यात्राएं मानव सभ्यता के विकास में सबसे अहम रही हैं। अगर यात्राएं न होतीं तो मानव सभ्यता का विकास असंभव था। फिर चाहे वह मेसोपोटामिया की सभ्यता रही हो या फिर हमारे सिंधु घाटी की सभ्यता। आततायी आर्य ब्राह्मणों का हमारे यहां आना भी एक तरह की यात्रा ही थी। मेरा तो मानना है कि यात्रा के मूल में यही होता है कि आदमी तय तो भौगोलिक दूरियां करता है, लेकिन अपने साथ संस्कृति, भाषा और परंपराओं आदि भी लेता जाता है।
आज भी यात्राओं का महत्व कम नहीं हुआ है। यह इसके बावजूद कि सूचना क्रांति ने सात समंदर की दूरी को माउस क्लिक या उंगली के एक हल्के स्पर्श तक सीमित कर दिया है। मतलब यह कि आप अपने लैपटॉप या मोबाइल के जरिए विश्व के किसी भी हिस्से में जुड़ सकते हैं। वहां की खबरें पा सकते हैं और वहां की संस्कृति व आबोहवा के बारे में जानकारी ले सकते हैं। यह सब मानव सभ्यता के विकास का क्रम ही है। आनेवाले समय में इसमें और परिवर्तन होगा।
खैर, यात्राओं से एक बात याद आयी। हर यात्रा का एक मकसद होता है। फिर चाहे वह बुद्ध की यात्राएं रही हों या फिर संत गाडगे की यात्राएं। संत गाडगे की बात इसलिए कि आज उनकी जयंती है और उन्होंने क्या कमाल की यात्राएं की अपने जीवन में। बाजदफा तो यह अकल्पनीय लगता है कि एक दलित अपने घर से निकल पड़ता है और जहां जाता है वहां स्कूल, कॉलेज, अस्पताल और धर्मशालाएं खोल देता है। जबकि उसके अपने पास संपत्ति के रूप में था भी तो केवल एक झाड़ू, तन ढंकने के लिए कुछ कपड़े और मटके का एक टुकड़ा।
[bs-quote quote=”संत गाडगे झाड़ू लेकर गांव-गांव घूमते थे। जहां जाते, वहीं सफाई में जुट जाते। सब आश्चर्य करते कि यह आदमी कहीं पागल तो नहीं है जो सफाई करता फिरता है। लेकिन गाडगे जानते थे कि जिस तरह मन का मैल साफ करना जरूरी है, उसी तरह अपने आसपास को साफ रखना महत्वपूर्ण है। वह दौर भी बहुत खतरनाक। गंदगी की वजह से तब प्लेग और हैजा आदि महामारियों से बस्ती की बस्ती काल के गाल में समा जाती थी। गाडगे हमेशा कहते कि मनुष्यता ही सच्चा धर्म है। मनुष्य होना सबसे महान लक्ष्य है। इसलिए मनुष्य बनो। भूखे को रोटी दो। बेघर को आसरा दो। पर्यावरण की रक्षा करो।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
यदि इस आधार पर मैं संत गाडगे की तुलना बुद्ध से करूं तो वे मुझे उनसे भी महान दिखते हैं। हालांकि यह कुछ लोगों को अतिरेक लगेगा लेकिन आप ही सोचिए कि बुद्ध के पास क्या नहीं था। वह राज परिवार से थे। वे सक्षम थे। साथ ही समाज में उनके पास राज परिवार का होने का लेबल चस्पां था। लोग तो उनके इसी पहचान के कारण उनके मुरीद हो जाते होंगे कि राज परिवार का एक नौजवान अपना घर-बार छोड़कर मानव कल्याण के लिए यात्राएं कर रहा है और लोगों को करूणा व अहिंसा का पाठ पढ़ा रहा है। लेकिन जरा डेबूजी झिंगराजी जाणोरकर यानी संत गाडगे जी के बारे में सोचिए। वह धोबी जाति के थे। उनकी जीवन यात्रा 23 फरवरी, 1876 को महाराष्ट्र के अमरावती जिले के शेड्गांव के एक परिवार में हुआ था। पिता का नाम था झिंगराजी और मां थीं साखूबाई। बुद्ध के विपरीत उनका जीवन बेहद चुनौतीपूर्ण रहा।
जब पढ़ने-लिखने की उम्र थी तभी गृहस्थी चलाने में जुट गए। इसकी वजह यह रही कि आठ वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहांत हो गया। तब उनकी मां ने उन्हें अपने भाई के यहां भेज दिया। यह उनकी पहली यात्रा थी। उनके मामा खेती-बाड़ी करते थे। डेबूजी भी उनके साथ खेतों पर जाने लगे। जरा सोचिए बुद्ध के बारे में कि क्या उन्हें बचपन में कभी खेती-बाड़ी करनी पड़ी होगी। और छुआछूत का सवाल तो खैर है ही। संत गाडगे जब सड़कों पर चलते तो ब्राह्मण वर्ग उनकी छाया से भी दूर भागता था। जबकि बुद्ध ब्राह्मणवाद के विरोधी होने के बावजूद ब्राह्मणों के लिए माननीय थे।
