गांधी जयंती पर बिहार सरकार ने जाति जनगणना के आंकड़े जारी करके भारतीय राजनीति और सामाजिक बदलाव के एक नए अध्याय की शुरुआत कर दी है। एक ऐसी शुरुआत जिसने केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा और उसके साथ एनडीए में भागीदारी करने वाले तमाम दलों के माथे पर शिकन ला दी है। यह पहल भले ही अभी महज बिहार की राजनीति में सामने आई है पर इसका असर नि:संदेह देश की पूरी राजनीति पर पड़ने जा रहा है। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने पहले ही पीडिए का झण्डा उठा रखा है और सामाजिक न्याय की लड़ाई का संकेत दे चुके हैं और लगातार सरकार से जाति आधारित जनगणना की मांग कर रहे हैं। कांग्रेस ने कर्नाटक चुनाव के समय सामाजिक न्याय के मुद्दे को आगे बढ़ाकर भाजपा को करारी शिकस्त दी थी। अब राहुल गांधी भी कांग्रेस की राजनीति को दलित, पिछड़ों की राजनीति के तौर पर साधने की कोशिश कर रहे हैं।
बिहार की जाति जनगणना ने बहुत साफ तौर पर सामने ला दिया है कि सामाजिक तौर पर किस जाति की कितनी संख्या है और उसके अनुपात में सिस्टम में उसकी भागीदारी कितनी कम है। जाति जनगणना के सामने आ जाने से अब उन लोगों को भी करारा जवाब मिल गया है जो अब तक आरक्षण को लेकर सवाल उठाते रहे हैं। लगभग 64 प्रतिशत की सामाजिक हिस्सेदारी रखने वाले पिछड़ा वर्ग को अब तक सिर्फ 27 प्रतिशत आरक्षण का प्राविधान था वह भी उसे भीख और दया की तरह दिया जाता था। जबकि सामाजिक आंकड़ों ने अब साफ कर दिया है कि पिछड़ी जाति 64 प्रतिशत की हकदार है। आरक्षण को लेकर दलित और पिछड़े समाज को अक्सर अपमानित करने वाली सवर्ण जाति जिसकी सामाजिक भागीदारी महज 14 प्रतिशत है वह गैर अराक्षित कोटे के नाम पर सबसे ज्यादा आरक्षण का फायदा उठाती आ रही थी, उसके सामने अब संकट खड़ा हो गया है। अब हर जाति जब अपना हिस्सा मांगेगी तो सवर्ण जाति, जिसकी सामाजिक हिस्सेदारी 14 प्रतिशत के आस-पास है, की भागीदारी भी तय होगी और उसके पास यह मौका भी नहीं होगा कि वह किसी जाति समूह पर सवाल उठाए।
अगर हम बिहार को देश के मॉडल के रूप में स्वीकार करें और भविष्य में होने वाले बदलाव का अनुमान करें तो सबसे पहले जो बड़ा बदलाव देखने को मिलने जा रहा है वह है भारतीय राजनीति में भाजपा और आरएसएस के पराभव की नई बुनियाद पड़ना। भाजपा भले ही खुले मंच से भारतीय संविधान की बात करती रही हो पर उसके मातृ संगठन की कोशिश हमेशा ही संविधान के बजाय मनुस्मृति की नियमावली से समाज संचालन की रही है। मनुस्मृति ही वह प्रवेश द्वार है जो समाज में 15प्रतिशत की भागीदारी करने वाले समाज को 85 प्रतिशत समाज का नेतृत्व करने की अकूत ताकत देता है। 15 प्रतिशत का यह समाज ही भाजपा की रीढ़ है और दोनों एक दूसरे के सहारे सामाजिक और राजनीतिक ताकत हासिल करने की कोशिश में लगे रहते हैं। सवर्ण समाज आजादी के बाद से सत्ता के केंद्र में रहा और अन्य जातियाँ हाशिये पर रही। मण्डल आयोग की सिफारशें लागू होने के बाद स्थिति की जड़ता में बदलाव आया पर भागीदारी का एक छोटा हिस्सा शेष जातियों के लिए भी सुनिश्चित हुआ पर एक छोटा हिस्सा किसी दया के रूप में देकर शेष हिस्से को हथियाने की कोशिशें बदस्तूर जारी रही और स्थिति में बड़ा परिवर्तन नहीं हो सका या फिर यह कहा जाना ज्यादा प्रासंगिक होगा कि जिस जाति कि जितनी हिस्सेदारी सामाजिक रूप से थी उसे उसके अनुरूप भागीदारी नहीं मिल सकी।
