काबिले गौर है कि कांग्रेस ने आजादी के बाद से लेकर हाल के वर्षों में जनहित में कुछ सबसे बड़े फैसले तब किए हैं, जब उसका अध्यक्ष नेहरू-गांधी परिवार का कोई सदस्य रहा है। हाल के वर्षों में नरेगा, मिड डे मील, आरटीआई, उच्च शिक्षा में ओबीसी आरक्षण जैसे फैसले सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष रहने के दौरान ही हुए, जबकि नरसिम्हा राव के कार्यकाल को बाबरी मस्जिद गिराए जाने, सांप्रदायिक हिंसा और बेलगाम बाजारवाद के लिए जाना जाता है। भारत में उदारीकरण की शुरुआत एक कांग्रेसी सरकार ने अवश्य की, किन्तु संयोग से यह वह समय था जब कांग्रेस पर नेहरू-गांधी परिवार का नाममात्र का भी असर नहीं था और नरसिम्हा राव ने काफी निर्णायक ढंग से न केवल गांधी-नेहरू परिवार को, बल्कि उनके करीबी समझे जाने वाले कांग्रेसी नेताओं को, ये संकेत दे दिये थे कि वह स्वायत्त प्रधानमंत्री और स्वायत्त पार्टी अध्यक्ष के रूप में ही कार्य करेंगे।
तो फिर कांग्रेस पर वंशवाद का आरोप कितना सही?
जहां तक कांग्रेस पर वंशवाद के आरोप का सवाल है, दशकों पहले यह तब लगना शुरू हुआ जब इंदिरा गांधी के कार्यकाल में संजय गांधी का प्रभाव विस्तार हुआ पर , यह हदें तब पार किया जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने। जिन इंदिरा गांधी से कांग्रेस वंशवाद के आरोप से घिरनी शुरू हुई, उनको उनके पिता नेहरु ने राजनीति में आने के लिए प्रेरित जरूर किया था , लेकिन उनको प्रधानमंत्री नहीं बनाया।
उनके बाद प्रधानमंत्री बने लाल बहादुर शास्त्री, इतिहासकार रामचन्द्र गुहा के मुताबिक़ चीन से युद्ध के बाद नेहरू कांग्रेस में काफी कमज़ोर हो गए थे और उनकी मर्ज़ी के खिलाफ ‘कामराज योजना’ आई, जिसके तहत उनकी पसंद के सभी वरिष्ठ मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों से इस्तीफे दिलवाकर पार्टी के काम में लगा दिया गया। उस समय नेहरू ने बहुत प्रयास करके लाल बहादुर शास्त्री को वापस मंत्रिमंडल में लिया।
गुहा लिखते हैं कि नेहरू की सेहत उस समय ऐसी नहीं थी कि वह काम का बहुत बोझ ले सकते. उस समय शास्त्री एक तरह से उप-प्रधानमंत्री की तरह काम करते थे। अगर उन्हें उस समय वंशवाद चलाना होता तो वह ‘कामराज योजना’ के तहत वरिष्ठ मंत्रियों के इस्तीफे को इन्दिरा गांधी के लिए अवसर की तरह देखते, जबकि उन्होंने इसके उल्टा किया और शास्त्री को इतना महत्व दिया कि उनकी मृत्यु के बाद शास्त्री का प्रधानमंत्री बनना बहुत सरल हो गया मोरारजी देसाई ने उस समय शास्त्री को चुनौती दी लेकिन अपने साथियों का रुख भांपकर उन्होंने अपना नाम वापस ले लिया। शास्त्री ने प्रधानमंत्री का पदभार ग्रहण किया और थोड़ी अनिच्छा के बावजूद, उन्हें इन्दिरा गांधी को अपने मंत्रिमंडल में जगह देनी पड़ी। शास्त्री जी की मृत्यु के बाद कांग्रेस क्षत्रपों ने इन्दिरा गांधी को संसदीय दल और पार्टी का नेता चुना। मोरारजी देसाई ने फिर एक बार मुंह की खाई – इस बार उन्होंने कांग्रेस संसदीय दल में चुनाव भी लड़ा और 355 के मुक़ाबले 169 वोटों से हार गए। इन्दिरा न सिर्फ बरसों कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय थीं बल्कि उन्हें प्रधानमंत्री पद आंतरिक चुनाव के बाद ही मिला। आपातकाल के बाद 1977 में चुनाव हारने के बाद कांग्रेस के कुछ लोगों ने फिर एक बार इन्दिरा गांधी से (और वंशवाद से) पीछा छुड़ाने की कोशिश की लेकिन बहुसंख्यक कांग्रेसियों ने ऐसा नहीं होने दिया।
कांग्रेस के इतिहास में कथित वंशवाद का सबसे बड़ा प्रदर्शन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुआ जब कांग्रेसियों ने राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बना दिया। हालांकि राजीव गांधी कभी राजनीति में आना नहीं चाहते थे और पायलट के तौर पर अपनी अलग जिंदगी जी रहे थे। 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद फिर कांग्रेस ने नेहरू-गांधी परिवार से दूरी बनाने की एक बड़ी कोशिश की। सोनिया गांधी ने कांग्रेस में बरसों कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और नरसिम्हा राव और फिर सीताराम केसरी के नेतृत्व में सरकार और पार्टी चलती रही।
