बदलाव की अनेक परिभाषाएं मुमकिन हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह कि बदलाव अदिश नहीं होते। उनके साथ एक दिशा होती ही है। और फिर यह आवश्यक नहीं है कि बदलाव हर बार सकारात्मक ही हों। एक तरह से सभी बदलाव यह मांग करते हैं कि उन्हें सापेक्षवाद के सिद्धांत के हिसाब से देखा जाय। निरपेक्ष भाव से किसी बदलाव को नहीं देखा जा सकता है। दरअसल, निरपेक्षता मुमकिन ही नहीं है। यही बात मेरे लिए भी लागू होती है। मैं तो उसी को बदलाव मानता हूं, जिससे मुझे ऐसा लगता है कि देश की बहुसंख्यक आबादी जो कि सदियों से वंचित और उत्पीड़ित है, उसे कोई लाभ होने वाला है। ऐसा इसलिए भी कि मैं स्वयं इस आबादी का हिस्सा हूं और कारण मुझ पर यदि कोई पक्षपाती कहे तो मुझे यह आरोप स्वीकार है। ऐसा इसलिए कि मैं स्वयं इस आबादी का हिस्सा हूँ और इस कारण मुझे यदि कोई पक्षपाती कहे तो मुझे यह आरोप स्वीकार है।
बात कल की है। कल एक बार फिर डाक्टर के पास जाना हुआ। वजह बहुत मामूली थी लेकिन दर्द बहुत था। डाक्टर के पास जाने के अलावा कोई चारा नहीं था। यदि पटना में होता तो शायद नहीं जाना होता और घर में मेरी परेशानी दूर हो जाती। खैर, डाक्टर परिचित हैं और जानते हैं कि मैं पत्रकार हूं। मेरे लिए दवाएं लिखने के बाद उन्हाेंने पंजाब की राजनीति की चर्चा छेड़ दी। दरअसल, वह कह रहे थे कि पंजाब में कांग्रेस ने चरणजीत सिंह चन्नी को सीएम बनाकर अच्छा नहीं किया। उसके अंदर नेतृत्व की क्षमता नहीं है।
[bs-quote quote=”क्या वाकई में चरणजीत सिंह चन्नी के पास नेतृत्व का गुण नहीं है या वे जाट सिक्खों की लॉबिंग के शिकार हो रहे हैं? नवजोत सिंह सिद्धू क्या वाकई इतने ईमानदार हैं और पंजाब के प्रति वफादार कि वे मुख्यमंत्री तक को अपनी धौंस दिखा रहे हैं? पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के आचरण भी सवाल पैदा करते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मैं यह तो समझ गया था कि वे ऐसा क्यों कह रहे हैं और उन्हें मुझसे किस तरह की टिप्पणी की अपेक्षा थी। लेकिन मैं कोई बहस नहीं चाहता था। अब आदमी जब दर्द में हो तो पॉलिटिकल बात कैसे कर सकता है। और यदि करना भी चाहे तो डाक्टर के साथ तो बिल्कुल ही मुमकिन नहीं है। क्या मालूम कि मेरी टिप्पणी उन्हें नागवार गुजरे और जो रिश्ता हमारे दरमियान है, वह अच्छे न रहें।
लेकिन मैं वाकई यह सोच रहा हूं कि क्या वाकई में चरणजीत सिंह चन्नी के पास नेतृत्व का गुण नहीं है या वे जाट सिक्खों की लॉबिंग के शिकार हो रहे हैं? नवजोत सिंह सिद्धू क्या वाकई इतने ईमानदार हैं और पंजाब के प्रति वफादार कि वे मुख्यमंत्री तक को अपनी धौंस दिखा रहे हैं? पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के आचरण भी सवाल पैदा करते हैं। वे अब कह रहे हैं कि वह कांग्रेस का परित्याग करेंगे। उनके मुताबिक कांग्रेस में वरिष्ठों का सम्मान नहीं है। चंडीगढ़ की आग दिल्ली तक पहुंच चुकी है। कपिल सिब्बल जैसे नेताओं ने भी विषम रूख अपना लिया है। क्या यह सब केवल इसलिए है कि पहली बार पंजाब में कोई दलित मुख्यमंत्री बना है?
मुझे लगता है कि मूल बात यही है और चरणजीत सिंह चन्नी कोई पहले नहीं हैं। करीब साढ़े छह साल पहले बिहार के अभूतपूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद के बारे में एक आलेख लिखने के क्रम में मैं पटना के सिन्हा लाइब्रेरी में बैठकर 1990-95 के अखबारों को पलट रहा था। उस समय के अखबारों को देखकर यही महसूस हुआ कि लालू प्रसाद की सबसे बड़ी कामयाबी यही थी कि उन्होंने पांच साल तक सरकार चलाने में सफलता हासिल की। अखबारों में विपक्ष तो उनके उपर हमलावर था ही, उनके अपने भी कम हमलावर नहीं थे। इनमें नीतीश कुमार भी थे। मैं नवजोत सिंह सिद्धू और नीतीश कुमार में समानता देख रहा हूं। वजह यह कि नवजोत सिंह सिद्धू के जैसे ही नीतीश कुमार को यह लगता था कि वे स्वयं मुख्यमंत्री हो सकते थे, लेकिन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद थे। उन दिनों जगन्नथ मिश्र विपक्ष के नेता थे। उनके बयानों में यह साफ था कि वे लालू प्रसाद की आलोचना केवल इसलिए नहीं करते थे कि वे सीएम थे। उनके बयानों में जाति की बू आती थी।
[bs-quote quote=”नीतीश कुमार ने आवेश में आकर उन्हें सीएम तो बना दिया था ताकि पालिटिकल गेन हो सके। लेकिन सीएम होना ही मायने रखता है और उस पर नीतीश कुमार जैसे सत्ता के लोभी व्यक्ति को यह कहां स्वीकार था कि एक दलित जीतनराम मांझी बड़े-बड़े निर्णय ले। नीतीश कुमार ने जीतनराम मांझी की वही हालत कर दी थी, जैसा कि आज चरणजीत सिंह चन्नी के साथ किया जा रहा है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
एक बार लालू प्रसाद ने स्वयं मुझसे साक्षात्कार में यह स्वीकार किया था कि पहले पांच साल तो उन्होंने यही साबित करने का प्रयास किया कि गरीब और पिछड़ा वर्ग का आदमी भी सरकार चला सकता है। सरकार चलाने के लिए सवर्ण होना आवश्यक नहीं है। तब लालू प्रसाद ने कहा था कि “वर्ण-व्यवस्था ने पूरे समाज का सत्यानाश कर दिया है। वह यह कहत है कि ब्राह्मण सर्वोपरि है और पूजनीय है। सवर्णों ने मुझे पांच साल तक परेशान करके रखा। हालत यह थी कि मैं अपना इस्तीफा अपनी जेब में रखता था। घर से निकलने के बाद मैं खुद को यही कहता था कि मुझे बस आज को बचाना है। कल के बारे में कल सोचूंगा।”
चरणजीत सिंह चन्नी के पहले जीतनराम मांझी के साथ भी ऐसा ही हुआ था। नीतीश कुमार ने आवेश में आकर उन्हें सीएम तो बना दिया था ताकि पालिटिकल गेन हो सके। लेकिन सीएम होना ही मायने रखता है और उस पर नीतीश कुमार जैसे सत्ता के लोभी व्यक्ति को यह कहां स्वीकार था कि एक दलित जीतनराम मांझी बड़े-बड़े निर्णय ले। नीतीश कुमार ने जीतनराम मांझी की वही हालत कर दी थी, जैसा कि आज चरणजीत सिंह चन्नी के साथ किया जा रहा है।
[bs-quote quote=”दलितों और पिछड़ों के लिए यह समय बहुत महत्वपूर्ण है। सत्ता को हाथ में लेने के लिए उन्हें ऐसे ही लड़ना-भिड़ना होगा। जो सदियों से सत्ता पर काबिज रहे हैं, उनकी ऐंठन खत्म होने में समय तो लगेगा ही।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
अब कल की ही बात है। नवजोत सिंह सिद्धू और चरणजीत सिंह चन्नी के बीच कल बातचीत हुई है। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने कहा है कि बड़े फैसलों के लिए एक कमेटी होगी, जिसमें इन दोनों के अलावा केंद्रीय नेतृत्व के द्वारा प्रतिनियुक्त नेता भी होगा। जरा सोचिए कि यह एक मुख्यमंत्री के लिए कितना अपमानजनक होगा कि उसे फैसला लेने के पहले दो बाहरी लोगों की सहमति लेनी होगी। वे दो लोग जो कैबिनेट में शामिल नहीं हैं।
खैर, दलितों और पिछड़ों के लिए यह समय बहुत महत्वपूर्ण है। सत्ता को हाथ में लेने के लिए उन्हें ऐसे ही लड़ना-भिड़ना होगा। जो सदियों से सत्ता पर काबिज रहे हैं, उनकी ऐंठन खत्म होने में समय तो लगेगा ही। मुझे एक पाकिस्तनी शायर का शे’र याद आ रहा है।
खंजर बकफ़ खड़े हैं गुलामिन-ए-मुंतजिर,
आका कभी तो निकलोगे अपने हिसार से।
नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस मे संपादक हैं ।