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सिनेमा में लड़ती हुई औरत केवल देह नहीं रही है

दुनिया के हर हिस्से में पुरुषों द्वारा स्त्रियॉं का शोषण किया जाता है, उनका उत्पीड़न किया जाता है। वे केवल स्त्री को उपभोग की एक देह के अलावा कुछ नहीं समझते। पितृसत्ता समाज में अधिकतर पुरुष दंभ का शिकार होते हुए संवेदनहीन होते हैं। समाज की यही सच्चाई दुनिया भर के सिनेमा में सामने आई है, जिसमें स्त्रियॉं उनसे मुक़ाबला करते हुए जीत हासिल की हैं।

दिनांक 3 अगस्त, 2014 इराक के सिंजर प्रांत के कोचो गाँव में रहने वाले यज़ीदी धर्म के अल्पसंख्यक लोगों को इस्लामिक स्टेट के लोगों द्वारा बंधक बना लिया गया। आतंकवादियों के द्वारा सभी को इस्लाम धर्म अपनाने के लिए कहा गया। मना करने पर सारे पुरुषों की गोली मार कर हत्या कर दी गई। महिलाओं, बच्चियों और लड़कियों को बसों ट्रकों में भरकर सोहलाग नामक स्थान पर ले जाया गया। लड़कियों और युवा महिलाओं को उनके माँओं से अलग करके अधिक उम्र की महिलाओं की हत्या कर दी गयी क्योंकि वे इस्लाम अपनाने को तैयार नहीं थीं। युवा महिलाओं को इराक के मोसुल प्रान्त और सीरिया ले जाकर सेक्स स्लेव (यौन दासी) बनाकर भयानक यौन शोषण किया गया। उनसे जबरदस्ती धर्म परिवर्तन भी कराया गया। दुनिया भर में धार्मिक अतिवादियों की यही सोच होती है कि जो उनके धर्म और ईश्वर को नहीं मानता उसे जीने का अधिकार नहीं है। जब तक वह अपना धर्म और जीवन जीने के तरीके बदल न दे। यही नृजाति-केंद्रीयता ही इंटर-एथनिक, इंटर-रिलीजियस घृणा और हिंसा का मूल कारण है।

अल्पसंख्यक समूह इस तरह के अतिवाद के दुनिया भर में शिकार हैं। यज़ीदी लोग भी इराक में अल्पसंख्यक हैं। तौसी मेलेक नामक एक एंजेल को वे पूजते हैं जिसे पीकाक एंजेल भी कहा जाता है। लालिश के खूबसूरत पर्वतों और घाटियों में इस धर्म के प्रवर्तक बाबा शेख आदि का स्थापित किया मंदिर है जिसमें यजीदी लोग धार्मिक यात्रा के लिए जाते हैं। मंदिर की चौखट को चूमते हैं, अपनी मन्नतों के लिए रंग-बिरंगे कपडे बांधते हैं। यज़ीदी लोग मरने के बाद मृत शरीर को नहला-धुलाकर अंतिम संस्कार करते हैं। इन्हीं भिन्नताओं के कारण मुस्लिम अतिवादी यज़ीदी धर्म को डेविल रिलिजन मानते हैं और उनका नरसंहार करते रहते हैं।   

नादिया मुराद कोचो गाँव की एक यज़ीदी लड़की है जिसे इस्लामिक स्टेट के अत्याचारों के खिलाफ लड़ने और हिंसा और बलात्कार से पीड़ित विस्थापित लोगों की मदद करने के लिए वर्ष 2018 में शांति का नोबेल पुरस्कार मिला। जर्मनी में हिटलर ने ‘मास्टर रेस थ्योरी’ के पागलपन में लाखों यहूदियों को होलोकास्ट में प्रताड़ित कर मार डाला था। वर्तमान जर्मनी ने धार्मिक हिंसा से पीड़ित नादिया को अपने देश में पनाह दी। सन 2018 में नादिया के जीवन पर अलेक्जेंड्रिया बोम्बैक ने ऑन हर शोल्डर्स शीर्षक से डाक्युमेंट्री फिल्म बनाई जो उनके संघर्ष को दिखाती है। कुल 306 पन्नों अपनी आत्मकथा द लास्ट गर्ल की अंतिम पंक्ति में वे लिखती हैं आई वांट टू बी द लास्ट गर्ल इन द वर्ल्ड विथ अ स्टोरी लाइक माइन।