इस दौरान कांग्रेस कमजोर पड़ी और नेताओं ने एक बार फिर गांधी परिवार की तरफ देखा और स्पष्ट रूप से अनिच्छुक लगने वाली सोनिया गांधी को पार्टी की बागडोर थमा दी। इसके बावजूद 2004 और 2009 में सोनिया गांधी ने खुद को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर पेश नहीं किया। हालांकि उन पर आरोप है कि पर्दे के पीछे से वे सत्ता का संचालन करती रहीं। वर्तमान में कांग्रेस सत्ता से बाहर है और पार्टी अध्यक्ष नेहरु – गांधी से बाहर का व्यक्ति है। एक और बात है वंशवाद से कोई भी पार्टी मुक्त नहीं है, यहाँ तक कि खुद भाजपा, बावजूद इसके मोदी और उनके संगी गला फाड़कर कांग्रेस पर वंशवाद का आरोप लगाते रहते हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक़ उसका कारण यह कि कांग्रेस के विरुद्ध परिवारवाद का नारा ज़ोर-शोर से उठाकर भाजपा उसे बिलकुल नेस्तनाबूद करना चाहती है। इस मामले में भाजपा के दोनों हाथों में लड्डू हैं। अगर जोश में आकर और इस परिवारवाद की आलोचना से बचने के लिए गांधी परिवार कांग्रेस को सचमुच उसके हाल पर छोड़ देता है तो फिर समझिए कि कांग्रेस का टूट-फूट कर बिखरना निश्चित है। इसके उलट यदि ऐसा नहीं होता और परिवार का ही कोई सदस्य सिरमौर रहता है (या फिर कोई नाममात्र का अध्यक्ष बनता है जिसे परिवार प्रत्यक्ष तौर पर कंट्रोल करता है) तो फिर हमेशा के लिए ये आलोचना चलती ही रहेगी।
क्या मोदी का नेहरू विरोध वैचारिक है
अब जहां तक मोदी और उनके पार्टी के दूसरों लोगों द्वारा पंडित नेहरू को विशेषतौर से निशाने पर लेने का प्रश्न है राजनीतिक विश्लेषक राजदीप सरदेसाई के मुताबिक, नेहरू ‘धर्मनिरपेक्ष ‘ प्रधानमंत्री थे। उनके लिए बिना भेदभाव वाला धर्मनिरपेक्षता आस्था का मूलमंत्र था। यही उनकी विचारधारा का मूल भी था। उन्होंने यह पूरी तरह सुनिश्चित करने की कोशिश की कि भारत कभी हिन्दू राष्ट्र; या ‘हिन्दू पाकिस्तान’ न बने। इसके लिए वह हमेशा हिन्दुत्ववादी ताकतों से उलझते रहते थे। उन्हें हाशिये पर डालने, यहाँ तक कि उन्हें बहिष्कृत करने की हर संभव कोशिश करते थे। नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गाँधी की हत्या ने हिन्दू साम्प्रदायिकता को हर मोड़ पर चुनौती देने के उनके संकल्प को और मजबूत कर दिया। वो इसे बहुलवादी, बहु- धार्मिक भारत के अपने विचार के बिलकुल विपरीत मानते थे। उस समय आरएसएस के लिए , नेहरु सबसे बड़े ‘शत्रु’ थे, जिनसे वे वैचारिक और राजनीतिक स्तर पर बेहद नफरत करते थे।
जहाँ आरएसएस अतीत और प्राचीन हिन्दू धर्मग्रंथों का महिमामंडन करना चाहता है, वहीं नेहरु तर्क और विज्ञान पर आधारित आधुनिक समाज निर्माण करना चाहते थे। …मोदी के आदर्श गोलवलकर नेहरु को अपना प्रमुख विरोधी मानते थे। वह उन्हें एक ऐसा व्यक्ति मानते थे, जो हिंदुत्व को लोगों के बीच स्वीकार्यता हासिल करने से रोक रहे थे।
जहाँ तक मोदी के नेहरु विरोध का सवाल है अधिकाँश राजनीतिक विश्लेषकों की राय सरदेसाई से ही मिलती-जुलती है। मुख्यतः धर्मनिरपेक्षता के प्रबल हिमायती होने के कारण नेहरु मोदी और दूसरे भाजपाइयों के निशाने पर रहते हैं, ऐसा अधिकांश राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं। वह हिन्दू राष्ट्र की सोच को हतोत्साहित करते रहते थे, इसलिए मोदी और दूसरे भाजपाई उन्हें निशाने पर लेते हैं। राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा जो कारण गिनाये जाते हैं, वे आंशिक रूप से ही सही हैं। पर, असल कारण कुछ और है और वह कारण भाजपा के पितृ संगठन संघ के हिन्दू राष्ट्र निर्माण के पीछे क्रियाशील आर्थिक और सामाजिक सोच है, जिसकी राह में कांग्रेस और नेहरु-गांधी परिवार ने एवरेस्ट सरीखा अवरोध खड़ा कर दिया, जिसका अतिक्रमण करना भाजपा के लिए कठिन है।
हिन्दू राष्ट्र की राह में नेहरु-गांधी परिवार ने कैसे अवरोध खड़ा कर दिया, इसे समझने के लिए सबसे जरूरी है हिन्दू राष्ट्र निर्माण के पीछे संघ की आर्थिक-सामाजिक सोच को जानना, जिसकी मुख्यधारा के राजनीतिक विश्लेषक अपने वर्गीय हित में जानबूझकर अनदेखी करते रहते हैं। हिन्दू राष्ट्र निर्माण के पीछे क्रियाशील संघ के सामाजिक-आर्थिक सोच को जाने बिना का हम समझ ही नहीं सकते कि उसकी राह में नेहरु-गांधी परिवार ने कैसे एवेरेस्ट सरीखा अवरोध खड़ा कर दिया, जिस कारण भाजपा इस परिवार को नेस्तनाबूद करना चाहिती है।
