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टेबल पत्रकारिता के दौर में गौर किशोर घोष की याद

जाने-माने पत्रकार गौर किशोर घोष की आज जयंती है। लेखक गौरदा के गहरे मित्र रहे हैं। उन्हें करीब से जानने और साथ रहने का मौका मिला। उन्होंने साथ रहते हुए उन्हें जाना। उन्हीं बातों को लेकर एक संस्मरणात्मक लेख।

गौर किशोर घोष एक संवेदनशील पत्रकार के साथ साहित्यकार थे। उनका जन्म 20 जून, 1923 के दिन हुआ था। मतलब पिछले वर्ष उनकी जन्मशताब्दी समारोह का समापन हुआ।

गौर किशोर घोष, जिन्हें सभी प्यार से गौरदा कहते थे, कोलकाता से निकलने वाले बड़े और नामी अखबार आनंद बाजार पत्रिका में रिपोर्टर थे। 25 जून, 1975 की रात में आनंद बाजार पत्रिका के टेलीप्रिंटर पर इंदिरा गांधी की आपातकाल की घोषणा की खबर आई। जिसे पढ़ने के बाद गौरदा तुरंत आनंद बाजार पत्रिका के कार्यालय से बाहर निकलकर पास के सेंट्रल एवेन्यू पहुंचकर फुटपाथ पर बैठे नाई से अपना सिर मुंडवा लिए। उनके मुंडे हुए सिर को देखकर जब लोगों ने पूछा कि गौरदा की होलो? (गौरदा क्या हुआ?) गौरदा का जवाब होता था ‘जनतंत्र मारा गेलो’ (जनतंत्र मारा गया)।

देश में, इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल और सेंसरशिप के विरोध का इस तरह का कोई दूसरा उदाहरण देखने को नहीं मिला। कुछ संगठनों ने मिलकर सत्याग्रह वगैरह किया, लेकिन गौरदा, महात्मा गाँधी का अनुसरण करते हुए, इस तरह सत्याग्रह करते रहे। आने वाले 25 जून को आपातकाल की घोषणा के 49 साल पूरे होने जा रहे हैं।

मैं ऐसे कई पत्रकारों को जानता हूँ जो अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार संगठनों में पदाधिकारी रहे हैं लेकिन बाद में चलकर सरकार के पिट्ठू बन गए। लखनऊ के ऐसे पत्रकारों को भी जानता हूँ जो आपातकाल के दौरान बड़ोदा डायनामाइट कांड के आरोपी थे और बाद में योगी-मोदी के चमचे तक बन गए और हिंदुत्व का ऐसा प्रचार करने लगे गोया दुनिया में कोई आदर्शवाद ही नहीं बचा। ऐसे में गौर किशोर घोष जैसे लोगों की याद स्वाभाविक है।

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पत्रकार होते हुए भी साधारण लोगों के बीच के आदमी थे

गौरदा ने 24 अक्तूबर, 1989 के भागलपुर दंगे के बाद मुझे भागलपुर चलने का आग्रह किया। बीस जनवरी, 1991 के आनंद बाजार पत्रिका के रविवासरीय में उनका एक लेख ‘मनुष्येरदेर संधाने’ (मानवता की खोज ) शीर्षक से प्रकाशित हुआ। भागलपुर दंगे में जिन लोगों ने अपनी जान जोखिम में डाल कर कुछ मुसलमानों को बचाने के प्रयास किया था, यह उन पर बहुत ही संवेदनशीलता के साथ लिखा गया लेख है।

भागलपुर दंगे के बाद की स्थिति को लेकर आज तक जो कुछ भाई काम हम लोग कर रहे हैं, उसमें उनकी बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका रही है। तब तक उनकी तीन बाइपास सर्जरी हो चुकी थी। जिस तरह महात्मा गाँधी ने कलकत्ता, नोआखाली, बिहार और अंत में दिल्ली दंगों के दौरान अपने आपको 78-79 साल की उम्र में झोंक दिया था, बिल्कुल वैसे ही गौरदा को मैंने भागलपुर तथा बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद कलकत्ता के दंगों के दौरान देखा। भागलपुर में हम लोग स्कूलों के अहातों से लेकर खाली पड़े गोदामों तक में रहे। उन खुली जगहों में गड्ढा खोदकर बैठने के लिए लकड़ी के पट्टे थे और प्राइवेसी के लिए चारों तरफ से जूट के बोरे फाड़कर पर्दे लगाए गए थे। ऐसा रहना एक-दो दिन का नहीं, हफ्ते-दस दिन हुआ, लेकिन वे इसी व्यवस्था में रहे।

