Sunday, July 7, 2024
होमग्राउंड रिपोर्टशिवपुर स्टेशन के बाहर बसा बांसफोर समाज चालीस साल से तलाश रहा...

ताज़ा ख़बरें

संबंधित खबरें

शिवपुर स्टेशन के बाहर बसा बांसफोर समाज चालीस साल से तलाश रहा है अपनी पहचान

इस समाज का यक्ष प्रश्न भी महसूस होता है कि पिछले लगभग पचास सालों से वाराणसी शहर के शिवपुर में रहने वाले लोग आखिर कैसे बिना किसी नागरिकता पहचान के पिछले चालीस से ज्यादा सालों से रह रहे हैं? इस समाज के लोगों के पास आधार, राशन कार्ड जैसी कोई पहचान नहीं है, अपनी कोई जमीन नहीं है, इसलिए जमीन का भी कोई कागज नहीं है।

वाराणसी। ठंड आ गई है, समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर कैसे पार करेंगे इस मौसम को, यह दर्द संजय का है। संजय वाराणसी के शिवपुर स्टेशन के पास बांस की खपच्चियों पर पन्नी डालकर अपने झुग्गी नुमा घर में रहते हैं। साथ में पत्नी और बच्चे हैं। सभी मिलकर बांस की टोकरी और पंखे बनाने का काम करते हैं। संजय बताते हैं कि बरसात आई थी तब मिट्टी डालकर घर को जमीन के स्तर से थोड़ा सा ऊंचा कर लिया था। ताकि बरसात का पानी घर के अंदर ना जाये, बरसात से तो जैसे-तैसे बच गए थे पर ठंडी हवा पर हमारा कोई ज़ोर नहीं चलेगा। पहले कुछ लोग आते थे कंबल दे देते थे पर इस बार कोई नहीं आया। सरकार की तरफ से भी हमें कभी कोई सुविधा नहीं मिलती। तभी उनकी पत्नी बहुत ही आर्त स्वर में कहती है कि ‘जब हम लोगन के कौनव कागज-पत्तर ही नाहीं है तब भला सरकार से का मदद मिलेगी।’

संजय बांसफोर

यह महज एक स्थिति नहीं बल्कि इस समाज का यक्ष प्रश्न भी महसूस होता है कि पिछले लगभग पचास सालों से वाराणसी शहर के शिवपुर में रहने वाले लोग आखिर कैसे बिना किसी नागरिकता पहचान के पिछले चालीस से ज्यादा सालों से रह रहे हैं? इस समाज के लोगों के पास आधार, राशन कार्ड जैसी कोई पहचान नहीं है, अपनी कोई जमीन नहीं है, इसलिए जमीन का भी कोई कागज नहीं है। इस बस्ती के लोगों के पास देश से जुड़ी उतनी भी पहचान नहीं है कि वह भारत के संविधान की प्रस्तावना की पहली लाइन हक के साथ बोल सकें कि ‘हम भारत के लोग, भारत को एक……’  यहाँ के लोग जाने कितनी ही पीढ़ियों से इस देश में रहते आ रहे हैं पर इनके पास अपने अस्तित्व का हक जताने के लिए कोई अभिलेख नहीं है। किसी सरकारी रजिस्टर में इनका नाम नहीं दर्ज है। इस नाम के बिना किसी हक की मांग कर पाना भला इनके लिए कैसे संभव हो सकता है।

संजय ही नहीं बल्कि यहाँ पर पूरी एक बस्ती बसी हुई है इनके समाज की जिसमें लगभग 12 परिवारों के तकरीबन 45-50 लोग रहते हैं। यह लोग धरकार जाति से हैं जो टाइटल के रूप बंसोर और कुछ लोग बांसफोर लगाते हैं। यह जाति अनुसूचित जाति के अंतर्गत आती है। कुछ जगहों पर इस समाज के लोग बेनवंशी टाइटल का भी प्रयोग करते हैं। इस जाति के जीवन में बांस की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह लोग बांस से बने समान बनाते हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि इस जाति के लोग शिल्पकार हैं और यह अपने शिल्प के लिए जब बाजार की तलाश में निकले तो बाजार तो मिल गया पर घर-बार छूट गया। इस जाती का बड़ा हिस्सा सड़क के किनारे ऐसे स्थानों पर बस गया जहां मुफ्त का पानी और झुग्गी बनाने के लिए ठौर तथा शौच आदि के लिए खुला स्थान मिल सके। इस तरह यह जाति तमाम शहरों में बस तो गई पर इनकी पहचान धीरे-धीरे खत्म होती चली गई। जहां बसे वहाँ कोई निर्माण शुरू हुआ तो उजाड़ दिये गए और नई जगह पर डेरा दाल दिया। लगभग 1 करोड़ से ज्यादा आबादी वाली यह जाति संविधान में भले ही दर्ज है पर इसके बहुसंख्यक हिस्से के लोग देश के रूप में कहीं दर्ज नहीं हैं। 