 महिलाओं के प्रति न्याय के एजेंडे पर बना सिनेमा

इस प्रकार हम देखते हैं कि दुनिया की हर सभ्यता महिलाओं पर अत्याचार करते हुये परवान चढ़ी है। हर धर्म की पृष्ठभूमि में महिलाओं की चीखें हैं। ये अत्याचार और चीखें दुनिया की हर कला विधा में अभिव्यक्त हुई हैं। भारतीय सिनेमा में भी महिलाओं के प्रति भेदभाव शोषण और हिंसा पर अनेकों फ़िल्में बनी हैं। बलात्कार पीड़ित महिलाओं के मुद्दों को उठाती हुई कुछ महत्वपूर्ण फ़िल्में हैं जिनमें  दामिनी (1993),  बैंडिट क्वीन (1994), प्रेमग्रन्थ (1996),  हमारा दिल आपके पास है (2000), आगाज (2000), बवंडर (2000), पिता (2002), पिंक (2016), भूमि (2017), काबिल (2017), मोम (2017) मातृ (2017)।

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दामिनी फिल्म की नायिका अपने सगे देवर द्वारा अपने घर में काम करने वाली नौकरानी का बलात्कार किए जाने पर उसके खिलाफ परिवार वालों की नाराजगी झेलकर भी आवाज उठाती है। उसे कोर्ट में पागल साबित करके पागलखाने तक भेज दिया जाता है लेकिन वह एक महिला के साथ हुए हिंसा और अन्याय के विरुद्ध न्याय मिलने तक लड़ाई लडती है। फूलन देवी (बैंडिट क्वीन) के शोषण और बदले की कहानी पूरी दुनिया जानती है। राजस्थान की भंवरी देवी (बवंडर) की कहानी भी कुछ कम पीड़ादायक नहीं है। प्रेमग्रंथ फिल्म की नायिका एक गरीब ग्रामीण की बेटी है उसका भी बलात्कार होता है और नायक-नायिका मिलकर दोषियों को उनके अंजाम तक पहुंचाते हैं। अनिल कपूर और ऐश्वर्या राय अभिनीत फिल्म हमारा दिल आपके पास है भारतीय समाज के उस निकृष्ट सोच को उजागर करती है जहाँ बलात्कारी नहीं बलात्कार की शिकार लड़की को ही बोझ समझा जाने लगता है। इज्जत के डर से समाधान यह निकाला जाता है कि यदि बलात्कारी पुरुष स्वयं  पीड़ित लड़की से शादी कर ले लड़की और उसके माँ-बाप समाज में रहने लायक हो जायेंगे। नायक धिक्कारता है ऐसी सोच को ‘यदि ऐसा हुआ तो सभी बलात्कारी अपनी जेब चार-पांच मंगलसूत्र लेकर घूमेंगे और रेप के बाद लड़की के घर शादी का प्रस्ताव लेकर पहुँच जायेंगे। जिस आदमी ने किसी लड़की के स्वाभिमान को भंग किया हो, उसे अपमानित किया हो उसके साथ कोई अपनी बेटी की शादी कैसे कर सकता है’।

आगाज फिल्म का नायक गोविन्द और उसकी बहन गाँव से शहर में रहने आते हैं। वह अपने मोहल्ले वालों के सुख-दुःख में शामिल होता है उन्हें बचाता भी है और इसी कारण उसकी दुश्मनी गुंडे-माफिया से हो जाती है। एक दिन माफिया के लोग गोविन्द और मोहल्ले वालों के सामने ही उसकी बहन का बलात्कार करते हैं लेकिन सब चुपचाप तमाशा देखते हैं। मदद की गुहार लगाने पर भी कोई बचाने नहीं आता। समस्या यही कि जब तक पड़ोस में आग लगी होती है हम शहर वाले अनजान बने घूमते हैं। जब अपनी बारी आती है तो कोई मदद करने वाला नहीं मिलता। इस संवेदनहीन चुप्पी और डरपोक स्वकेंद्रिता के कारण ही चंद लोग दादा-माफिया बने बेहिचक अपराध करते हैं और बच भी जाते हैं। फिल्म काबिल दृष्टिबाधित (ब्लाइंड) लड़के-लड़की की प्रेम कहानी है जिसमे लड़की की दिव्यांगता का फायदा उठाकर बलात्कार करते हैं जिसको न्याय दिलाने के लिए नायक संघर्ष करता है। मानसिक रूप से कमजोर, रेलवे और बस स्टेशनों पर रहने को मजबूर लड़कियाँ और महिलायें भी यौन हिंसा और रेप की शिकार होकर माँ बनती हैं। मोम और मातृ फिल्मों की माताएं अपनी बलात्कार की शिकार बेटियों को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करती दिखती हैं।