इस एक बात से एक और बात याद आयी। एक बार यह सवाल मेरे एक साथी ने पूछा था कि आखिर बिहार में भूमिहार कुछ खास जगहों पर ही क्यों हैं और ये कौन हैं जो व्यवहार तो ब्राह्मणों की तरह करते हैं लेकिन खुद को ब्राह्मण कहलाने से बचते हैं? तब मैंने अपने साथी को बताया था कि यह सब बुद्ध के कारण हुआ। ब्राह्मण बड़े चालाक होते हैं। सियासी भाषा में कहिए तो मरहूम रामविलास पासवान या फिर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जैसे मौसम विज्ञानी। नीतीश कुमार का जिक्र इसलिए कि वे इन दिनों देश के राष्ट्रपति बनने की मुहिम में जुटे हैं और इसके लिए कई तरह के पैंतरे आजमा रहे हैं।
खैर, मैंने अपने साथी को बताया कि बुद्ध ने अपनी यात्राओं के दौरान जहां-जहां पड़ाव डाला, ब्राह्मण समाज का एक तबका उनके साथ हो गया। वे यह समझते थे कि यह एक नया ज्ञान है जो बुद्ध दे रहे हैं जो कमेरों के लिए फायदेमंद है। इसका फायदा उन्हें यह मिला कि बुद्ध के कहने पर राजाओं और व्यापारियों ने विहार और मठ आदि बनाए, उसका स्वामित्व उन ब्राह्मणों को मिला, जो बुद्ध के साथ उनकी यात्राओं में शामिल हो गए। बाद में जब बुद्ध का परिनिर्वाण हुआ तो वे मठाधीश बन गए और चूंकि वे जन्म से ब्राह्मण थे तो ब्राह्मण भी बने रहे।
लेकिन संत गाडगे को देखिए। वे शरीर से हृष्ट-पुष्ट और परिश्रमी थे। सो कुछ ही दिनों में मामा की खेती संभालने लगे। युवावस्था में कदम रखने के साथ ही उनका विवाह कर दिया गया। पत्नी का नाम था कुंतीबाई। दोनों के चार बच्चे हुए। उनमें दो बेटे और दो बेटियां थीं। उस समय तक डेबूजी खेतों में काम करते। खूब मेहनत करते। साहस उनमें कूट-कूट कर भरा था। जरूरत पड़ने पर आततायी से अकेले ही भिड़ने का हौसला रखते थे।
[bs-quote quote=”एक बार यह सवाल मेरे एक साथी ने पूछा था कि आखिर बिहार में भूमिहार कुछ खास जगहों पर ही क्यों हैं और ये कौन हैं जो व्यवहार तो ब्राह्मणों की तरह करते हैं लेकिन खुद को ब्राह्मण कहलाने से बचते हैं? तब मैंने अपने साथी को बताया था कि यह सब बुद्ध के कारण हुआ। ब्राह्मण बड़े चालाक होते हैं। सियासी भाषा में कहिए तो मरहूम रामविलास पासवान या फिर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जैसे मौसम विज्ञानी। नीतीश कुमार का जिक्र इसलिए कि वे इन दिनों देश के राष्ट्रपति बनने की मुहिम में जुटे हैं और इसके लिए कई तरह के पैंतरे आजमा रहे हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
उन दिनों खेती करना आसान नहीं था। जमींदार लगान और साहूकार ब्याज के बहाने किसानों के सारे मेहनत को हड़प लेते थे। कई बार किसान के पास अपने खाने तक को अनाज न बचता था। डेबूजी को यह देखकर अजीब लगता था। एक बार जमींदार का कारिंदा उनके पास लगान लेने पहुंचा तो किसी बात पर डेबूजी का उनसे झगड़ा हो गया। हृष्ट-पुष्ट डेबूजी ने कारिंदे को पटक दिया। उस शाम घर पहुंचने पर उन्हें मामा की नाराजगी झेलनी पड़ी। कुछ दिनों के बाद उनके मामा का भी देहावसान हो गया। डेबूजी के लिए वह बड़ा आघात था। सांसारिक सुखों के प्रति आसक्ति पहले ही कम थी।
