सरसों गाँव के महेश कुमार की उम्र 24 वर्ष है। वह अपनी आजीविका चलाने के लिए खेती करते हैं। जिन दिनों खेती में काम नहीं रहता उन दिनों वह गाड़ी चलाने का काम करते हैं। उनके पास 2 बीघा जमीन है जिसमें वह धान और गेंहू बोते हैं। बारिश तथा सिंचाई की अच्छी सुविधा नहीं होने के कारण अक्सर फसलें सूख जाती हैं।
महेश बताते हैं कि उनके पिताजी पत्थर खदान में कार्य करते थे। जब वह केवल 5 वर्ष के थे तभी टीबी की बीमारी के कारण इनके पिताजी की मृत्यु हो गई थी। पिता की मृत्यु के बाद इनका पालन पोषण इनकी माँ ने किया। आर्थिक तंगी के कारण महेश ने 8वीं तक ही पढ़ाई की। उनके भाई ने 10 वीं तक ही पढ़ाई की।
विंध्य की पहाड़ियों में स्थित सरसो गाँव तक जाने के लिए पक्की सड़क है। प्राकृतिक दृश्यों से समृद्ध इस इलाके में कई ऐसी चीजें हैं जो मन को मोह लेती हैं। चारों तरफ जंगल दिखता है और इन्हीं जंगलों से गुजरती हुई चुनार-बरवाडीह रेलवे लाइन पर हर घंटे लुका-छिपी करती ट्रेनें भी एक अच्छा दृश्य उपस्थित करती हैं।
लेकिन इन दृश्यों के उलट कुछ ऐसी सच्चाइयाँ भी इस गाँव में हैं जो गाँव के भीतर की उदासी को सामने रख देती है। इस गाँव में पचास से अधिक लोग सिलकोसिस का शिकार होकर मर चुके हैं और पाँच लोगों का टीबी का इलाज चल रहा है। विडम्बना यह है कि इन लोगों को आज तक पता नहीं कि उनके घर के मरनेवाले सदस्य को वास्तव में क्या बीमारी थी?
सारे के सारे लोग पत्थर की खदानों में काम करते थे। कई साल काम करते-करते वे बीमार पड़ गए और कुछ दिनों तक इलाज भी चला लेकिन उसके बाद फिर वे कभी नहीं उठे। गाँव के हर घर से कोई न कोई बीमार हुआ और साल-छह महीने बाद चल बसा। इस बात को याद करके लोगों की आँखें आज भी छलक-छलक पड़ता है।
इसी गाँव की मनतोरा देवी फिलहाल आशा का काम करती हैं। उनके पति पत्थर के खदान में पटिया निकालने का काम करते थे। उनको टीबी हो गया था। उनका इलाज चल रहा था लेकिन वे बच नहीं सके। यह सोलह साल पहले की बात है। उनके पति की मृत्यु हुई तो खदान मालिकों द्वारा भी कोई सहायता या मुआवजा नहीं दिया गया। उनके दो बच्चे हैं जिनको वह पढ़ा-लिखा रही हैं। पति की मृत्यु के बाद प्रधान द्वारा उनका विधवा पेंशन बनवा दिया गया था और आज तक उन्हें विधवा पेंशन मिलता है।
एक दशक पहले इस गाँव में बच्चों की पाठशाला चलानेवाली सामाजिक कार्यकर्ता संध्या कहती हैं कि सरसों गाँव में गोंड समुदाय के पचास परिवार रहते हैं। ये लोग आज़ादी के पहले से यहाँ रह रहे हैं और वे पारंपरिक रूप से पत्थर का काम करने में कुशल होते हैं। यहाँ भी वे पत्थर का काम करने लगे लेकिन कुछ सालों तक काम करने के बाद वे बीमार हुये। जांच में टीबी होने की बात सामने आई। इलाज चला लेकिन एक-दो साल के बीच वे मर गए। ज़्यादातर की उम्र पचास वर्ष से अधिक नहीं थी।
संध्या कहती हैं कि आमतौर पत्थर खदान में काम करनेवाले लोगों के बीमार होने पर लोग समझते हैं कि उन्हें साँस की तकलीफ है। जांच के बाद टीबी का पता चलता है। दावा चलती है लेकिन मरीज कभी ठीक नहीं हो पाता। सरसों गाँव में भी यही होता रहा। लोग टीबी का इलाज करवाते रहे और मरते रहे। जबकि टीबी से मौतें इतनी अधिक नहीं होतीं। इस गाँव में तो कुछ ही वर्षों में पचास लोग मर गए। इसलिए इस मामले को यूं ही नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