कितना बदहाल है शिवपुर स्टेशन के पास बसे बांसफोर समाज का जीवन

बदहाल जीवन की एक तस्वीर

सबसे पहले बात सांची की करते हैं। सांची अपनी उम्र नहीं बता पाती हैं फिर भी देखकर लगता है कि 55 से 60 साल के बीच होगी इनकी उम्र। यह दो महीने पहले तक दुनिया को वैसे ही देख सकती थी जैसी हम सब देखते हैं पर अब आँखें खराब हो गई हैं, कुछ भी दिखाई नहीं देता है।  वह बताती हैं कि दवा-इलाज का पैसा होता तो आंखे ठीक हो जाती पर इलाज के लिए पैसा कहाँ से लाएँ, जब आंखे ठीक थी तब समान बनाने में इनकी (अपने पति की ओर इशारा करती हैं) भी कुछ मदद करते थे, अब वह भी नहीं कर सकते हैं। यह अकेले जो बनाते कमाते हैं उसी से जीवन जैसे-तैसे चलाते हैं। सांची की आंखो की रोशनी भले ही चली गई है पर उनमें छलक आई आँसू की बूंद अब भी ताजी है। वह आगे कहती हैं अगर सरकार उन्हें कहीं घर दे देती तो वह लोग 12 मास की मौसम की मार से भी बच जाते और उसी के पते पर राशन कार्ड बन जाता तो कम से कम कुछ राशन भी मिल जाता तो जीवन थोड़ा आसान हो जाता।

आँखों की रोशनी खो चुकी सांची

यहाँ सड़क के एक तरफ इन लोगों ने अपनी झुग्गियाँ बना रखी है तो दूसरी तरफ एक खुले नाले के किनारे ये लोग अपनी दिनचर्या व्यतीत करते हैं। गंदगी से बजबजाते हुये नाले किसी बाहरी आदमी को भले ही नाक बंद करने पर मजबूर करें पर ये लोग उसके साथ रहने-जीने के अभ्यस्त हो चुके हैं। उस गंदगी के बगल में खाली पड़े बर्तन और एक दो बुझे चूल्हे की राख़ साफ तौर पर यह बता रही है कि एक दो परिवार यहाँ पर खाना बनाने का काम भी करते हैं जबकि बर्तन धुलने का काम सभी परिवार यहीं पर करते हैं।

वहीं पर सोनी खड़ी है उसकी गोद में लगभग 2 माह का एक बच्चा है, वह बार-बार ऐसे देख रही है जैसे कुछ कहना चाहती हो पर खुद को रोक रखा हो। मैं खुद ही उसके पास जाता हूँ, पूछता हूँ कि कुछ कहना चाहती हो क्या तो वह बोलती है कि आप लोग घर दिला सकते हैं क्या? इस प्रश्न से एक पल को मैं चुप हो जाता हूँ, फिर उससे बताता हूँ कि मैं कोई सरकारी आदमी नहीं हूँ। वह मायूस हो जाती है। मैं उससे पूछता हूँ कि कब से यहाँ हो तब वह कहती है कि चार साल हो गये पर मेरे पति तो यहाँ ही पैदा हुये थे। जब तक हम दोनों ही थे तब जाड़ा, गर्मी, बरसात सब यहीं पर सह लेते थे पर अब गोद में बच्चा है, ना रहने की जगह है ना खाने की जगह है चार दिन से केवल चावल बनाकर खा रही हूँ। वह बोलती है कि आइये आपको अपना घर दिखाती हूँ कि कैसे हम लोग रहते हैं, इतना कहते हुये वह आगे बढ़ जाती है। मैं और मेरी सहयोगी शालिनी जायसवाल तथा कैमरामैन श्याम सुंदर, सोनी के पीछे चल देते हैं। सोनी का घर बस्ती के बीच में है वह अंदर पहुँचती है और कहती है देख लीजिये बस यही है हमारा घर, हम पढे लिखे नहीं हैं पर सुनते हैं कि गरीबों को सरकार मुफ्त का राशन और घर देती है तो हम लोगन को काहे नहीं दे रही है।

