यह घटना न केवल रोंगटे खड़े कर देने वाली है, बल्कि हमारे लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों पर एक गंभीर सवाल भी खड़ा करती है। लेकिन दुख की बात है कि यह मराठी मीडिया के अलावा अन्यत्र सामने नहीं आ पाई। शायद इसका जिम्मेदार महाराष्ट्र में हो रहा हिंदी विरोधी आंदोलन भी है। घटना संभाजीनगर की है, एक महिला, घरेलू हिंसा से त्रस्त होकर अपने ससुराल को छोड़ पुणे आई। उसने एक सामाजिक संस्था से संपर्क किया, जहाँ उसकी मुलाकात सामाजिक कार्यकर्ता श्वेता पाटिल से हुई। श्वेता उसे वकील परिक्रमा खोत के पास ले गई, जिन्होंने उसे पुलिस में शिकायत दर्ज कराने की सलाह दी।
लेकिन पीड़िता ने बताया कि उसके ससुर पुलिस विभाग में कार्यरत हैं। यदि वह शिकायत दर्ज कराएगी, तो उसके ससुराल वालों को पता चल जाएगा और वे उसे जबरन वापस ले जाएंगे। इस भय के चलते, श्वेता और परिक्रमा ने उसे एक संस्था ‘सरकारी जिला महिला एवं बाल कल्याण सखी वन स्टॉप सेंटर’ में आश्रय दिलाया।
एक रात की मदद, और फिर उत्पीड़न की शुरुआत
करीब पंद्रह दिन बाद, 31 जुलाई को पीड़िता ने श्वेता से संपर्क किया और एक रात के लिए रहने की व्यवस्था की गुहार लगाई। वह बताती है कि उसने एक कोर्स के लिए एक संस्थान में प्रवेश ले लिया है, जहाँ उसके लिए पीजी का इंतज़ाम हो गया है, लेकिन वह अगले दिन दोपहर से ही उपलब्ध होगा। इसलिए उसे सिर्फ़ एक रात के लिए श्वेता अपनी एक मित्र, जो कोथरूड में अपनी सहेलियों के साथ रहती हैं, से अनुरोध कर पीड़िता को उनके कमरे में ठहरने की व्यवस्था कर देती हैं। अगले दिन दोपहर तक पीड़िता वहाँ से चली जाती है।
लेकिन उसी दिन दोपहर 2 बजे के आसपास, पुलिस अचानक उनके कमरे पर धावा बोल दिया। बिना वारंट के, संभाजीनगर के पीएसआई संदीप कामठे और सिविल ड्रेस में पीड़िता के ससुर सखाराम सनम वहाँ पहुँचे, जो सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी हैं। सनम लड़कियों के कपाट से कपड़े और अंडरवियर तक की तलाशी लेते हैं और उन्हें खुलेआम जातिसूचक और अश्लील भाषा में अपमानित करते हैं।
लड़कियों में से एक पूछती है, “मुझे अपना आईडी प्रूफ दिखाओ, आप इस तरह की जांच-पड़ताल नहीं कर सकते।” तब पीड़िता के ससुर सीधे धमकी देते हैं, “चुप रहो, वरना मैं तुम्हें केस में फंसा दूंगा।” लड़कियों को पूछताछ के लिए पुलिस स्टेशन चलने को कहा जाता है। जब ये युवतियाँ कहती हैं कि हमें अपने कपड़े बदलकर आने दो, तब महिला पुलिस कांस्टेबल कहती हैं, “हमारे सामने कपड़े बदलो, हम भी औरतें हैं, तुममें क्या अलग हैं?”
