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ग्राउंड रिपोर्ट

आरक्षण से पहले जाति समाप्त हो और बिना बराबरी के जाति नहीं समाप्त हो सकती

डॉ.एन.सिंह हिन्दी दलित साहित्य का प्रतिष्ठित एवं जाना-पहचाना नाम है | उनका जन्म 1 जनवरी 1956 को सहारनपुर जनपद ,उ.प्र.के चतरसाली गांव में एक ऐसे दलित परिवार में हुआ था ,जिसमें पीढ़ियों से कोई साक्षर नहीं था | इसके बावजूद उन्होंने हिन्दी साहित्य में एम.ए.किया फिर 1980 में पी-एच.डी.और फिर 2007 में डी.लिट.की उपाधि प्राप्त […]

डॉ.एन.सिंह हिन्दी दलित साहित्य का प्रतिष्ठित एवं जाना-पहचाना नाम है | उनका जन्म 1 जनवरी 1956 को सहारनपुर जनपद ,उ.प्र.के चतरसाली गांव में एक ऐसे दलित परिवार में हुआ था ,जिसमें पीढ़ियों से कोई साक्षर नहीं था | इसके बावजूद उन्होंने हिन्दी साहित्य में एम.ए.किया फिर 1980 में पी-एच.डी.और फिर 2007 में डी.लिट.की उपाधि प्राप्त की | उन्होंने उत्तर प्रदेश के राजकीय महाविधालयों में प्रवक्ता पद से सेवा प्रारम्भ की तथा 3 जुलाई 2000 से 12 सितम्बर 2015 तक प्राचार्य रहे | इसी अवधि में 19 अगस्त 2011 से 18 अगस्त 2013 तक उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड,इलाहबाद के सदस्य भी रहे |

डा. एन. सिंह

उन्होंने हिन्दी दलित साहित्य के क्षेत्र में 1980 में लेखन प्रारम्भ किया उनकी अब तक प्रकाशित प्रमुख कृतियाँ हैं | काव्य संग्रह – सतह से उठते हुए, अंधेरों के विरुद्ध तथा संभल राजपथ वरना।  निबन्ध संग्रह – मेरा दलित चिंतन, विचार यात्रा में, दलित चिंतन : अनुभव और विचार, व्यक्ति और विमर्श। आलोचना – दलित साहित्य के प्रतिमान, सन्त शिरोमणि रैदास :वाणी और विचार।  नाटक – कठौती में गंगा आदि | सतह से उठते हुये का उर्दू तथा दर्द के दस्तावेज का मराठी भाषा में अनुवाद भी हुआ है।

हिन्दी दलित साहित्य को पाठ्यक्रम में लगवाने का श्रेय भी उन्हें ही है| उन्हें कई पुरस्कार भी मिले हैं | उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ,लखनऊ का सर्जना पुरस्कार1998 तथा उत्तर प्रदेश सरकार का शिक्षक श्री सम्मान,2009 प्रमुख हैं | प्रस्तुत है डॉ.एन. सिंह से हुई बातचीत –

दलित विमर्श और आंदोलन में आई तमाम गड़बड़ियों के मद्देनजर प्रायः अंबेडकरवाद की ओर देखा जाता है। आपके अनुसार अम्बेडकरवाद क्या है?

बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर जी के सिद्धान्तों को मानना और उनका अनुसरण करना ही आंबेडकरवाद है। उनका मूलभूत सिद्धान्त है- शिक्षा, संगठन और संघर्ष। इसलिए हर वह व्यक्ति जो अपने आपको शिक्षित करता है और अपने पूरे परिवार और अपने समाज को शिक्षित करता है, वह आंबेडकरवादी है। लेकिन यहाँ शिक्षित होने और साक्षर होने में अन्तर करना होगा। शिक्षित वह  है जो शिक्षा के द्वारा अपने और अपने समाज के इतिहास का ज्ञान प्राप्त कर इसकी अवनति को उन्नति में परिवर्तित करने का प्रयास करता है, जिससे समाज आगे बढ़ता है। साक्षर वह है जो अक्षर ज्ञान प्राप्त कर नौकरी आदि प्राप्त कर केवल अपना  और अपने परिवार का भरण-पोषण करता है। ऐसे लोगों का संगठन और संघर्ष से कोई लेना देना नहीं होता है। मेरी दृष्टि में आंबेडकरवाद जातिवादी का विध्वंसक तथा मानवतावादी मूल्यों का पोषक है। वह सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक ही नहीं, जीवन के अन्य सभी क्षेत्रों में भी समानता का पक्षधर है। भारतीय समाज से जाति और अस्पृश्यता का उन्मूलन, उसका लक्ष्य है। इसलिए धार्मिक क्षेत्र में भी वह मानवीय मूल्यों वाले धर्म को अपनाने की बात करता है। कुल मिलाकर आंबेडकरवाद बाबासाहेब की 22 प्रतिज्ञाओं में पूरी तरह ध्वनित होता है।

आप अपने आपको किस आधार पर अम्बेडकरवादी मानते हैं?

भारत की इस पावन धरती पर कितने ही भगवान आए और गए तथा तैतीस करोड़ देवी और देवता भी हुए। लेकिन उन्होंने मानवता को जाति के नाम पर बांटकर ऊँच-नीच का भेद ही पैदा किया। उनमें से कोई भी दलित समाज को समानता का अधिकार नहीं दिला पाया। उसके बाद न जाने कितने संत और सुधारक भी आए और गए! वे भी दलित समाज का उद्धार नहीं कर पाए। एकमात्र डॉ. आंबेडकर ही थे, जिन्होंने दलित समाज को समानता का अधिकार दिलाया। अभी तक भारत में बड़े से बड़े आदमी के वोट की कीमत भी वही  है, जो छोटे से छोटे आदमी के वोट की है ! यही स्थिति स्त्री की भी है। उन्होंने शिक्षा, सेवा, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में सबको समता का अधिकार देकर मानवता की बहुत बड़ी सेवा की है। इसलिए मैं आंबेडकरवादी हूँ। क्योंकि वे नहीं होते तो मैं आज वह नहीं होता, जो हूँ।

एक अम्बेडकरवादी होने के नाते दलित समाज के प्रति आपका क्या खास उत्तरदायित्व है, और इस दिशा में आपने अभी तक क्या उल्लेखनीय कार्य किए हैं?

आंबेडकरवादी होने के नाते मेरा भी यह दायित्व है कि मैं डॉ. आंबेडकर के बताए हुए रास्ते पर चलकर उनके मिशन के आगे बढ़ाने का काम करूँ। इसके लिए मैंने शिक्षा के क्षेत्र को चुना! मैं अपने जनपद (सहारनपुर) का पहला पीएच.डी. हूँ तथा पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश का पहला और एकमात्र डी.लिट। इसके अतिरिक्त जब मैं हिन्दी का प्राध्यापक था तो मैं अपनी कक्षाओं में तुलसी की अपेक्षा कबीर को ही पढ़ाता था। इसके बाद मैं दलित साहित्य के लेखन और सम्पादन की ओर मुड़ा। सबसे पहले मैंने दर्द के दस्तावेज नामक एक कविता संग्रह का सम्पादन किया है, सन् 1992 में। इसमें दस दलित कवियों की दस-दस कवितायें संकलित हैं। इसे हिन्दी दलित कविता का पहला संकलन माना जाता है।