अपना घर दिखाती हुई सोनी और पूजा

मैं उससे पूछता हूँ कि क्या कभी सरकार से घर की मांग की? वह बताती है कि एक दो बार कोशिश किए थे पर कोई कहता है कि आधार कार्ड दिखाओ, कोई कहता है राशन कार्ड है?, जब राशन कार्ड के लिए जाते हैं तब कहा जाता है कि घर का पता बताओ। आधार कार्ड के लिए भी पता मांगा जाता है। हम लोग बस गोल-गोल घूमते रहते हैं और कुछ नहीं होता। वह कहती है कि इससे बदहाल जीवन और कुछ नहीं हो सकता पर सरकार को हमारी तकलीफ दिखती ही नहीं है।

बांस ही अब गले की फांस बन गया है बांसफोर समाज के लोग के लिए

बस्ती के सबसे बुजुर्ग छेदी

बस्ती के सबसे ज्यादा उम्रदराज छेदी बताते हैं कि वह लोग मूलतः मऊ जिले के रहने वाले थे कोई पचास साल पहले उनके बाप दाद बनारस(वाराणसी) आए थे और यहाँ पर बहुत सी खुली जगह देखकर बस गए थे। तब हम लोगों के समान की बहुत मांग रहती थी, रोज़मर्रा के जीवन से लेकर शादी-व्याह और अन्य कार्य प्रयोजनों में उनके बनाए समान तथा सीढ़ियाँ और मृत्यु के बाद शव के नीचे रखने वाली तख्ती भी वह लोग बनाते थे। अच्छा खाने-पहनने को हो जाता था पर धीरे-धीरे प्लास्टिक के सामान बाजार में बढ़ते गए और हमारे समान की बाजार खत्म होती चली गई। जब काम अच्छा चल रहा था तब यह भी नहीं सोचा की बाल बच्चों को कुछ और काम धंधा सिखाया जाय या फिर चार अक्षर पढ़ा लिखा ही दिया जाये। यह सोचते थे कि अपने हाथ में हुनर रहेगा तो कहीं भी चार पैसा कमा लेंगे पर अब यही हुनर हमारे समाज का दुश्मन बन गया है। अब इससे निकलना चाहते हैं, पेट काटकर भी बच्चों को पढ़ाना-लिखाना  चाहते हैं पर जब भी बच्चों को स्कूल में दाखिला दिलाने की कोशिश करते हैं तब आधार कार्ड मांगा जाता है। अब आप ही बताइये की जब सरकार हमारा आधार कार्ड बना ही नहीं रही है तब कहाँ से आधार कार्ड दें। वह बहुत ही दुखी मन से कहते हैं की मऊ में भी हम लोगों का कुछ नहीं रह गया है और यहाँ भी कुछ बन नहीं पाया है। हमारा बांस ही हमारे गले की फांस बन गया है।

यहाँ अभी तक नहीं आया शिक्षा का उजाला

मोनी और अन्य बच्चे

लगभग तेरह साल की मोनी कहती है कि जब दूसरी बच्चियों को स्कूल जाते देखती हूँ तो मेरा भी मन करता है कि स्कूल जाऊं पर हम लोगों को स्कूल में लिया ही नहीं जाता है। अगर पढ़ लिख पाती तो क्या बनती के सवाल पर वह कहती है, चाहे दरोगा-पुलिस बनती चाहे डॉक्टर। फिलहाल हम जानते हैं कि मोनी अब इस सपने को कभी भी पूरा नहीं कर पाएगी। उसकी इस झुग्गी तक अभी शिक्षा का उजाला नहीं आया है। उसके हिस्से में सिर्फ उसकी जाति का अंधेरा अभी कायम है। अभी संविधान की बहुत सी अधिकार देने वाली लाइनों की व्याख्या उसके पक्ष में कोई तर्क देने की स्थिति तक नहीं पहुंची है।

आवास के लिए हमारी भी अर्जी लगा दीजिये

सिकंदर, सोनी और उनके बच्चे

बगल में सिकंदर और सोनी की झोपड़ी है हमें वहाँ लोगों से बात करता देखकर सोनी भी आ जाती है वह धरकार जाति से नहीं है बल्कि खुद को वाल्मीकि यानी हेला जाति का बताती है। आते ही बोल पड़ती है कि साहब चलकर हमारा भी घर देख लीजिये, हमारी भी अर्जी आवास के लिए लगा दीजिये। हम उसे बताते हैं कि हम आवास की अर्जी नहीं ले रहे हैं बल्कि हम तो सिर्फ तुम लोगों के जीवन का हाल जानने आए हैं। सोनी कहती है लेकिन चलकर हमारा भी घर तो देख लीजिये हमारी बात भी सरकार तक पहुंचा दीजिये क्या पता आपके द्वारा ही हमारा कुछ भला हो जाये। सोनी के इस आग्रह पर हम बिना देर किए उसके साथ आगे बढ़ जाते हैं। किसी तरह पन्नी को तिरपाल की तरह तानकर उसने भी एक झुग्गी बना ली है। यहाँ उसके पति सिकंदर और बच्चे हैं। सिकंदर सफाई करने का काम करते हैं। सिकंदर कहते हैं कि हमने बहुत दौड़–धूप करी कि प्रधानमंत्री आवास योजना से एक घर मिल जाये पर सरकार की किसी योजना का कुछ फायदा नहीं मिल पाया। बाल-बच्चे अब बड़े हो रहे हैं समझ में नहीं आता कि इनको कैसे पालूँ-पोसूँ। बड़ी बिटिया सही इलाज ना हो पाने के कारण नहीं बची अब जो हैं उन्हें भी नहीं पढ़ा लिखा पा रहे हैं।

