Friday, July 5, 2024
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विपक्ष तभी मजबूत बन सकता है जब संघ के सामाजिक न्याय विरोधी चेहरे को उजागर करे

अठारहवीं लोकसभा चुनाव की घोषणा होने में कुछ महीने बाकी हैं। चुनाव की घोषणा नहीं हुई है, पर सत्ताधारी भाजपा और विपक्षी दल आगामी लोकसभा चुनाव की तैयारियों में अभी से तत्पर हो गए हैं। इस क्रम में जिस तरह कर्नाटक में भाजपा की जबरदस्त हार से उत्साहित लगभग डेढ़ दर्जन विपक्षी दल एक बड़े […]

अठारहवीं लोकसभा चुनाव की घोषणा होने में कुछ महीने बाकी हैं। चुनाव की घोषणा नहीं हुई है, पर सत्ताधारी भाजपा और विपक्षी दल आगामी लोकसभा चुनाव की तैयारियों में अभी से तत्पर हो गए हैं। इस क्रम में जिस तरह कर्नाटक में भाजपा की जबरदस्त हार से उत्साहित लगभग डेढ़ दर्जन विपक्षी दल एक बड़े अंतराल बाद 23 जून को पटना में एकजुटता के लिए एक टेबल पर बैठे, उससे लगा कि वे एकजुटता के मोर्चे से 2019 की विफलता को पीछे छोड़ते  हुए अपनी तैयारी में भाजपा से आगे निकल जायेंगे। पर, इस मामले में 2019 के मुकाबले कोई संतोषजनक प्रगति नहीं दिख रही है। अब लोगों की निगाहें 17-18 जुलाई को बंगलुरु में होने वाली बैठक पर टिक गयी है, जिसमे दो दर्जन दलों के शामिल होने की सम्भावना है। इस बीच मंडल उत्तरकाल में भाजपा मुसलमानों के खिलाफ जिस नफरती राजनीति के जोर से अप्रतिरोध्य बनी, उसे नए सिरे से धार देने में काफी आगे निकल गयी है। नफरती राजनीति को धार देने के लिए ही वह समान नागरिक संहिता को सबसे बड़ा मुद्दा बनाने में जुट गयी है। जिस समय चुनाव आयोग लोकसभा चुनाव-2024 की घोषणा की तैयारियों में जुट रहा होगा, उस समय 24 जनवरी को प्रधानमंत्री मोदी, योगी-शाह इत्यादि को साथ लेकर अयोध्या में बन रहे उस भव्य राम मंदिर का उद्घाटन करेंगे, जिसका शिलान्यास उन्होंने 5 अगस्त, 2020 किया था। यह वही राममंदिर है, जिसके निर्माण के लिए मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के लगभग एक महीने बाद 25 सितम्बर, 1990 से संघ के राजनीतिक संगठन भाजपा ने एल.के. अडवाणी के नेतृत्व में रथ यात्रा निकाल कर नफरती राजनीति का आगाज़ किया था। राम मंदिर आन्दोलन के जरिये जिन साधु-संतों ने मुस्लिम विद्वेष को शिखर पर पहुंचाया, वे साधु-संत हर चुनाव की भांति 2024 में भी भाजपा को मदद पहुंचाने के लिए समान नागरिक संहिता के पक्ष में जनता के बीच जाने की घोषणा कर दिए हैं। इस तरह भाजपा ने अपनी तैयारियों में देखते ही देखते विपक्ष को काफी पीछे छोड़ दिया है।

बहरहाल 2024 के लिए  पक्ष-विपक्ष की तैयारियों पर नजर रखने के दौरान आज मेरा ध्यान अपने एक खास लेख की और गया जो मैंने 2024 का महानायक बनने जा रहे राहुल गाँधी के उस रोचक बयान को केन्द्रित करते हुए लिखा था, जो उन्होंने सत्रहवीं लोकसभा चुनाव के पांचवें चरण के दौरान जारी किया था। तब उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘मोदी की सबसे बड़ी ताकत उनकी इमेज है और मैं इसे ख़राब कर दूंगा, और मैंने ऐसा करना शुरू भी कर दिया है।’

 

