25 नवंबर, 1949 को बाबा साहब अंबेडकर संविधान सभा में अपने दिल से निकली बात रख रहे थे कि आज हमने राजनैतिक जीवन में तो बराबरी प्राप्त कर ली, क्योंकि ‘एक वोट, एक व्यक्ति और एक मूल्य’ का सिद्धांत लागू कर लिया है लेकिन यदि सामाजिक और आर्थिक जीवन में यह गैर बराबरी रही तो देश के उत्पीड़ित लोग इस संविधान को उखाड़ फेंकेंगे जिसे हमने इतनी मेहनत से बनाया है। बाबा साहब ने कहा कि अब हमें एक रहकर काम करना है और एक दूसरे के प्रति अपने पूर्वाग्रहों को खत्म करना है। वह बहुत सकारात्मक थे। उनका भाषण इतिहास के पन्नों में अंकित हो गया और भारत के सबसे बेहतरीन भाषणों में से एक है। सोचिए, यदि आप उस स्थान पर होते या बाबा साहब अंबेडकर को सीधे सुन रहे होते तो क्या होता?
पिछले तीस वर्षों में मैं ऐसे अनेक लोगों से मिलकर अपने को बेहद गौरवान्वित करता हूँ, जिन्होंने बाबा साहब को देखा था या जिन्हें उनके साथ काम करने का अवसर मिला था। ऐसे लोगों को सुनना अपने आपमें एक बेहद खूबसूरत अनुभव है और जब भी ऐसे अवसर मिलते हैं, मैं कोशिश करता हूँ कि ऐसे लोगों से मिला जाए और उनके अनुभवों को सुना जाए। पंजाब के नकोदर में मेरे मित्र और अम्बेडकारी आंदोलन के एक स्तम्भ देविंदर चंदर, जो इंग्लैंड से यहाँ आए हुए थे, ने मुझे आमंत्रित किया हुआ था और उन्हीं के साथ मैं 7 दिसंबर, 2022 को केसी सुलेख से मिलने उनके निवास स्थान चंडीगढ़ पहुंचा। श्री सुलेख एक समय में शेड्यूल कास्ट फेडरेशन की पंजाब इकाई के महासचिव थे और बाबा साहब से कई अवसरों पर मिल चुके थे।
25 नवंबर, 1949 को सुलेख साहब पंजाब के शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के अध्यक्ष सेठ किशन दास के साथ संसद की दीर्घा में बैठकर संविधान सभा में बाबा साहब का ऐतिहासिक भाषण सुन रहे थे, जब उन्होंने संविधान के पूरा होने पर संविधान सभा में अपनी बात रखी। वह कहते हैं, ‘जब बाबा साहब अंबेडकर संसद में बोल रहे थे तो पूरा हॉल उनके भाषण को बड़ी गंभीरता से सुन रहा था। उनका भाषण लंबा था और जब उन्होंने भाषण खत्म किया तो सभी लोगों ने खड़े होकर और मेजें थपथपाकर बहुत देर तक तालियाँ बजाई। जवाहर लाल नेहरू ने उनसे हाथ मिलाया और ऐसे ही अन्य सांसद उनके पास आकर उन्हें बधाई देने लगे और गले मिले’। सभी ने उनके काम और भाषण की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
“एक तरफ पुरातन सिस्टम, चातुर्वर्ण्य और दूसरी तरफ वैज्ञानिक चिंतन, जिसे बाबा साहब ने अपने जीवन में उतारा। इसके बगैर कोई चारा नहीं। राजनीतिक स्तर पर काँग्रेस ने अपने को पुनर्जीवित करने की कोशिश की है लेकिन वह कोई वैचारिक परिवर्तन नहीं है, केवल राजनैतिक व्यवस्था है और मौके के हिसाब से है। वह तो चलेगा लेकिन अंततः आज आरएसएस का जोर है और सरकारी शक्ति पुरातनपंथी विचारधारा को बढ़ाने में लगी है। बाबा साहब ने जो सोचा था और जिस आधार पर उन्होंने संविधान बनाया वही हमारे लिए सबसे अधिक डिपेंडेबल साधन है, जिसकी वजह से हम अपने आपको ठीक रख सकते हैं।”