वह देश के पहली पंक्ति के पत्रकारों में से एक थे, उन्हें सर्किट हाउस या सरकारी अतिथिगृह बहुत ही मामूली दाम देकर आसानी से मिल जाता लेकिन साथ रहने की जिद में वह इस तरह की असुविधा में ही रहे। यही हाल कलकत्ता से भागलपुर यात्रा के समय था। मैं अपनी पत्नी से पैसे लेकर बड़ी मुश्किल से तीसरे दर्जे का टिकट लेकर यात्रा करता था जबकि उन्हें आनंद बाजार पत्रिका की तरफ से किसी भी तरह के साधन से जाने की सहूलियत मिलती थी लेकिन वे मेरे साथ तीसरे दर्जे में सफर करते थे।

उन दिनों ट्रेनों में लाइट-पंखे सरकार की संपत्ति नहीं, बल्कि सार्वजनिक संपत्ति हुआ करती थी। लोग अपने घर के उपयोग के लिए धड़ल्ले से उन्हें निकाल कर ले जाते थे। एक बार तो हमारे सामने ही एक आदमी बड़े से थैले में एक-एक बल्ब निकालकर डाल रहा था। पूरी बोगी में अंधेरा हो गया। मैंने जानना चाहा कि बल्ब क्यों निकाला? उसने जवाब दिया कि मां दुर्गा के पूजा पंडाल में लाइटिंग के लिए अपने गांव ले जा रहा हूँ।  मैंने कहा कि तुम्हारी दुर्गा मां अन्य बच्चों को चलती हुई रेलगाड़ी में रात के अंधेरे में डालने से क्या बहुत खुश होंगी?

रेल के कर्मचारी होने के बावजूद आप इस तरह की हरकतों को रोकने की बजाय खुद ही रेल संपत्ति की चोरी कर रहे हैं? अपनी बर्थ से गौरदा यह नजारा मुस्कुराते हुए देख रहे थे। मैंने उनकी तरफ हाथ दिखाते हुए कहा कि ‘आप इन्हें जानते हैं?’ जवाब मिला। ‘नहीं।’ मैंने कहा कि ‘यह गौर किशोर घोष हैं। आनंद बाजार पत्रिका के वरिष्ठ पत्रकार।’ इतना सुनने के बाद उसने तुरंत सभी बल्ब लगा दिया और अगले स्टेशन पर उतर कर भाग गया। उन्होंने कभी खुद को पत्रकार कहकर कोई फायदा नहीं उठाया। इसी तरह भागलपुर गांधी शांति प्रतिष्ठान में एक नौजवान ने उन्हें ‘ऐ बुढ्ढे’ कह कर संबोधित किया। उस नौजवान को उनका परिचय देना पड़ा। उस समय भी गौरदा के चेहरे पर मुस्कान थी। वे बहुत विनम्र और प्रतिभाशाली आदमी थे।

उनकी पत्रकारिता जन के बीच की पत्रकारिता थी। कलकत्ता में तांगरा तथा खिदिरपुर-मटियाबुर्ज इलाकों में भारत-पाकिस्तान बँटवारे के दौरान 1946-47 में पहली बार दंगा हुआ था और दूसरी बार 1992 के छ: दिसंबर को बाबरी विध्वंस के बाद, जिसके कारण यहाँ दस दिनों से अधिक का कर्फ्यू लगा। कर्फ्यू के दौरान गौरदा रोज दंगों वाली जगहों पर जाते और वहां की पारिस्थिति की रिपोर्ट आनंद बाजार पत्रिका में देते थे। तब उनकी उम्र 70 वर्ष थी। सवाल है कि टेबल जर्नलिज्म के जमाने में उनके जैसी पत्रकारिता आज कितने लोग कर रहे हैं?

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पत्रकार ही नहीं मानवीय संवेदनाओं से लबरेज लेखक भी

जीवन की आखिरी दस-पंद्रह सालों में उन्होंने धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति के सूत्रपात का दौर देखा। इन्हीं सब स्थितियों को देखते हुए अन्य लेखकीय काम की जगह ‘प्रतिवेशी’ नाम का आखिरी उपन्यास लिखा।

वे  बंगला भाषा के मूर्धन्य लेखक-पत्रकार थे। उन्हें पत्रकारिता में निर्भीकता और दबावों के खिलाफ डटकर खड़े रहने के लिए वर्ष 1981 में मैगसायसाय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1982 में बंकिम पुरस्कार, महाराष्ट्र का इचलकरंजी फाउंडेशन जैसे सम्मान प्रदान किए गए।

उनके लिखे उपन्यास ‘सगीना महतो’ पर मशहूर फिल्म डायरेक्टर तपन सिन्हा ने हिंदी और बंगला में सिनेमा बनाया, जिसमें दिलीप कुमार, सायरा बानो, अपर्णा सेन, अनिल चॅटर्जी के अभिनय किया।

सत्तर के दशक में बंगाल के नक्सल आंदोलन के पीक पीरियड में ‘आमाके बोलतेदाव’ जैसे लेखों की सीरिज बंगला भाषा की ‘देश’ नाम की पत्रिका में लिखी। जो बाद में किताब की शक्ल में प्रकाशित हुई है और इस वजह से नक्सलियों के तथाकथित जनता न्यायालय ने उन्हें फांसी की सजा सुनाई थी। बंगाल सरकार से लेकर आनंद बाजार पत्रिका के मालिक ने उन्हें सुरक्षा देने की भी पेशकश की, लेकिन उन्होंने लेने से मना कर दिया।

