जीवन में प्रश्नों की महत्वपूर्ण भूमिका है। बाजदफा तो लगता है कि प्रश्न और जीवन दोनों एक-दूसरे के पर्याय हैं। प्रश्नों को यदि प्राणवायु के जितना महत्वपूर्ण कहूं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। मेरे जीवन में प्रश्न उत्तर की तुलना में अधिक मायने रखते हैं। मैं प्रश्नों को सहेजता रहा हूं। जवाब तलाशने की बेचैनी बनी रहती है। मैं ऐसा क्यों हुआ, इसका कोई खास कारण याद नहीं आता है। लेकिन कुछेक घटनाएं हैं जिन्हें मैं अपने इस स्वभाव के लिए कारक मानता हूं।
एक घटना तो यह कि मेरे दादा रूचा गोप तब जिंदा थे और वहीं रहते थे जहां आज मेरा परिवार रहता है। दरअसल पटना में मेरे घर के दो हिस्से थे। एक को हम जनानी किता कहते थे और दूसरे को बथानी। बथानी की कहानी बड़ी रोचक है। तब बथानी में एक कमरा था और उसके आगे एक ओसारा। वह खपरैल का था। आकार ठीक-ठाक था। दादा अंदर कमरे में सोते थे। ओसारे में चारा काटने की मशीन थी और उसके आगे नांद बने थे। पापा बताते हैं कि पहले वे बैल भी रखते थे। चूंकि बहुत छोटे किसान थे, इसलिए एक बैल से काम चल जाता था। एक बैल पापा का और दूसरा बैल मेरे ही गांव के शीतल चाचा का। दोनों में समझौता था। इससे बैलों के उपर होने वाले खर्च को वे साझा करते थे।
बथानी में ही एक ताड़ का पेड़ था। वह पेड़ दादा ने लगाया था। एक बार पापा से पूछा कि क्या दादा ने यह ताड़ ताड़ी पीने के लिए लगाया था? जवाब में हंसते हुए पापा ने कहा कि ताड़ का संबंध केवल ताड़ी से नहीं है। ताड़ी तो इसका सिर्फ एक फल है। इसकी लकड़ी महत्वपूर्ण है। शहतीर के लिए इससे बेहतर कोई लकड़ी नहीं। उनके मुताबिक शहतीर के लिए उसका लचीला होना महत्वपूर्ण होता है।
[bs-quote quote=”तो क्या नियति ही राम है? यह सवाल तब से जेहन में बना रहा है। हालांकि अब मैं यह मानता हूं कि राम एक शब्द गढ़ा गया है नियति के लिए।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
खैर, दादा के साथ मेरी यादें बहुत अधिक नहीं हैं। मैं आठ-नौ साल का रहा होऊंगा जब उनका देहांत हुआ। अपने अंतिम दिनों में दादा ने बहुत दुख भोगा। महीनों तक वे लाचार रहे। यहां तक कि उठ भी नहीं पाते थे। मम्मी और पापा दोनों मिलकर उनकी सेवा करते। तब पापा दादा को जनानी किता में ही ले आए थे। घर के ओसारे में उनके लिए बिछावन था। इससे उनकी देख-रेख में मां को आसानी होती थी। मैं, भैया और पापा बगल के कमरे में साेते थे। मां ओसारे से सटे कमरे में। दादा की हल्की सी आवाज से भी मम्मी और पापा जाग जाते। ओसारे में रखने का एक लाभ यह भी था।
जब दादा का निधन 2 जनवरी, 1992 को हुआ तब पहली बार में बांसघाट गया था। मैं उनकी अंतिम यात्रा में शामिल था। लोग बार-बार उच्चारण कर रहे थे – राम नाम सत्य है। मैं अबोध भी यही बोल रहा था। मेरे लिए तो यह अलहदा अनुभव था। पटना शहर की ऊंची-ऊंची इमारतें और चौड़ी सड़कें मेरे सामने थीं। बांसघाट पर दादा के पार्थिव शरीर को आग के हवाले कर दिया गया तब अधिकांश लोग गंगा में नहाने चले गए। मैं पापा के पास बैठा था। पापा की आंखों में आंसू थे। मैं तब इसका मर्म नहीं समझ पा रहा था। मैंने उनसे पूछा – पापा, राम नाम सत्य है का मतलब क्या है?