20 जुलाई, 1927 को पंजाब के जिला नवाँ शहर के बंगा नामक स्थान पर करतारचंद्र सुलेख का जन्म श्री बीरूराम और श्रीमती दानी के घर पर हुआ था। 65 वर्ष की उम्र में इनके पिता का देहांत हो गया जब वह अभी 9वीं कक्षा के छात्र थे। उनके पिता पारंपरिक वैद्य थे और सांप तथा कीड़े-मकोड़ों से काटने का इलाज करते थे और पुरानी परम्पराओं पर आधारित गायन भी करते थे।
मैंने सुलेख साहब से पूछा कि ‘आप बाबा साहब अंबेडकर से सर्वप्रथम कब मिले? तो उन्होंने बताया कि ‘गांधी जी की हत्या से 3-4 दिन पहले की बात है। जब वह सेठ किशन दास के साथ बाबा साहब से मिलने दिल्ली गए और यह इसलिए हुआ कि पंजाब में दलितों के हितों को सुरक्षित करने हेतु ये लोग उर्दू में एक पत्रिका निकालना चाह रहे थे, जिसका नाम उजाला था। याद दिला दें कि गांधी जी की हत्या 30 जनवरी, 1948 को हिन्दू महासभा के नाथूराम गोडसे ने कर दी थी। बाबा साहब ने इस पत्रिका के शुरू किए जाने के अवसर पर एक संदेश भेजा था जो सुलेख साहब ने आज भी संभालकर रखा है।
12 अप्रैल, 1948 को बाबा साहब ने यह पत्र 1 हार्डिंग एवेन्यू, नई दिल्ली से भेजा था जिसका हिन्दी अनुवाद कुछ इस प्रकार है :
प्रिय श्री सुलेख,
मुझे यह सुनकर बहुत प्रसन्नता हो रही है कि आप पंजाब के अनुसूचित जातियों के हितों के लिए एक समाचार-पत्र उजाला निकाल रहे हैं। मैं भारत में किसी ऐसे हिस्से को नहीं जानता जहाँ जातिवादी हिन्दू दलितों और अन्य दबे-कुचले लोगों पर अत्याचार नहीं कर रहे हों और जहाँ सरकार ने इसे दबाने में कोई इच्छाशक्ति दिखाई हो। हमारे अपने विधायक इस मामले में पूरी तरह से असफल रहे हैं।
ये सब इसलिए हो रहा है क्योंकि पूर्वी पंजाब में कोई ऐसा अखबार नहीं है जो हमारी परेशानियों और समस्याओं को बता सके और हमारे लोगों को सही जानकारी दे सके। आपका यह अखबार बहुत आवश्यक है। मैं आपको इस कार्य के लिए शुभकामनाएँ देता हूँ और मुझे आशा है कि हमारे लोग आपको इस कार्य मैं पूरा सहयोग करेंगे।
दरअसल, इससे पहले ही सुलेख साहब ने बाबा साहब की प्रसिद्ध पुस्तक गांधी और अछूतों की आजादी का उर्दू में अनुवाद किया था। एक प्रकार से यह बाबा साहब की पुस्तकों का उनकी मूल भाषा से सर्वप्रथम अनुवाद रहा होगा।
यह भी पढ़ें…
ऐसा नहीं है कि बाबा साहब से मिलने का अवसर उन्हें यूँ ही मिल गया। दरअसल, पंजाब में शेड्यूल कास्ट फ़ेडरेशन के अध्यक्ष सेठ किशन दास 1937 से पंजाब विधान सभा में चुने गए और वह 1946 तक विधायक रहे। वह बताते हैं कि 1932 के कम्यूनल अवॉर्ड में पहले पंजाब को कोई सीट नहीं दी गई थी लेकिन पूना पैक्ट के बाद पंजाब को 8 सीटें मिलीं। उनमें से एक जालंधर के पास बूटा मंडी है, जहाँ से सेठ किशन दास यूनियनिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव जीते। 