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अंधविश्वास बढ़ाती हिंदी अखबारों में ब्राह्मणों की पत्रकारिता (डायरी 8 नवंबर, 2021)

 अखबार समाज से अलग नहीं होते। जैसा समाज होगा, वैसा ही अखबार भी होगा। समाज में जिस वर्ग का वर्चस्व रहेगा, अखबारों में उसका वर्चस्व ही दिखेगा। यह बेहद सामान्य बात है। फिर इस बात का कोई मतलब नहीं है कि अखबार कौन-सा है और वह खबर व सूचनाओं के माध्यम से किस तरह के […]

 अखबार समाज से अलग नहीं होते। जैसा समाज होगा, वैसा ही अखबार भी होगा। समाज में जिस वर्ग का वर्चस्व रहेगा, अखबारों में उसका वर्चस्व ही दिखेगा। यह बेहद सामान्य बात है। फिर इस बात का कोई मतलब नहीं है कि अखबार कौन-सा है और वह खबर व सूचनाओं के माध्यम से किस तरह के वर्चस्व को बनाए रखना चाहता है। हालांकि एक अंतर है। जब अखबारों के लिए वर्ग महत्वपूर्ण हो जाता है तब उसमें वर्चस्व का स्वरूप वर्गवादी हो जाता है।

एक उदाहरण उत्तर भारत के अंग्रेजी अखबारों और हिंदी अखबारों में। मेरे सामने दिल्ली से प्रकाशित टाइम्स ऑफ इंडिया और जनसत्ता है। दोनों अखबारों में केवल भाषा का अंतर नहीं है, बल्कि प्रकाशित सूचनाएं एवं खबरों में भी जमीन आसमान का अंतर है। जनसत्ता का सदंर्भ इसलिए कि हिंदी दैनिक समाचार पत्रों में यह अखबार उत्कृष्ट माना जाता है। इसकी उत्कृष्टता के पीछे खबरों का चयन महत्वपूर्ण है। एक तरह की प्रगतिशीलता इस अखबार में अनायास दिख जाती है। लेकिन यह प्रगतिशीलता अत्यंत ही सीमित है। मसलन, आज के संस्करण में धर्म की दीक्षा नामक पृष्ठ का प्रकाशन किया गया है। यह पूरा पन्ना भारतीय हिंदी समाज की मनोदशा का बखान करता है।

दरअसल इस पन्ने में आनेवाले दिनों में हिंदू धर्म के व्रतों आदि का उल्लेख किया गया है। हर तरह की सूचना दी गयी है कि कौन सा व्रत किस तारीख को पड़ेगा और उसके करने का ब्राह्मणवादी तरीका क्या है। इस में छठ का भी उल्लेख है जो कि 10 नवंबर को मनाये जाने की जानकारी दी गयी है। अब ब्राह्मणवादी साजिश की पराकाष्ठा देखिए कि अंधविश्वास के परिचायक इस पर्व की महिमा बताने के लिए अखबार ने शीर्षक रखा है– नदियों काे प्रदूषण मुक्त बनाने की प्रेरणा का पर्व। अब यह कोई भी सामान्य इंसान समझ सकता है कि छठ पर्व का नदियों से केवल इतना ही संबंध है कि लोग नदी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं और मैं तो इसका गवाह रहा हूं कि कैसे अर्घ्य देने के बाद लाखों टन कचरा छठव्रतधारी नदियों में छोड़ आते हैं। वैसे भी व्रतों से यदि नदियों का प्रदूषण कम हो गया होता, तो भारत की नदियों को तो प्रदूषित होना ही नहीं चाहिए था।