बहुजन आबादी के सिर से हिन्दू राष्ट्र का भूत उतारने में असफल रहे गैर-भाजपाई बुद्धिजीवी
काबिले गौर है कि किसी भी राजनीतिक संगठन के निर्माण के पीछे सामाजिक-आर्थिक सोच का होना बहुत जरूरी है। यह सोच संगठन को दिशा देती है, उसकी नीतियों को प्रभावित करती है और उसे समाज में एक मजबूत जगह बनाने में मदद करती है। सामान्यतया सामाजिक-आर्थिक सोच राजनीतिक संगठन को ऐसी नीतियां बनाने के लिए प्रेरित करती है जो समाज के सभी वर्गों के लिए लाभदायक हो। यह सुनिश्चित करती है कि संगठन समावेशी हो और सभी को समान अवसर प्रदान करे। सामाजिक-आर्थिक सोच संगठन को एक मजबूत आधार प्रदान करता है।
जब संगठन के सदस्य एक सामान्य सामाजिक-आर्थिक दृष्टिकोण साझा करते हैं, तो वे एक साथ मिलकर काम करने और लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अधिक प्रेरित होते हैं। जब राजनीतिक संगठन सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करता है, तो जनता का समर्थन हासिल करने में सफल होता है। लोग भूले नहीं होंगे कि 2014 में मोदी धूमधाम से सत्ता में इसलिए आ पाए थे क्योंकि उन्होंने हर साल दो करोड़ युवाओं को नौकरी देने, सौ दिन में विदेशों से कालाधन लाकर हर व्यक्ति के खाते में 15 लाख डालने का वादा किया था। तब लोगों ने हिन्दू राष्ट्र की लालच में नहीं, आर्थिक स्थिति बेहतर होने की उम्मीद में भाजपा को वोटों से लाद दिया था।
इसका मतलब है कि लोग ऐसे संगठनों से जुड़ना चाहते हैं जो उनके जीवन को बेहतर बनाने के लिए काम कर रहे हों। सामाजिक-आर्थिक सोच संगठन को स्थिरता प्रदान करती है। यदि संगठन केवल सत्ता हासिल करने के लिए काम करता है, तो वह अस्थायी होगा, लेकिन यदि वह समाज के लिए कुछ सार्थक करना चाहता है, तो लम्बे समय तक टिका रह सकता है। सारांश में कहा जा सकता है सामाजिक-आर्थिक सोच किसी भी राजनीतिक संगठन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण मार्गदर्शक शक्ति है, जो संगठन को सही दिशा में ले जाती है, उसके लक्ष्यों को निर्धारित करती है, उसे जनता का समर्थन हासिल करने में मदद करती है और उसे स्थिरता प्रदान करती है।
संघ भले ही घोषित तौर पर अराजनीतिक संगठन हो, पर उसकी गतिविधियाँ राजनीति से प्रेरित रहीं हैं। राजनीतिक लक्ष्य साधने के लिए ही उसने पहले जनसंघ और बाद में भाजपा को जन्म दिया। जाहिर है उसकी भी सामाजिक-आर्थिक सोच रही, जिसे राजनीतिक विश्लेषकों के साथ गैर-भाजपा दलों ने सामने लाने में नहीं के बराबर रुचि ली यदि उन्होंने ईमानदारी से हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के पीछे सामाजिक-आर्थिक सोच को सामने लाने का प्रयास किया होता, तो प्रायः 90 प्रतिशत आबादी के सिर से हिन्दू राष्ट्र का भूत उतर उतर गया होता।
हिन्दू राष्ट्र निर्माण के पीछे : संघ की सामाजिक-आर्थिक सोच
अधिकांश विद्वानों के मुताबिक़ हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा, जिसे हिंदुत्व के रूप में भी जाना, भारत में एक राजनीतिक विचारधारा है जो हिन्दू धर्म-संस्कृति और पहचान पर आधारित एक राष्ट्र राज्य की स्थापना की वकालत करती है। इसके पीछे की आर्थिक सामजिक सोच में स्वदेशी और आत्मनिर्भरता पर जोर, पारम्परिक मूल्यों का संरक्षण और एक मजबूत , एकीकृत हिन्दू समुदाय का निर्माण करना है। कुल मिलाकर हिन्दू राष्ट्र के पीछे क्रियाशील सामाजिक-आर्थिक सोच को जमीन पर उतारने के लिए इसका हजारों साल पुरानी वर्ण-व्यवस्था को लागू करना रहा है। वर्ण-व्यवस्था के ज़रिये संघ हिन्दू राष्ट्र में अपनी सामाजिक-आर्थिक सोच को जमीन पर उतारना चाहता है, इसका संकेत हिंदुत्व के महानायक सौ साल से अधिक समय से दे रहे हैं।