1942 में वह बाबा साहब अंबेडकर से शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के सम्मेलन में नागपुर में मिले और इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने पंजाब में भी इसकी शाखा खोल दी। केसी सुलेख जालंधर के दोआबा कॉलेज में पढ़ने के लिए आए और बाबा साहब से प्रभावित होने के कारण शेड्यूल कास्ट फेडरेशन की गतिविधियों में सहयोग करने लगे। धीरे-धीरे सेठ किशन दास ने श्री के सी सुलेख को फेडरेशन का महासचिव बना दिया ताकि वह उनकी मदद कर सकें। फिर तो उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और सेठ किशन दास के नेतृत्व में वह उनके साथ पूरे पंजाब और देश के अन्य हिस्सों में कार्यक्रमों में भाग लेने लगे।
फिर उन्हे बाबा साहब को संसद के ऐतिहासिक अधिवेशन मे सुनने का अवसर मिला जब संविधान सभा की अंतिम बैठक 25 नवंबर, 1949 को हुई और बाबा साहब ने अपना ऐतिहासिक भाषण दिया। के सी सुलेख साहब बताते है कि बाबा साहब जब तक बोलते रहे पूरा सदन बिल्कुल तन्मयता से उनको सुन रहा था। बीच बीच मे लोग तालिया भी बजाते परंतु जैसे ही बाबा साहब ने अपना भाषण खत्म किया खचाखच भरा पूरा हाल तालियों से गूंज उठा। ये तालियाँ ऐसा लगता था कि खत्म ही नहीं हो रही थीं और फिर प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू उनके पास आए और बहुत गर्मजोशी से उनसे हाथ मिलाकर उनके भाषण को सराहा। उसके बाद तो अनेकों नेता उनसे मिलने आते रहे, हाथ मिलते, गले लगते और उन्हें मुबारकबाद देते रहे।
यह भी पढ़ें…
सुलेख साहब को कई बार बाबा साहब को सुनने, नजदीक से देखने और जानने का अवसर मिला। संविधान बनने के बाद, बाबा साहब अंबेडकर हिन्दू कोड बिल के निर्माण में लग गए क्योंकि इसके लिए प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उनसे विशेष रूप से अनुरोध किया था। बाबा साहब को यह लगा कि हिन्दू कोड बिल भारत के इतिहास में सामाजिक बदलाव का एक बहुत बड़ा हथियार साबित होगा। संविधान तो बन गया लेकिन सामाजिक जीवन में बदलाव के लिए हिन्दू कोड बिल बहुत महत्वपूर्ण दस्तावेज होगा। वह जान रहे थे कि काँग्रेस में डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल और अनेकों महत्वपूर्ण नेता इस बिल का जमकर विरोध कर रहे थे लेकिन उसके बावजूद उन्हें यहीं था कि इस बिल को प्रधानमंत्री नेहरू संसद में पारित करा देंगे लेकिन इस बिल को पारित न कर देने और इसके टुकड़े-टुकड़े कर देने से बाबा साहब बुरी तरह से आहत थे। उस दौर में बाबा साहब को इतने नजदीक से देखने और समझने वाले श्री सुलेख कहते हैं कि ‘वाकई बाबा साहब बहुत गुस्से में थे। आखिर उन्होंने इस बिल को इतनी मेहनत से बनाया था। सरदार पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, केएम मुंशी, अनंत स्वामी आयंगर आदि सभी इस बिल के विरोध में हो गए थे और इसीलिए नेहरू को बिल को संसद में रखने से रोकना पड़ा।