फिलहाल बिहार ने सामाजिक न्याय की लड़ाई को एक नए स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया है अब जबकि बिहार में जातिवार जनगणना के आंकड़े सामने आ चुके हैं तो हर जाति कि स्थिति साफ हो चुकी है और उसके पास अपना हक मांगने का रास्ता खुल गया है। यह भाजपा और उसके मातृ संगठन आरएसएस के लिए नई राजनीतिक चुनौती साबित होने जा रहा है। प्रधानमंत्री जो खुद को पिछड़ी जाति का बताकर पिछड़ी जाति के वोटर समूह को अपने सापेक्ष साधते रहे हैं उन्होंने जाति जनगणना का विरोध जताया है और कहा है कि आज भी कई लोग जाति के नाम पर लोगों का बांट रहे हैं। ये लोग घोर पाप कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि विपक्ष देश को जाति के नाम पर विभाजित करने की कोशिश कर रहा है। बिहार सरकार द्वारा जारी रिपोर्ट में बताया गया है कि राज्य में सबसे ज्यादा पिछड़ा वर्ग की आबादी है। राज्य की कुल 63 फीसदी आबादी इस वर्ग से आती है। इनमें 27 फीसदी आबादी पिछड़ा वर्ग के लोगों की है जबकि 36 फीसदी से ज्यादा अति पिछड़ी जातियों की आबादी है। वहीं, राज्य में अनुसूचित जनजाति के लोगों की संख्या सबसे कम 21,99,361 है। जो कुल आबादी का 1.68% है। आंकड़ों में कहा गया है कि यादव एकमात्र जाति है जिसकी आबादी राज्य में 10 फीसदी से भी ज्यादा है। प्रदेश में सिर्फ तीन जातियां ऐसी जिनकी आबादी पांच फीसदी से ज्यादा है। रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में सबसे ज्यादा आबादी वाली जाति यादव समुदाय की है। इस समाज की कुल आबादी 1,86,50,119 है। कुल जनसंख्या में इनकी हिस्सेदारी 14.26% है। रिपोर्ट में यादव जाति में ग्वाला, अहीर, गोरा, घासी, मेहर, सदगोप, लक्ष्मी नारायण गोला को रखा गया है। इसके बाद दुसाध सबसे ज्यादा संख्या वाली जाति है जो दलित पासवान समुदाय से जुड़ी है। इनकी कुल आबादी 69,43,000 है। कुल जनसंख्या में इनकी हिस्सेदारी करीब 5.31% है। सरकार ने दुधास जाति में दुसाध, धारी, धरही का जिक्र किया है।
अब जातियों के आंकड़े सामने आ जाने से भाजपा के लिए निश्चित रूप से संकट खड़ा हो गया है इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जाति आधारित जनगणना को अभी से कोसना शुरू कर दिया है। उनका कहना है कि देश में सबसे बड़ी आबादी गरीब की है और वह उस गरीब को हक दिलाने के लिए काम कर रहे हैं। यहाँ यह समझना जरूरी है कि वह जानते हैं कि गरीब समाज सबसे ज्यादा दलित और अतिपिछड़े समाज में हैं और सबसे ज्यादा गैर बराबरी के शिकार भी हैं। इसके बावजूद जब वह जाति जनगणना को भ्रष्टता और पाप का पर्याय बताते हैं तब उनकी नीयत पर शक होता है कि आखिर वह किस गरीब की बात कर रहे हैं? वह ईमानदारी से किसी जाति को उसका हक देने के बजाय जब गरीब का मामला आगे बढ़ाते हैं तब सहज ही समझ में आ जाता है कि वह सिर्फ और सिर्फ सवर्ण समाज के लिए एक चोर दरवाजा बनाने की वकालत कर रहे हैं। सत्ता में बने रहने के लिए उनकी पार्टी की यह मजबूरी भी है क्योंकि वह अपने पूरे एजेंडे में एक मनुवादी समाज का औचित्य स्थापित करने की कोशिश करती रही है। भाजपा का हिन्दुत्व और उसकी पूरी श्रेष्ठता इसी कोशिश को मूर्त बनाए रखना का उपक्रम मात्र है। वह हमेशा चाहती है कि गैर सवर्ण हिन्दू जातियाँ अपने हक की मांग करने के बजाय सिर्फ हिन्दुत्व की आभासी श्रेष्ठता में खुश रहें।
