‘जब भारत में एक अच्छा और वैज्ञानिक समाज बनना चाहिए तब वह जातियों और संप्रदायों में बंटकर मानवता के विरुद्ध संघर्ष कर रहा है। आज़ाद भारत की जनता को अपने दुश्मनों के खिलाफ लड़ना चाहिए लेकिन वह गुलामों की तरह आपस में लड़ रही है। यह एक घातक दृश्य है।’
बिरहा में कबीर कार्यक्रम की शुरुआत में कार्यक्रम के संयोजक-मण्डल के सदस्य और गाँव के लोग के संपादक रामजी यादव ने यह बात कही। उन्होंने आयोजन की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा – ‘उत्तर प्रदेश की सबसे सशक्त लोकविधा बिरहा का आधुनिक स्वरूप बनारस में पुष्पित-पल्लवित हुआ और परवान चढ़ा। बनारस में ही मध्यकाल में कबीर ने बहुजन समाजों की चेतना को झकझोरा। जैसे कबीर लोक के थे वैसे ही बिरहा भी लोक के भीतर से लोक द्वारा लोक के लिए पैदा हुआ लेकिन वास्तव में बिरहा और कबीर में छत्तीस का आँकड़ा ही बना रहा। बिरहा ने अब तक की अपनी पूरी यात्रा में कबीर के साथ वही व्यवहार किया जो ब्राह्मणवादियों और मनुवादियों ने उनके साथ किया था और इस तरह जनता की एक महान विरासत से उनका एक महान नायक बहिष्कृत रहा गोया कबीर की आंच से बिरहा के पिघलने का डर हो। हालांकि बिरहा की आध्यात्मिक चेतना पर कबीर का बहुत गहरा असर रहा है लेकिन बिरहा की किसी धारा ने उनकी वैचारिकी की ताकत का ठीक से इस्तेमाल नहीं किया। लेकिन बदलते समय के साथ बिरहा को कबीर की ओर जाने की अनिवार्यता बन रही है। खासतौर से तब जब बिरहा अश्लीलता, फूहड़ता और भोंडेपन का शिकार होकर पतन की दिशा में जा रहा है।’
बीते इतवार बाइस जून को महात्मा बुद्ध की भूमि सारनाथ स्थित विद्या आश्रम में आयोजित ‘बिरहा में कबीर’ कार्यक्रम को देख-सुनकर यही लगा कि यह विधा अपनी सामाजिक भूमिका को एक नया अंदाज़ और आयाम देने जा रही है। गायक सतीशचन्द्र यादव ने बिरहा की लयकारी में कबीर को जिस शिद्दत से पेश किया वह विलक्षण अनुभव था।
लोक विद्या जनांदोलन, गांव के लोग, अगोरा प्रकाशन और रामजी यादव आर्काइव द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में एकमात्र कलाकार बिरहा गायक सतीशचन्द्र यादव थे। मूल रूप से रसड़ा, बलिया के निवासी सतीश अब स्थायी रूप से बनारस में रहते हैं और यहाँ तुलसी निकेतन में शिक्षक हैं। वह नब्बे के दशक में बिरहा में सक्रिय हुये और जल्दी ही अपनी मजबूत पहचान बना ली। विगत वर्षों में उन्होंने सैकड़ों कार्यक्रमों में शिरकत किया।
‘बिरहा में कबीर’ के बारे में उन्होंने कहा कि ‘पिछले महीने रामजी भैया के घर इंटरव्यू देने गया था तब बातों-बातों में उन्होंने कबीर गाने के लिए प्रेरित किया और उनके लगभग पचास पद मुझे दिये। पहले मैं सोच रहा था कि पता नहीं कैसे होगा लेकिन कबीर तो ऐसे हैं जो अपनी धारा में सबको बहा ले जाते हैं। भैया ने भी कुछ धुनें बताईं लेकिन बाद में जब तैयारी करने लगा तो बात अपने आप बनती चली जा रही है। कबीर तो समुंदर हैं। अपने में डुबा देते हैं।’
रामजी यादव पिछले कई वर्षों से लोक में विद्यमान विधाओं लोरिकी, बिरहा, आल्हा, फरुआही, पवरिया सहित अनेक विधाओं और उनके कलाकारों, रचनाकारों से साक्षात्कार, गायन के आडियो-वीडियो रिकार्डिंग के माध्यम से दस्तावेजीकरण कर रहे हैं। बिरहा जैसी लोकविधा के संरक्षण को लेकर वह जो कर रहे हैं वह पहले कभी नहीं हुआ। उन्होंने बताया कि न केवल डिजिटल बल्कि पुस्तकीय रूप में भी बिरह से जुड़े लोगों पर बहुत मूल्यवान सामग्री प्रकाशित की जानेवाली है। अब तक लगभग दो हज़ार ऐसे लोगों का डाटा इकट्ठा किया जा चुका है जिन्होंने बिरहा में महत्वपूर्ण योगदान किया लेकिन अब गुमनाम हैं। इसके अलावा लगभग तीन हज़ार से अधिक बिरहा इकट्ठा किया गया है जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं है