अप्रैल 1951 में हिन्दू कोड बिल और अन्य मसलों पर तत्कालीन सरकार से मतभेदों के चलते बाबा साहब अंबेडकर ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। वह संसद को इन परिस्थितियों के बारे में बताना चाहते थे जिनके चलते उन्हें त्यागपत्र देने को मजबूर होना पड़ा और संसद में वक्तव्य देने से रोका गया। 10 अक्टूबर, 1951 को बाबा साहब ने संसद में अपना बयान दिया। इस समय भी श्री सुलेख और सेठ किशन दास दर्शक दीर्घा में बाबा साहब को सुन रहे थे। जैसे ही बाबा साहब ने संसद में अपने इस्तीफे के कारणों की घोषणा की, पंजाब में उन्हें लाने के लिए अम्बेडकरवादियों ने प्रयास शुरू कर दिए। दरअसल, 1951-52 के संसदीय चुनावों की घोषणा हो चुकी थी और शेड्यूल कास्ट फेडरेशन चाहता था कि बाबा साहब पंजाब आयें क्योंकि उनके अनुयायियों और चाहने वालों की संख्या पंजाब में बहुत ज्यादा थी।
केसी सुलेख बताते हैं कि बाबा साहब अंबेडकर 27 अक्टूबर, 1951 को हवाई जहाज से अमृतसर पहुंचे और फिर वहाँ से सड़क मार्ग से जालंधर आए जहाँ स्थान-स्थान पर लोगों ने उनका भव्य स्वागत किया। जालंधर में उनकी दो सभाएँ थीं जिनमें से एक आबादी में जहाँ अब अंबेडकर भवन है और दूसरी डीएवी कालेज में। श्री सुलेख नौजवान थे और अपना काम लगातार कर रहे थे। न केवल पढ़ाई कर रहे थे अपितु उजाला भी चला रहे थे और बाबा साहब के कई लेखों का उर्दू में अनुवाद भी कर चुके थे इसलिए जालंधर की ऐतिहासिक रैली के संचालन की जिम्मेवारी भी उनको दी गई थी।
वह बताते हैं कि पंजाब में उनका भव्य स्वागत हुआ और शाम चार बजे बाबा साहब ने भाषण दिया जो आम जनता की समझ आने वाली भाषा में था। बाबा साहब जब जन साधारण से बात करते थे तो उनकी कोशिश होती थी कि उनके साथ बहुत साधारण भाषा में बात की जाए। वे ऐसी भाषा बोलते थे जो परिवार के बड़े बुजुर्ग वाली होती थी, जिसका उद्देश्य बच्चों को समझाना होता है। डाक्टर अंबेडकर के साथ सविता अंबेडकर, सेठ किशन दास, फेडरेशन के सेक्रेटरी आरसी पॉल आदि लोग थे। उनकी लोकप्रियता इतनी थी कि लोग उन्हें छूने मात्र को लेकर आतुर रहते और उनकी एक-एक बात को गंभीरता से सुनते। जालंधर की इस सभा में बाबा साहब डेढ़ घंटे धाराप्रवाह बोले और लोग उन्हें तल्लीनता से सुनते रहे, सब तरफ सन्नाटा-सा छाया था। इस सभा में बाबा साहब ने पाकिस्तान में दलितों पर हो रहे अत्याचारों के विषय में बात रखी और तत्कालीन सरकार द्वारा किये गए प्रयासों से नाराजगी जताई क्योंकि उनका यह सोचना था कि सरकार इस संदर्भ में उतनी तत्परता से काम नहीं कर रही है जितना उसे करना चाहिए था। विभाजन का सबसे बड़ा दंश दलितों को झेलना पडा था। पाकिस्तान में माहौल बहुत खराब था और खबरें आ रही थीं कि जो लोग पाकिस्तान छोड़कर भारत आना चाहते थे उन्हें भारत नहीं आने दिया जा रहा था क्योंकि पाकिस्तानी नेता यह शिकायत कर रहे थे कि यदि दलितों को भारत भेज दिया गया तो वहाँ पर सफाई का काम कौन लोग करेंगे?