सरसों गाँव के 40 से 50 लोगों की मृत्यु पत्थर खदान में काम करने के कारण उड़ने वाली धूल के सीने में जमा होने से हुई। आमतौर पर यह माना जाता है कि यह टीबी है और इलाज टीबी का होता रहता है लेकिन इस पर कभी गौर नहीं किया गया कि इसके जो लक्षण हैं वे दूसरे हैं। टीबी का मरीज फेफड़ों में संक्रमण के कारण पीड़ित होता है लेकिन सिलकोसिस के मरीज के फेफड़े में महीन डस्ट जमा होती रहती है और फेफड़े का ऊपरी परत पूरी तरह से उससे ढँक जाती है। इस परत के मोती होते जाने से सांस लेने में तकलीफ बढ़ती जाती है। साँसों की खरखराहट के कारण मरीज को और अधिक ज़ोर लगाना पड़ता है जिससे अक्सर वह खून थूकता है। ऐसे में टीबी के लिए दी जाने वाली दवाएं निष्प्रभावी हो जाती हैं। गौरतलब है कि सिलकोसिस के शिकार व्यक्ति की साल डेढ़ साल में मृत्यु हो जाती है। जहां टीबी से होनेवाली मृत्युदर कम हुई है वहीं सिलकोसिस से मृत्युदर शत प्रतिशत है।
सरसों गाँव के खदान में काम करते हुये सिलकोसिस का शिकार होकर मरनेवाले लोगों की इतनी बड़ी संख्या निश्चित रूप से भयावह है। यह गोंड समुदाय की कुल आबादी के अनुपात में बीस प्रतिशत के करीब है। खासतौर से इसलिए भी भयावह है क्योंकि मरनेवाले लोग ही उनके परिवार के कमासुत लोग थे। उनके जाने के बाद परिवारों पर विपत्तियों का पहाड़ टूटा। अंततः घर की महिलाओं और युवा सदस्यों के कंधे पर परिवार चलाने का दायित्व आ गया। कुछ ने खतरा जानते हुये फिर से पत्थर खदानों में काम शुरू किया था और कुछ ने मेहनत मशक्कत के दूसरे काम किए।
लेकिन केवल सरसों की ही यह कहानी नहीं है। मिर्ज़ापुर और सोनभद्र के हजारों परिवारों की यह कहानी है। मिर्ज़ापुर के अहरौरा के पहाड़ लगातार उड़ाए जा रहे हैं। राजस्व विभाग की मिली-भगत से क्रशर मालिकों ने पूरा इलाका, पर्यावरण और उसका सौन्दर्य तहस-नहस कर दिया है। इस पर भले कभी-कभार चर्चा हो जाती हो लेकिन उन मजदूरों पर कभी चर्चा नहीं होती जो वहाँ काम करते हैं और जिनके फेफड़ों में सिलिका जमती जा रही है।
यह पहाड़ों के लूट की ऐसी हृदय-विदारक कहानी है जिसमें ठेकेदारी-अपराध और सरकारी साँठ-गाँठ की ऐसी जटिल बुनावट है जो आस-पास के इलाकों को भी सिलकोसिस की चपेट में ले जा रही है। अहरौरा इलाके के गाँव, जंगल और बाग-बगीचे हमेशा धूल में नहाये रहते हैं और साँसों के जरिये यह धूल फेफड़ों तक जाती रहती है। सैकड़ों की संख्या में ऐसे लोगों ने अपनी व्यथा सुनाई जो साँस लेने में दिक्कत महसूस करते हैं और काफी समय तक इलाज कराने के बावजूद उन्हें कोई आराम नहीं मिल रहा है।
एक बड़ी समस्या को रोकने के लिए कागज पर रेंगती योजनाएँ