रामजी यादव ने कहा कि ‘बिरहा को बेसुरे, फूहड़ और प्रतिभाहीन गायकों ने पतन के कगार पर पहुंचा दिया है। इससे बचने के लिए जरूरी है कि बिरहा की लय में नया चिंतन और विचार समाविष्ट किया जाय। कबीर और बिरहा दोनों को बुनने, बनाने की धरती बनारस है। यहाँ के महान कवि और बहुजन नायक कबीर और रैदास बिरहा के पूर्वज हैं और समकालीनता का यह तक़ाज़ा है कि बिरहा उनकी वाणियों को जनता तक पहुंचाए। ‘बिरहा में कबीर’ इसी सोच का परिणाम है। इस कार्यक्रम की रूपरेखा ऐसी बनाई गई है कि गायन के साथ ही विमर्श में चलता रहे। जल्दी ही रैदास को लेकर भी कार्यक्रम होगा।
लोग आते जा रहे थे और कार्यक्रम की शुरुआत होने जा रही थी। इस बीच लोकविद्या जनांदोलन के प्रणेता दार्शनिक और इस आयोजन के प्रेरक सुनील सहस्रबुद्धे ने इस आयोजन के लोकपक्ष पर अपने विचार रखते हुये कहा कि ‘यहाँ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय है लेकिन कबीर को लंबे समय तक वहाँ नहीं पढ़ाया गया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रयासों से कबीर विश्वविद्यालय में गए लेकिन उन्हें साहित्य में पढ़ाया गया जबकि उन्हें दर्शन विभाग में पढ़ाया जाना चाहिए। मध्यकाल में कबीर और रैदास से बड़ा कोई दार्शनिक नहीं मिलता जिसने लोक को लेकर इतना बड़ा विचार रखा हो। कबीर लोक के थे यह सभी लोग कहते हैं लेकिन कबीर दर्शन को अपने पैरों पर खड़ा कर रहे थे इसको स्वीकारने का साहस अभी विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों में नहीं आया है।’
सतीश चन्द्र यादव ने जब गाना शुरू किया तो जल्दी ही सबको अपने प्रभाव में ले लिया। पहला पद उन्होंने ‘साधो जग बौराना’ गाया और ऐसा लग रहा था कि बिरहा की लयदारी वर्तमान समय की विद्रूपताओं की आलोचना में आगे बढ़ रही है। यह स्वर क्रमशः आगे बढ़ता गया। ‘कौन ठगवा नगरिया लूटल हो’ तक पहुँचते-पहुँचते लगने लगा कि ऐसी प्रस्तुतियाँ बिरहा में बहुत पहले से होनी चाहिए थीं। बेशक इससे समाज में प्रेम और भाईचारे के साथ तार्किकता का जो मेयार खड़ा होता वह हिन्दी के लोकसमाज के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि होता। जैसा कि सुनील सहस्रबुद्धे के वक्तव्य में आया था कि ‘लोकविद्या के महान नायक कबीर हैं जो कपड़े ही नहीं मनुष्यता का भी ताना-बाना बुनते थे।’

यह आश्चर्य की ही बात थी कि एकल गायक का कार्यक्रम भी चार घंटे से ज्यादा चला। गायन समाप्त होने के बाद भी लोग टस से मस नहीं हो रहे थे। बल्कि उन्होंने आयोजन की महत्ता पर अपनी भावनाओं को प्रकट किया। कवि-अभिनेता तेज बहादुर यादव मंगरू भइया, पटना से आए पत्रकार पुष्पराज, फ़जलुर्रहमान अंसारी, लक्ष्मण प्रसाद, किसान नेता रामजनम, डॉ फूलचंद पटेल आदि ने कबीर और बहुजन समाज के साथ इस आयोजन को लेकर अपनी बातें रखीं। आजमगढ़ के उद्भट चनैनी गायक केदार यादव ने जब उत्साह में आकर मात्र एक उठान ली तो जैसे वातावरण में उत्तेजना फैल गई।
लोकविद्या जनांदोलन की संयोजक चित्रा सहस्रबुद्धे ने कहा कि लोकविद्या जनांदोलन का लक्ष्य कलाओं के माध्यम से लोकविद्या समाजों को जगाना और जोड़ना तो है ही उसे इतना मजबूत बनाना है कि वह अपने अनिवार्य अधिकारों को पा सके। ‘बिरहा में कबीर’ के जरिये भी यही किया जा रहा है।
इस कार्यक्रम में बनारस के बुनकर समाज, शिक्षक, विद्यार्थियों सहित सामाजिक और राजनीतिक रूप से सक्रिय लोगों ने अपनी भागीदारी दर्ज करायी। भैयालाल यादव, वरिष्ठ पत्रकार सुनील कश्यप, धीरेंद्र कुमार यादव, युवा लेखक विकाश आनंद, हरिश्चंद्र बिन्द, श्यामजीत यादव, मोहम्मद अहमद अंसारी, योगेंद्र नाथ आर यादव, अजय यादव प्रसिद्ध बिरहा गायक जवाहर लाल यादव, कवि रामचंद्र यादव सहित ढेरों लोगों ने शिरकत की। कार्यक्रम के लिए जरूरी व्यवस्थाओं का जिम्मा कमलेश प्रसाद ने उठाया।