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महिलाओं की त्रासदियों को अनेक रूपों में चित्रित किया गया

मातृभूमि 2003 में बनी हिंदी फ़िल्म है जो महिला शिशु हत्या व घटती महिलाओं की संख्या के मुद्दे पर प्रकाश डालती है। महिलाओं की गिरती संख्या व भारत के कुछ भागों में पत्नी खरीदने की प्रथा परेशान करने वाली सच्चाई है। इस फिल्म में एक ऐसे भविष्य के भारतीय गाँव को दर्शाया गया है जिसमें वर्षों से महिला शिशु हत्या के चलते एक भी लड़की या महिला जीवित नहीं बची है। फ़िल्म की शुरुआत बिहार के एक पिछड़े गाँव में होती है जहां नवजात कन्या को उसके पिता सार्वजनिक समारोह में दूध में डुबो कर मार देते है। सबको बेटा चाहिए परिणामतः वर्ष 2050 में फिल्म में चित्रित गाँव में केवल पुरुष ही बच गए है। महिलाओं की अनुपस्थिति के चलते अब परेशान पुरुष अश्लील फ़िल्में, लड़कियों की पोशाक पहनकर नृत्य करना व अन्य कार्यों से अपना गुज़ारा करते है। गाँव के पुरुष पत्नी पाने के लिए मानव तस्करी की किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार होते है।

उसी गाँव का एक रईस पिता रामचरण अपने पाँच बेटों के लिए कल्कि नाम की एक जवान लड़की ढूंढ निकालता है और उसे उसके पिता से खरीद लेता है। उसकी शादी पांच बेटों से करवा दी जाती है। सप्ताह की हर रात उसे एक बेटे के साथ गुज़ारनी पड़ती है और यहाँ तक कि उसका ससुर भी उसके साथ हर हफ्ते एक रात बिताता है। सभी बेटों में केवल सबसे छोटा बेटा ही उसे सम्मान व प्यार से संभालता है जिसके कारण कल्कि उसे ज्यादा चाहने लगती है। इसी कारण चार बड़े भाई मिलकर सबसे छोटे भाई को मार देते है। कल्कि अंतर-जातीय झगड़ों व बदले का एक मोहरा बन जाती है। उसे गाय के तबेले में खूंटे से बाँध कर रात पर रात सामूहिक बलात्कार किया जाता है। कल्कि अपने साथ होने वाले बलात्कार की इतनी आदी हो जाती है वह विरोध करना छोड़ देती है और यह उसके लिए एक सामान्य घटना बन जाती है। हम देखते हैं कि जब तबेले में कोई पुरुष उसके पास आता है तो उसके शरीर की हरकत ऐसी हो जाती है जैसे उसने बलात्कार को सहज ही स्वीकार्य कर लिया हो।

मातृभूमि फिल्म को देखकर सआदत हसन मंटो की कहानी खोल दो की याद हो आती है। भारत-पाकिस्तान विभाजन और साम्प्रदायिक दंगो की पृष्ठभूमि पर लिखी गयी इस मार्मिक कहानी में सिराजुद्दीन और उसकी बेटी सकीना दो पात्र हैं जो भागकर ट्रेन पकड़ने जा रहे हैं लेकिन बेटी कहीं गायब हो जाती है। कहानी के अंतिम दृश्य में जब सिराजुद्दीन अपनी बेटी को खोजते हुए मुर्दाघर में पहुँचता है तो उसे अपनी बेटी की लाश मिलती है। कहानी के उस हिस्से को पढ़िए, डॉक्टर ने स्ट्रेचर पर पड़ी हुई लाश की नब्ज टटोली और सिराजुद्दीन से कहा, खिड़की खोल दो. सकीना के मुर्दा जिस्म में जुम्बिश हुई। बेजान हाथों से उसने इजारबंद खोला और सलवार नीचे सरका दी। बूढ़ा सिराजुद्दीन ख़ुशी से चिल्लाया, ज़िंदा है-मेरी बेटी ज़िंदा है? मंटो ने बहुत कुछ न खोलकर मनुष्य की सम्वेदना को झकझोर देने वाली बात लिखी है। फिरकापरस्ती के नशे में रहने वाले दंगाई लोगों ने कितनी दफा बलात्कार किया होगा उस मासूम लड़की का कि उसकी लाश तक को आदत हो गयी कि खोल दो बोलते ही उसके शरीर में हरकत हो जाती है।