इसमें कोई शक नहीं कि मोदी की इमेज ही उनकी सबसे बड़ी ताकत है, उसी की वजह से पक्ष-विपक्ष की तमाम राजनीतिक शख्सियतें उनके समक्ष निष्तेज हो चुकी हैं। मोदी की उसी इमेज को खराब करने की घोषणा उनके मुख्य प्रतिद्वंदी राहुल गाँधी ने सत्रहवीं लोकसभा चुनाव के पांचवें चरण में की थी  और उस दिशा में भरपूर प्रयास भी किये।  पर क्या सिर्फ राहुल ही उनकी इमेज ख़राब करने की दिशा में आगे बढे? नहीं, और भी लोग इस काम में जुटे। जिस पुलवामा आतंकी हमले ने सत्रहवीं लोकसभा चुनाव में मोदी का आत्मविश्वास बढ़ाने में अहम  रोल अदा किया, उस की तुलना गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शंकर सिंह बाघेला ने गोधरा से करते हुए कहा था, ‘पुलवामा में जवानों पर हुआ हमला मोदी और बीजेपी की साजिश है। पुलवामा हमले में जिस गाड़ी का इस्तेमाल हुआ, उसका शुरुआती रजिस्ट्रेशन गुजरात का है। आतंकवाद का इस्तेमाल बीजेपी चुनाव जीतने के लिए कर रही है।’ बात को आगे बढ़ाते  हुए बालाकोट एयर स्ट्राइक पर बाघेला ने कहा था, ‘बालाकोट हमले में किसी की मौत नहीं हुई है। कोई भी अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी यह साबित नहीं कर पाई कि 200 आतंकवादी मारे गए। बालाकोट हवाई हमला एक सुनियोजित साजिश थी। यह होना ही था।’ पुलवामा को लेकर बाघेला ने मोदी पर जो आरोप लगाये, वही बातें देश के ढेरों पत्रकार व बुद्धिजीवियों ने भी  कही थी।

भाजपा छोड़ चुके यशवंत सिन्हा ने 2019 में 25 अप्रैल को बनारस में हुए मोदी के रोड शो के जरिये निशाना साधते हुए कहा था, ‘मोदी के रोड शो में मुझे वह भीड़ नजर आई, जो हिटलर के पक्ष में जुटती थी।’ मशहूर वकील प्रशांत भूषण ने कहा था, ‘मोदी को पांच साल और मिलने का मतलब है भारत में सभ्यता का अंत।’ लोकसभा चुनाव 2019 में शोले के गब्बर सिंह की तरह महाराष्ट्र में राज ठाकरे का यह नारा ‘लाव रे तो वीडियो’ बहुत पॉपुलर हुआ था। राज ठाकरे लोकसभा चुनाव में प्रतिद्वंदिता नहीं कर रहे थे, पर घूम-घूम मोदी के खिलाफ खूब प्रचार किये थे। वह ऑडियो-वीडियो और ग्राफ़िक्स से ‘पॉवर प्वाइंट प्रेजेंटेशन’ के जरिये मोदी पर अनोखे अंदाज में हमला बोल रहे थे। इस प्रेजेंटेशन में वह बीते पांच साल के दौरान मोदी के भाषणों को वीडियो के जरिये दिखाते हुए उन्हें कठघरे में खड़ा कर रहे थे। इन वीडियोज के जरिये वह मोदी की गुंडे –मवालियों जैसी स्तरहीन बातें, जैसे सिकंदर बिहार तक पहुँच गया था, मैथिली शरण गुप्त का जन्म होसंगाबाद में हुआ था इत्यादि से मतदाताओं को अवगत कराने का भरपूर प्रयास किये थे। मतलब साफ है कि राज ठाकरे ने 2019 में अपने स्तर पर मोदी की इमेज डैमेज करने में कोई कमी नहीं की थी। तो लोकसभा चुनाव 2019 में राहुल गाँधी, बाघेला, ठाकरे इत्यादि ही नहीं, नवजोत सिंह सिद्धू, प्रियंका गाँधी, ममता बनर्जी, केजरीवाल, चन्द्र बाबू नायडू इत्यादि तमाम मोदी विरोधी मोदी इमेज को डैमेज करने का प्रयास अपने-अपने तरीके से किये थे। पर, रिजल्ट क्या हुआ, बताने की ज़रूरत नहीं। बहरहाल ऐसा नहीं कि 2019 में पहली बार मोदी की इमेज ख़राब करने की कोशिश हुई थी। 2002 में गुजरात के गोधरा काण्ड के बाद से ही विपक्ष ऐसा करने का प्रयास करता रहा है और हर बार मोदी अपनी वाक्पटुता, टेम्परामेंट तथा मीडिया और संघ परिवार के सहयोग से विपक्ष के ऐसे प्रयासों को व्यर्थ करने में सफल होते रहे हैं। लगता है 2024 में भी विपक्ष मोदी की इमेज ख़राब करने की कोशिश करेगा। देखना दिलचस्प होगा कैसे मोदी विपक्ष के मंसूबों पर पानी फेरते हैं।