आज से सौ साल पहले हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा को परिभाषित करने वाले विनायक दामोदर सावरकर ने इस बात पर जोर दिया था कि राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था पश्चिम से उधार ली गई अवधारणाओं बजाय प्राचीन देशी विचारों पर आधारित होनी चाहिए। जाहिर है उन्होंने वर्ण- व्यवस्था आधारित प्राचीन हिन्दू व्यवस्था द्वारा राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था परिचालित करने का निर्देश दिया था। हिन्दू राष्ट्र के अग्रणी विचारक प्रो. बिनॉय कुमार सरकार ने 1920 के आसपास अपनी पुस्तक बिल्डिंग ऑफ़ हिन्दू राष्ट्र में हिन्दू राज्य की संरचना और हिन्दू राज्य की सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था के लिए जो दिशा निर्देश प्रस्तुत किया था वह कौटिल्य, मनु और शुक्र जैसे विचारकों और महाभारत पर आधारित था। जाहिर है सरकार महोदय ने भी मनुवादी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की कामना की थी। प्राचीन वर्ण-व्यवस्था द्वारा ही भविष्य के भारत की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था चले, इसके प्रबल पैरोकार बंच ऑफ़ थॉट्स के लेखक और आरएसएस के दूसरे प्रमुख एमएस गोलवलकर भी रहे, जिनके आर्थिक सोच पर भाजपाइयों के गर्व का अंत नहीं है।
एकात्म मानववाद के रूप में भारतीय जनसंघ और आज की भाजपा के राजनीतिक दर्शन को सामने लाने वाले दीन दयाल उपाध्याय ने सामाजिक-आर्थिक मुक्ति के साधन के रूप में साम्यवाद और पूंजीवाद को अस्वीकार करते कहा था कि हिन्दुओं की आर्थिक मुक्ति, भारतीय संस्कृति और मूल्यों पर आधारित एक न्यायसंगत और आत्मनिर्भर आर्थिक प्रणाली के माध्यम से ही संभव हो सकती है। स्पष्ट है कि उपाध्याय भी वर्ण-व्यवस्था पर आधारित सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के हिमायती थे। हिंदुत्व के प्रातः स्मरणीय इन मनीषियों की सोच का प्रतिबिम्बन ही संघ के हिन्दू राष्ट्र की सामाजिक-आर्थिक सोच में हुआ है।
सामने आ चुका है हिन्दू राष्ट्र के संविधान का प्रारूप
बहरहाल संघ अपने राजनीतिक संगठन भाजपा के जरिये जिस हिन्दू राष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक विचार को जमीन पर उतारना चाहता है, उसके संविधान का प्रारूप 2025 के महाकुम्भ में सामने आ चुका है। इसे 12 महीने 12 दिन में 25 विद्वानों ने मिलकर तैयार किया है, जिसके पीछे चारों पीठ के शंकराचचार्यों की सहमति है। 501 पन्नों के इस संविधान की निर्माण समिति में उत्तर भारत के 14 और दक्षिण भारत के 11 विद्वान शामिल किए गए हैं। संविधान निर्माण समिति ने धर्मशास्त्रों के साथ ही रामराज्य, श्रीकृष्ण के राज्य, मनुस्मृति और चाणक्य के अर्थशास्त्र का अध्ययन करने के बाद हिंदू राष्ट्र के संविधान को तैयार किया है। संविधान निर्माण समिति में काशी हिंदू विश्वविद्यालय, संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के विद्वान भी शामिल रहे। इसके संरक्षक शांभवी पीठाधीश्वर के अनुसार 2035 तक हिंदू राष्ट्र की घोषणा का लक्ष्य रखा गया है।
हिंदू राष्ट्र के पहले संविधान के आधार पर देश गणराज्य होगा। चुनाव के आधार पर ही राष्ट्र के प्रमुख का चयन किया जाएगा। संविधान में यहां पर सभी को रहने का अधिकार रहेगा, लेकिन राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के खिलाफ कार्य करने वालों को सख्त दंड का विधान भी बनाया गया है। संविधान निर्माण समिति के अध्यक्ष डॉ. कामेश्वर उपाध्याय के अनुसार हिंदू राष्ट्र में हर नागरिक के लिए सैनिक शिक्षा अनिवार्य होगी। हिंदू राष्ट्र में वर्तमान कर प्रणाली नहीं रहेगी और कृषि को पूर्णत: कर मुक्त कर दिया जाएगा। कर चोरी पर कठोर दंड का विधान होगा। संविधान के अनुसार एकसदनात्मक व्यवस्थापिका होगी और सदन का नाम संसद नहीं हिंदू धर्म संसद होगा। हर संसदीय क्षेत्र में एक धर्म सांसद निर्वाचित होगा। पूरे देश में 543 धर्म सांसद निर्वाचित होंगे। धर्मसंसद के लिए न्यूनतम आयु सीमा 25 और मतदान करने के लिए न्यूनतम आयु सीमा 16 वर्ष होगी। चुनाव लड़ने और लड़ाने का अधिकार केवल सनातन धर्म के अनुयायियों, भारतीय उप महाद्वीप के पंथ जैन, बौद्ध व सिख मत के अनुयायियों को होगा। विधर्मियों को मताधिकार से वंचित किया जायेगा। धर्मसांसद बनने के लिए उम्मीदवार को वैदिक गुरुकुल का छात्र होना अनिवार्य होगा।