हिन्दी दलित साहित्य अब जो भारत के लगभग सारे विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है। इसके लिए भी मैंने ही प्रयास किया था। सबसे पहले मैंने कविता, कहानी, लेखों की ऐसी पुस्तकें सम्पादित कर प्रकाशित कराई, जो पाठ्यक्रम में लगाई जा सके। फिर उ.प्र. की मुख्यमंत्री माननीय बहन कु. मायावती जी को एक पत्र लिखा, जिसमें, इन पुस्तकों को उ.प्र. के विश्वविद्यालयों के बी.ए. तथा एम.ए. (हिन्दी) के पाठ्यक्रम में लगाए जाने का अनुरोध किया था। इस पर सकारात्मक कार्यवाही हुई। मुख्यमंत्री के अनुसचिव कुलदीप एन. अवस्थी ने पत्र लिखा कि ‘उपर्युक्त विषयक डॉ. एन. सिंह के पत्र दिनांक 15 मई 1997 की प्रतिलिपि संलग्न करते हुए मुझे यह कहने का निर्देश हुआ है कि उक्त पत्र में दी गई पुस्तकों की सूची को बी.ए. (हिन्दी) तथा एम.ए. (हिन्दी) के पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने हेतु प्राथमिकता के आधार पर विचार कर लिया जाए तथा कृत कार्यवाही से शासन को एक सप्ताह के अन्दर अवगत कराने का कष्ट करें।’

[bs-quote quote=”दलित साहित्य और संस्कृति का विकास सही दिशा में हो रहा था। छात्रों को छात्रवृत्ति समय पर मिल रही थी, शोध छात्रों को राजीव गांधी फेलोशिप भी मिल रही थी। तब किसी रोहित वेमुला को आत्महत्या करने के लिए बाध्य नहीं किया जा रहा था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

इसके बाद हिन्दी दलित साहित्य उ.प्र. के  समस्त विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है। हिन्दी दलित साहित्य का पहला इतिहास लिखने का श्रेय भी मुझे ही जाता है, ‘दलित साहित्य के प्रतिमान’ (प्रकाशक- वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली) नाम से। इसके अतिरिक्त इस समय मैं हिन्दी दलित साहित्य के पिछले चालीस वर्षों में सृजित सर्वश्रेष्ठ साहित्य, यथा- कविता, कहानी और आत्मकथा पर एक पुस्तक सम्पादित कर उसका अंग्रेजी अनुवाद करा रहा हूँ। जिससे पूरी दुनिया हिन्दी दलित साहित्य और दलित साहित्यकारों को पढ़ कर जान सके, समझ सके।

मैंने आंबेडकरवाद के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करने के लिए साहित्य के मार्ग को चुना। और अब तक लगभग 30 पुस्तकें लिख कर दलित समाज को जागृत करने का काम किया है। उसका मूल्यांकन करने की मेरी क्षमता नहीं है, कि मैं कहाँ तक सफल हुआ! यह तो समाज को ही तय करना है।

भारतीय संविधान में सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक न्याय का उल्लेख किया गया है। इस दिशा में पूर्व की और वर्तमान केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने जो कार्य किए हैं, क्या वे पर्याप्त हैं? यदि नहीं तो आपके अनुसार क्या किया जाना चाहिए?

भारतीय संविधान में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय का उल्लेख है। इसकी पूर्ति के लिए पूर्ववर्ती सरकार ने पूरी तरह प्रयास किए थे। इसके कुछ उदाहरण और स्पष्ट देख सकते हैं। एक- जाति और धर्म के बीच जो  खाई थी, वह धीरे-धीरे पटती जा रही थी। उस दौर में दलित, समाज अपना सिर उठा कर चल पा रहा था, एक हिस्सा अच्छी नौकरी पाकर सम्पन्न भी हो गया था। उसे अपनी बात कहने पर डर भी नहीं लगता था। दलित साहित्य और संस्कृति का विकास सही दिशा में हो रहा था। छात्रों को छात्रवृत्ति समय पर मिल रही थी, शोध छात्रों को राजीव गांधी फेलोशिप भी मिल रही थी। तब किसी रोहित वेमुला को आत्महत्या करने के लिए बाध्य नहीं किया जा रहा था। मनरेगा, सूचना का अधिकार, अनुसूचित जाति उत्पीड़न निवारण कानून, यहाँ तक कि मिड डे मिल भी पूर्ववर्ती सरकार ने ही लागू किया था। इन सबका फायदा दलित समाज को मिला। यहाँ तक कि 1991 में आये उदारीकरण में मजदूर को काम मिला, वहीं पूरे देश की हालत सुधरी वहीं दलितों की हालत में भी सुधार आया। कुल मिलाकर पूर्ववर्ती सरकारों ने दलित समाज के उत्थान के लिए पूरा तो नहीं, लेकिन काफी काम किया।

लेकिन वर्तमान सरकार ने दलित उत्पीड़न निवारण कानून को पाँच वर्ष तक कोर्ट में उलझा कर निलम्बित रखा, दलित समाज को सड़कों पर आना पड़ा। अब कितने ही निर्दोष युवा जेलों में है। आरक्षण पूरी तरह समाप्त कर दिया गया। देश के सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी कम्पनियों को बेचने की तैयारी है, रेल, टेलीफोन, ओ.एन.जी.सी., जहाँ पर दलित समाज को सबसे अधिक नौकरियाँ मिलती थीं, जो या तो बेच दिये गये या बेच दिये जायेंगे। कुछ को प्राइवेट हाथों में दे दिया गया है। ताकि आरक्षण समाप्त हो जाए। वर्तमान सरकार सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय को पूरी तरह तबाह करने पर उतारू है। जो संविधान और लोकतंत्र को  समाप्त करना चाहती है। जिसके कारण अल्पसंख्यकों एवं दलित समाज में भय व्याप्त है। एक प्रश्न को बार-बार उछाला जाता है। वह है- उदारीकरण तो पूर्ववर्ती सरकार ने ही लागू किया था। इस सरकार ने तो उसे आगे ही बढ़ाया है।

समाजशास्त्री डॉ. विवेक कुमार के साथ

इसके उत्तर में मैं यही कहता रहा हूँ कि पूर्ववर्ती सरकार के द्वारा लागू किए गए उदारीकरण का लाभ पूरे देश को मिला। जिसके कारण आर्थिक रूप से कमजोर तबके के भी हालात सुधरे।  लेकिन वर्तमान सरकार की नीतियों का लाभ अम्बानी और अडानी  को ही मिला। इसका सबूत है, जब देश की जी.डी.पी. नीचे आ गिरी हो, तब इन दोनों की सम्पतियों का ग्राफ इतना ऊंचा कैसे चला गया। क्या सरकार केवल ये ही दो लोग चला रहे हैं।

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के लिए जो काम पूर्ववर्ती सरकारों ने किए थे, वह  काफी हद तक सही दिशा में थे, उनमें तेजी लायी जानी चाहिए थी। लेकिन वर्तमान सरकार देश से लोकतंत्र और संविधान को समाप्त कर देना चाहती है। अब केवल और केवल एक ही रास्ता है, किसी तरह से ये सरकार जाए। हमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और साहित्यिक धरातल पर यही प्रयास करना चाहिए। यह तभी सम्भव है, जब दलित, पिछड़ा और मुस्लिम समाज एक हो जाए। दरअसल हिन्दुवादी ताकतों ने, (जो फासीवादी ताकते हैं) पिछड़े समाज को पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले लिया है। यही नहीं, उन्होंने मुस्लिमों का एक हिस्सा, और दलित समाज के भी एक हिस्से को अपने साथ मिला लिया है। इन सबको मान्यवर कांशीराम के रास्ते पर चलकर ही इकट्ठा किया जा सकता है। तभी भारत का संविधान बचेगा, और लोकतंत्र बचेगा। लेकिन यह हो सकता है केवल कांग्रेस के नेतृत्व में ही।

यह तो तात्कालिक कदम है जो हमें उठाने  चाहिए कि हम सब अब जातिगत राजनीति छोड़कर, केवल कांग्रेस के नेतृत्व को ही स्वीकार करें, और कांग्रेस को भी चाहिए कि वह सभी गैर-भाजपा  दलों के साथ ईमानदारी के साथ आगे बढ़े। लेकिन इसके लिए एक दीर्घकालिक रणनीति की भी आवश्यकता है। वह है- हमारे समाज के लोगों के लिए शिक्षा संस्थाओं की स्थापना। जहाँ पर वे दलित मान्यताओं को, दलित इतिहास को और दलित महापुरुषों के जीवन और संघर्ष तथा दलित साहित्य को आने वाली पीढ़ी को पढ़ा सकें।

हमारा संविधान विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता पर जोर देता है, इस दिशा में हम कहां तक सफल हुए हैं, इस पर आपका क्या कहना है?