इसके बाद पुलिस इन तीनों लड़कियों को जबरन पुलिस थाने ले गई।
कोथरूड पुलिस स्टेशन में अपमान और हिंसा
यहाँ उन तीनों युवतियों को एक ऐसे कमरे में रखा जाता है जिसमें कोई सीसीटीवी नहीं था। वहाँ पुलिस अधिकारी प्रेमा पाटील, संदीप कामठे, सखाराम सनम द्वारा युवतियों को प्रताड़ित किया गया। उनसे पूछा गया, “क्या तुम महार-मांग लड़कियाँ धंधा करती हो?” “क्या तुम समलैंगिक हो?” उन्हें जातिसूचक गालियाँ दी गई और पीटा गया और छह घंटे तक खड़ा रखा गया। उनके मोबाइल और निजी चैट पढ़कर शर्मनाक टिप्पणियाँ की गईं।
कानून का खुला उल्लंघन
इस घटना के खिलाफ जब सामाजिक कार्यकर्ता और वकील शिकायत दर्ज कराने जाते हैं, तो पुलिस प्रशासन साफ तौर पर इनकार कर देता है। जबकि अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम की धारा 18(ए) के तहत प्राथमिकी दर्ज करना अनिवार्य है। यह घटना अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत आती है, फिर भी पुलिस ने शिकायत दर्ज नहीं की।
पुलिस की ओर से लिखित रूप में अर्ज दिया गया कि, युवतियों के पास पुलिस द्वारा उत्पीड़न का कोई सबूत नहीं है, इसलिए अत्याचार अधिनियम (Atrocity Act) के तहत शिकायत दर्ज नहीं की जा सकती। और अब कोथरूड पुलिस ने तीनों युवतियों और उन्हें मदद करने वाली दो कार्यकर्ताओं के खिलाफ सरकारी काम में बाधा डालने की शिकायत दर्ज कर लिया है।
वैसे भी हम देख चुके हैं कि 1989 में वी.पी. सिंह सरकार के समय पारित अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम हमेशा ही सवर्णों की आलोचना का शिकार होता रहा है। कुछ वर्ष पहले इसे रद्द करने की कुत्सित कोशिश भी सामने आई थी।
राज्य की निष्क्रियता और संवैधानिक अपमान
गौरतलब है कि महाराष्ट्र सरकार की निष्क्रियता भी इस मामले में उजागर होती है। राज्य स्तरीय सतर्कता एवं निगरानी समिति, जिसकी अध्यक्षता मुख्यमंत्री करते हैं, को साल में दो बार बैठक करनी होती है। लेकिन 2018 से 2024 तक एक भी बैठक नहीं हुई। यह अनुसूचित जातियों और जनजातियों की प्राथमिकता को नकारने जैसा है।
चौंकाने वाले आँकड़े
2018 से 2022 के बीच महाराष्ट्र में अनुसूचित जातियों के खिलाफ अपराधों में 38.96% और अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ 41% की वृद्धि हुई है। महाराष्ट्र इस मामले में देश में चौथे स्थान पर है। 2014 से 2019 तक दलित महिलाओं और नाबालिग लड़कियों के खिलाफ अपराधों में भी महाराष्ट्र चौथे स्थान पर रहा।
यह मामला केवल एक महिला या तीन युवतियों का नहीं है—यह हमारे पूरे न्याय तंत्र की संवेदनशीलता और निष्पक्षता की परीक्षा है। जब पुलिस ही कानून का उल्लंघन करे, तो उसे उसी कानून की धारा 4 के तहत दंडित किया जाना चाहिए। सामाजिक न्याय विभाग, अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग और राज्य सरकार को तत्काल हस्तक्षेप करना चाहिए।
श्वेता पाटिल और उनके साथियों ने जिस साहस और संवेदनशीलता से पीड़िता की मदद की, वह प्रशंसा के योग्य है। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि जब तक सत्ता संरचनाएँ जातिवादी मानसिकता से मुक्त नहीं होतीं, तब तक न्याय का साथ देने वालों में डर और असुरक्षा बनी रहेगी। पुलिस द्वारा इन तीन निर्दोष युवतियों को अकारण प्रताड़ित किया जाना सभी इंसानियत पसंद लोगों को मदद करने से रोकने की एक साज़िश है—जो तब तक कामयाब होती रहेगी जब तक दोषी पुलिस पर कड़ी कार्रवाई नहीं की जाती।