गाडगे की असली यात्रा 1905 में शुरू होती है जब उन्होंने अपना घर छोड़ दिया। उसके बाद 12 वर्षों तक यात्राएं करते रहे। आरंभ में उनकी यात्रा का उद्देश्य ईश्वर की तलाश करना था। लेकिन जिस ईश्वर की तलाश व मंदिरों में कर रहे थे, वह तो महज ढाेंग और आडंबर था। लेकिन यही उनकी बेमिसाल यात्रा का टर्निंग प्वाइंट था। उन्होंने अपना समूचा जीवन मनुष्यता की सेवा को समर्पित कर दिया।
संत गाडगे झाड़ू लेकर गांव-गांव घूमते थे। जहां जाते, वहीं सफाई में जुट जाते। सब आश्चर्य करते कि यह आदमी कहीं पागल तो नहीं है जो सफाई करता फिरता है। लेकिन गाडगे जानते थे कि जिस तरह मन का मैल साफ करना जरूरी है, उसी तरह अपने आसपास को साफ रखना महत्वपूर्ण है। वह दौर भी बहुत खतरनाक। गंदगी की वजह से तब प्लेग और हैजा आदि महामारियों से बस्ती की बस्ती काल के गाल में समा जाती थी। गाडगे हमेशा कहते कि मनुष्यता ही सच्चा धर्म है। मनुष्य होना सबसे महान लक्ष्य है। इसलिए मनुष्य बनो। भूखे को रोटी दो। बेघर को आसरा दो। पर्यावरण की रक्षा करो।
बुद्ध के जैसे ही गाडगे जड़ नहीं थे। वे यात्राएं करते रहते थे। एक जगह काम पूरा हो जाता तो ‘गाडगा’ को सिर पर औंधा रख, फटी जूतियां चटकाते हुए, किसी नई बस्ती की ओर बढ़ जाते। एक बार उनहें मथुरा जाना था। उसके लिए मथुरा जाने वाली गाड़ी में सवार हो गए। सामान के नाम पर उनका वही चिर-परिचित ‘टूटा मटका’, लाठी, फटे-पुराने चिथड़े कपड़े और झाड़ू था। रास्ते में भुसावल स्टेशन पड़ा तो वहीं उतर गए। कुछ दिन वहीं रुककर आसपास के गांवों में गए। वहां झाड़ू से सफाई की। मथुरा जाने की सुध आई तो वापस फिर रेलगाड़ी में सवार हो गए। इस बार टिकट निरीक्षक की नजर उनपर पड़ गई। गाडगे बाबा के पास न तो टिकट था, न ही पैसे। टिकट निरीक्षक ने उन्हें धमकाया और स्टेशन पर उतार दिया। उससे यात्रा में आकस्मिक व्यवधान आ गया। लेकिन जाना तो था। देखा, स्टेशन के पास कुछ रेलवे मजदूर काम रहे हैं। गाडगे उनके पास पहुंचे। कुछ दिन मज़दूरों के साथ मिलकर काम किया। मजदूरी के पैसों से टिकट खरीदा और तब कहीं मथुरा जा पाए।
गाडगे की यात्रा बेमतलब वाली यात्रा नहीं थी। और वे सुंदर नजारों को देखने के लिए यात्राएं नहीं करते थे। बुद्ध की तरह या फिर अन्य ब्राह्मण बाबाओं की तरह उन्होंने अपने लिए न तो मंदिर बनवाया, न ही मठ। लेकिन ऐसा नहीं कि उन्होंने कुछ नहीं बनवाया। उन्होंने स्कूल, कॉलेज, अस्पताल और धर्मशालाएं बनवायीं तथा रवींद्रनाथ ठाकुर के ‘एकला चलो’ के जैसे चलते रहे। चेला-गुरु की परंपरा में वे विश्वास नहीं करते थे। लेकिन लोग उन्हें रोकने की कोशिश करते तो वे कहते– ‘नदियां बहती भली, साधु चलता भला।’
आखिर में इस महान यात्री की यात्रा पर मृत्यु ने रोक लगायी। उनकी तबीअत 13 दिसंबर, 1956 को अचानक खराब हुई। 17 दिसंबर को उनकी हालत अधिक खराब हो गई। 19 दिसंबर, 1956 को रात्रि 11 बजे अमरावती के लिए जब रेलगाड़ी चली तो रास्ते में ही उनकी हालत गंभीर होने लगी। गाड़ी में सवार चिकित्सकों ने उन्हें अमरावती ले जाने की सलाह दी। लेकिन गाड़ी कहीं भी जाती, गाडगे बाबा तो अपने जीवन का सफर पूरा कर चुके थे। बलगांव पिढ़ी नदी के पुल पर गाड़ी पहुंचते-पहुंचते मध्यरात्रि हो चुकी थी। उसी समय, रात्रि के 12.30 बजे अर्थात 20 दिसंबर 1956 को उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली।
महान यात्री गाडगे महाराज को मेरा सलाम।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
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