अध्यक्ष का चयन गुरुकुलों से होगा। धर्मशास्त्र और राजशास्त्र में पारंगत व्यक्ति, जिसने राज्य संचालन का पांच वर्ष का व्यवहारिक अनुभव लिया हो, वहीं राष्ट्रध्यक्ष पद के योग्य होगा। हिंदू राष्ट्र संविधान के अनुसार युद्ध के समय राजा को अपनी सेना का नेतृत्व करना होगा। राष्ट्राध्यक्ष विषय विशेषज्ञ, शास्त्र ज्ञाता, शूरवीर, शस्त्र चलाने में निपुण और प्रशिक्षित व्यक्तियों को ही मंत्री पद पर नियुक्त करना होगा। हिंदू राष्ट्र में हिंदू न्याय व्यवस्था लागू की जाएगी। यह संसार की सबसे प्राचीन न्याय व्यवस्था है। राष्ट्राध्यक्ष के नियंत्रण में मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीश होंगे। कॉलेजियम जैसी कोई व्यवस्था नहीं रहेगी। भारतीय गुरुकुलों से निकलने वाले सर्वोच्च विधिवेत्ता ही न्यायाधीश के पद को सुशोभित करेंगे। सभी को त्वरित न्याय सुनिश्चित किया जाएगा। झूठे आरोप लगाने वालों पर भी दंड का विधान होगा। दंड सुधारात्मक होंगे।
हिंदू राष्ट्र में प्राचीन वैदिक गुरुकुल प्रणाली को लागू किया जाएगा। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को गुरुकुलों में परिवर्तित किया जाएगा और शासकीय धन से संचालित सभी मदरसे बंद किए जाएंगे। मनु और याज्ञवल्क्य की स्मृतियों का व्यावहारिक उपयोग किया जाएगा। पिता की मृत्यु के उपरांत श्राद्ध करने वाला उत्तराधिकारी होगा। एक पति, एक पत्नी प्रथा चलेगी। हिंदू विधि का अंतिम व सर्वोच्च उद्देश्य वर्णाश्रम व्यवस्था की पुन: स्थापना है। कर्म आधारित वर्ण-व्यवस्था को विधिक रूप दिया जाएगा।
आखिर संघ के लिए क्यों जरूरी है वर्ण-व्यवस्था
वैसे तो वर्षों से आम से लेकर खास लोग यह घोषणा करते रहे हैं कि संघ हिन्दू राष्ट्र में वर्ण-व्यवस्था द्वारा अपनी सामाजिक-आर्थिक सोच को जमीन पर उतारना चाहता है पर, महाकुम्भ में हिन्दू राष्ट्र के संविधान का प्रारूप सामने आने के बाद किसी को भी संदेश नहीं रह जाना चाहिए कि वह वह कर्म आधारित वर्ण-व्यवस्था लागू करना चाहता है। आखिर क्यों वह वर्ण-व्यवस्था लागू करना चाहता है, इसे जानने के लिए कर्म आधारित वर्ण-व्यवस्था की विशेषता जान लेना जरूरी है।
हम सभी जानते हैं कि तथाकथित दैवीय वर्ण-व्यवस्था उस हिन्दू धर्म का प्राणाधार है, जिसका संघ अघोषित रूप से ठेकेदार बने बैठा है। जिसे हिन्दू धर्म धर्म कहा जाता उसका अनुपालन कर्म आधारित वर्ण-व्यवस्था के जरिये होता है। जिस वर्ण-व्यवस्था को संघ हिन्दू राष्ट्र में लागू करना चाहता है, वह वर्ण- व्यवस्था मूलतः शक्ति के सभी स्रोतों–आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक – के बंटवारे की व्यवस्था रही है। शक्ति के स्रोतों का बंटवारा चार वर्णों–ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्रातिशूद्रों के लिए निर्दिष्ट पेशे/कर्मों के जरिये किया गया।
विभिन्न वर्णों के लिए निदिष्ट कर्म ही उनके धर्म रहे। वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मण का धर्म(कर्म ) अध्ययन-अध्यापन, राज्य संचालन में मंत्रणा-दान और पौरोहित्य रहा। क्षत्रिय का धर्म भूस्वामित्व, सैन्य-वृत्ति एवं राज्य-संचालन रहा, जबकि वैश्य का कर्म (धर्म) पशुपालन एवं व्यवसाय-वाणिज्य रहा। शुद्रातिशूद्रों का धर्म (कर्म) रहा तीन उच्चतर वर्णों (ब्राह्मण- क्षत्रिय और वैश्यों) की निष्काम सेवा। वर्ण-धर्म में पेशों की विचलनशीलता निषिद्ध रही, क्योंकि इससे कर्म-संकरता की सृष्टि होती और कर्म-संकरता धर्मशास्त्रों द्वारा पूरी तरह निषिद्ध रही है। कर्म-संकरता की सृष्टि होने पर इहलोक में राजदंड तो परलोक में नरक का सामना करना पड़ता। धर्मशास्त्रों द्वारा पेशे/ कर्मों के विचलनशीलता की निषेधाज्ञा के फलस्वरूप वर्ण-व्यवस्था ने एक आरक्षण-व्यवस्था अर्थात हिन्दू आरक्षण व्यवस्था का रूप ले लिया, जिसमें भिन्न-भिन्न वर्णों के निर्दिष्ट पेशे/कर्म, उनके लिए अपरिवर्तित रूप से चिरकाल के लिए आरक्षित होकर रह गए।
इस क्रम में हिन्दू आरक्षण में ब्राह्मणों के लिए पौरोहित्य व बौद्धिक पेशे तो क्षत्रियों के लिए भूस्वामित्व, राज्य संचालन और सैन्य-कार्य तो वैश्यों के लिए पशु-पालन व व्यवसाय-वाणिज्य के कार्य चिरकाल के लिए आरक्षित होकर रह गये। हिन्दू आरक्षण में शुद्रातिशूद्रों के हिस्से में शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक – एक कतरा भी नहीं आया। वे चिरकाल के लिए दुनिया के सबसे अशक्त मानव समुदायों में तब्दील होने के लिए अभिशप्त हो गए।
संघ की सारी परियोजना वर्ण व्यवस्था को अमर बनाने की है
सामाजिक-आर्थिक नजरिये से वर्ण-व्यवस्था के अध्ययन से साफ़ नजर आता है कि विदेशी मूल के आर्यों द्वारा इसका प्रवर्तन चिरकाल के लिए सुपरिकल्पित रूप से शक्ति के समस्त स्रोत सिर्फ हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग (मुख-बाहु-जंघे) से जन्मे लोगों को आरक्षित करने के मकसद से किया गया था। यहां यह भी गौर करना जरूरी है कि इसमें आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक अधिकार सिर्फ उच्च वर्णों के पुरुषों के लिए आरक्षित हुए। उनकी आधी आबादी शुद्रातिशूद्रों की भांति ही शक्ति के स्रोतों से प्रायः पूरी तरह बहिष्कृत रही। इससे साफ़ नजर आयेगा की वर्ण-व्यवस्था पर आधारित हिन्दू धर्म का पूरा ताना-बाना उच्च वर्णों के रूप में हिन्दुओं की अत्यंत अल्पसंख्यक आबादी को, जिनकी संख्या आज की तारीख में बमुश्किल 7.5% हो सकती है, स्थायी तौर पर शक्ति के समस्त स्रोतों से लैस करने को ध्यान में रखकर बुना गया था।
इस व्यवस्था को ईश्वर की बने व्यवस्था के रूप में प्रचारित कर उच्च वर्णों को शक्ति के स्रोतों का दैवीय-अधिकारी वर्ग बना दिया था। इस दैवीय अधिकारी वर्ग के हित में प्रवर्तित वर्ण-व्यवस्था को प्रत्येक आक्रमण से सुरक्षित रखने के लिए आर्य मनीषियों ने कर्म कर्म-शुद्धता की अनिवार्यता और कर्म-संकरता की भांति वर्ण-शुद्धता की अनिवार्यता और वर्ण-संकरता की निषेधाज्ञा का सिद्धांत रचा. वर्ण-संकरता से समाज को बचाए रखने के लिए ही उन्होंने सती-विधवा और बालिका विवाह-प्रथा के साथ अछूत–प्रथा को जन्म दिया। बकौल पंडित राहुल सांकृत्यायन के मुताबिक सती- प्रथा के चलते भारत के समग्र इतिहास में सवा करोड़ नारियों को अग्नि-दग्ध कर मार डाला गया। इसी तरह विधवा-प्रथा के तहत जहाँ कई करोड़ नारियों की यौन-कामना को बर्फ की सिल्ली में तब्दील कर दिया गया, वहीं बालिका विवाह-प्रथा के तहत अरबों बच्चियों को बाल्यावस्था से सीधे यौनावस्था में उछाल दिया गया। इसी तरह अछूत-प्रथा के तहत दलितों के रूप में एक विशाल आबादी शक्ति के स्रोतों से चिरकाल के लिए पूरी तरह बहिष्कृत होने के साथ कुष्ठ रोगियों की भांति घृणित होने के लिए अभिशप्त हुई।
वर्ण-व्यवस्था में पेशों की विचलनशीलता निषिद्ध होने के कारण आर्थिक, सामरिक, शैक्षिक किसी भी क्षेत्र में योग्य प्रतिभाओं का उदय न हो सका। इस कारण ही मुट्ठी भर विदेशी समर-वीरों को भारत को गुलाम बनाने में दिक्कत नहीं हुई; इसी कारण महज पोथी-पत्रा बांचने में सक्षम लोग पंडित कहलाने के पात्र हो गए; इसी कारण भारत के वैश्यों में हेनरी फोर्ड, रॉकफेलर जैसे लोग ढूंढे नहीं मिलते। इसी कारण वर्ण-व्यवस्था के तहत दलित-आदिवासी-पिछड़ों और महिलाओं से युक्त 90% से अधिक आबादी के मानव संसाधन संसाधन के दुरुपयोग का जैसा भयावह इतिहास भारत में रचित हुआ, वह विश्व इतिहास की बेनजीर घटना है।
नेहरू-गांधी परिवार ने वर्णवादी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के खिलाफ काम किया
अब सवाल पैदा होता है जिस वर्ण-व्यवस्था ने सती-विधवा और बालिका विवाह-प्रथा के जरिये खुद उच्च वर्ण नारियों का जीवन नारकीय बनाने का कलंकित अध्याय रचा; जो वर्ण-व्यवस्था के कारण देश को हजारों वर्षों तक विदेशियों का गुलाम बनाने के लिए जिम्मेवार रही; जिस वर्ण-व्यवस्था के कारण दलित-आदिवासी-पिछड़ों एवं महिलाओं से युक्त 90% आबादी शक्ति के स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत रही, संघ क्यों अपने जन्मकाल से ही उस वर्ण-व्यवस्था की पुनर्स्थापना के लिए क्यों एड़ी-चोटी का जोर लगाता रहा है? इसका जवाब यह है कि वह वर्ण-व्यवस्था के जरिये एक ऐसी सामाजिक- आर्थिक व्यवस्था को जमीन पर उतारना चाहता है, जिसमें हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग से जन्मे (सवर्णों) का शक्ति के स्रोतों पर शत-प्रतिशत एकाधिकार हो जाय और मूलनिवासी दलित, आदिवासी, पिछड़े और आधी आबादी पुनः उस स्थिति में आ जाएँ जिस स्थिति में बने रहने का निर्देश हिन्दू धर्म-शास्त्र देते हैं!