सुलेख बताते हैं कि विभाजन के बाद बंगाल और पंजाब दोनों में ही दलितों के हालात बहुत खराब थे क्योंकि पाकिस्तान में उन्हें जबरन धर्मांतरण करवाया जा रहा था और उनके घरों को लूटा जा रहा था, इसलिए बाबा साहब ने प्रधानमंत्री नेहरू से तुरंत दखल देने की बात कही। बाबा साहब के जोर देने पर ही महार रेजीमेंट को सीमांत इलाकों में मदद करने के लिए भेजा गया और उन्होंने पूरे साल भर तक बेहद मेहनत और निष्ठा से अपना काम कर दलितों को, विशेषकर मजहबी लोगों को भारत लाने में मदद की। असल में महार रेजीमेंट को 1946 में ही भंग कर दिया गया था लेकिन उसकी तीन बटालियन पंजाब सीमा बल के नाम से काम कर रही थीं।
सुलेख कहते हैं कि बाबा साहब जानते थे कि हिन्दू और मुसलमान दोनों के एलीट क्लास के लिए दलित तो मात्र सेवक के तौर पर थे। पाकिस्तान बनने के बाद भी वहाँ के हुक्मरान उन्हें बराबरी का हक देने को तैयार नहीं थे।
मैंने सुलेख साहब से पूछा कि क्या पंजाब में बाबा साहेब के आने का किसी ने विरोध किया तो वह बोले कि किसी ने नहीं। अकाली दल के सुखविंदर सिंह बादल ने स्थानीय सांसद चौधरी संतोख सिंह पर आरोप लगाया था कि उनके पिता ने बाबा साहब के आने का विरोध किया था लेकिन श्री सुलेख कहते हैं कि यह केवल राजनीतिक रोटियाँ सेकने के लिए है। वह बताते हैं कि संदर्भ में अकाली दल के झूठ का पर्दाफ़ाश उन्होंने ट्रिब्यून अखबार को दिए एक इंटरव्यू में भी किया।
वह कहते हैं कि राजनीति और सत्ता की भयानक भूख ने बहुत लोगों को तोड़ा। पंजाब शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के महासचिव मोटा सिंह लायलपुरी अकाली दल में शामिल हो गए और फिर उनके स्थान पर के सी सुलेख शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के महासचिव बने। फेडरेशन के साथियों में वह सबसे युवा थे और बी ए कर रहे थे। वह न केवल सभाओं का संचालन करते अपितु उजाला साप्ताहिक को मजबूत करने में उन्होंने अपना पूरा समय लगा दिया। 1952 के आम चुनावों के लिए शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के टिकट पर आरक्षित 8 सीटों में से एक पर उन्हें भी चुनाव लड़ने के कहा गया।
सुलेख साहब बताते हैं कि उनकी उम्र कम थी लेकिन उन्हें कुछ मित्रों ने सलाह दी कि वह अपनी उम्र सर्टिफिकेट में बढ़वा लें और चुनाव लड़ लें लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया। आम चुनावों में शेड्यूल कास्ट फेडरेशन की बुरी तरह पराजय से लोगों के हौसलों पर बहुत असर पडा। सुलेख साहब इसके पीछे संयुक्त चुनाव प्रणाली का कारण बताते हैं। खैर, उसके बाद, घर की परिस्थितियों के चलते उन्हें आजीविका के लिए नौकरी की जरूरत होने लगी। क्योंकि उनका विवाह हो चुका था और एक बच्चा भी हो चुका था। सुलेख साहब नौकरी की तलाश में थे लेकिन उन्होंने कभी बाबा साहब से इस संदर्भ में बात नहीं कि क्योंकि उन्हें लगा कि इसके दूसरे अर्थ निकल सकते हैं और कहीं बाबा साहब यह न सोचें कि मैं नौकरी की उम्मीद में ही शेड्यूल कास्ट फेडरेशन में आया। फिलहाल, उन्हें पहले दिल्ली में नौकरी मिली और फिर पंजाब में 14 अक्टूबर 1952 को एक्साइज़ विभाग में नौकरी मिल गई और यहाँ उन्होंने 31 जुलाई, 1985 तक काम किया।