खैर, हिंदू धर्म में तर्क का कोई स्थान नहीं है। अतार्किकता इसकी बुनियाद में है। अब जनसत्ता द्वारा प्रकाशित उपरोक्त लेख में ही विस्तार से बताया गया है कि छठ पर्व किया कैसे जाता है। इसके करने के तरीके बताने के बाद लेखक ने यह बताया है कि यह पर्व वैदिक काल में किस-किसने timesकिया। एक संदर्भ हे पांडवों का। बताया गया है कि जुए में कौरवों के हाथों अपनी धन-संपत्ति और पत्नी हार जाने के बाद पांडवाें ने कृष्ण के कहने पर यह व्रत किया। अब यह बात भी अजीब है कि कृष्ण जो कि स्वयं को गीता में विष्णु का अवतार बताता है, सृष्टि का पर्याय बताता है, वह अपने रिश्तेदार पांडवों को सूर्य की पूजा करने की सलाह देता है। अब यदि कोई इस आधार पर कृष्ण और सूर्य के बीच तुलना करे तो जाहिर तौर पर सूर्य कृष्ण से श्रेष्ठ था।

[bs-quote quote=”ब्राह्मणवादी साजिश की पराकाष्ठा देखिए कि अंधविश्वास के परिचायक इस पर्व की महिमा बताने के लिए अखबार ने शीर्षक रखा है– नदियों काे प्रदूषण मुक्त बनाने की प्रेरणा का पर्व। अब यह कोई भी सामान्य इंसान समझ सकता है कि छठ पर्व का नदियों से केवल इतना ही संबंध है कि लोग नदी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं और मैं तो इसका गवाह रहा हूं कि कैसे अर्घ्य देने के बाद लाखों टन कचरा छठव्रतधारी नदियों में छोड़ आते हैं। वैसे भी व्रतों से यदि नदियों का प्रदूषण कम हो गया होता, तो भारत की नदियों को तो प्रदूषित होना ही नहीं चाहिए था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

एक दूसरी कहानी है कर्ण की। कर्ण को सूर्य का पुत्र बताया गया है। हालांकि उसकी मां कुंती थी। सूर्य और कुंती की प्रेमकहानी पर अभी बहुत कुछ लिखा जाना बाकी है। खैर, यदि कोई यह मानकर पर्व करता है कि चूंकि कर्ण सूर्य की उपासना करता था तो इसलिए उसे भी छठ करना ही चाहिए तो इसका मतलब यह है कि वह भी स्वयं को कर्ण का वंशज मानता होगा।

छठ के बारे में जितनी कहानियां हैं, उनमें एक अदिति का उल्लेख भी है जिसने इस कारण सूर्य की पूजा की ताकि उसे तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हो। छठ व्रत करनेवालों में अधिकांश बिहार की महिलाएं होती हैं जो आज भी इसी अंधविश्वास के साथ जी रही हैं कि छठी मइया उनको तेजस्वी पुत्र देंगी। यदि पुत्र पहले से है तो उसके लिए नौकरी का प्रबंध कर देंगी।

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इसी प्रकार अखबार में एकादशी व्रत के बारे में बताया गया है कि इस व्रत के मौके पर खाना नहीं खाना चाहिए। इस दिन यदि काेई खाता है तो वह पापों को खाता है। इसके लिए नारद का उद्धरण दिया गया है जो कि नारद पुराण से लिया गया है। इसी व्रत के बारे में एक कहानी और है। वह कहानी यह कि मनु के द्वारा व्यवस्थित कृत्य व वैदिक काल के कृत्य कलियुग में नहीं किए जा सकते हैं तो युद्धिष्ठिर ने एकादशी व्रत का रास्ता खोज निकाला। युद्धिष्ठिर ने कहा कि यदि कोई दोनों पक्षों यानी शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के एकादशी के दिन अन्न् का त्याग करेगा तो उसे नरक नहीं जाना होगा। साथ ही यह भी बताया गया है कि यदि किसी ने इस व्रत को करने के बाद छोड़ दिया तो उसे बहुत बुरे परिणाम भुगतने होंगे।

हाय रे हिंदी अखबरों में ब्राह्मणों की पत्रकारिता। तुम्हारी क्षय हो।

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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