मेरे सवाल पर पापा ने मुझे गोद में बिठा लिया और शायद इतना ही कहा कि यही नियति है। हर किसी को एक दिन ऐसे ही जाना है।
[bs-quote quote=”गोशाल ने नियतिवाद की व्याख्या की थी। मतलब यह कि जो होना है, वह होकर रहेगा। कोई रोक नहीं सकता। उन्होंने ऐसा कहते हुए ईश्वर की अवधारणा को खारिज किया, जिसके बारे में कहा जाता है कि बिना उसकी मर्जी के एक पत्ता भी नहीं डोलता। गोशाल की अवधारणा वैज्ञानिक चेतना पर आधारित थी, जिसे बुद्ध ने अपना आधार बनाया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
तो क्या नियति ही राम है? यह सवाल तब से जेहन में बना रहा है। हालांकि अब मैं यह मानता हूं कि राम एक शब्द गढ़ा गया है नियति के लिए।
कल रात यह शब्द मेरे संज्ञान में फिर आया। बिहार के रोहतास जिले के वरिष्ठ पत्रकार कुमार बिंदू जी ने मेरे सामने कुछ सवाल रखे। उन्होंने दूरभाष पर कहा – बुद्ध ने बिना दासत्व से मुक्त हुए संघ में प्रवेश पर रोक लगा दी थी। स्त्रियों का प्रवेश भी प्रतिबंधित था। आनंद के हस्तक्षेप से संघ में स्त्रियों की प्रवेश की अनुमति देते हुए संघ की अल्पायु होने की चिंता जाहिर करते हैं। राजा शिलालेख की व्यवस्था करता है। क्या बौद्ध धर्म या संघ से तत्कालीन समाज के शोषित-पीड़ित लोगों का जुड़ाव था?
जिस समय कुमार बिंदू जी ने मुझसे यह सवाल किया, तब मैं किसी दूसरे काम में व्यस्त था। इसलिए उनसे अनुरोध किया कि वे अपना सवाल मुझे व्हाट्सअप के जरिए भेज दें। उन्होंने मेरा अनुरोध मान लिया और सवाल भेज दिया। कल रात इस सवाल को देखा और मेरी जेहन में मक्खलि गोशाल की याद आयी। गोशाल ने नियतिवाद की व्याख्या की थी। मतलब यह कि जो होना है, वह होकर रहेगा। कोई रोक नहीं सकता। उन्होंने ऐसा कहते हुए ईश्वर की अवधारणा को खारिज किया, जिसके बारे में कहा जाता है कि बिना उसकी मर्जी के एक पत्ता भी नहीं डोलता। गोशाल की अवधारणा वैज्ञानिक चेतना पर आधारित थी, जिसे बुद्ध ने अपना आधार बनाया।
[bs-quote quote=”यह समझना जटिल नहीं है कि गोशाल क्यों महत्वपूर्ण नहीं हुए और बुद्ध क्यों महत्वपूर्ण हुए। राजा राजा का सम्मान करता है। फिर चाहे वह बिंबिसार हों या फिर प्रसेनजित, सबने बुद्ध को माना। वजह यह कि बुद्ध भी राजा थे। वे मक्खलि गोशाल की तरह श्रमिक नहीं थे। गोशाल तो एक कुम्हार के घर में रहकर मिट्टी के पात्र बनाया करते थे। आम जनों को वे कैसे लुभा सकते थे और क्यों कोई राजा उनके लिए विहार का निर्माण कराता?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
फिर बुद्ध में ऐसा क्या था जिसके कारण वह लोगों की जेहन में आज भी हैं और मक्खलि गोशाल हाशिए पर? इसी सवाल के जवाब में कुमार बिंदू के सवाल का जवाब भी है। देवीप्रसाद चटोपाध्याय ने इस संबंध में विस्तार से व्याख्या दी है। वे लिखते हैं – “गोसाल मात्र एक भाट या चरण कवि नहीं था। वह एक भविष्यद्रष्टा और दार्शनिक भी था। वह विश्व के सम्बन्ध में कोई दृष्टिकोण बनाना चाहता था, अर्थात वह संसार को समझना चाहता था, जिसमें वह रह रहा था। यही परिस्थितियां थीं जो गोसाल के लिए घातक बंधन बन रही थीं और यही अनुभव बुद्ध ने भी किया। जनजातियों का ह्रास होते जाना या नवोदित राजसत्ताओं की भीषण शक्ति के हाथों इनका विनाश होना ऐसे विकट सामाजिक परिवर्तन थे जिनका औचित्य उस युग के महानतम चिंतक की समझ से भी बाहर था। इसलिए बुद्ध समझ गए कि इन घटनाओं के कारणों के संबंध में कोई प्रश्न उठाने के बजाए