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बहरहाल, विपक्ष द्वारा मोदी की इमेज ख़राब करने की कोशिशों के बावजूद वे चुनाव दर चुनाव सफलता के नए- नए अध्याय रचते रहे और उनके भक्तों की संख्या में कोई  कमी नहीं आई।  तो क्या इसका अर्थ यह लगाया जाय कि उनकी इमेज चट्टान की तरह मजबूत है, जिस पर विपक्ष जितना भी प्रहार कर ले, खास असर नहीं पड़ने वाला है? आमतौर पर ऐसा लग सकता है, पर सच्ची बात यह है कि मोदी विरोधी वर्षो की भांति आज भी अज्ञात कारणों से उनकी उन कमजोरियों पर जमकर प्रहार नहीं करते, जो पधानमंत्री के रूप में उनके नौ साल के कार्यकाल में खूब उभरकर सामने आई हैं। इन कमजोरियों पर यदि निरंतर प्रहार हुआ होता तो मोदी 2019 में ही दिल्ली छोड़कर गुजरात में शरण लेने के लिए  मजबूर हो गए होते। जी हां, मेरा आशय मोदी की सामाजिक न्याय विरोधी इमेज की ओर है। यदि विपक्ष ने मोदी की सामाजिक न्याय विरोधी इमेज को सामने लाने का ईमानदार प्रयास किया होता, तो कब का साबित हो गया होता कि मोदी की इमेज चट्टानी नहीं, बालू से निर्मित हैं, जो एक कठोर प्रहार से भरभराकर गिर सकती है।

वास्तव में विपक्ष ने मोदी की इमेज ख़राब करने की ईमानदार कोशिश आज तक की ही नहीं है। इस मामले में उसकी रणनीति सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे जैसी रही। यदि विपक्ष ने ईमानदार कोशिश की होती  तो सबसे पहले उस संघ का सामाजिक न्याय विरोधी चेहरा सामने लाने का प्रयास किया होता, जिससे प्रशिक्षित होकर पहले अटल बिहारी वाजपेयी और उनके बाद मोदी देश की केन्द्रीय सत्ता पर काबिज हुए। मोदी स्वघोषित रूप से पिछड़ी जाति में जन्म लेने के बावजूद मूलतः उस संघ के एकनिष्ठ सेवक रहे हैं, जिसका एकमेव लक्ष्य ब्राह्मणों के नेतृत्व में सवर्णों का हितपोषण रहा है, इसलिए उन्होंने दलित-आदिवासी पिछड़ों और उनसे धर्मान्तरित तबकों के आरक्षण के खिलाफ चरम शत्रुता का प्रदर्शन किया। विगत नौ वर्षों में आरक्षण के खात्मे तथा बहुसंख्य लोगों की खुशियाँ छीनने की रणनीति के तहत ही मोदी राज में श्रम कानूनों को निरंतर कमजोर करने के साथ ही नियमित मजदूरों की जगह ठेकेदारी प्रथा को बढ़ावा देकर, शक्तिहीन बहुजनों को शोषण-वंचना के दलदल में फँसाने का काम जोर-शोर से हुआहै। बहुसंख्य वंचित वर्ग को आरक्षण से महरूम करने के लिए ही एयर इंडिया, रेलवे स्टेशनों और हास्पिटलों इत्यादि को निजी क्षेत्र में देने की शुरुआत हुई। आरक्षण के खात्मे की योजना के तहत ही सुरक्षा तक से जुड़े उपक्रमों में 100 प्रतिशत एफडीआई की मंजूरी दी गयी। आरक्षित वर्ग के लोगों को बदहाल बनाने के लिए ही पांच दर्जन से अधिक यूनिवर्सिटियों को स्वायतता प्रदान करने के साथ–साथ नई शिक्षा-नीति-2020 के जरिये ऐसी व्यवस्था कर दी गयी जिससे कि आरक्षित वर्ग, खासकर एससी/एसटी के लोगों का विश्वविद्यालयों में शिक्षक के रूप में नियुक्ति पाना एक सपना बन गया। कुल मिलाकर जो सरकारी नौकरियां वंचित वर्गों के धनार्जन का प्रधान आधार थीं, मोदीराज में उसके स्रोत आरक्षण को कागजों की शोभा बनाने का काम लगभग पूरा कर लिया गया।  बहरहाल जिस मोदी राज में आरक्षण को निरर्थक बना दिया गया, उसी मोदीराज के स्लॉग ओवर में संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए 7-22 जनवरी, 2019 के मध्य आनन-फानन में इडब्ल्यूएस के नाम पर गरीब सवर्णों के लिए 10% आरक्षण की व्यवस्था कर दी गयी। यह सब कुछ हुआ उन सवर्णों को और शक्तिसंपन्न बनाने के लिए जिनका हितपोषण ही मोदी के मातृ संगठन संघ का चरम लक्ष्य है।

