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उत्तर प्रदेश : समितियों से नहीं मिल रही है खाद, संकट से जूझ रहे हैं किसान

गेंहू की खेती शुरू होने के साथ किसानों के लिए डीएपी और यूरिया का संकट एक बार फिर से शुरू हो गया है। सरकार के तमाम दावों के बावजूद किसान के सामने सब्सिडी रेट पर डीएपी और यूरिया हासिल करना आसान नहीं है। कई जिलों से यह खबर मिल रही है कि खाद वितरण केंद्र […]

गेंहू की खेती शुरू होने के साथ किसानों के लिए डीएपी और यूरिया का संकट एक बार फिर से शुरू हो गया है। सरकार के तमाम दावों के बावजूद किसान के सामने सब्सिडी रेट पर डीएपी और यूरिया हासिल करना आसान नहीं है। कई जिलों से यह खबर मिल रही है कि खाद वितरण केंद्र यानी सहकारी समिति की मिलीभगत से खाद खुली दुकानों पर बेची जा रही है, जहाँ से किसानों को खाद एमआरपी रेट से ज्यादा पैसे देकर खरीदने को मजबूर होना पड़ रहा है।

किसानों की समस्या को समझने और उसकी सच्चाई जानने के लिए फोन से जानकारी हासिल करने की कोशिश की तो जो सच्चाई सामने आई उसने साबित कर दिया कि उत्तर प्रदेश का पूरा पर्वांचल हिस्सा इस समस्या की जद में है। एक तरफ किसान जहां असमय की बरसात से परेशान हैं, वहीं दूसरी ओर खाद न मिल पाने के संकट की वजह से समय पर बुवाई नहीं कर पा रहे हैं। फसल के दोनों ही चक्रों रबी और खरीफ में किसानों को इस समस्या से जूझना पड़ता हैं। बड़े और एप्रोच वाले किसान भले ही सहकारी समिति (खाद वितरण केंद्र) से खाद हासिल करने में सफल हो जाते हैं पर आम और छोटे किसान निजी दुकानों से खाद खरीदने को मजबूर हैं।

खाद वितरण की समस्या की सच्चाई समझने से पहले जरूरी है कि हम सरकार की उस पहल को समझ लें, जिसके अनुरूप खाद को लेकर सरकारी नीति बनाई जा रही है। सामान्य रूप से देखा जाए तो ऐसा लगता है कि सरकार खाद और अन्य उर्वरकों को उचित मात्रा में किसानों तक पंहुचाने के लिए फ़िक्रमंद है। खाद के संतुलित प्रयोग के पक्ष में सरकार की मुख्य पहल के तौर पर वर्ष 2015 में भारत सरकार ने सभी यूरिया की नीम-कोटिंग को अनिवार्य कर दिया। वर्ष 2018 में मांग में कटौती के लिये 50 किग्रा. के स्थान पर 45 किग्रा. के यूरिया बैग प्रस्तावित किये। भारतीय किसान उर्वरक सहकारी लिमिटेड (इफको) द्वारा वर्ष 2021 में लिक्विड ‘नैनो यूरिया’ लॉन्च किया गया। इसी को ध्यान में रखते हुए गुजरात के कलोल में पहला लिक्विड नैनो यूरिया (LNU) संयंत्र का उद्घाटन हुआ। LNU एक नैनोपार्टिकल के रूप में यूरिया है जो पारंपरिक यूरिया को बदलने तथा इसकी आवश्यकता को कम-से-कम 50% कम करने के लिये विकसित किया गया है।

भदोही के किसान शिवशंकर पटेल किसान की उपलब्धता को लेकर कहते हैं कि ‘अबकी तो खेती पर डबल पनौती लगल हव, मौसम के मार से पहले त धान की फसल बरबाद भई और अब गेंहू के बुवाई के खातिर खाद भी न मिल पावत बा।’ भदोही के ही अंगद यादव कहते हैं कि सब दिन यही हाल रहत है किसान के, सस्ती, सुलभ खाद का वादा हर सरकार करती है पर किसानों तक पहुंचा कोई नहीं पाता।

वाराणसी के कृषि विज्ञान के छात्र रूपेश विश्वकर्मा किसानों कि इस चुनौती को लेकर कहते हैं कि यह कहना दुखद है कि किसान इस देश की मुख्यधारा में गिना ही नहीं जाता है। इतना बड़ा प्रोडक्टिव सेक्टर होने के बावजूद किसान को कोई सामाजिक सम्मान नहीं मिलता। खाद ना मिल पाना किसानों की नियति बन चुकी है। समिति से बस वही लोग खाद ले पा रहे हैं जिनके पास सिफ़ारिश है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय नगर में इस समय खाद आपूर्ति बड़ी समस्या बनी हुई है किसानों को खाद की भारी किल्लत से जूझना पड़ रहा है। जनपद की कई समितियों से खाद गायब है। किसान समितियों के चक्कर लगा रहे हैं। भारतीय किसान यूनियन के मण्डल अध्यक्ष लक्ष्मण प्रसाद मौर्य इस समस्या को अलग तरह से देखते हैं । वह कहते हैं कि खाद की अनुपलब्धता के पीछे सरकार की अपनी साजिश है वह चाहती है कि किसान खेती-किसानी से परेशान हों और यह उनके लिए खेती घाटे का सौदा बन जाये ताकि आने वाले समय में खेती पर भी कारपोरेट का कंट्रोल स्थापित हो जाये।