लोगों के तप्त ह्रदय को शांति दिलाना अच्छा होगा। यथार्थ से जूझने की बजाए किसी समुचित भ्रम का आश्रय लेना होगा। यही बात हमें बुद्ध की सफलता और गोसाल की विफलता को समझने में सहायक होती है। बुद्ध अपने युग का सर्वाधिक सुसंगत व्यामोह उतपन्न करने के कार्य में लग गए। जबकि गोसाल यथार्थ से जूझने और ऐतिहासिक बंधनों को तोड़ने के प्रयास करते रहे। वह अपने युग के सबसे बड़े ऐतिहासिक परिवर्तन अर्थात जनजातीय व्यवस्था के पतन और राजसत्ता द्वारा प्रदत्त नए मूल्यों के उदय को समझना चाहते थे। और वह इस कार्य में विफल हो गए। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानों संसार का संचालन कोई बहुत बड़ी, प्रचंड, अथाह और अज्ञात शक्ति कर रही है जिसे हम नहीं जानते। यह शक्ति थी भाग्य। यही उनका नियति-दर्शन था।”
मेरा मानना है कि धर्म को राजा की आवश्यकता होती है। इसका दूसरा पक्ष यह भी कि हर राजा को एक धर्म की आवश्यकता होती है। बुद्ध के साथ भी यही हुआ। बुद्ध राजा थे, इसलिए उनकी बातों को सबने सुना। मक्खलि गोशाल राजा नहीं थे। वह घुमंतू रहे। मेरे हिसाब से चरवाहा रहे होंगे। ऐसा मैं उनके नाम के आधार पर कह रहा हूं। हालांकि भगवती-सूत्र के अनुसार मक्खलि गोशाल के पिता मंखलि ने अपनी गर्भवती पत्नी भद्दा को गोबहुल नामक एक पशुपालक के यहां उसके गोशाले में रख छोड़ा था। इसी गोशाले में मक्खलि गोशाल का जन्म हुआ। मक्खलि गोशाल के बारे में प्रेमकुमार मणि अपने एक आलेख में बुद्धघोष का उद्धरण देते हैं जो कि सामञ्जफल सुत्त के व्याख्याकार हैं। उनके अनुसार “मक्खलि का जन्म एक दास परिवार में हुआ था, जो किसी तेल व्यापारी का तेल ढोया करता था। एक रोज असावधानी से मक्खलि ने तेल भरा मटका गिरा दिया। इससे क्रुद्ध हो उसके मालिक ने उसे पकड़ना चाहा और शायद दण्ड पाने के भय से मक्खलि ने भागना चाहा। मक्खलि का वस्त्र उसके मालिक की पकड़ में आ गया और उसके खिंच जाने से वह नंगा हो गया। अब इसी नग्न अवस्था में उसे भागना पड़ा। बुद्धघोष के अनुसार इसी के बाद वह दिगम्बर साधु हो गया।”
अब यह समझना जटिल नहीं है कि गोशाल क्यों महत्वपूर्ण नहीं हुए और बुद्ध क्यों महत्वपूर्ण हुए। राजा राजा का सम्मान करता है। फिर चाहे वह बिंबिसार हों या फिर प्रसेनजित, सबने बुद्ध को माना। वजह यह कि बुद्ध भी राजा थे। वे मक्खलि गोशाल की तरह श्रमिक नहीं थे। गोशाल तो एक कुम्हार के घर में रहकर मिट्टी के पात्र बनाया करते थे। आम जनों को वे कैसे लुभा सकते थे और क्यों कोई राजा उनके लिए विहार का निर्माण कराता?
दरअसल, मैं यह मानता हूं कि बुद्ध के पास जो कुछ था वह उनके पूर्व के आजीवकों का था। बुद्ध के साथ महत्वपूर्ण केवल इतना ही था कि वे एक राजा कुल में जन्मे थे। रही बात स्त्रियों के संघ मे प्रवेश की या फिर शोषितों-पीड़ितों के बौद्ध धर्मावलंबी होने की तो मुझे लगता है कि बुद्ध का संघ कोई अलहदा संघ नहीं था। मुझे उसे राजाओं का संघ मानना चाहिए, जो वाकई में बहुत भव्य था। इसकी भव्यता का आकलन राजगीर, सांची और सारनाथ के स्तूपों के आधार पर किया जाना चाहिए।
सचमुच मुझे कोई आश्चर्य नहीं है कि अशोक जैसे हिंसक राजा ने बुद्ध से जुड़े द्वार और स्तंभ बनवाए। अशोक के लिए बुद्ध से बेहतर कोई था भी नहीं।
कुमार बिंदू जी के कुछेक प्रश्न शेष रख रहा हूं। वजह यह कि ये वाकई में मेरे लिए भी प्रश्न हैं, जिनके उत्तर मुझे तलाशने हैं।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं