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‘पाक्सो’ का ‘पास्को’ बन जाना डायरी (25 अगस्त, 2021)

भाषा की परिभाषा क्या है अथवा क्या होनी चाहिए!? यह सवाल लंबे समय से जेहन में है। हालांकि भाषा की अनेक परिभाषाएं देखने और समझने को मिली हैं, लेकिन सबका सार यही है कि भाषा वही जो समझ में आए। जो समझ में न आए, वह भाषा नहीं। लेकिन यह सिर्फ एकपक्ष है। इसका दूसरा […]

भाषा की परिभाषा क्या है अथवा क्या होनी चाहिए!? यह सवाल लंबे समय से जेहन में है। हालांकि भाषा की अनेक परिभाषाएं देखने और समझने को मिली हैं, लेकिन सबका सार यही है कि भाषा वही जो समझ में आए। जो समझ में न आए, वह भाषा नहीं। लेकिन यह सिर्फ एकपक्ष है। इसका दूसरा पक्ष भी है। भाषा राजनीति का हिस्सा रही है। फिर चाहे वह कोई भी भाषा हो। किस भाषा में किस तरह के बदलाव होंगे, इसका फैसला भी सियासत के मन-मिजाज के हिसाब से होता है। भारतीय हिंदी समाचार पत्रों की भाषा में तेजी से बदलाव हो रहा है। यह बदलाव है हिंदी के साथ अंग्रेजी के शब्दों का उपयोग।

दरअसल, भाषा में यह बदलाव क्यों हो रहा है? यह मेरे लिए सवाल है। सवाल की वजह यह कि देश की आजादी के 75 साल बीत चुके हैं और तब जाकर यह कहा जा सकता है कि इस देश का बहुसंख्यक वर्ग अब अखबार पढ़ने लगा है। हालांकि इसमें बड़ी भूमिका सोशल मीडिया की भी है। हो यह रहा है कि मोबाइल के जरिए उन तक सूचनाएं सीधे पहुंच रही हैं। सोशल मीडिया पर साझा की गई सूचनाओं व अन्य सामग्रियों के मामले में अनुशासन के लिए स्पष्ट नीति नहीं है, जिससे होता यह है कि सूचनाएं बेतरतीब तरीके से पहुंचती हैं। भाषा और उसकी शुद्धता का ख्याल भी नहीं रखा जाता। हालांकि मैं यह मानता हूं कि सोशल मीडिया पर भाषा और भाषाई शुद्धता जैसी कोई शर्त  नहीं होनी चाहिए। लेकिन यदि लोग अनुशासित रहें और भाषा के विकास को लेकर सजग रहें तो सोने पर सुहागा।

[bs-quote quote=”आजकल के अखबारों के बारे में सोच रहा हूं तो उसकी साख के खत्म होने के पीछे एक बड़ी वजह यही है कि उसने भाषागत अनुशासन को तोड़ दिया गया है। त्रुटियों की संख्या बढ़ती जा रही है। जब जनसत्ता जैसा अखबार ‘पाक्सो’ को ‘पास्को’ लिख सकता है तो अन्य अखबारों की बात क्या करना।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

खैर, मैं दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता को देख रहा हूं और कुछ सवाल मेरी जेहन में हैं। जिस खबर को लेकर सवाल मेरी जेहन में हैं, उसका शीर्षक है – पास्को कानून की गलत व्याख्या खतरनाक नजीर। यह खबर भारत के महान्यायवादी (महज पदनाम, हकीकत के विपरीत) के.के. वेणुगोपाल के बयान पर आधारित है। अपने बयान में उन्होंने बंबई हाईकोर्ट की नागपुर पीठ के द्वारा पाक्सो (प्रिवेंशन और चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल आफेंसेज एक्ट, 2012) हाल ही में दिए गए फैसले का जिक्र किया है। मामला एक लड़की का स्तन दबाने को लेकर था। नागपुर पीठ ने आरोपी को यह कहकर बरी कर दिया कि जब घटना घटित हुई थी तब लड़की कपड़े पहने हुई थी और चूंकि स्तन और आरोपी के बीच त्वचा का संपर्क नहीं हुआ तो पाक्सो कानून की धारा-8 के मुताबिक वह अपराधी नहीं है।

मैं बंबई हाईकोर्ट के नागपुर पीठ के महान विद्वान जजों की विद्वता को अपनी चिंतन में शामिल नहीं कर रहा। इसकी कई वजहें हैं। एक तो यही कि न्याय का निर्धारण केवल कानून में उल्लिखित प्रावधानों के हिसाब से नहीं होता। इसकी भी अपने शर्त होती हैं। 30 मार्च, 2017 को बिहार विधान परिषद के अंदर भाजपा के एक पार्षद रहे लालबाबू गुप्ता ने एक राजपूत समाज से आनेवाली एक विधान पार्षद नूतन सिंह के साथ कुछ गलत हरकत की। यदि नूतन सिंह की आयु 18 साल से कम होती और उन्होंने मुकदमा दर्ज कराया होता तो वह पाक्सो एक्ट के तहत दर्ज किया जाता। लेकिन न तो उनकी उम्र 18 साल से कम थी और न ही उन्होंने कोई मुकदमा दर्ज कराया।

[bs-quote quote=”जनसत्ता जैसा अखबार, जिसमें भाषा को लेकर सजगता बरती जाती रही है, उसने पाक्सो को पास्को क्यों लिखा? वह भी वैसे व्यक्ति से संबद्ध खबर में जो भारत का महान्यायवादी है। दैनिक हिन्दुस्तान व अन्य भारतीय हिंदी दैनिक समाचार पत्रों में इस तरह की त्रुटियां तो बेहद सामान्य हैं। इन अखबारों में तो होड़ सी मची है कि कौन अपनी खबरों में अंग्रेजी के कितने शब्दों का इस्तेमाल करता है। दिल्ली से प्रकाशित नवभारत टाइम्स तो सबसे आगे है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

लेकिन जरा सोचिए कि जो अपराध भाजपा के विधान पार्षद ने किया, यदि वही हरकत किसी और ने की होती तो क्या होता? यह भी सोचिए कि नागपुर पीठ के समक्ष पीड़िता का संबंध किसी नामवर घराने से होता तो क्या तब भी उसका फैसला और मंतव्य वही होता, जो उसने एक मध्यवर्गीय परिवार की लड़की के मामले में दिया?

लेकिन आज का सवाल यह नही है। सवाल भाषा को लेकर है। जनसत्ता जैसा अखबार, जिसमें भाषा को लेकर सजगता बरती जाती रही है, उसने पाक्सो को पास्को क्यों लिखा? वह भी वैसे व्यक्ति से संबद्ध खबर में जो भारत का महान्यायवादी है। दैनिक हिन्दुस्तान व अन्य भारतीय हिंदी दैनिक समाचार पत्रों में इस तरह की त्रुटियां तो बेहद सामान्य हैं। इन अखबारों में तो होड़ सी मची है कि कौन अपनी खबरों में अंग्रेजी के कितने शब्दों का इस्तेमाल करता है। दिल्ली से प्रकाशित नवभारत टाइम्स तो सबसे आगे है। उसने आज अपने पहले पृष्ठ पर एक खबर प्रकाशित किया है। शीर्षक कमाल का है – ठाकरे को थप्पड़वाले बयान पर राणे अरेस्ट, 20 साल बाद किसी केंद्रीय मंत्री पर ऐसा एक्शन।

एक दौर रहा जब भारतीय हिंदी समाचार पत्रों में खड़ी हिंदी के विकास को लेकर कवायदें की गयीं। मैं तो अपने बचपन को याद करता हूं। चूंकि मेरे मम्मी-पापा दोनों निरक्षर हैं और पापा को हमेशा लगता था कि कोई उन्हें अखबार में छपी खबरें पढ़कर सुनाए, तो पहले यह काम भैया करता था, लेकिन पापा को मेरी आवाज अच्छी लगने लगी। शायद इस वजह से कि भैया तुतलाते बहुत थे। अब तो भैया की तुतलाहट खत्म हो गयी है और साथ ही पहले वाली मासूमियत भी। अब वह एक गंभीर अभिभावक हैं। मैं जिसके भरोसे अपने परिजनों को पटना में छोड़कर दिल्ली में बैठा हूं तो इसके पीछे भैया ही हैं। एक विश्वास रहता है उन पर।

खैर मैं बात कर रहा था अखबारों की। बचपन में पापा को अखबार पढ़कर सुनाने से मुझे बड़े फायदे होते थे। एक तो मेरा सामान्य ज्ञान ठीक रहता था और दूसरा यह कि श्रुतिलेखन में मैं अव्वल रहता था। उन दिनों बच्चों में भाषा के प्रति समझ बढ़ाने के लिए शिक्षक यह करते थे। वे किसी विषय पर कुछ बोलते थे और हम बच्चों को अपनी कॉपी में लिखना होता था। सहपाठियों की तुलना में मेरी कॉपी में त्रुटियां कम रहती थीं। इसके पीछे मेरा अखबार पढ़ना ही होता था। यह बात दिमाग में बैठ गयी थी कि अखबार में जो कुछ भी लिखा गया है, वह सही है।

आजकल के अखबारों के बारे में सोच रहा हूं तो उसकी साख के खत्म होने के पीछे एक बड़ी वजह यही है कि उसने भाषागत अनुशासन को तोड़ दिया गया है। त्रुटियों की संख्या बढ़ती जा रही है। जब जनसत्ता जैसा अखबार ‘पाक्सो’ को ‘पास्को’ लिख सकता है तो अन्य अखबारों की बात क्या करना।

दरअसल, मामला केवल यहीं तक सीमित नहीं है। बड़ा सवाल है कि हिंदी समाचार पत्रों को अंग्रेजी से मुहब्बत क्यों हो रही है?

इस सवाल के दो जवाब हैं। पहला तो यही कि अब दलित, पिछड़े शिक्षित हो रहे हैं। लेकिन अंग्रेजी की उनकी समझ में समस्या है। उन्हें बातें कम समझ में आएं, इसके लिए अंग्रेजी का इस्तेमाल जानबूझकर किया जा रहा है। दूसरा जवाब यह है कि आजकल अखबारों के केंद्रीय विषय में निम्न आयवर्ग नहीं है। उच्च आय वर्ग वालों के लिए हिंदी अखबार हैं भी नहीं। ले-देकर मध्य आयवर्ग है, जिसे ध्यान में रखते हुए अखबारों में खबरें छापी जाती हैं।

बहरहाल, जनसत्ता में ‘पाक्सो’ को ‘पास्को’ कर दिया गया है, यह बात मुझे हैरान नहीं, बल्कि परेशान कर रही है। और इसकी वजह यह कि मैं स्वयं मीडिया का हिस्सा हूं।

 

नवल किशोर कुमार  फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं

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