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ग्राउंड रिपोर्ट

मुझे गर्व है कि मैंने पेरियार ललई सिंह यादव को देखा था

आज बहुत से लेखक और उनकी रचनाएँ चर्चा में है। नए-नए लेखक नयी-नयी रचनाओं के साथ सामने आ रहे हैं, अपने समाज के नायकों की खोज और उन पर लिखने के प्रति रुझान भी इस दौरान विकसित हुआ है। किंतु ललाई सिंह जैसे जन-नायक पर कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ है। नई पीढ़ी उनके जीवन-संघर्ष, रचना-कर्म और शोषण-मुक्त समाज के निर्माण में उनकी भूमिका के बारे में बहुत कम जानती है|

 

उत्तर भारत में दलित-शोषित समाज में आज सामाजिक समानता, सम्मान और संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए चेतना के प्रति जो जागरूकता और उत्साह दिखाई देता है, उसकी जमीन तैयार करने में जिन महान विभूतियों की उल्लेखनीय भूमिका रही है, उनमें पेरियार ललई सिंह यादव का महत्वपूर्ण स्थान है| ललई सिंह यादव ने उस दौर में परिवर्तनकामी और चेतनामूलक साहित्य का लेखन किया, जब दलित-पिछड़े और शोषित समाज में शिक्षा का अभाव था तथा उनमें असमानता और शोषण से मुक्ति और अपने अधिकारों के प्रति चेतना की नितांत आवश्यकता थी| ललई सिंह यादव की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि प्रचुर मात्रा में लेखन करने के उपरांत उन्होंने कभी स्वयं को लेखक नहीं कहा, अपितु एक ग्रामीण जन-सेवक और शोषितों का एक प्रचारक मात्र माना| इससे स्पष्ट है कि वह लेखक से अधिक एक सामाजिक कार्यकर्त्ता थे। अपने सामाजिक कार्यों को ही वह अपनी पहचान बताते थे।

शोषण-मुक्त समाज के प्रबल पक्षधर और पैरोकार ललई सिंह यादव उस दौर में, विशेष रूप से उत्तर भारत में, अंबेडकरवादी आंदोलन के एक बौद्धिक जन-नायक थे| जन-चेतना और जन-जागृति का आंदोलन चलाने के लिए मोटे-मोटे ग्रंथ, बड़ी-बड़ी सैद्धान्तिक बातें अथवा लंबे-लंबे भाषणों की अपेक्षा छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ और पम्फ़लेट लिखकर बांटना और छोटे-छोटे समूह में लोगों के साथ बैठकर उन्हें समझाना कहीं अधिक प्रभावी होता है| ललई सिंह यादव ने यह महत्वपूर्ण कार्य किया।

गाँव-गाँव घूमकर छोटे-छोटे पर्चे और किताबें बांटकर तथा लोगों के बीच बैठकर उनको प्यार से समझाकर सामाजिक बदलाव की जो प्रेरणा उन्होने दी, वह एक अनुपम उदाहरण है|आदि-निवासी चेतना का आंदोलन चलाने वाले पेरियार ललई सिंह यादव ज़मीनी कार्यकर्त्ता के साथ-साथ लेखक, प्रकाशक, प्रचारक और व्याख्याता सब कुछ थे|

पेरियार रामास्वामी नायकर की तरह विसमतामूलक समाज-व्यवस्था और तदजनित भेदभाव, शोषण, अत्याचार, अस्पृश्यता आदि के विरुद्ध अपने लंबे संघर्ष, साहस और जीवटता के कारण ललई सिंह उत्तर भारत के पेरियार माने जाते थे।वास्तव में ललई सिंहयादव शोषण के खिलाफ सामाजिक समानता और न्याय आन्दोलन के एक प्रतीक थे।आस्था, अंधविश्वास और पाखण्ड-परंपरा के नाम पर शोषण की जंजीरों में जकड़े समाज को मानसिक गुलामी और जड़ता से मुक्त कर किस प्रकार उसे परिवर्तन के लिए जागरूक और आंदोलित किया जा सकता है, पेरियार ललई सिंह यादव जीवन भर इसके लिए सक्रिय रहे।