सबसे पहला सवाल तो यही उठता है कि पत्थर खदानों में काम करनेवाले मजदूरों के बीमार होने पर टीबी का इलाज क्यों किया जाता है? क्या देश में सिलकोसिस के चिकित्सक नहीं हैं अथवा इस क्षेत्र में अब तक कोई काम नहीं किया गया है। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के अनुसार सन दो हज़ार तक भारत में एक करोड़ से अधिक लोग सिलकोसिस के शिकार थे। यह संख्या अब दो गुने से अधिक मानी जा रही है।
इसके बावजूद सिलकोसिस को लेकर सरकार की पॉलिसी बहुत कमजोर अवस्था में है। यह एक ज्ञात तथ्य है कि पत्थर खदानों, ग्रेनाइट और सीमेंट कारखानों आदि में देश भर में लाखों श्रमिक काम करते हैं और सीधे-सीधे सिलिका धूल की चपेट में रहते हैं। वर्षों सिलिका के संपर्क में रहने से वे सिलकोसिस के मरीज बनते जाते हैं और एक दिन असाध्य रोग का शिकार होकर मौत के मुंह में चले जाते हैं।
भारत सरकार ने सिलिकोसिस को खान अधिनियम, 1952 और फ़ैक्ट्री अधिनियम, 1948 के तहत अधिसूचित बीमारी माना है। अगर कोई श्रमिक सिलिकोसिस से पीड़ित होता है तो उसे आर्थिक सहायता दी जाती है।
इस प्रक्रिया में डॉक्टर मरीज का इमेजिंग टेस्ट कराते हैं। इसमें छाती का एक्स-रे और हाई-रिज़ॉल्यूशन कंप्यूटेड टोमोग्राफ़ी (सीटी) स्कैन शामिल हैं। सिलिकोसिस का पता लगाने और रोग की प्रगति की निगरानी के लिए छाती के एक्स-रे की तुलना में छाती का सीटी स्कैन अधिक संवेदनशील होता है। इसके बाद सिलिकोसिस रोग का प्रमाण पत्र सीएचसी पर कार्यरत डॉक्टर जारी कर सकता है।
इस प्रमाण पत्र के बाद पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन करना पड़ता है। फ्लैगशिप योजना के अंतर्गत सिलिकोसिस से मौत होने पर तीन लाख की सहायता दी जाती है।
लेकिन जब उत्तर प्रदेश सरकार की सिलकोसिस नीति और अस्पतालों की इलाज प्रक्रिया की छानबीन की तो यह तथ्य सामने आया कि मिर्ज़ापुर जिले में दो दर्जन से अधिक खदानें होने के बावजूद सिलकोसिस के इलाज की कोई व्यवस्था नहीं है। मिर्ज़ापुर मण्डल के दो जिलोंमिर्ज़ापुर और सोनभद्र में पत्थर खदानों और सीमेंट फैक्टरियों में लाखों मजदूरों के काम करने बावजूद सिलकोसिस को लेकर स्पष्ट नीति न होना चिंताजनक है।
स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों पर नज़र डालें तो मिर्ज़ापुर जिले में पिछले पाँच वर्षों में 636 लोगों की मौत टीबी से हो चुकी है। अगले साल यानि 2025 तक भारत सरकार टीबी मुक्त भारत का दावा कर रही है।
लेकिन जब सिलकोसिस के संबंध में जानकारी ली गई तो इसके बारे में अनभिज्ञता ज़ाहिर की गई। इससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि एक गंभीर बीमारी से किस त्ररह पल्ला झाड़ा जा रहा है।
अपर्णा जी! यह सब देखसुन और पढ़कर इस लोकतान्त्रिक पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ़ मन और मज़बूत हुआ है जो कि पहले ही से था। इन सभी समस्याओं का समाधान केवल समाजवाद मे साम्यवाद मे ही दिखता है। मार्क्सवाद के बिना देश क्या पूरी दुनिया का भला नहीं हो सकता। और आज के समय सबसे कम संख्या में मार्क्सवादी ही हैं। मोदीशाही पूँजीवाद हो या कांग्रेसी पूँजीवाद या अन्य पार्टियों / पार्टीधीशों बूर्जुआवाद कोई भी इन समस्याओं के समाधान के लिए समर्थ ही नहीं है।
आर डी सिंह विप्लवी भाकपा (माले) वाराणसी।