किसान नेता राजीव यादव खाद संकट को बहुत बारीकी से विश्लेषित करते हुये बताते हैं कि पहले तो सरकार ने 50 किलो की बोरी को 45 किलो की बोरी में बदला अब उसके साथ ही वह एक बोरी खाद के साथ 1 किलो ज़िंक लेने के लिए भी किसानों को मजबूर कर रही है। दूसरी तरफ देश के विकास के तमाम सरकारी दावे भी खेती के मामले में  फिसड्डी साबित हो रहे हैं। आज खाद चीन से मंगाई जा रही है बीज भी विदेशों से आ रहा है । सरकार भले ही चंद्रमा तक पहुँच जाने का नगाड़ा बाजा रही ही पर खेती का बेसिक इंफ्रास्ट्र्क्चर नहीं विकसित कर पा रही है। एक कृषि प्रधान देश होते हुये भी हमारी निर्भरता दूसरे देशों पर बनी हुई है। ‘सरकार कहती है कि किसानों की आय दुगनी कर देंगे’ इस कथन पर भी वह सवाल उठाते हैं कि जब सरकार के पास इस विकास का कोई स्ट्रक्चर ही नहीं विकसित  हुआ है तब यह कैसे संभव हो सकता है। वह कहते हैं कि सरकार की सहकारी समितियां पूरी तरह से धराशायी हो चुकी हैं और किसानों की स्थिति परिवर्तन के लिए उसके पास कोई सोच नहीं है । सरकार किसी भी तरह से कृषि को घाटे के सौदे में बदलने की फिराक में है ताकी कृषि और कृषि योगी भूमि को कब्जे में लेकर उसे कारपोरेट मित्रों के हवाले कर सके।  इसके साथ वह बताते हैं कि आज नकली खाद का कारोबार भी खूब फल-फूल रहा  है।

खाद वितरण की समस्या पूर्वांचल की ही नहीं बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश की समस्या बनती जा रही है और सरकार और सरकारी सिस्टम इस मुद्दे के प्रति आवश्यकता अनुरूप संवेदनशील नहीं है। भारत में यूरिया सबसे अधिक उत्पादित, आयातित, खपत की जाने वाली और भौतिक रूप से विनियमित उर्वरक है। वर्ष 2009-10 से यूरिया की खपत में एक-तिहाई से अधिक की वृद्धि देखी गई है। यह मोटे तौर पर 4,830 रुपए से 5,628 रुपए प्रति टन है। जबकि DAP प्रति टन 27,000 रुपए और MOP प्रति टन 34,000 रुपए में आती है। यूरिया से नाइट्रोजन, डीएपी से फास्फोरस और MOP एमओपी से पोटेशियम की पूर्ति होती है। इसमें यूरिया पर सबसे ज्यादा सब्सिडी है, जिसकी वजह से किसानों में सबसे ज्यादा मांग यूरिया की ही रहती है। डीएपी पर भी सब्सिडी होने के बावजूद भी यह मंहगी होती है, जिसकी वजह से यूरिया के बाद सबसे ज्यादा मांग डीएपी ही रहती है जबकि अन्य उर्वरक पर किसी तरह की सब्सिडी ना होने से किसान इन्हीं दोनों उर्वरकों पर निर्भर रहते हैं।

यदि यह उर्वरक रियायती दरों पर उपलब्ध हो जाता है तब किसानों के लिये कृषि लागत कम करने का माध्यम बन जाता है किन्तु यदि यह उर्वरक सरकारी वितरण केंद्र पर नहीं मिल पाता है, तब किसानों की कृषि लागत बढ़ जाती है। यूरिया के अधिक प्रयोग से कृषि में पड़ने वाला उर्वरक असुन्तालित हो जाता है, जिससे किसान की जमीन की उर्वरता भी खराब होती है और उत्पादन भी उम्मीद के अनुरूप नहीं हो पाता है। फिलहाल डीएपी पर रियायती दर लागू होने से यूरिया और DAP दोनों की बिक्री में बढ़ोत्तरी हुई है।

यह बढ़ोत्तरी भी किसानों के खाद संकट की सबसे बड़ी समस्या है। 50 किलो की बोरी सरकार की तरफ से ही 45 हो चुकी है।सही बोरी लेनी है तो बाजार से लेना पड़ेगा वहाँ पूरी काला बाजारी होती है। यह संकट अब लगभग हर आम किसान का जरूरी संकट बन चुका है। जबकि सरकार का कहना है कि खाद की उपलब्धता का कोई संकट नहीं है।

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