नेहरू-गांधी परिवार के संघ परिवार के अपार घृणा का कारण यही है कि कुछ कमियों और सवालों के बावजूद पंडित नेहरू से लगाए इंदिरा-राजीव-सोनिया गांधी ने अपनी नीतियों से वर्ण-व्यवस्था आधारित सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के ध्वंस में सर्वाधिक प्रभावशाली भूमिका अदा किया। उनकी नीतियों से वर्ण-व्यवस्था के गुलामों — दलित, आदिवासी, पिछड़ों और आधी आबादी को शक्ति के स्रोतों में हिस्सेदारी का मार्ग सबसे प्रभावी रूप में प्रशस्त हुआ, जिसे स्थानाभाव के कारण इस लेख में विस्तार से बताना संभव नहीं है।
हिन्दू राष्ट्र की विचारधारा के खिलाफ नेहरू का क्रांतिकारी उद्घोष
बहुतों का पता नहीं कि सावरकर-हेडगेवार-गोलवलकर सहित अन्य असंख्य हिंदुत्ववादी नायकों ने आधुनिक भारत में शुक्र, कौटिल्य, मनु जैसे विचारकों का विधान लागू करने का जो सपना देखा था, उस पर सबसे बड़ा प्रहार करने में भारतीय संविधान के निर्माण के पीछे नेहरू की विराट भूमिका रही। उन्होंने 13 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा में ‘उद्देश्य प्रस्ताव‘ नाम से जो प्रस्ताव पेश किया वह भारतीय संविधान के मूल सिद्धांतों को निर्धारित करने वाला रहा और बाद में भारत संविधान की प्रस्तावना का आधार बना, जो संविधान के उद्देश्यों और मूल्यों को दर्शाता है।
उनका उद्देश्य प्रस्ताव 22 जनवरी, 1947 को सर्वसम्मति से अपनाया गया और 26 नवम्बर,1949 को संविधान सभा द्वारा अंगीकृत और अधनियमित किया गया। उसी प्रस्ताव में कहा गया था, ’सभी भारतीयों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक निष्पक्षता; पद और अवसर की समानता, कानून के समक्ष समानता और अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था, उपासना, व्यवसाय, संघ और कार्य की बुनियादी स्वतंत्रता – कानून और सार्वजानिक नैतिकता के अधीन – की गारंटी दी जानी चाहिए।’
नेहरू का यह उद्घोष संघ की मनुवादी सोच के खिलाफ एक क्रन्तिकारी उद्घोष था, जिसे हिंदुत्ववादी आज तक भूल नहीं पाए है और अपना आक्रोश समय-समय पर जाहिर करते रहते हैं। मोदी ने इस मानसून सत्र में नेहरू को जबरदस्त निशाने पर लिया तो उसके पीछे नेहरू के ये उद्घोष हैं, जिनकी भारत के सतही राजनीतिक विश्लेषक लम्बे समय से अनदेखी करने के अभ्यस्त रहे हैं। जवाहरलाल नेहरू ने आधुनिक भारत के निर्माण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने योजना आयोग की स्थापना करनेके साथ, विज्ञानं और प्रौद्योगिकी के विकास को बढ़ावा दिया। बावजूद भारत के विकास में असाधारण योगदान देने वाली तीन पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत करने वाले पंडित नेहरू की नीतियों से देश में कृषि और उद्योग के नए युग की शुरुआत हुई, जो वर्ण-व्यवस्था द्वारा सदियों से शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत तबकों के जीवन में बड़ा बदलाव लाने में बुनियादी काम कीं।
इंदिरा-राजीव और सोनिया गांधी बने हिन्दूवादी अर्थ व्यवस्था की राह के रोड़े
नेहरु के हिन्दू राष्ट्र विरोधी विचार का अनुसरण नेहरू-गांधी परिवार के बाद के लोग भी करते रहे। कुछ कमियों और सवालों के बावजूद इंदिरा गांधी ने वर्ण-व्यवस्था के वंचितों के जीवन में बदलाव लाने के लिए गरीबी उन्मूलन, सामाजिक न्याय और आर्थिक समानता वाली नीतियाँ बनाया। उनकी नीतियों में भूमि सुधार, राजाओं के प्रिवी पर्स का खात्मा, बैंकों, एलआईसी, खदानों इत्यादि के राष्ट्रीयकरण और 20 सूत्रीय कार्यक्रम से वंचितों के जीवन में बड़े बदलाव आए। उनके सौजन्य से दलितों को मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज के एडमिशन में आरक्षण मिला और उनमें एक ऐसा मध्य वर्ग उभरा जो साहित्य सृजन के साथ सामाजिक और राजनीतिक संगठनों के निर्माण में भारी अर्थदान कर सका। अनिच्छा पूर्वक राजनीति में आए इंदिरा गांधी के योग्य पुत्र राजीव गांधी भी अल्पआयु में निधन के पूर्व ऐसे कुछ काम कर गए, जो वर्ण-व्यवस्था आधारित सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की राह में बड़ा अवरोध साबित हुआ। 18 साल की उम्र में वोट का अधिकार दिलाने और पंचायती राज अधिनियम के जरिये गावों की आबादी को अपना फैसला खुद करने की आजादी देने वाले राजीव गांधी ने दो ऐसे काम किये जो संघी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती साबित हुए।
इनमें से पहला है कम्प्यूटर क्रांति। राजीव गांधी की कम्प्यूटर क्रांति संभवतः भारत की सबसे बड़ी क्रांति है, जिसकी जद में दो वर्ष के बच्चे तक आ गए है। उनकी इस क्रांति का विरोध संघ परिवार सहित अधिकांश दलों ने किया था। उन्होंने जब दिल्ली में एटीएम मशीन लगाई आरएसएस ने भारत बंद का आह्वान कर दिया था। उनकी इस क्रांति ने वर्ण-व्यवस्था से अंधकारमय हुए भारत में सूचना और ज्ञान का आलोक फैला दिया था। अगर उन्होंने यह क्रांति नहीं की होती तो आज भारत के युवा किस स्थिति में होते, उसकी कल्पना कर रोंगटे खड़े हो जायेंगे। कम्प्यूटर क्रांति के साथ 1986 की अपनी शिक्षानीति के जरिये अज्ञानता के अंधकार में घिरे गावों की प्रतिभाओं को सर्वोच्च स्तर की शिक्षा मुहैया कराने के लिए देश भर में जवाहर नवोदय विद्यालयों की जो श्रृंखला खड़ी उससे गुरुकुल शिक्षा के हिमायतियों के होश उड़ गए और वे आज भी उन्हें माफ़ नहीं कर पाए हैं।