नादिया मुराद के साथ इस्लामिक स्टेट के कई आतंकी इतनी बार रेप करते हैं कि उनके मन से रेप का डर खत्म हो जाता है और यह 19 साल की लड़की के लिए सामान्य घटना बन जाती है। वे अपनी आत्मकथा में हताश निराश होकर लिखती हैं, ‘आफ्टर व्हाट हप्पेनेड विथ गार्ड्स एट हाजी सलमान’स, आई लास्ट आल फियर ऑफ़ आइएसआईएस एंड ऑफ़ रेप. आई वाज जस्ट नम्ब. आई डीड नॉट आस्क दिस न्यू मैन व्हाट ही वाज डूइंग, आई डीड नॉट ट्राई टू कन्विंस हिम नॉट टू टच मी, आई डीड नॉट टॉक टू हिम एट आल. एट सम पॉइंट देयर वाज रेप एंड नथिंग एल्स (मुराद 2017:186)। बेबसी बेचारगी और भयावह त्रासदी ही किसी महिला को इस स्थिति तक ले जाती है कि वह अपने खिलाफ किये जा रहे बर्बर अत्याचार और अपमान के प्रति बेपरवाह हो जाए।

अंततः मनुष्यता को हर कहीं बचाना होगा

सामाजिक मानवशास्त्री कहते हैं कि दुनिया की कोई भी संस्कृति अपने आपमें सम्पूर्ण नहीं होती है। कोई भी संस्कृति दूसरी किसी संस्कृति से कमतर या बेहतर नहीं होती। इसमें आवश्यकता पूर्ति का गुण होता है और मनुष्य ने अपनी सुविधानुसार संस्कृति का निर्माण किया है। धर्म भी संस्कृति का ही एक भाग है। कोई व्यक्ति या समूह अपने से भिन्न धर्म और संस्कृति को मानने वाला है तो उसको ‘अन्य’ कहकर उसके खिलाफ घृणा और हिंसा फैलाना, नरसंहार करना, महिलाओं को अपमानित करना घोर आमानवीय कृत्य है। नादिया, कल्कि और सकीना ये तीनों नाम लड़कियों के हैं जो पुरुषों के अहम और उनकी भोगवादी घटिया सोच की शिकार हुई हैं।

नादिया यज़ीदी (इराकी) हैं, कल्कि हिन्दू हैं, और सकीना मुसलमान (भारत-पाकिस्तान) हैं। नादिया मुराद एक वास्तविक पात्र हैं जबकि शेष दो काल्पनिक पात्र हैं लेकिन उनकी पृष्ठभूमि बेहद वास्तविक है। तीनों महिला पात्र धार्मिक चरमपंथ के प्रभाव में पुरुषों के शोषण की शिकार हैं। लोगों के बसे बसाए गांवों को उजाड़कर रिफ्यूजी कैंप और औरत की देह को सम्वेदनारहित उत्पाद समझने वाली पुरुष वर्चस्व की मानसिकता से मुक्ति ही एक स्वस्थ, स्वतंत्र एवं समानता आधारित समाज और राष्ट्र की स्थापना को सम्भव बना सकती है जिससे यह विश्व फिलहाल मीलों दूर है।

संदर्भ
बागची संजीत (2005) फिल्ममेकर फोकसेज ऑन फीमेल इन्फेंटीसाइड: मातृभूमि इमेजिनस अ वोमेनलेस वर्ल्ड, इन ब्रिटिश मेडिकल जर्नल, जुलाई 2, 331 (7507):56.
दासगुप्ता, सतरूपा (2007) मातृभूमि: जेंडर वायलेंस एंड द मदरलैंड, इन एशियन सिनेमा वॉल्यूम 18(2):180-196.
हालदार, डी. एंड सरमा, एन. (2017) मातृभूमि: अ नेशन विदाउट वीमेन (2003) टू व्यथा (2015): व्हेन पोलीएनड्राई इज अ सेक्सुअल कॉम्पलसन इन मिसोजिनिस्ट इंडियन सोसाइटी, इन इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ इंटरडीसिप्लनरी रिसर्च इन साइंस सोसाइटी एंड कल्चर, वॉल्यूम 3,इसु 1 (जून) 2017.
मुराद, नादिया (2017) द लास्ट गर्ल: माय स्टोरी ऑफ़ कैप्तिविटी एंड माय फाइट अगेंस्ट द इस्लामिक स्टेट, विरागो प्रेस, लन्दन.
राव, मैथिलि (2005) अ वर्ल्ड विदाउट वीमेन, इन फ्रंटलाइन.