जब वह आपातकाल में अलीपुर जेल में बंद थे। उसी दौरान 1976 में माओ त्से तुंग का देहांत हुआ। तब जेल में नक्सलियों ने श्रद्धांजलि सभा रखी थी। उस कार्यक्रम में गौरदा भी शामिल हुए। किसी नक्सल नेता ने पूछा कि ‘आपकी चप्पल कहाँ है?’  तो गौरदा ने सवाल किया कि ‘जब हमारे घर के किसी वरिष्ठ सदस्य की मृत्यु हो जाती है तो क्या हम चप्पल-जूता पहनते हैं?’ सभी नक्सली अवाक हो गए।

गौरदा को आपातकाल में जब पुलिस गिरफ्तार कर जेल ले गई तब उन्होंने जेल से अपने बेटे (जो काफी छोटा था) अप्पू उर्फ भास्कर को पत्र लिखा – ‘मुझे पुलिस गिरफ्तार कर जेल में क्यों ले गई है?‘ यह पत्र जनतंत्र से लेकर अभिव्यक्ति की आजादी के सुंदर दस्तावेजों में से एक है। उस दौरान  मैंने उसका मराठी में अनुवाद कर बुलेटिन के रूप में बहुत वितरित किया। यह मेरी और उनके साथ अप्रत्यक्ष परिचय की शुरुआत थी।

बात 1986 की है, जब बाबा आमटे की भारत जोड़ो यात्रा शुरू की थी। इसी सिलसिले में मैं बाबा आमटे से मिलने दमदम एअरपोर्ट पहुँचा। वहाँ टिपिकल बंगाली पहनावे में एक बुजुर्ग पहले से ही मौजूद थे। बाबा ने मेरा परिचय उनसे कराते हुए कहा, ‘डॉ. सुरेश खैरनार माय यंगफ्रेंड।’ मुझे उनका परिचय देते हुए कहा कि ‘सुरेश, यह गौर किशोर घोष।’ मैं उन्हें जानता था लेकिन यह उनसे पहली मुलाकात थी। उन्हें बताते हुए मैंने कहा कि ‘आपातकाल के समय आपके बेटे को लिखे पत्र का मराठी में अनुवाद कर बुलेटिन बनाकर बांटने का काम किया।’

आगे बातचीत में उन्हें बताया कि कॉलेज के दिनों में ‘सगीना महतो’ मेरी पसंदीदा फिल्मों में से एक थी।’ उन्होंने पूछा कि तुम कलकत्ता में कब से हो?’ तो मैंने कहा कि, ‘1982 के दुर्गा पूजा के समय से ही हूँ।‘ ‘तब इतने दिनों में कभी मिले क्यो नहीं?’ मैंने कहा कि ‘आप ठहरे बंगाल के सेलेब्रिटी लेखक-पत्रकार।‘ उन्होंने प्यार से मेरा हाथ पकड़ा और कहा, ‘मेरे घर चलो तो तुम्हें पता चलेगा कि मैं कितना बड़ा सेलेब्रिटी हूँ?’ इस तरह बाबा आमटे से मुलाकात के बाद, वह मुझे उल्टाडांगा के अपने विधान शिशु उद्यान के घर पर लेकर गए।

एअरपोर्ट से बाहर निकलते हुए उन्होंने पूछा कि ‘तुम कहां रहते हो और घर कैसे जाओगे?’  मैंने कहा कि मै फोर्ट विलियम में रहता हूँ और बस से आया था तो उसी तरह वापस जाऊंगा। उन्होंने गाड़ी में बैठाते हुए कहा कि ‘मेरा घर पहले पड़ता है। मेरे घर पहले चलो उसके बाद आनंद बाजार जाने से पहले तुम्हें फोर्ट विलियम छोड़ दूंगा।’

उनके घर उल्टाडांगा पहुँचने के बाद उन्होंने परिवार के सभी लोगों को बुलाकर परिचय करवाया। उसके बाद मुझे फोर्ट विलियम छोड़ा और जाते-जाते कहा कि ‘यहां से आनंद बाजार ज्यादा दूर नहीं है। तुम दोपहर तीन के बाद कभी भी अड्डा जमाने के लिए आ सकते हो।’ यह हमारी दोस्ती की शुरुआत थी। यह दोस्ती उनके आखिरी समय तक रही। वे भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके परिवार से आज भी वैसा ही संबंध है। मेरी स्मृति में उनके साथ गुजारे और जिए हुए पल आज भी जीवंत हैं। उन्हें याद करते हुए नमन।

डॉ. सुरेश खैरनार
डॉ. सुरेश खैरनार
लेखक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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