अवकाश प्राप्ति के बाद से वह लगातार अम्बेडकारी आंदोलन को मजबूत करने के लिए कार्य करते रहे। देश-विदेश में अनेकों अम्बेडकारी पत्र- पत्रिकाओ में वह लिखते रहे और समय-समय पर स्थानीय स्तर पर हो रहे आंदोलनों को भी मजबूत करते रहे हैं। वह कहते हैं कि वैचारिकता के हिसाब से अम्बेडकरवादियों के सबसे नजदीक केवल वामपंथी ही हो सकते हैं हालांकि भारत में कम्युनिस्टों ने जाति के सवाल की अनदेखी की लेकिन फिर भी अन्य दलों की तुलना में वे बेहतर हैं।
यह भी पढ़ें…
चलते-चलते मैंने उनसे सवाल किया कि अम्बेडकरवादियों को वह क्या संदेश देना चाहेंगे तो वह कहते हैं कि ‘अम्बेडकरवाद की सारी प्रेरणा बुद्धिज़्म से है। बुद्धिज़्म का जो बेसिक कान्सेप्ट या सिद्धांत है और जिसने बाबा साहब को सबसे अधिक प्रभावित किया है वह है स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व। उनका जो आत्मानुभव था उसमें समानता कि कमी थी और लोग नफरत कर रहे थे। उन्हें इन चीजों की जरूरत हुई। बाबा साहब ने बुद्धिस्ट सिद्धांतों और बुद्ध को इसका क्रेडिट दिया। लोग इसे समझते थे कि यह फ्रांसीसी क्रांति से आया लेकिन यह बुद्धिज़्म से आया। अब जो टक्कर है वह सीधे-सीधे वर्णवादियों और अम्बेडकरवादियों के मध्य है। जो हिन्दू माइंड है, उसकी वजह, नफरत फैलाने वाले साधन है। इनमें वे पूरी तरह से छाए हैं। उसका आधार इनके धर्मशास्त्र हैं। इसका सीधा मुकाबला वैज्ञानिक सोच से होगा। वैज्ञानिक सोच से ही अंधविश्वास का खात्मा होगा। वही अम्बेडकरवादी सोच है। पुरातन चातुर्वर्ण व्यवस्था, शास्त्रों की सरदारी वर्णवादी ही लाना चाहते हैं, जिससे समाज पर उनका नियंत्रण बना रहे। उसका इफेक्टिव तोड़ अम्बेडकरवाद है। अंबेडकरवाद अपने को पूर्णतः अंधविशास से दूर रखता है। काँग्रेस का मूल दर्शन कम्पोज़िट कल्चर, सेक्यूलरिज़्म आदि है। यह संविधान की प्रस्तावना में भी है। हालांकि सेक्यूलरिज़्म और सोशलिज़्म, साइन्टिफिक टेम्पर संविधान में लगभग दो दशक बाद में डाले गए फिर भी वह संविधान की मूल भावना ही है। कुल मिलाकर डिवाइडिंग लाइन और डिफ़ाइनिंग लाइन एक ही है।
एक तरफ पुरातन सिस्टम, चातुर्वर्ण्य और दूसरी तरफ वैज्ञानिक चिंतन, जिसे बाबा साहब ने अपने जीवन में उतारा। इसके बगैर कोई चारा नहीं। राजनीतिक स्तर पर काँग्रेस ने अपने को पुनर्जीवित करने की कोशिश की है लेकिन वह कोई वैचारिक परिवर्तन नहीं है, केवल राजनैतिक व्यवस्था है और मौके के हिसाब से है। वह तो चलेगा लेकिन अंततः आज आरएसएस का जोर है और सरकारी शक्ति पुरातनपंथी विचारधारा को बढ़ाने में लगी है। बाबा साहब ने जो सोचा था और जिस आधार पर उन्होंने संविधान बनाया वही हमारे लिए सबसे अधिक डिपेंडेबल साधन है, जिसकी वजह से हम अपने आपको ठीक रख सकते हैं।
आखिर में यह कहते है कि ‘अंधविश्वास’ को खत्म करने के लिए गहन अध्ययन करना होगा कि यह क्यों बढ़ रहा है। सोच बदलने की जरूरत है। समझने की जरूरत है। वैज्ञानिक सोच की जरूरत है। बुद्धिज़्म को या अम्बेडकरवाद को देखना अच्छा लगता है लेकिन इसे फॉलो करने के लिए हिम्मत चाहिए, मन में ताकत होनी चाहिए!’
[…] […]
[…] […]
[…] […]