एक करुण तस्वीर

यहाँ रह रहे लोगों के हिस्से में सिर्फ एक बदहाल और कठिन जीवन ही आया है उसी बदहाली में कभी हंस लेते हैं कभी रो लेते हैं। सरकार से उम्मीद करते हुये एक उम्र गुजर चुकी है पर अब तक कभी सरकार की किसी सुविधा का एक धागा तक इनके हिस्से नहीं आया है। किसी ने सही कहा है कि उम्मीद आसानी से मुरझाने वाला पौधा नहीं है और तमाम बदहाली के बावजूद भी इनकी उम्मीदें खत्म नहीं हुई। यह उम्मीदें अभी सांची जैसे जाने ही कितने आँखों की रोशनी छिनेगी या फिर ये उम्मीदें हरी भरी होंगी यह तो वक्त बताएगा।

इस जाति समाज के कुछ लोगों ने आसमान में सुराख करने का काम भी किया है। कुछ स्रोतों से हमें कुछ नाम मिले हैं जिन्होंने यह साबित किया है कि यदि मौका मिले तो यह लोग भी नई ऊंचाई पर अपना हस्ताक्षर करने की कूबत रखते हैं।  ऐसे ही कुछ लोगों का नाम हम यहाँ गिना रहे हैं –      

श्रीमती यशोदा देवी (प्रथम महिला विधायिका उत्तर प्रदेश) 1950 -1967 तक 3 बार बांसगांव, गोरखपुर से विधायक रही।

विधायक  दीनानाथ सेवक उद्योग मंत्री, समाज कल्याण मंत्री, भण्डारगार निगम लिमिटेड तथा उपभोक्ता सहकारी संघ लिमिटेड के अध्यक्ष तथा विधान सभा एवं विधान परिषद अध्यक्ष रहे।  विधायक पतिराज 1991 में सरायमीर, आज़मगढ़ से विधायक रहे।

स्वतत्रता सेनानी बाबूलाल वर्मा  महान स्वतंत्रता सैनानी जिनके नाम पर हृषिकेश में आज भी एक सड़क है। 

स्वतंत्रता सेनानी सीताराम बेनबंसी आजादी के बाद भी आजीवन देश व समाज सेवा में लगें रहे। 

पंडित भोलानाथ प्रसन्ना जी पंडित भोलानाथ प्रसन्ना प्रसिद्ध बाँसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के गुरु हैं। संगीत के क्षेत्र में यह बनारस परिवार बाँसुरी के लिये विश्व प्रसिद्ध है। 

समाज सेवक श्रीअमर नाथ शास्त्री जी एक महान व दूरदर्शी समाज सेवक जिन्होंने कई मंचो पर समाज के समस्या को उठाया। अखिल भारतीय धरकार महासंघ की स्थापना की । हिन्दू धरकार महासंघ के माध्यम से महाराष्ट्र के जाति लिस्ट में धरकार समाज को ओबीसी में दर्ज कराया । प्रयास एससी  के लिये किया  गया था।

मिठाई लाल बेनबंशी एवं छक्कन प्रसाद बनारसी द्वितीय विश्वयुद्व मे सिपाही जो अजाद हिन्द फौज में कमान्डर थे

विष्णु प्रसन्ना संगीत क्षेत्र के लिये 1949 -59 में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा० राजेन्द्र प्रसाद कें  हाथ  पुरस्कृत किया गया था।

डॉ लालजी प्रसाद निर्मल दलित चिंतक राजमंत्री एवं  अनुसूचित जाति वित्त विकास निगम के चेयरमैन तथा अंबेडकर महासभा के अध्यक्ष रहे।

डॉ कौलेश्वर प्रियदर्शी दलित चिंतक डॉ कौलेश्वर प्रियदर्शी को शिक्षा क्षेत्र में डॉ आंबेडकर रत्न से सम्मानित किया गया है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

लोकप्रिय खबरें