6 COMMENTS
  1. ये तमाम फिल्में कहां और किस प्लेटफॉर्म पर देखी जा सकती हैं। जब सन्दर्भ ग्रन्थ सूची आप बनाते हैं तो उसमें इस बात का भी जिक्र किया करें। राकेश सर

  2. इतनी गहराई से विश्लेषण के लिये आभार सर?पर्दे के पीछे भी नायिकाओं का बहुत शोषण हुआ है और आज भी हो रहा है। राज कुंद्रा से लेकर फ़िल्म के कई निर्देशक स्त्रियों का खूब शोषण किये हैं। आपका यह लेख सिनेमा से लेकर आम जन तक की आँखे खोलेगी???

  3. ????
    हर बार की तरह इस शुक्रवार को समूह में प्रस्तुत श्री राकेश कबीर जी का “सिनेमा और समाज” के एक ज्वलंत और महत्वपूर्ण विषय पर शोधपरक आलेख न केवल पठनीय है बल्कि दुनिया में स्त्रियों/महिलाओं/बेटियों के प्रति कई धर्मांधों/नराधम पुरुष वर्चस्व वाले समूहों/समाजों की पाशविक प्रवृत्ति और कसाईपने की ऐसा आईना है जो पढ़ने के बाद बहुत देर तक मन को डिस्टर्ब किए रहता है। लेखक इस विषय पर कुछ चर्चित विदेशी और कई हिंदी फिल्मों की सम्यक समीक्षा प्रस्तुत करते हुए स्त्रियों के प्रति धर्म के नाम पर अथवा वर्चस्व के लिए किए जा रहे अत्याचारों और अनाचारों को निरावृत्त किया है और यह सोचने के लिए विवश किया है कि क्या हम हिंसक जंगली जानवरों से भी गए गुजरे नहीं हैं। क्या हममें संवेदनाएं मर गईं हैं? क्या हमारा धर्म यही शिक्षा देता है? स्त्रियों पर होने वाले दुर्दम्य और घृणित अत्याचारों को केंद्र में रखकर भारत और अन्य देशों में जितने भी फिल्मकारों ने फिल्में बनाई हैं वे सभी इस साहसिक और मानवतावादी प्रयास के लिए प्रशंसा और सम्मान के हकदार हैं बशर्ते उन्होंने अपनी प्रस्तुति में ईमानदारी, संवेदनशीलता और सह अनुभूति की अपेक्षाओं का ध्यान रखा हो और अधिकांश फिल्मकारों ने इसका ध्यान भी रखा है। इस विषय पर लगातार गंभीर फिल्में बनती रहनी चाहिए ताकि औरत के हक की लड़ाई और उसकी मुखर आवाज दुनिया के कोने कोने तक पूरी शिद्दत के साथ पहुंच सके।

    इस गंभीर, यथार्थपरक और शोधपूर्ण आलेख के लिए राकेश कबीर जी बधाई और प्रशंसा के पात्र हैं।

  4. समाज में व्याप्त बुराइयों पे अत्यंत ही सराहनीय लेख आदरणीय
    महिलाओं को केंद्र में रखकर पुरुष वर्चस्व वाले देशों में इन पे हो रहे अत्याचारों पे ये लिखा गया लेख अत्यंत महत्वपूर्ण है । कोई भी धर्म अपनेआप में पूर्ण होती है कोई भी धर्म ये नही कहता किसी से किसी प्रकार का जबरदस्ती ,शोषण , या उनके मनो भावनाओ का कत्ल किया जाए।इस तरह की घटनाएं ज्यादातर उन्ही लोगो द्वारा किया जाता है जिनमे शिक्षा ,संस्कार और धर्म के वास्तविक ज्ञान का अभाव होता है। इतने गहन विश्लेषण के आभार सर।????

  5. आलेख न सिर्फ देश बल्कि विश्व भर की स्त्रियों के खिलाफ होने वाले धार्मिक सामाजिक अत्याचारों, अन्यायों और शोषण का आईना है । लेखक ने देश विदेश की फिल्मों की समीक्षा के माध्यम से इस संवेदनशील मुद्दे की उचित पड़ताल की है । स्त्रियों पर होने वाले घृणित अत्याचारों को केंद्र में रखकर भारत और अन्य देशों में जितने भी फिल्मकारों ने फिल्में बनाई हैं वे सभी इस साहसिक और मानवतावादी प्रयास के लिए प्रशंसा और सम्मान के हकदार हैं । उनकी प्रस्तुति में ईमानदारी, संवेदनशीलता और सह अनुभूति की अपेक्षाओं का ध्यान रखा गया है ।
    इन फिल्मों के माध्यम से समाज में महिलाओं की दशा का सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है । समाज की आधी आबादी पर कलाम चलाने के लिए लेखक निश्चित तौर पर प्रशंशा के पात्र है ।

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