प्रधानमंत्री का पद ठुकराने वाली नेहरू-गांधी परिवार की बहू सोनिया-गांधी कभी अपनी सास और पति की भांति सत्ता की बागडोर तो नहीं थामीं, किन्तु उनके योग्य मार्गदर्शन में ढेरों ऐसे काम हुए जो हिन्दू राष्ट्रवादियों के लिए भारी पीड़ादायक रहे। सबसे पहले तो उन्होंने धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के डॉ. मनमोहन सिंह को पीएम बनाकर उन्हें निराश किया। बाद में उसी मनमोहन सिंह ने सोनिया गांधी के मार्गदर्शन में भारतीय अर्थव्यवस्था को उंचाई देने का ऐतिहासिक काम किया। उनकी नीतियों से भारत एक विश्व आर्थिक महाशक्ति बना और देश में विशाल मध्यम वर्ग का उदय हुआ, जिसमें वर्ण-व्यवस्था के जन्मजात वंचितों दलित, आदिवासी, पिछड़ों की भी हिस्सेदारी रही। मनमोहन सिंह की उसी अर्थनीति की फसल आज मोदी भी काट रहे हैं। मनरेगा, शिक्षा का अधिकार, स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार, सामाजिक सुरक्षा योजनाओं इत्यादि के जरिये वर्ण-व्यवस्था के वंचितों के जीवन में सुधार लाने वाले कार्य सोनिया गांधी की ही देखरेख में हुए। उन्हीं की देखरेख में 2006 में उच्च शिक्षा में और 2012 में पिछड़ों को पेट्रोलियम प्रोडक्ट के वितरण में आरक्षण मिला; उन्हीं के दौर में मध्य प्रदेश से डाइवर्सिटी काआइडिया निकला, जिसके फलस्वरूप आज दलित, आदिवासी, पिछड़ों में नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई, डीलरशिप, ठेकेदारी, मीडिया इत्यादि में हिस्सेदारी की चाह पैदा हुई, जिसका ऐतिहासिक असर सामने आने लगा है।
हिन्दू राष्ट्र की राह में एवरेस्ट बनते : राहुल गांधी
अगर वर्ण-व्यस्थाधारित सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की रह में चुनौती खड़ी करने में नेहरू-गांधी परिवार में कोई कमी रह गई तो उसे पूरा करते दिख रहे हैं, राहुल गांधी, जिनमें लोग नेहरू-इंदिरा-राजीव और सोनिया गांधी का मिला-जुला अक्स देख रहे है। भारत के इतिहास में एक जननायक के रूप में उभर चुके राहुल गांधी आज हिन्दू राष्ट्र की राह में एवरेस्ट बनकर खड़े हो गए। भारत के इतिहास में सामाजिक अन्याय का जो विशाल अध्याय रचित हुआ, उसकी उपलब्धि करते हुए राहुल गांधी ने घोषणा कर दिया है कि सामाजिक और आर्थिक अन्याय सबसे बड़ी समस्या है और सामाजिक न्याय लागू करके ही भारत को सुन्दर और समतामूलक बनाया जा सकता है। सामाजिक न्याय की उनकी योजना 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के पांच न्याय और 25 गारंटियों और तीन सौ वादों से युक्त न्याय-पत्र के रूप में सामने आई, जो संघ के हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को छिन्न-भिन्न करने का सामान बन गया।
न्याय पत्र ने आधी आबादी को सरकारी नौकरियों में 50 प्रतिशत आरक्षण देने व 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा खत्म करने का सपना देकर राहुल गांधी ने संघ के सपनों में पलीता लगा दिया था। मोदी ने जहाँ केवल उच्च वर्णों के गरीबों के लिए जो 10 प्रतिशत ईडब्ल्यूएस आरक्षण का प्रावधान किया था, वहीं कांग्रेस के घोषणापत्र ने सभी समुदायों के गरीबों की हिस्सेदारी सुनिश्चित करने की घोषणा कर दिया था।
न्याय-पत्र में ‘जितनी आबादी-उतना हक’ के एलान से यह तय हो गया है कि अब देश का सारा धन-संपदा और तमाम अवसर भारत के विविध समुदायों की संख्यानुपात मे बँटेगा तथा समतामूलक भारत समाज आकार लेगा। यह हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना पर सबसे बड़ा आघात है। वाजपेयी से लेकर मोदी ने औने-पौने दामों में देश की सारी कंपनियां उच्च वर्णों के हाथों में देने का जो काम किया, सत्ता में आने पर उनकी जांच कराई जाएगी। कांग्रेस के न्याय-पत्र ने देश के वंचितों को व्यापक तौर पर स्पर्श किया और मोदी हार की कगार पर पहुँच गए थे।
आज राहुल गांधी ने वोट चोरी का जो एटम बम फोड़ा है, उससे साफ़ हो गया है कि वह केचुआ के साथ साथ-गाँठ करके वोटों की चोरी नहीं, डकैती के जरिये ही अपनी सत्ता बचाए थे। राहुल गांधी ने अब 2024 के न्याय-पत्र से आगे बढ़ते हुए अब पॉवर स्ट्रक्चर में जितनी आबादी-उतना हक़ का सिद्धांत लागू करने का मन बना लिया है। इससे भविष्य में अगर निष्पक्ष चुनाव होता है तो सामाजिक अन्याय की समर्थक सरकार की विदाई सुनिश्चित हो जाएगी, ऐसा हर किसी को लगता है और अगर ऐसा होता है तो संघ परिवार वर्ण-व्यवस्था के जरिये अपने सपनों की जो सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था देश पर थोपना चाहता है, वह खतरा चिरकाल के लिए तो नहीं पर,लम्बे समय के लिए टल जायेगा!