भारतीय संविधान ने भारतीय नागरिकों को जो भी अधिकार दिए हैं। उनके क्रियान्वयन की दिशा में यह सही दिशा में आगे बढ़ा है। लेकिन उन्हीं सुविधााओं का लाभ उठाकर फासीवादी ताकतों ने अपने पैर जमा लिए हैं। जो संविधान का नाम लेकर संविधान को, और लोकतंत्र का नाम लेकर लोकतंत्र को नष्ट करने पर उतारू हैं। इसके लिए पूर्ववर्ती सरकार को इनको रोकने का कदम उठाना चाहिए था, जो नहीं उठाया गया। उसी का भयानक परिणाम ये देश आगे भुगतेगा।

[bs-quote quote=”दलित युवा पढ़-लिख कर अपने इतिहास, संस्कृति और हिन्दू धर्म में अपनी स्थिति से न तो वाकिफ है और न वाकिफ होना चाहता है। उसे हिन्दू धर्म की अफीम निरन्तर पिलाई जा रही है। जिससे वह अपना समय मदहोशी की स्थिति में काट रहा है। इसके लिए दलित साहित्यकारों, संगठनकर्ताओं और दलित राजनीति करने वाले दलों को स्पष्ट रणनीति बनाकर काम करने की आवश्यकता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

डॉ.अम्बेडकर एक प्रखर विधिवेत्ता, शिक्षाविद, अर्थशास्त्री, राजनेता, वक्ता और उच्चकोटि के पत्रकार की भूमिका में रहे हैं। वे दलित मीडिया के प्रबल समर्थक थे। दलित मीडिया को क्या आप भी जरूरी मानते हैं? देश के दलित बुद्धिजीवी, समाजसेवी, शिक्षाविद, राजनेता, मंत्री, पूंजीपति और उद्यमियों द्वारा दलित मीडियाको स्थापित करने और जो स्थापित हैं, उन्हें सशक्त बनाने में निभायी गई भूमिका से संतुष्ट हैं?

दरअसल आजादी के दौर में जिस तरह पत्रकारिता एक मिशन थी। वह दलित समाज के लिए आज भी मिशन ही है। जिसे जीवन को दांव पर लगाकर दलित पत्रकारों को पूरा करना है। यदि वे उस सवर्ण मीडिया से जो आज पूरी तरह बिकाऊ और कमाऊ हो गया है, से अपनी तुलना करेंगे, तो निश्चित ही निराशा होगी। दलित समाज का बुद्धिजीवी नेता और सामान्य व्यक्ति अपनी-अपनी सामथ्र्य के अनुसार दलितों के  मीडिया की स्थापना में काम करता है। लेखक अपनी रचनायें बिना पारिश्रमिक के देते हैं और जो जागरूक पाठक है, वे अपने मीडिया का अपनी-अपनी सामथ्र्य के अनुसार प्रचार-प्रसार करते हैं। राजनेता भी आर्थिक और नैतिक मदद करते ही हैं। यह एक आम समझ है कि दलित मीडिया जितना मजबूत होगा हमारे समाज की आवाज भी उतनी ही मजबूत होगी। अब सोशल मीडिया के दौर में इसकी संभावनायें और अधिक बढ़ गई हैं।

आज के दलित युवाओं की स्थिति क्या है? उनके भविष्य को आप किस रूप में देखते हैं?