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संघ के लक्ष्य को साधने के लिए मोदी ने वर्ग संघर्ष का इकतरफा खेल खेलते हुए राजसत्ता का जो निर्मम इस्तेमाल किया है, उसके फलस्वरूप जन्मजात सुविधाभोगी सवर्ण वर्ग के 7.5% पुरुषों का देश की राज-सत्ता, धर्म और ज्ञान-सत्ता के साथ अर्थ-सत्ता पर 80 से 85% कब्ज़ा हो चुका है और संघ के वर्ग शत्रु दलित, आदिवासी, पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित अल्पसंख्यकों को उस स्टेज में पहुंचा दिया गया है, जिस स्टेज में पहुंच कर सारी दुनिया में शोषितों को आजादी की लड़ाई में कूदना पड़ा। विशाल पिछड़ी आबादी को आरक्षण दिलाने वाली मंडल रपट के प्रकाशित होने के बाद, जिस तरह मंदिर आन्दोलन के जरिये संघ के राजनीतिक संगठन भाजपा ने नफरत की राजनीति को हवा देकर केन्द्रीय सत्ता पर कब्ज़ा किया तथा जिस तरह उस राजसत्ता का इस्तेमाल संघ प्रशिक्षित मोदी ने आरक्षण के खात्मे तथा बहुजनों को गुलामों की स्थिति में पहुँचाने में किया है, उसके आधार पर मोदी की छवि चरम सामाजिक न्याय विरोधी नेता की बनती है। राजनीति शास्त्र का एक अदना सा विद्यार्थी भी बता देगा कि मोदी जैसा चैम्पियन सामाजिक न्याय विरोधी नेता कोई और नहीं हुआ।

यदि 2019 में मोदी की इमेज डैमेज करने की रणनीति के तहत राहुल गाँधी, शंकर सिंह बाघेला, राज ठाकरे, यशवंत सिन्हा, प्रशांत भूषण, नवजोत सिंह सिद्धू, केजरीवाल, ममता बनर्जी इत्यादि उनकी सामाजिक न्याय विरोधी छवि उजागर करने में सर्वशक्ति लगाये होते, तो मोदी अब तक दिल्ली छोड़ अहमदाबाद में शरण ले लिए होते। बहरहाल  मोदी ने यूसीसी, राम मंदिर का उद्घाटन इत्यादि के जरिये नफरत की राजनीति को शिखर पर पहुचाने लायक मंच सजा दिया है, अब  विपक्ष के समक्ष सर्वोत्तम विकल्प यही बचता है कि मोदी की छवि चैम्पियन सामाजिक न्याय विरोधी बताते हुए वह चुनाव को सामाजिक न्याय के पिच पर केन्द्रित करने में अभी से सर्वशक्ति लगा दे। विपक्ष एकजुटता कायम करके भी मोदी का कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा, जब तक उनको चरम सामाजिक न्याय विरोधी साबित करने के साथ चुनाव को पूरी तरह सामाजिक न्याय पर केन्द्रित करने में सफल नहीं हो जाता।

गाँव के लोग
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