शूद्र-अंत्यज समाज के शोषण और पिछड़ेपन का कारण क्या है? ललई सिंह यादव की चेतना ने इसको गहराई से देखा और समझा था। बाबासाहब अम्बेडकर धर्म, संस्कृति और इतिहास के अपने गहन अध्ययन से यह समझने में सक्षम हुए कि शूद्रों-अंत्यजों के शोषण, पिछड़ेपन और अस्पृश्यता आदि के मूल में हिंदू धर्म के वे तथाकथित शास्त्र हैं, जिनमें मनुस्मृति प्रमुख है, जिसे उच्चवर्णीय हिंदू सामाजिक संहिता अथवा संविधान मानता है। उच्चवर्णीय हिंदुओं का मनुस्मृति के प्रति कितना प्रबल आग्रह है इसका पता इसी से चलता है कि आज देश की स्वाधीनता तथा समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना (अर्थात स्वतंत्र भारत का संविधान लागू होने) के सत्तर साल बीत जाने के उपरांत राजस्थान जैसे देश के बड़े राज्य की उच्च न्यायालय के परिसर में मनुस्मृति के रचियता मनु की मूर्ति स्थापित की जाती है। संवैधानिक (क़ानून शासित) व्यवस्था में न्यायालय संविधान और क़ानून की रक्षक संस्था है। न्यायालय क़ानून का घर है। न्यायालय के अंदर यदि किसी की मूर्ति स्थापित होने का औचित्य बनता है तो वह भारतीय संविधान के निर्माता और स्वतंत्र भारत के प्रथम विधि एवं न्याय मंत्री बाबासाहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की मूर्ति की स्थापना का ही बनता है। इसके अलावा यदि न्यायालय परिसर में किसी की मूर्ति स्थापित की जा सकती है तो वह किसी बड़े न्याय/कानूनवेत्ता अथवा न्याय की रक्षा करने वाले किसी महापुरुष की हो सकती है। किंतु, किसी राज्य के उच्च न्यायालय में संविधान निर्माता, संविधानवेत्ता अथवा संविधान और उसके मूल्यों के रक्षक किसी महापुरुष की बजाए ‘मनुस्मृति’ के लेखक या जनक ‘मनु’ की मूर्ति की स्थापना करने का एक विशेष निहितार्थ है। जिसका सीधा संदेश है संविधान के प्रति असम्मान और उसका नकार और मनुस्मृति का स्वीकार। संविधान की रक्षक संस्था ही यदि संविधान विरोधी कार्य करेगी तो संविधान, उसके मूल्यों की रक्षा कौन करेगा? नागरिकों को संविधान की भावनाओं के अनुरूप न्याय कैसे मिलेगा? एक संवैधानिक राष्ट्र में संविधान के प्रति असम्मान और नकार की कोई भी कोशिश राष्ट्र विरोधी कृत्य है। इस अपराध के लिए दोषियों को कठोरतम दंड दिया जाना चाहिए। किंतु समाज के एक वर्ग द्वारा इसे राष्ट्र-विरोधी कृत्य या अपराध न मानकर गर्व के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। अनेक जाति-संगठनों द्वारा बहुत गर्व से बाबासाहब अम्बेडकर द्वारा लिखित भारतीय संविधान को नकार कर मनुस्मृति का विधान लागू करने की घोषणा की जाती है।