यहाँ केवल दलित युवाओं की ही बात नहीं है। पूरे देश के युवाओं की स्थिति खराब है। जब पीएच.डी. करने के बाद, बी.टेक. और एम.टेक करने के बाद इस देश का युवा स्वीपर की नौकरी के लिए आवेदन करने पर विवश हो, तो समझा जा सकता है कि इस देश में युवाओं की स्थिति कितनी भयावह है। दलित युवा के सामने स्थितियाँ और भयावह है। एक और दलित वर्ग का एक हिस्सा वह है, जिनकी पिछली पीढ़ी को अच्छी नौकरी मिल गई थी। इसलिए उन्हें अच्छे स्कूलों में पढ़ने का मौका मिल गया, वह अपने आपको सवर्ण समझने लगे। लेकिन सरकारों ने धीरे-धीरे सारी नौकरियाँ प्राइवेट सेक्टर में दे दी, वहीं पर शिक्षित दलित युवाओं के लिए स्थान ही नहीं है। अतः उनकी स्थिति धीरे-धीरे खराब होती जा रही है और जो साधारण परिवारों के दलित युवा हैं, जिनकी शिक्षा-दीक्षा पारम्परिक स्कूलों में हो रही है उनके लिए तो अच्छी नौकरी ही नहीं, नौकरियों में भी जगह नहीं है। व्यापार, उद्योग और कृषि है नहीं, तो दलित युवा क्या करे? इससे लगता है कि इस वर्ग की स्थिति यदि यही रही, तो वह अपनी हजारों वर्ष पहले की स्थिति में पहुँच जाएगा।

एक बात और है दलित युवा पढ़-लिख कर अपने इतिहास, संस्कृति और हिन्दू धर्म में अपनी स्थिति से न तो वाकिफ है और न वाकिफ होना चाहता है। उसे हिन्दू धर्म की अफीम निरन्तर पिलाई जा रही है। जिससे वह अपना समय मदहोशी की स्थिति में काट रहा है। इसके लिए दलित साहित्यकारों, संगठनकर्ताओं और दलित राजनीति करने वाले दलों को स्पष्ट रणनीति बनाकर काम करने की आवश्यकता है।

कुछ लोग आरक्षण को समाप्त करने को उचित ठहरा रहे हैं, इस पर आपका  क्या मानना है?

दरअसल पूरी वर्ण-व्यवस्था आरक्षण पर आधारित है। ब्राह्मण के लिए शिक्षा, क्षत्रिय के लिए बल तथा वैश्य के लिए धन और शूद्र के लिए सेवा! ये आरक्षण नहीं तो और क्या है? मंदिरों में पुजारी के सारे पद एक ही वर्ण और जाति (जो दोनों एक हैं) के लिए आरक्षित हैं। बस इसी व्यवस्था को डॉ. आंबेडकर ने निशाने पर लिया है। उन्होंने केवल सरकारी पदों और राजनीतिक पदों में शूद्रों (दलित समाज) के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर दी। जिसके आश्चर्यजनक परिणाम सामने आए। जैसे दलित समाज में शिक्षा का प्रसार यदि 50 प्रतिशत भी हुआ, तो भी वह ब्राह्मण आबादी से अधिक है। क्षत्रिय और वैश्य से भी अधिक है। सरकारी नौकरी पाकर दलित समाज के एक तबके का आर्थिक स्तर काफी ऊँचा हो गया। बस यहीं से परेशानी शुरू हो गई और सवर्णों ने आरक्षण को समाप्त करने के प्रयास प्रारम्भ कर दिए। यदि आरक्षण समाप्त हो जाता है, तो दलित समाज अपनी पूर्व स्थिति, जो स्वतन्त्रता पूर्व थी, में लौट जाएगा, जो ठीक नहीं है।

[bs-quote quote=”सर्वप्रथम किसी भी दलित नेता में जो गुण अपिरहार्य है। वह है अपने समाज के प्रति असीम त्याग और उसके हित के लिए किसी भी सीमा तक जाने का जज्बा। दूसरा गुण है- ईमानदारी। उसे जो भी सामान मिले, वह उसे अपनी आवश्यक आवश्यकताओं के अतिरिक्त समाज के लिए ही खर्च  करे। तीसरा गुण- उच्च शिक्षा, समाज की समस्याओं की जानकारी तथा धारा प्रवाह भाषण देने की क्षमता। चौथागुण- दलित नेता को एक अद्भुत संगठन कर्ता भी होना चाहिए।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

