थे।‘ मुन्ना याद करते हुए बताते हैं कि ‘आज से 7-8 वर्ष पूर्व लोग आते थे और मंडी में लोगों को छोटा-बड़ा कोई न कोई काम मिल ही जाता था। लेकिन आज स्थिति ऐसी हो गई है बनारस की 10-12 मंडियों में से किसी भी मंडी में चले जाइए आप देखेंगे कि वहां पर बहुत सारे लोग बगैर काम किए वापस लौट जाते हैं।’

इन मंडियों में प्रतिदिन कितने लोग काम की तलाश में आते होंगे? इस सवाल के जवाब में मुन्ना यादव दावे के साथ कहते हैं अर्दली बाजार जो कि बनारस की सबसे बड़ी मजदूर मंडियों में से एक मानी जाती है। यहां प्रतिदिन 700-800 आदमी काम के सिलसिले में रोज आते हैं। इनमें से 150-200 लोगों को ही काम मिल पाता है बाकी लोग निराश होकर अपने घर को लौट जाते हैं।

चंदौली के मुन्ना यादव पीला गमछा ओढ़े हुए

मुन्ना यादव आज मंडी मजदूरों की बदहाली के लिए वर्तमान सरकार को काफी हद तक दोषी मानते हुए कहते हैं ‘इन मजदूरों की बदहाली के लिए काफी हद तक वर्तमान सरकार की नीतियां जिम्मेदार है। सरकार ने मकानों के निर्माण के लिए इतने नियम कायदे बना दिए हैं कि लोग घर बनवाने से पहले कानूनी प्रक्रिया में ही उलझ जाते हैं। हर चीज की महंगाई इतनी हो गई है कि कोई आदमी नया काम ही नहीं शुरू करना चाह रहा है। नया काम नहीं शुरू होगा तो लोगों को रोजगार कहां से मिलेगा। जो लोग थोड़ा-बहुत काम कर भी रहे हैं तो उनके सामने परिवार चलाने की विकट समस्या मुंह बाये खड़ी है। कम कमाई और विकराल महंगाई से लोगों के सामने घर चलाना मुश्किल हो रहा है। महंगाई का हाल तो यह है कि एक आदमी तीन चार काम कर रहा है तब जाकर परिवार चला रहा है।

चन्दौली के धरसौना के हाजीपुर गांव के रहने वाले सुनील हुकुलगंज मजदूर मंडी में काम की तलाश में रोज 50-60 रूपया खर्च कर आते हैं। सुनील बताते हैं कि महीने में 12-15 दिन काम मिलता है। इस प्रकार से महीने में 7-8 हजार रुपया कमा लेते हैं। सुनील बताते हैं कि उनके परिवार में मां, एक शादीशुदा भाई और मेरे दो बच्चे और पत्नी है। अब पैसे कम पड़ जाते हैं। परिवार चलाने के लिए लोगों से उधार लेना पड़ता है। जैसे-तैसे फिर लोगों का पैसा चुकता किया जाता है।’

चन्दौली के धरसौना के हाजीपुर गांव के सुनील

सुनील कहते हैं कि दिक्कत तब बढ़ जाती है जब  किसी दिन काम ही नहीं मिलता है और खाली हाथ घर लौटना पड़ता है। आज देखिए काम नहीं मिला। अब सोच रहा हूं चला जाय क्योंकि अब तक काम मिलना होता तो मिल गया होता। समय भी काफी हो गया है।

लगातार मजबूत होती जा रही मजदूर-विरोधी नीतियाँ

जून के महीने में जब तापमान 44 से ऊपर चल रहा है और लोग अपने घरों में दुबके रहते हैं, ऐसे मैं अपना परिवार चलने के लिए दूर गाँव की पगडंडियों से चलकर शहर में काम की तलाश में असंगठित क्षेत्र के ये मजदूर गर्म तपती दुपहरी में मंडियों में भटकते रहते हैं। काम मिल गया तो बहुत अच्छा, नहीं तो निराश मन से ये अपने घरों की ओर प्रस्थान करते हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2030 तक भारत में ऐसे 3.4 करोड़ लोगों के पास कोई काम ही नहीं बचेगा। देश की आजादी के बाद देश में श्रमिकों के लिए करीब 44 कानून बनाये गए थे लेकिन आज 90 फीसदी मजदूर असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं ‎जिनको कोई भी सामा‎जिक सुरक्षा और सुविधाएं प्राप्त नहीं हैं। देश में श्रमिक वर्ग की संख्या संगठित व असंगठित क्षेत्र में 50 करोड़ से ज्यादा है।

श्रम मंत्रालय की वेबसाइट के अनुसार भाजपा की मोदी सरकार ने अपने पिछले 10 वर्षों के कार्यकाल में श्रम कानून में कई बार परिवर्तन किया। 2019 और वर्ष 2020 में इस कानून में 29 केन्द्रीय कानूनों को जोड़ा गया। संसद की स्थायी समिति की कई अनुशंसाओं (2018 में) को दरकिनार करते हुए एक सप्ताह के अंदर मजदूरी कोड बिल को पेश कर पारित करवा लिया।

मौजूदा कानूनों और इस नए बिल में सबसे बड़ा फर्क यह है कि कोड में परिभाषा के स्तर पर संदिग्धता, अस्पष्टता और विसंगतियों के लिए पर्याप्त जगह है और इसमें कॉरपोरेट-परस्ती साफ नजर आती है। इसीलिए, यह बिल प्रशासकीय व सरकारी हस्तक्षेपों तथा कानून में तोड़-मरोड़ की काफी गुंजाइश पैदा करता है। मजदूरी कोड की यह सबसे बड़ी खासियत है, जो श्रम कानून पहले श्रमिकों की सुरक्षा के लिए होते थे, उसे अब एक तरह से ‘पूंजी के कानून’ में बदल दिया गया है।

असंगठित क्षेत्र के खनन, कंस्ट्रक्शन, खेती-किसानी, कारपेंटरी और भट्ठियों पर काम करने वाले असंगठित क्षेत्र के मजदूरों का जीवन पहले से काफी ख़राब हुआ है। आज उनके सामने दो वक्त की रोटी के लाले पड़ गए हैं। वे किस प्रकार से वे अपने जीवन का निर्वाह कर रहे हैं यह सवाल पूछने पर सिर्फ उनकी आँखों से आंसू निकालता है। उनकी आँखों के माध्यम से उनके अन्दर की निकल रही पीड़ा का अंत कभी होगा या नहीं यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।    

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