मनुस्मृति ही वह ग्रंथ है, जिसमें शूद्रों पर अनेक प्रकार के निषेध और वर्जनाएँ लगाता है तथा उनको मानवीय अधिकारों से वंचित कर तीनों उच्च वर्णों की सेवा करने का निदेश देता है। वस्तुत: रामायण और मनुस्मृति, ये दो ऐसे ग्रंथ हैं, जिनकी हिंदू समाज में सर्वाधिक मान्यता है और दोनों अनेक रूपों में बहुजनों के हितों पर कुठाराघात करते हैं। बाबासाहब अम्बेडकर ने मनुस्मृति को सदियों से शूद्रों-अंत्यजों की सामाजिक दासता, आर्थिक शोषण और दमन का सबसे बड़ा आधार माना था, और यह समझा था कि जब तक मनुस्मृति का अस्तित्व रहेगा भारत का सवर्ण हिंदू अपनी चेतना में बसी मनुस्मृति की दुर्गंध से मुक्त नहीं हो पाएगा तथा अपनी सामाजिक श्रेष्ठता और वर्चस्व शूद्र-अंत्यज समाज पर बनाकर रखेगा। ऋग्वेद के बाद मनुस्मृति हिंदुओं का सर्वाधिक महान और पवित्र धर्म ग्रंथ है। सवर्ण हिंदुओं द्वारा इसे सामाजिक-संहिता के रूप में स्वीकार किया जाता है। सवर्ण हिंदू मानस पर मनुस्मृति की गहरी छाप और दलितों के दमन का आधार होने के कारण २५ दिसम्बर, १९२७ को बाबासाहब अम्बेडकर ने सार्वजनिक रूप से ‘मनुस्मृति’ को जलाकर उसको नकारा था और समाज को स्पष्ट संदेश दिया था कि मनुस्मृति के मूल्य शूद्र-अंत्यज समाज के हितों पर कुठाराघात करने वाले और उनके अस्तित्व को कुचलने वाले हैं, इसलिए इसका अपने जीवन से पूरी तरह नकार और बहिष्कार किया जाना चाहिए।

बाबासाहब अम्बेडकर ने ‘राम और कृष्ण की पहेली’ के द्वारा भी यह बताने का सार्थक प्रयास किया क़ि राम और कृष्ण ऐतिहासिक पात्र नहीं अपितु मिथकीय नायक हैं। मिथक चतुर, चालाक लोगों द्वारा अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु गढ़े और प्रचारित किए जाते हैं। राम और कृष्ण भी इसी तरह कल्पनाओं के आधार पर गढ़े गए नायक हैं। वे सवर्ण हिंदुओं के हितों का पोषण करने वाले नायक और ईश्वर के अवतार हैं, इसलिए राम और कृष्ण उनके लिए नायक और पूज्य हो सकते हैं, लेकिन वे हमारे नायक या देवता नहीं हो सकते हैं। उन्हें मानना और उनके प्रति आस्था रखना अपने सामाजिक हितों को गिरवी रख सवर्ण हिंदुओं के हितों का पोषण करना और ख़ुद को उनके दमन और शोषण की ज़ंजीरों में बाँध लेना है। इसी बात को समझते हुए पेरियार ई. वी. रामासामी नायकर ने रामायण को नकारते हुए सच्ची रामायण नामक पुस्तक लिखी, जिसमें आर्यों की अनार्यों के प्रति कुटिलताओं को उजागर कर समाज की चेतना को ज़बरदस्त तरीक़े से झकझोरने का काम किया। इतिहास भविष्य का निर्माण करता है। ललई सिंह यादव यह बात अच्छी तरह समझते थे। इसलिए इतिहास दृष्टि उनका एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष है। वैदिक, पौराणिक मिथकों की भ्रमित दुनिया से बाहर निकालकर समाज को इतिहास की यथार्थ दुनिया से परिचित कराने के लिए उन्होंने अंगुलिमाल, शंबूक, एकलव्य आदि महत्वपूर्ण ऐतिहासिक नायकों पर नाटक लिखे और अन्य पुस्तकें भी लिखीं।