हमारा कहना है यदि आरक्षण को समाप्त करना है तो पूरी आरक्षण व्यवस्था, जो वर्ण व्यवस्था और जाति के कारण लागू है, को समाप्त किया जाना चाहिए। इस देश में धन और धरती का समान वितरण कर, अवसरों की समानता को लागू कर दिया जाए तो आरक्षण को समाप्त करने में किसी को भी आपत्ति नहीं होगी। लेकिन यदि इस देश में जातिवाद और वर्णवाद रहेगा, तो आरक्षण को समाप्त नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा होता है, जो हो रहा है, तो दलित समाज पर उसका बहुत बुरा असर होगा जिसके लक्षण दिखाई भी देने लगे हैं।

बाबा साहेब डॉ.अम्बेडकर ने शिक्षा को पहली प्राथमिकता माना था और इस दिशा में उन्होंने कदम भी उठाए। इस मुद्दे पर आजादी के बाद जो परिणाम सामने आने चाहिए थे वह नहीं आए, इसके लिए कौन जिम्मेदार है और इसे कैसे प्रभावी और क्रांतिकारी रूप दिया जा सकता है?

शिक्षा दलितों को ही नहीं, मानव मुक्ति का एकमात्र रास्ता है। डॉ. आंबेडकर भी इसी रास्ते पर चलकर यहाँ तक पहुँचे थे कि शताब्दियों से प्रताड़ित मानवता को समता का अधिकार दिला पाए। लेकिन हमारे लोग जो स्वयं शिक्षा प्राप्त कर कुछ अच्छी स्थिति तक पहुँचे। उन्होंने अपने समाज को सरकार के सहारे ही छोड़ दिया। सच यह है कि इसके अलावा उनके पास और कोई रास्ता भी नहीं था। लेकिन अब जब  भारतीय  स्वतन्त्रता के 73 वर्ष बीत चुके हैं। हमें इस दिशा में भी प्रयास करना पड़ेगा। हमें बेसिक शिक्षा से ही शुरुआत करनी होगी। जहाँ पर हम अपने बच्चों को विचारधारा की शिक्षा के साथ आधुनिक युग की चुनैतियों से लड़ने की भी शिक्षा दे सके। इसके लिए शिक्षण संस्था निर्माण से लेकर पाठ्यक्रम बनाने तक का काम हमें करना है। हमें ऐसे शिक्षक भी तैयार करने होंगे, जो समर्पित भाव से काम कर सके।

आपके अनुसार अच्छे दलित नेता में क्या गुण होने चाहिए, आज के दौर में ऐसे कितने नेता हैं, जिन्हें आदर्श मान कर उनका अनुसरण किया जा सकता है?

सर्वप्रथम किसी भी दलित नेता में जो गुण अपिरहार्य है। वह है अपने समाज के प्रति असीम त्याग और उसके हित के लिए किसी भी सीमा तक जाने का जज्बा। दूसरा गुण है- ईमानदारी। उसे जो भी सामान मिले, वह उसे अपनी आवश्यक आवश्यकताओं के अतिरिक्त समाज के लिए ही खर्च  करे। तीसरा गुण- उच्च शिक्षा, समाज की समस्याओं की जानकारी तथा धारा प्रवाह भाषण देने की क्षमता। चौथागुण- दलित नेता को एक अद्भुत संगठन कर्ता भी होना चाहिए। जो किसी भी हद तक जाकर अपने समर्थकों को साथ रख सके। संघर्ष करने और जोखिम उठाने की क्षमता भी उसमें होनी चाहिए।

दलित नेता के पास आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक नीतियों का एक स्पष्ट मैप भी होना चाहिए। दलित नेता को भविष्य का स्वप्नद्रष्टा भी होना चाहिए।

मंजू केपी मौर्य दिल्ली से सम्यक भारत पत्रिका का प्रकाशन करती हैं ।

गाँव के लोग
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