एक ओर जातीय स्तर पर गैर सवर्ण जातियों को नीचे रखना और दूसरी ओर इस गैरबराबरी की अन्यायपूर्ण नीति को श्रेष्ठ कहना या फिर गर्व से कहो हम हिन्दू हैं जैसे नारे से छद्म महिमामंडन करना, भाजपा की सुनियोजित रणनीति का हिस्सा रहा है। भाजपा इसी छद्म हिन्दुत्व और मुस्लिम समुदाय के प्रति नफरती तेवर के दम पर पिछले साढ़े नौ साल से देश की सत्ता पर बैठी हुई है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में विपक्ष को सिद्धारमैया का फार्मूला मिलने के बाद से भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी हो गई है। सिद्धारमैया ने दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समाज के हितों को साझा करके और उनके अधिकार की बात करके भाजपा के धार्मिक ध्रुवीकारण की पूरी हवा निकाल दी। इस प्रयोग को उत्तर प्रदेश में जहां समाजवादी पार्टी ने जातीय जनगणना की मांग और सामाजिक न्याय की लड़ाई के रूप में उठाया तो वहीं बिहार में राजद नेता तेजस्वी यादव ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ मिलकर बिहार को जाति जनगणना करने वाला पहला राज्य बना दिया।
बिहार की यह जातिवार जनगणना सामने आने के बाद हर राजनीतिक दल के सामने यह दबाव होगा कि वह दलित, अल्पसंख्यक और पिछड़ी जाति के हक और उसकी भागीदारी के सवाल को अपनी राजनीति में संख्यानुरूप स्थिति में जगह दे। कांग्रेस जिसने पहले कभी पिछड़ी जाति के हक के लिए खुलकर अपना पक्ष नहीं रखा था वही कांग्रेस आज सबसे आगे आकार सवाल कर रही है 63 प्रतिशत सामाजिक हिस्सेदारी वाली पिछड़ी जाति को सिर्फ 27 प्रतिशत आरक्षण उनके हक के साथ बेईमानी है।
बिहार की जाति जनगणना के आंकड़े सामने आने के बाद से महिला आरक्षण बिल पर भी भाजपा का उत्साह ठंडा पड़ता दिख रहा है। भाजपा ने सांसद में महिला आरक्षण बिल के बहाने बढ़त लेने की कोशिश की थी। महिला आरक्षण के मुद्दे पर विपक्ष की ज़्यादातर पार्टियों ने भी समर्थन दिया था बावजूद आरक्षण के अंदर पिछड़ी जाति का कोटा सुनिश्चित करने की मांग की जा रही थी। ओबीसी कोटे की मांग पर भाजपा की तरफ से पूरी तरह से चुप्पी साध ली गई थी पर अब जबकि जातिगणना से सामाजिक स्थितियां साफ हों चुकी हैं तब भाजपा असमंजस की स्थिति में आ गई है। भाजपा तथा हर पार्टी को अब यह तो समझ में आ गया है कि बिना पिछड़ी जाति के साथ के सत्ता में नहीं रहा जा सकता है।
बिहार में इसे जहां नीतीश कुमार का मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है वहीं बाकी देश की विपक्षी पार्टियां भी जाति जनगणना के हथियार से भाजपा को सत्ता से दूर करने की कोशिश में लग गई हैं। बिहार ने आंकड़े जारी कर दिये हैं अब शेष देश की राजनीति का मुख्य मसविदा जाति जनगणना बन चुकी है। भाजपा या फिर किसी भी पार्टी के लिए इस मांग को ज्यादा देर तक रोक पाना आसान नहीं होगा। पिछड़ी जाति के लोग अपने हक की मांग के साथ अगर खड़े हों गए तो कोई भी पार्टी उन्हें अब और नहीं टाल पाएगी। बिहार ने बता दिया है कि भारत में सत्ता का रास्ता पिछड़ी जाति के लोग ही बनाते हैं।
कुमार विजय गाँव के लोग डॉट कॉम के एसोसिएट एडिटर हैं।
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