सच्ची रामायण को हिंदी में लाने का श्रेय ललई सिंह यादव को जाता है।पेरियर रामास्वामी नायकर द्वारा लिखित ‘द रामायना: ए ट्रू रीडिंग’ पुस्तक का राम अवतार द्वारा ‘सच्ची रामायण’ नाम से किए गए हिंदी अनुवाद को प्रकाशित कर उसका व्यापक स्तर पर प्रचार-प्रसार किया। ‘सच्ची रामायण’ को हिंदी में प्रकाशित होते ही उत्तर भारत में तूफान सा उठ खड़ा हुआ था। असहिष्णुतावादी सवर्ण हिंदुओं पर इसकी बहुत तीखी और तीव्र प्रतिक्रिया हुई। यह उन्हें अपने (हिंदू) धर्म पर हमला लगा। धार्मिक भावनाएँ भड़काने का आरोप लगाकर राज्य सरकार द्वारा  इस पुस्तक को प्रतिबंधित किया गया और इसकी प्रतियाँ ज़ब्त कीं गयीं। सरकार के इस निर्णय के ख़िलाफ़ ललई सिंह यादव न्यायालय गए तथा सुप्रीम कोर्ट तक मुक़दमा लड़ा और जीते। सामाजिक समानता और न्याय की यह एक बहुत बड़ी लड़ाई थी। उनके इस महान संघर्ष ने उनको बहुजन समाज का नायक बना दिया। उत्तर भारत में सामाजिक क्रांति के संवहन में इस पुस्तक ने बहुत बड़ी भूमिका निभायी। बाबा साहब अम्बेडकर द्वारा १४ अक्टूबर, १९५६ को नागपुर में अपने कई लाख अनुयाइयों के साथ हिंदू धर्म का त्याग कर बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने के उपरांत देश भर के शूद्र-अतिशूद्रों में हिंदू धर्म के प्रति विमोह और विरक्ति पैदा हुई और बौद्ध धर्म को अपनाने के प्रति के जागरूकता बढ़ी। हिंदू धर्म की विसमतामूलक समाज-व्यवस्था और जातिगत भेदभाव के प्रबल विरोधी ललई सिंह यादव भी हिंदू धर्म त्याग कर बौद्ध बने, अपने नाम से जातिसूचक ‘यादव’ शब्द हटा दिया और पेरियर ललई सिंह के नाम से विख्यात हुए। बौद्ध बनाने के पश्चात वह जीवन पर्यन्त बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में सक्रिय रहे।

देखा जा सकता है कि ललई सिंह यादव ने अपने नाम के लिए नहीं, सदियों से धर्म और भक्ति की घुट्टी पीकर सोए हुए बहुजन समाज को जगाने तथा उनके अंदर चेतन मनुष्य पैदा करने के लिए अपने जीवन को समर्पित किया। सुख-सुविधा का जीवन छोड़ा, अपने खेत बेचकर प्रिंटिंग प्रेस लगायी, अत्यंत साधारण जीवन जिया और गाँव-गाँव, शहर-शहर घूमकरबहुजन समाज में स्वाभिमान, सम्मान और अधिकार चेतना का प्रसार किया। अपने अस्तित्व और पहचान को भूल चुके बहुजन समाज को उसकी पहचान कराने तथा सामाजिक असमानता और शोषण से मुक्ति के लिए संघर्ष हेतु प्रेरित किया। किसी भी समय में किसी भी व्यक्ति के लिए ऐसा त्याग बहुत बड़ी बात होती है। उससे भी बड़ी बात यह कि उन्होंने न कभी अपने किए का गुणगान किया और न प्रचारित किया। उन्होंने जो कुछ भी किया समाज के प्रति अपना दायित्व समझकर किया और आजीवन वह इस दायित्व बोध से बँधे रहे। उनकी यह सहजता उनके व्यक्तित्व को विराटता प्रदान करती है। पेरियार ललई सिंह द्वारा किए गए मानवतावादी कार्य बताते हैं कि वह सही मायनों में एक विभूति थे। ऐसी विभूतियाँ विरल होती हैं।

मुझे इस बात का गर्व है कि मैंने न केवल विद्यार्थी जीवन में पेरियार ललई सिंह यादव की पुस्तकों को पढ़ा और उनसे प्रेरणा ली अपितु उनसे मिलने और पास बैठकर बात करने और कुछ सीखने का अवसर भी मुझे मिला| उनसे मुलाक़ात मेरे गाँव में ही हुई, रतिराम ‘सूर्य’ जी के घर पर। रतिराम ‘सू’र्य भारतीय बौद्ध महासभा, उत्तर प्रदेश की कार्यकारिणी के सक्रिय सदस्य और हमारे गाँव (इंदरगढी) की शाखा के अध्यक्ष थे। मैं उनका सचिव था। भारतीय बौद्ध महासभा में सक्रियता के चलते ललई सिंह यादव जी के साथ रतिराम ‘सूर्य’ जी की काफ़ी निकटता थी और वह जब हमारे गाँव आए तो सूर्य जी के घर पर ही ठहरे थे। ‘सूर्य’ जी ने मुझे उनके आगमन के बारे में बताया था और मुझे घर से बुलवाकर परिचय कराते हुए उनसे मेरी मुलाक़ात करवायी थी। गोरा रंग, पतला, छरहरा शरीर, सिर पर छोटे-छोटे बाल, पैरों में चप्पल, बौद्ध भिक्षुओं द्वारा पहने जाने वाले चीवर के रंग का कुर्ता-पायजामा और कंधे पर उसी रंग का कपड़े का थैला लटकाए हुए पेरियार ललई सिंह की वह भव्य और कांतिमय छवि आज तक मेरे मस्तिष्क में अंकित है| शांत, सहज और सुलझी हुई भाषा में वह बोलते तो कभी बुद्ध की प्रज्ञा, शील और करुणा का उपदेश देते दिखाए देते और कभी बाबासाहब अम्बेडकर की वैचारिकता के प्रवक्ता दिखायी देते थे। उनकी वाणी और व्यवहार में बुद्ध और अम्बेडकर का शानदार समावेश था, जिससे सर्वत्र मनुष्यता और मनुष्यता की पक्षधरता प्रस्फुटित होती थी। पेरियार ललई सिंह बाबासाहब अम्बेडकर के जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना के विचार के प्रबल पक्षधर और उनके वैचारिक आंदोलन के एक बड़े सामाजिक नेता थे। आंदोलन क्या होता है और कैसे चलाया जाता है, यह मैंने उनसे सीखा|

पेरियार ललई सिंह यादव को याद करते हुए आज जेहन में यह प्रश्न उठता है कि उस दौर में जब दलित-शोषित और पिछड़ा समाज अशिक्षित अथवा अल्पशिक्षित था तब उसमें जिस तेज़ी से सामाजिक जागरूकता आ रही थी, आज उसमें उतनी ही शिथिलता दिखायी देती है। जबकि आज दलित-पिछड़ा समाज अपेक्षित रूप से अधिक शिक्षित है, और आर्थिक रूप से भी पहले से बेहतर स्थिति में है। शिक्षा और राजनीति से लेकर ज्ञान-विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में भी, अधिक नहीं तो कम, लेकिन वे हैं। सामाजिक जागरूकता में जहाँ वृद्धि होनी चाहिए थी, वहाँ वृद्धि की अपेक्षा शिथिलता क्यों आ रही है? यह आश्चर्यजनक है कि धर्म और परम्पराओं के नाम पर किए जाने वाले भेदभाव, पाखंड, अंधविश्वास का जिस दलित-पिछड़े समाज को तीव्र प्रतिकार करना चाहिए था, और अब तक बहुत हद तक इनसे मुक्त हो जाना चाहिए था, आज पहले से अधिक इनकी गिरफ़्त में है। जिन पुरोगामी और यथास्थितिवादी शक्तियों का प्रतिकार किया जाना चाहिए था, आज उन्हीं शक्तियों का पोषण दलित-शोषित समाज क्यों कर रहा है? आज के परिप्रेक्ष्य में यह विचार का एक महत्वपूर्ण विषय है। पेरियार ललई सिंह यादव के जीवन और कार्यों के अध्ययन से इस विषय को समझने में सहायता मिल सकती है।

आज बहुत से लेखक और उनकी रचनाएँ चर्चा में है। नए-नए लेखक नयी-नयी रचनाओं के साथ सामने आ रहे हैं, अपने समाज के नायकों की खोज और उन पर लिखने के प्रति रुझान भी इस दौरान विकसित हुआ है। किंतु ललाई सिंह जैसे जन-नायक पर कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ है। नई पीढ़ी उनके जीवन-संघर्ष, रचना-कर्म और शोषण-मुक्त समाज के निर्माण में उनकी भूमिका के बारे में बहुत कम जानती है| यह बहुत ख़ुशी की बात है कि उत्साही एवं ऊर्जावान युवा साथी डॉ. धर्मवीर यादव ‘गगन’ ने पेरियार ललई सिंह यादव पर शोध कार्यकिया और अब उनके जीवन और रचना-कर्म का संकलन-सम्पादन किया है। उनका यह कार्य निश्चित रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण और सराहनीय कार्य है, इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं| उनकी ऊर्जा और उत्साह को देखते हुए उनसे भविष्य में इस दिशा में और नए कार्य किए जाने के प्रति आशाएँ बंधी हैं। मेरा विश्वास है आने वाले समय में वह बहुजन आंदोलन और उसकी वैचारिकी को सुदृढ़ता और गति प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएँगे।

 

 

 

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